गुरुवार, 29 दिसंबर 2016

गौ माता की दु:खद कहानी

गौ माता की दु:खद कहानी


यह कहावत प्रचलित थी कि पहले भारत में घी-दूध की नदियां बहती थीं। यानि भारत देश में इतना गोधन था कि प्रत्येक व्यक्ति को पीने को पर्याप्त मात्रा में शुद्घ दूध एवं खाने को शुद्घ घी मिल जाता था। हर घर में एक या अधिक गाय बंधी होती थीं। न आज जैसी बीमारियां थी न व्यक्ति साधारणतया बीमार होता था। गौधन की बहुतायत के कारण जैविक खेती होती थी। इन तमाम कारणों से पर्यावरण भी शुद्घ था।
परंतु धीरे-धीरे व्यक्ति स्वर्थी एवं लालची होता गया। गाय को घर से बाहर निकाला जाने लगा एवं उसकी हत्या होने लगी। तेजी से गो-पशुओं की संख्या घटने लगी। स्थिति विषम होती गयी। दूध एवं घी की पूर्ति के लिए इसमें मिलावट की जाने लगी। जैविक कृषि की जगह रासायनिक खाद का प्रयोग किया जाने लगा। जिसका परिणाम हम देख रहे हैं, कैंशर जैसी भयानक बीमारियां तेजी से बढ़ रही हैं एवं हजारों व्यक्ति प्रतिदिन कैंसर जैसी बीमारियों से असमय ही मौत का शिकार हो रहे हैं। प्रत्येक दस व्यक्तियों में 7-8 प्रतिशत किसी न किसी बीमारी से पीडि़त हैं। भारत में गाय को माता का दर्जा दिया गया है। उसमें सैकड़ों देवी देवता निवास करते हैं, उसे पूजा जाता था। परंतु वही व्यक्ति कितना निर्दयी हो गया है कि उसी गौमाता को घर से निकाल कर उसे मरने को मजबूर किया जा रहा है।
जब तक गाय दूध देती है उसे स्वार्थवश पूरा एवं अच्छा आहार दिया जाता है, उसकी सेवा की जाती है।
जैसे ही वही गाय दूध देना बंद कर देती है तो उसे आवारा छोडक़र भटकने के लिए मजबूर किया जाता है। उसकी खोज खबर तक नही ली जाती है। बेचारी मूक वह गाय आंसू बहाती हुई दर-दर भटकती रहती है एवं लोगों के पत्थर एवं लाठियां खाती है। आज तो स्थिति यह हो रही है कि गर्भवती गाय को भी छोड़ दिया जाता है तथा वह भटकती रहती है।
जब वह गाय मालिक के घर से कहीं दूर बिहाय जाती है तथा उसके मालिक को उसके बिहाने का पता लगता है तो वह भागा-भागा हुआ जाता है एवं अपना अधिकार जताते हुए उस गाय बछड़े को घर लाता है। आज यह स्थिति प्रत्येक शहर ही नही अब तो गांवों में भी देखी जा सकती है। हर गांव गली में गाय तड़पते हुए मरती देखी जा सकती है।
एक आवारा बेचारी भूखी गाय अपनी भूख शांत करने के लिए शहर गांव के कूड़े पर आकर वहां बिखरा हुआ कचरा, यहां तक पड़ी हुई प्लास्टिक की पन्नी भी खा जातीी है जो उसकी आंतों को चीरकर तड़पते हुए मरने को मजबूर करता है।
एक गाय व्यक्ति को दूध दही घी तो देती ही है। इसके अलावा उसका गोबर एवं मूत्र संपूर्ण मानव जाति के लिए बड़ा उपयोगी है जो शुद्घ शाद एवं विभिन्न प्रकार की दवाईयां बनाने के काम आता है। गाय जीते जी तो यह सब देती है परंतु मरने के बाद उसकी खाल एवं हड्डियां भिन्न-भिन्न कार्यों में काम आती हैं। इस प्रकार गौमाता जिंदा रहते हुए तो मनुष्य का पालन करती ही है, मरने के बाद भी वह बहुत कुछ मनुष्य को देती है। परंतु स्वार्थी मनुष्य इसी गौमाता को अपने घर से निकालकर उसे आवारा भटकने एवं तड़पते हुए मरने के लिए मजबूर कर रहा है।
पिछले 7-8 माह में मेरे निवास के पास की गलियों से मुझे कई बार सूचनाएं मिलीं कि अमुक गली में एक गाय को मालिक के घर से बहुत दूर बिहाए को घंटों हो चुके हैं परंतु उसका कोई धणी धोरी नही है। जैसे ही हमारे द्वारा उस बिहाई गाय बछड़े को गौशाला ले जाने की व्यवस्था की जाती है तो मालिक दौड़ा-दौड़ा आता है तथा गाय पर अपना अधिकार जताते हुए गाय बछड़े को घर ले जाता है जबकि वह गाय कई दिनों से लावारिस घूम रही थी। परंतु ऐसी ही दूसरी गाय गोदूध नही देती वह गाय मालिक के घर से बहुत दूर कई दिनों से तड़प रही होती है। तथा ऐसी गाय को गौशाला लाया जाता है तो उस गाय का कोई मालिक बनकर नही आता, वहन् गाय उस गौशाला की होकर रह जाती है। क्यों हो रहा है गौमाता के साथ यह अत्याचार। क्या गौमाता अपने मालिक को श्राप नही देगी। ऐसा व्यक्ति कभी सुखी नही रह सकता। मेरे पास व्यक्ति मिलने आते हैं तथा कई व्यक्तियों के फोन भी आते रहते हैं कहते हैं कि अब गाय ने दूध देना बंद कर दियाा है।
उसका खर्चा भारी हो रहा है, वह बोझ हो गयी है। उसे गौशाला में रखा जावे। मैंने ऐसे व्यक्तियों से यह प्रार्थना की कि, आप इतनी उस गाय के लिए केवल एक चारे की गाड़ी की व्यवस्था कर देवें उसके बाद उस गाय की शेष जीवन की व्यवस्था गौशाला करेगी। इसके बाद तो ऐसे व्यक्तियों का कोई प्रत्युत्तर नही आता है। क्या गौमाता आज हमारे लिए बोझ बन गयी है, जिस गाय ने उक्त परिवार का माता की तरह पालन पोषण किया है। ऐसी गायें कत्लखाने को भेजी जाती हैं।
जेठमल जैन एडवोकेट

