गुरुवार, 7 नवंबर 2013

विकृतिकरण है भारतीय गोवंश का संकरीकरण

हम 1947 में राजनीतिक रूप से स्वतंत्र हो गए। लेकिन लगभग 1000 वर्षों की गुलामी का प्रभाव तो आनेवाले कई वर्षों तक रहनेवाला था। हमारे वर्तमान सत्ताधीशों की नीतियों में इसके स्पष्ट दर्शन होते हैं।

गोवंश संबंधी उनकी सोच इसका सबसे बड़ा प्रमाण है। उनका मानना है कि दूध गाय का प्रमुख उत्पाद है और दूध न देनेवाली गाय नकारा या अनुत्पादन अर्थात खाली/सूखी है। 2-4 से 10 लीटर तक दूध देने वाली भारतीय गौएं कमजोर नस्ल की हैं जबकि जर्सी, होलस्टीन, फ्रीजियन आदि उत्तम नस्ल की हैं क्योंकि ये 35-40 लीटर दूध प्रतिदिन देती हैं। ऐसी धारणा बनाते समय हमारे नीति निर्धारकों ने इस तथ्य को बिल्कुल नजरंदाज कर दिया कि विभिन्न नस्लों की भारतीय गौएं जो कई पीढ़ीयों से कुपोषण या कम खान-पान की शिकार थीं, उनका आहार संतुलित करके दूध बढ़ाया जा सकता है। उन्होंने इस बात को भी नजरंदाज किया कि सभी विपरीत परिस्थितियों के बावजूद गीर, अंगोल, साहीवाल जैसी भारतीय नस्ल की कई गौएं आज भी 15 लीटर से 40 लीटर तक दूध देने में सक्षम हैं। 

जिस सोच के तहत भारतीय गायों को घटिया नस्ल का बताया गया उसी सोच के अनुसार भारतीय कृषि की प्राचीन परंपराओं को भी पिछड़ा हुआ और अवैज्ञानिक घोषित कर दिया गया। चारों ओर हरित क्रांति का वातावरण बनाया गया जिसमें कृषि उत्पादन बढ़ाने के लिए रासायनिक खाद एवं कीटनाशकों का खेतों में भरपूर उपयोग किया गया। इस पूरी प्रक्रिया में वेद-पुराणों एवं अन्य शाश्वत ग्रंथों में वर्णित ‘गोमय वसते लक्ष्मी’ का ब्रह्मवाक्य भुला दिया गया। 

हम यह भूल गए हैं कि गोबर और गोमूत्र वास्तव में गोवंश का स्थाई उत्पाद है क्योंकि यह जीवन भर प्राप्त होता है। दूध तो गाय से निश्चित अवधि तक ही प्राप्त होता है। उसे गाय का एकमात्र उपयोगी उत्पाद मानना हमारी खंडित सोच का नतीजा है। दूध को इस प्रकार एकतरफा अनावश्यक महव देने के कारण ही संकरीकरण की शुरुआत हुई। 

आधुनिक विज्ञान भी पूर्णत: मानता है कि संकरीकरण के पश्चात मूल गुणधर्म नष्ट हो जाते हैं एवं कालांतर में दूसरी तीसरी पीढ़ी तक संकर के गुणधर्म भी नष्ट होते चले जाते हैं। इस संदर्भ में निम्न बिंदु विचारणीय हैं : 

1. प्रयोगशाला में अप्राकृतिक रूप से कुछ बातें सिद्ध करने एवं प्रत्यक्ष धरातल पर व्यवहार में लाखों करोड़ों लोगों के बीच उसे साबित करने में बहुत अंतर होता है। संकर नस्लों में 20-25 से 50 प्रतिशत तक अंश रखा जाएगा ऐसा सोचा गया जो कहीं भी स्थापित नहीं हो पाया। संकर नस्ल की गायों में दूध 40 लीटर से ज्यादा मिलेगा, ऐसा मानना था किंतु औसत संकरित नस्ल में 5-7 लीटर प्रतिदिन से अधिक दूध नहीं मिलता। 

2. विदेशी नस्लें 0-10 डिग्री सेटींग्रेड तापमान वाले प्रदेशों में विकसित हुई हैं। हमारे यहां के 0-40 सेंटीग्रेड के बदलते हुए तापमान को सहने की आदत इनमें नहीं है। 

3. इंग्लैंड, अमेरिका व अन्य यूरोपीय देशों में पिछले 60-70 वर्षों से मांसाहार गोवंश व अन्य प्राणियों को बड़ी मात्रा में खिलाया जा रहा है। जिसमें मैड काउ (मस्तिष्क का विघटन) रोग गोवंश में व बाद में मनुष्य तक पहुंचता है। अमेरिका व दूसरे देशों में बी.जी.एच. (बोवाईन ग्रोथ हार्मोन) नामक इंजेक्शन मोन्सैन्टो व कुछ अन्य तीन-चार बहुराष्ट्रीय कंपनियां 1989 से बना रही है। ऐसी गायों के दूध से कैंसर बढ़ता है, यह सिद्ध हो चुका है। 