गौ की उत्पत्ति और उसका सर्वोपरि महत्व

गौ की अपार महिमा और दैवी गुणों से हिन्दू शास्त्रों के पृष्ठ भरे पड़े हैं। पुराणों में गौ के प्रभाव और उसकी श्रेष्ठता की ऐसी अनगिनत कथाएँ मिलती हैं जिन से विदित होता है कि हमारे पूर्वज गौ के महान भक्त थे और उसकी रक्षा करना अपना बहुत बड़ा धर्म समझते थे। गौ-रक्षा में प्राण अर्पण कर देना हिन्दू बड़े पुण्य की बात समझते थे और उसका पालन करना बड़े सौभाग्य की बात मानी जाती थी। गौ का महत्व यहाँ तक समझा जाता था कि उसके शरीर में उन 33 करोड़ देवताओं का निवास बतलाया गया और उसकी उत्पत्ति अमृत,लक्ष्मी आदि चौदह रत्नों के अंतर्गत मानी गई । यद्यपि ये कथायें एक प्रकार की रूपक हैं पर उनके भीतर बड़े-बड़े आध्यात्मिक तथा कल्याणकारी तत्त्व भरे हैं।

गौ की उत्पत्ति की पुराणों में कई प्रकार की कथायें मिलती हैं। पहली तो यह है कि जब ब्रह्मा एक मुख से अमृत पी रहे थे तो उनके दूसरे मुख से कुछ फेन निकल गया और उसी से आदि-गाय सुरभि की उत्पत्ति हुई। दूसरी कथा में कहा गया है कि दक्ष प्रजापति की साठ लड़कियाँ थीं उन्हीं में से एक सुरभि भी थी। तीसरे स्थान पर यह बतलाया गया है कि सुरभि अर्थात् स्वर्गीय गाय की उत्पत्ति समुद्र मंथन के समय चौदह रत्नों के साथ ही हुई थी। सुरभि से सुनहरे रंग की कपिला गाय उत्पन्न हुई। जिसके दूध से क्षीर सागर बना।
प्राचीन काल से आर्य-जाति गौ की बहुत अधिक महिमा मानती आई है। ऋग्वेद तथा अन्य वेदों में भी गौ के गुणानुवाद के सैकड़ों मंत्र भरे पड़े हैं। गीता में श्रीकृष्ण भगवान ने भी कहा है कि ‘गौओं में कामधेनु मैं हूँ।” गाय के शरीर में सभी देवता निवास करते हैं। शास्त्रों में कहा गया है कि धन की देवी लक्ष्मी जी पहले गाय के रूप में आयी और उन्हीं के गोबर से विल्व वृक्ष की उत्पत्ति हुई।
कपिल मुनि के शाप से जले हुये अपने साठ हजार पूर्वजों की राख का पता जब राजा रघु नहीं लगा सके तब वे गुरु वशिष्ठ जी के पास आये। गुरुजी ने दया करके उनकी आँखों में नन्दिनी गाय का मूत्र आँज दिया, जिससे रघु को दिव्य दृष्टि प्राप्त हो गई और वे पृथ्वी में दबी हुई अपने पुरखों की राख का पता लगाने में समर्थ हो सके।
गंगाजी को पहले पहल जब संसार (मृत्यु लोक) में आने को कहा तो वे बहुत दुखी हुई और आना कानी करने लगीं। उन्होंने कहा कि “पृथ्वी पर पापी लोग मुझ में स्नानादि करके अपवित्र किया करेंगे, इसलिये मैं मृत्युलोक में न जाऊँगी। तब पितामह ब्रह्माजी ने समझाया कि “लोग तुमको कितना भी अपवित्र करें किन्तु फिर भी गौ का पैर लगने से तुम पवित्र होती रहोगी।” इससे भी गौ और गंगा के हिन्दू धर्म से विशेष सम्बन्ध होने पर प्रकाश पड़ता है।
रामचन्द्र जी पूर्वज महाराज दलीप की गौ-सेवा का उदाहरण बड़ा महत्वपूर्ण है। उन्होंने एक दिन मार्ग में जाती हुई नन्दिनी को देखकर प्रणाम नहीं किया, इस पर उसके महाराज को पुत्रहीन होने का शाप दे दिया। इससे दुखी होकर वे गुरु वशिष्ठ के पास गये और शाप से मुक्ति पाने के लिए बड़ी विनय करने लगे। वशिष्ठ जी ने नन्दिनी गाय उनको दे दी और उसका भली प्रकार से पूजन और सेवा करने को कहा। उनके आदेशानुसार राजा और रानी दोनों मिलकर उसकी सेवा करने लगे। राजा गाय को वन में चराने ले जाते। वे नन्दिनी के चलने पर चलते थे, उसके बैठने पर बैठ जाते थे। एक दिन राजा का ध्यान जरा देर के लिए वन के दृश्य की तरफ चला गया कि नन्दिनी बड़े जोर से चिल्लाई। राजा ने देखा कि एक सिंह गाय को दबोच कर खाना चाहती है। उन्होंने तुरन्त अपना धनुष उठाकर तीर चलाना चाहा, पर दैवी मायावश तीर छूट न सका। तब राजा ने विवश होकर नन्दिनी गाय के बदले अपना शरीर सिंह को देने के लिये चुपचाप उसके सामने पड़ गये। पर जब कुछ देर तक पड़े रहने पर भी सिंह ने उनको नहीं खाया तो उन्होंने मस्तक उठाकर देखा। उस समय वह माया रूपी सिंह गायब हो चुका था और केवल नन्दिनी खड़ी प्रसन्न हो रही थी। राजा की इस अनुपम भक्ति से वह संतुष्ट हो गई और उसने राजा को पुत्र होने का वरदान दे दिया।
प्रसिद्ध देशभक्त महादेव गोविन्द रानाडे के जन्म के सम्बन्ध में भी ऐसी ही बात सुनने में आई है। उनके माता पिता के कोई पुत्र न था और वे वृद्ध हो चले थे। एक दिन कोई संत उनके दरवाजे पर भिक्षार्थ आ गए। दंपत्ति ने उनकी बड़ी सेवा की । साधु ने उन्हें उदास देखकर कारण पूछा और निस्सन्तान होने की बात सुनकर कहा-तुम एक दूध देने वाली सवत्सा काली गाय रखो। उसको साबुत गेहूँ खिलाओ, जो गोबर के साथ निकल आवें। उन्हीं दानों को धोकर, साफ करके आटा तैयार करो। ब्रह्मचर्यपूर्वक रहकर उसी की रोटी खाओ। छह मास तक ऐसा करने से तुम्हारी मनोकामना पूर्ण हो सकेगी। दंपत्ति ने वैसा ही किया और फलस्वरूप उनको पुत्ररत्न प्राप्त हुआ काली गाय से पुत्र प्राप्त होने की बात भारतवर्ष में सर्वत्र प्रसिद्ध है।
गणेश जी के जन्म समय की एक मनोहर कथा इस प्रकार है कि गणेशजी जब उत्पन्न हुये उसी समय महादेव जी ने भूल से उनका मस्तक काट दिया। इससे पार्वती जी बहुत अधिक रोने लगी। गणेश जी को ठीक करने को देवताओं के वैद्य अश्विनी कुमार बुलाये गये और उनको मुँह माँगा वरदान देने को कहा गया। इस पर उन्होंने किसी हाथी का मस्तक जोड़ कर गणेशजी को जीवित कर दिया और वरदान में स्वयं महादेवजी को ही माँगा। इस पर बड़ी समस्या उपस्थित हो गई और निपटारा करने को देवताओं की पंचायत की गई। उसमें महादेवजी का मूल्य एक गाय रक्खा गया और वही अश्विनी कुमार को देकर संतुष्ट किया।