4. भारत सरकार द्वारा गठित 15वें राष्ट्रीय गोवंश आयोग के सदस्य के नाते मुझे 2000 से ज्यादा पशु वैज्ञानिकों, चिकित्सा विशेषज्ञों एवं पशुपालन अधिकारियों से मिलने का मौका मिला है। हमने 19-20 प्रांतों में सघन दौरा करके महत्वपूर्ण जानकारियां एकत्रित कीं। हमने स्पष्ट रूप से देखा कि संकरीकरण के पीछे हम इतने पागल हो चुके हैं कि सभी प्रकार की सावधानी को हमने ताक पर रख दिया है। हमने देखा कि कहीं भी विदेशी सांड़ो के वीर्य, बी.जी.एच. के प्रभाव, ऐंटिबायोटिक के प्रभाव, दूध-गोबर-गोमूत्र के सूक्ष्म तत्वों की जांच नहीं की जा रही है। इसी कारण से हमारे यहां पिछले 60 वर्षों में बूसोलिसीस, थलियोरीसिन रिंडरपेस्ट व अन्य संक्रामक रोग बड़ी तेजी से फैल रहे हैं। स्वतंत्रता पूर्व इन रोगों का भारत में नामोनिशान भी नहीं था। 

5. भारतीय नस्ल की गायों में बीमारी कम होती है। थनैला रोग, परजीवी रोग, हरपीज विषाणु रोग होने की आवृत्ति इन गायों में कम (21.4 प्रतिशत) पाई गई है। इनमें चिचिड़िया का प्रकोप 13.0 प्रतिशत और थिलैरिया रोग की आवृत्ति 2.25 प्रतिशत ही पाई गई है। ग्रामीण क्षेत्रों में इनके जीने की दर (सरवाइवल रेट) 80-90 प्रतिशत तक पाई गई है। इसके विपरीत संकर नस्ल की गायों में थनैला, परजीवी तथा हरपीज विषाणु रोग का भयंकर प्रकोप (72.7 प्रतिशत) होता है। इन गायों में चिचड़ियां अधिक (17.0 प्रतिशत) लगती हैं तथा थिलैरिया संक्रमण भी 8-12 प्रतिशत पाया गया है। ग्रामीण क्षेत्रों में इनके जीने की दर 40-50 प्रतिशत ही है। 

6. भारतीय गाय एवं बैलों के कंधे पर टाट, कुकुद (hump) होता है। बैलों/सांड़ों में यह विशेष रूप से बड़ा होता है। खेती-बाड़ी एवं भार ढोने के लिए यह बहुत उपयोगी तथा आवश्यक है। विदेशी मूल के गोवंश की कंधे सीधी होती है व उनमें टाट नहीं होती है। इस कारण से इनके बैल खेती-बाड़ी व भारवाहन के लिए विशेष उपयोगी नहीं हैं। चुस्ती-फुर्ती एवं ताकत की दृष्टि से भी भारतीय नस्ल के बैल संकर प्रजाति के बैलों से अधिक सक्षम पाए गए हैं। 

7. भारतीय गोवंश में गर्दन के नीचे गलकम्बल (dewlap) अत्याधिक विकसित होता है। इससे उनमें गर्मी सहने की क्षमता अधिक होती है। विदेशी गोवंश में गलकम्बल इतना विकसित नहीं होता है, जिससे उनमें गर्मी सहने की क्षमता कम होती है। 

8. देशी गाय पालने का औसत खर्च रू. 4517.73 प्रति गाय आता है। प्राय: ये गायें चारागाह में चरकर ही अपना पेट भर लेती हैं। थोड़ा दाना व चारा खाकर ये दूध देती रहती हैं। रहने के लिए किसी विशेष आवास की आवश्यकता नहीं पड़ती। विपरीत मौसम में भी इनकी दूध देने की क्षमता में 5 से 10 प्रतिशत की ही कमी होती है। इसके विपरीत विदेशी मूल की गायों का रखरखाव खर्चीला होता है। इनके आवास और आहार की विशेष व्यवस्था करनी पड़ती है। विपरीत परिस्थितियों में इनका दूध उत्पादन 70 से 80 प्रतिशत कम हो जाता है। ऐसी गायों के रखरखाव की लागत औसतन रू. 7437.56 प्रति गाय है। 

9. देशी नस्लों का दूध अधिक पौष्टिक होता है। वैज्ञानिक रूप से वसा, प्रोटीन आदि में तो खास अंतर नहीं दिखता। किंतु कुछ सूक्ष्म तत्व यथा साइटोकाइन्स, लवण, इन्टरफैरान आदि तत्व देशी गाय के दूध मे अधिक होते हैं जिनके कारण इनका सेवन करने से शरीर की रोगप्रतिरोधक क्षमता मजबूत होती है। इसके विपरीत अप्राकृतिक रूप से अधिक मात्रा में दूध देने के कारण विदेशी नस्लों का दूध प्राय: पतला व देशी गाय के दूध की अपेक्षा कम पौष्टिक होता है। 

10. देशी गाय के पंचगव्य अर्थात दूध, दही, घी, गोबर, गोमूत्र से विभिन्न प्रकार की औषधियां निर्मित की जाती हैं जो मानव स्वास्थ्य के लिए अत्यंत उपयोगी सिद्ध हुई हैं। विदेशी गायों के उत्पादों में इस प्रकार के गुणों का वर्णन कहीं नहीं मिलता है।


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