भगवान कृष्ण का गौ-पालन और गौ-भक्ति तो प्रसिद्ध ही है जिससे उनका नाम ही गोपाल पड़ गया। वे स्वयं गायों को चराते थे, उनकी सब प्रकार से सेवा सुश्रूषा करते थे, जो गायों को कष्ट पहुँचाता था उसे दण्ड देते थे। गायों की रक्षा को ही उन्होंने गोवर्धन धारण किया और इन्द्र का मान मिटा दिया। भागवत में बतलाया है कि जब गोपियों के साथ रास करते हुये वे अत्यन्त शान्त हो गये तो अपने बाँये अंग से उन्होंने गौ उत्पन्न की जिससे दूध का एक कुण्ड बन गया और सब किसी ने उसी दूध को पीकर अपनी कान्ति दूर की। कृष्णजी के सम्बन्ध में ऐसी कथाएँ भरी पड़ी हैं। यह कहने में कोई अत्यन्ति नहीं कि भगवान कृष्ण को गौ-पालन से ही अपूर्व शक्ति प्राप्त हुई थी जिसके प्रभाव से उन्होंने संसार का उद्धार करने वाली गीता का ज्ञान प्रकट किया।
च्यवन ऋषि के विषय में भी एक बड़ी रोचक कथा है कि एक बार वे गंगाजी के गर्भ में तपस्या कर रहे थे। वहीं पर कुछ मछुए मछली मारने आये तो जाल में मछली के बदले मुनिजी ही फँस कर चले आये। मछुए उनको राजा के दरबार में बेचने के लिये ले गये। राजा ने उनके बदले में एक थैली सोने की मोहरें मछुओं को देना चाहा, परन्तु मुनि जी ने कहा कि हमारा मोल इतना कम नहीं हो सकता । राजा ने और भी बहुत सा सोना और अन्त में अपना समस्त राज्य मुनिजी के बदले में देना चाहा, पर उन्होंने उसे कम ही बतलाया। तब राजा ने विनयपूर्वक पूछा ‘महाराज, आप ही बतलायें कि आपका मूल्य क्या होगा?” च्यवन ऋषि बोले कि हमारा मूल्य एक गाय है। आप एक गाय दे दीजिये, बस यही हमारा वास्तविक मूल्य है।” इस पर मछुओं को एक गाय दे दी गई। इससे प्रकट होता है कि उस युग में गाय का मूल्य राज्य से भी अधिक समझ जाता था।
राजस्थान के क्षत्रियों में प्रमुख सिसोदिया वंश के संस्थापक बघा रावल बचपन में गायें चराया करते थे। एक दिन की बात है कि एक गाय ने गोष्ठ (गौशाला) में आकर दूध नहीं दिया। मालकिन ने यह शंका करके कि बघा ने गाय को दुहकर सब दूध पी लिया है, उसे खूब पीटा। निरपराध बघा को इससे मर्यान्तक पीड़ा हुई। दूसरे दिन भी वह गाय चराने गया और इस बात की खूब निगरानी रखने लगा कि गाय के दूध को कौन पीता है। संध्या के समय जब गायें घर की ओर चलीं तो उसने देखा कि एक गाय झुण्ड से अलग होकर एक लिंग-महादेव पर दूध ढाल रही है। अब तो बघा को चोर का पता लग गया और वह लाठी लेकर महादेव को पीटने लगा। भोले बाबा उसकी सरलता और सच्चाई को देखकर प्रसन्न हुये और उन्होंने बघा को वरदान दिया । इससे आगे चलकर वे बड़े प्रतापशाली नरेश बने और उन्होंने महान सिसोदिया वंश की स्थापना की। इसी वंश में राणा साँगा और महाराणा प्रताप जैसे देशभक्त, उत्पन्न हुये जिनका नाम और यश आज भी लोगों को प्रेरणा दे रहा है।
इसी प्रकार भारतवर्ष में सदा से बड़े-बड़े व्यक्ति गौ की सेवा में संलग्न रहे हैं और इसके प्रभाव से उनको यश, मान, धन आदि समस्त साँसारिक सफलतायें प्राप्त हुई हैं। वास्तव में गौ भारतवर्ष के सामाजिक और धार्मिक जीवन की एक स्तम्भ के समान है और उसे सदैव सुदृढ़ बनाये रखना हमारा परम कर्त्तव्य है।
(श्री धर्मेन्द्रनाथ, ढकियारघा)

गौ माता का अपने गौरक्षक पुत्रों के नाम खुला पत्र

गौ माता का अपने गौरक्षक पुत्रों के नाम खुला पत्र


मेरे प्यारे पुत्रों,
मैं आप सब के नाम एक खुला खत लिख रही हूँ। चौंक गए? चौंकने की कोई जरूरत नहीं है। आज जब मैं राष्ट्रीय विमर्श का केंद्र-बिंदु बन चुकी हूँ तो सोचा वो वक़्त आन पहुंचा है जब मैं भी अपने मन की बात कर लूँ।
आप सब को तो पता ही है कि मैं घास-भूसा खाती रही हूँ, गोबर करती हूँ, उस गोबर से उपले थापे जाते हैं, उपलों से किसी गरीब का चूल्हा जलता है, उसपे दो वक़्त की रोटी बनती है और उनका पेट भरता है। पर आप सब ये जानकर फूले नहीं समायेंगे कि आजकल मैं भ्रष्टाचार, बलात्कार, सुखाड़, कमरतोड़ महंगाई, रुपये में गिरावट, किसानों की आत्महत्या जैसे महत्वपूर्ण मुद्दे खाती हूँ। और तो और गोबर करने के लिए मैंने कुछ बुद्धि के विंध्याचल चिन्हित कर रखे हैं। वे अपने श्रीमुख से लगभग नित्य प्रति नियम से गोबर करते हैं, और फिर उस गोबर को लोगों के दिमाग में ठूंसा जाता है। उससे राजनीतिक कुनबे का चूल्हा जलता है, उसपे राजनीतिक रोटियां सेंकी जाती हैं और उससे उनका वोट वाला बैंक भरता है।
आपको ये जानकर हैरानी होगी कि मेरी पूँछ में इतनी शक्ति है कि कोई पार्टी अथवा नेता उसे पकड़ ले तो मैं उसकी चुनावी वैतरणी भी पार लगाने का माद्दा रखती हूँ। गौमूत्र तो अब इतना पवित्र हो गया है कि फिनाइल की जगह इसे छिड़का जा रहा है। वो दिन दूर नहीं जब गंगा में भी चंद बूँद गौमूत्र डालने से ही इसकी सफाई हो जायेगी। स्विस बैंकों में पड़े काला धन पर गौमूत्र छिड़क देने से ही ये सफेद हो जाएगा और काला धन धारकों को दो घूँट गौमूत्र पिला देने से उनका हृदय-परिवर्तन हो जाएगा। वो घड़ी लगभग आ ही गयी है जब नासा वाले मंगल समेत तमाम ग्रहों पर पानी और जीवन की जगह गौ और गौमूत्र तलाशना आरंभ करेंगे।   आजकल बीफ कंपनियों के करोड़ों रुपये के चंदे से पार्टी चलाने वाले लोग गौ रक्षा के लिए प्रतिपल समर्पित रहते हैं।  ये बात जानकर मेरा तो इंसानियत पे भरोसा ही दुगुना हो गया। ये मेरे लिए गौरव का विषय ही है कि विश्व की सबसे बड़ी राजनीतिक पार्टी के लोग अब रामलला को रिमेम्बर करने की बजाय गौमाता का गरिमा-गायन कर रहे हैं।
मेरे लिए इससे ज्यादा संतोष की बात क्या हो सकती है कि मेरे मातृभक्त सपूत गौ-हत्या की अफवाह तक पर इंसान की जान लेने को उतारू हों। मुझे फक्र है कि कल तक लोग मेरे नाम पर सिर्फ चारा खाते आये थे, किन्तु अब मेरे नाम पे भाईचारा भी खा रहे हैं। कुल मिलाकर देखा जाए तो मेरे ‘अच्छे दिन’ चल रहे हैं। यूपी से यूएन और ऊना से हरियाणा तक हर ओर बस मेरे नाम का ही शोर है।
आपको बताऊँ कि समय के साथ हमारी बिरादरी भी मॉडर्न हो गयी है। भरोसा न हो तो जरा नज़रें घुमाकर देखो कि कैसे गौशालों से उठकर ट्रैफिक सिग्नलों और चारागाहों से ऊबकर म्युनिसिपेलिटी के कचरा घरों के पास अब यह चौपाया जानवर पाया जाता है। इसलिए वक़्त आ गया है कि आपलोग मेरी चिंता करने की बजाय रोजगार के अन्य अवसर तलाशें। मेरी आप सब से प्रार्थना है कि वैदिक काल के मकड़जाल में फंसकर धर्मधुरंधर शाकाल न बनें। जब मैं अपने गोबर से परमाणु बम तक को बेअसर करने की क्षमता रखती हूँ, तो फिर मेरी रक्षा के लिए आपलोग क्यों अपनी सींग घुसेड़ते रहते हो ? अरे जब मंगोल,अफगान, तुर्क, तातार, तुग़लक़, ग़ुलाम, लोदी, मुग़ल,अंग्रेज़ इत्यादि का सदियों लंबा अत्याचार मेरा वजूद नहीं मिटा पाया, तो ये सिकुलर सरकार पिंक रेवोल्यूशन को पीक पर पहुंचाकर या बीफ खाने वाले को मंत्री बनाकर मेरी बिरादरी का क्या बिगाड़ लेगी ?
मैं आप सब को भरोसा दिलाना चाहती हूँ कि उन मुट्ठी भर चिरकुटों की बीफ पार्टी वगैरह करने से मेरा नामोनिशान नहीं मिटने वाला। आप लोग निश्चिन्त रहें,  मेरे अस्तित्व पे कोई खतरा नहीं मंडरा रहा है। अतः मेरी रक्षा के लिए फोटोशॉप-विद्या तथा अफवाह-उद्योग का उपयोग न करने की कृपा करें। ऐसा नहीं है कि आप सब ये करते हैं तो मुझे अच्छा नहीं लगता है। बस आपकी परवाह करती हूँ। आखिर माँ हूँ न। ये नाशपीटे निकम्मे ठुल्ले खामखा मेरे प्राणों से प्रिय बेटे-बेटियों पर फर्जी एफआईआर ठोक देते हैं। फिर फ़ालतू का गोइंग टू जेल एंड चक्की पीसिंग एंड पीसिंग एंड ऑल ! अभी गुजरात में देखा न… गौरक्षा वालों ने दलितों की पीठ पर जरा बैटिंग प्रैक्टिस क्या की पूरी की पूरी क्रिकेट टीम को उठाकर जेल में डाल दिया।
आपकी इतनी ही श्रद्धा है तो #SelfieWithDaughter की तर्ज पर#SelfieWithMotherCow जैसे पॉजिटिव कैंपेन चलायें। वो क्या है न मुझे भी नेगेटिविटी से थोड़ी एलर्जी सी हो गयी है। वैसे भी जब इस तरह के अभियान से बेटी बचायी जा सकती है तो मैं क्यों नहीं ? इसलिए आपसे गुज़ारिश है कि अब से हर इतवार अपनी-अपनी गाय माता के साथ सेल्फी खींचिए और बेझिझक ट्वीटीए। घर में गाय की जगह कुत्ता पालते हों तो फोटोशॉप विद्या इस्तेमाल में लाएं और उसी को गाय बनायें। बाकी मैंने तो मेरी तरह “मैं-मैं” करने वाला ब्रांड एम्बेस्डर बना ही रखा है।

गौ माता की सेवा की कथा से सीखे जीवन मे सुखी रहने का तरीका

गौ माता की सेवा की कथा से सीखे जीवन मे सुखी रहने का तरीका

शास्त्रो मे बताया गया है की गाय इस सृष्टि का सर्वोत्तम एवम् पूज्य प्राणी है तथा गाय की महत्वता, उपादेयता, आवश्यकता आध्यात्मिक, धार्मिक तथा वैज्ञानिक दृष्टि से सर्वविदित है। यदि हम व्यवहारिक रुप में  प्रतिदिन गाय की सेवा करते हैं तो उसको बहुत आश्चर्यचकित करने वाले सकारात्मक प्रभाव देखने को मिलते है, बहुत सी आयुर्वेदिक औषधि है जो गौ मूत्र से ही बनाई जाती है और कई गंभीर बीमारिओ की चिकित्सा मे बहुत लाभप्रत होती है |
आज की दुनिया मे लोग सुख पाने के लिए कई उपाय करते है पर सफल नही होते है | कुछ लोग धन, सुविधाएं आने से सुखी हो जाते हैं और इनके जाने से दुखी भी हो जाते हैं। यदि हम दोनों ही परिस्थितयों के साथ अपनी सोच मे बदलाव करे तो हम धन जाए पर भी सुखी रह सकते है |
इस साधारण कहानी से समझे सुखी रहने का सीधा तरीका…
एक आश्रम में संत महात्मा अपने शिष्य के साथ रहते थे। एक दिन प्रात: शिष्य ने गुरु जी से कहा कि गुरुजी एक भक्त ने हमारे आश्रम के लिए गाय दान की है।
संत ने मुस्कुराते हुए कहा कि यह तो अच्छा है। अब हमे रोज ताजा दूध पीने का तथा गौ माता की सेवा का सौभाग्य प्राप्त होगा | संत और शिष्य ने गाय के दूध का सेवन करने लगे।
कुछ दिन बाद शिष्य ने संत के कहा कि गुरुजी जिस भक्त ने गाय दान मे दी थी, वह अपनी गाय का पुन: वापस ले गया है।
संत ने फिर मुस्कुराते हुए कहा कि अच्छा है। अब रोज-रोज गोबर उठाने की परेशानी खत्म हो गई।
 इस कहानी की सीख यही है कि परिस्थिति कितनी ही विपरीत क्यो ना हो अगर हम अपनी सोच पर नियंत्रण करे और सकारात्मक सोचे तो हम अपने जीवन को सुखी जीवन बना सकते है |

सकारात्मक विचारो के लिए हमे अपने मन को शांत रखना बहुत आवश्यक है और मन को शांत करने का सबसे अच्छा उपाय है अपने ईष्ट देव की पूजा तथा माता पिता की पूजा |

Cow Quotes

Cow Quotes
Sayings About Indian Cow(Gomata)

शुक्रवार, 23 दिसंबर 2016

गौ कथा ।।धेनुमानस ।।

शास्त्रो मे बताया गया है की गाय इस सृष्टि का सर्वोत्तम एवम् पूज्य प्राणी है तथा गाय की महत्वता, उपादेयता, आवश्यकता आध्यात्मिक, धार्मिक तथा वैज्ञानिक दृष्टि से सर्वविदित है।

यदि हम व्यवहारिक रुप में  प्रतिदिन गाय की सेवा करते हैं तो उसको बहुत आश्चर्यचकित करने वाले सकारात्मक प्रभाव देखने को मिलते है, बहुत सी आयुर्वेदिक औषधि है जो गौ मूत्र से ही बनाई जाती है और कई गंभीर बीमारिओ की चिकित्सा मे बहुत लाभप्रत होती है,
                कान्हा और गौ माता को ऐसा सुंदर संयोग है दोनो ही बङे उदार और सब भांति क्लयानकारी और अनन्ददायक है....
भगवान विष्णु के वाहन गरुण ने भी गरुण पुराण गायों के महत्व का उल्लेख किया है। उनके अनुसार जीवन के बाद मोक्ष प्राप्ति का सीधा मार्ग गाय की सेवा ही है।
    परम् पूज्य अग्रदूत गौपाल मणि जी द्वारा रचित #"_धेनु_मानस_" ग्रंथ जिसमे गाय माता की असीम महिमा का सुंदर सत्य वर्णन है...

गौ सेवा करें,  सबसे उत्तम सेवा गौ सेवा..

मंगलवार, 20 दिसंबर 2016

जिनका अन्त:करण अतिशय पवित्र हो जाता है, वे गोततत्व को समझ सकते हैं

गाय के तत्व को समझने के लिये जैसी पावनता, निर्मलता, विचारों की गहनता, सूक्ष्मता होनी चहिये, वैसी भावना उन भक्तों में आ सकती है, जिनका तन-मन-प्राण गोभक्तिसे अनुप्राणित हो।
जिनका अन्त:करण अतिशय पवित्र हो जाता है, वे गोततत्व को समझ सकते हैं। अत्यंत पवित्र का तात्पर्य है त्रिगुण (सत्व, रज, तम) - रहित चित्त और बुद्धि गुणातीत हो जाय तो गोपदार्थ की महत्ता को जाना जा सकता है।
सनातन धर्म क्या है? इसके सम्बन्ध में वाल्मीकीय रामायण के सुन्दरकाण्ड में पर्वत श्रेष्ठ मैनाक श्री हनुमान जी को सनातन धर्म का रहस्य समझाते हुए कहते हैं - 'कृते च प्रतिकर्तव्यं एष धर्म: सनातन:' अर्थात् जिसने हमारे प्रति किंचित् भी उपकार किया है, उसके प्रति सदा कृतज्ञ रहना- यही सनातन धर्म है।
भगवान की सृष्टि में गाय के जैसा कोई कृतज्ञ प्राणी नहीं है, प्रेम को स्वीकार करने वाला तथा उपकार ऐसा उत्तर देने वाला गाय के जैसा कोई प्राणी नहीं है। अड़सठ करोड़ तीर्थ एवं तैंतीस करोड़ देवताओं का चलता-फिरता विग्रह गाय है। सम्पूर्ण ब्रह्मांड पर गाय का जो उपकार है, उसका वर्णन नहीं किया जा सकता।
श्री भगवान के चरणों में कोई प्रार्थना कर कि प्रभु आप अपनी उपास्य देवता गोमाता के गुणों का वर्णन करें, उनके उपकारों को गिनायें तो सम्भवतया भगवान भी गोमाता की चरण रज को मस्तक पर चढ़ाकर, अश्रुपूरित नेत्रों से मूक रहकर ही गोमाता की महिमा का वर्णन करेंगे; ऐसी गोमाता की महिमा है।

डॉक्टर बोले-ऑपरेशन करना पड़ेगा,जान को खतरा है,पंचगव्य पिलाया तो सामान्य प्रसव हुआ।

पंचगव्य
पंचगव्य माने  देशी गाय का दूध, दही, घी, गौ मूत्र एवं गोबर
पंचगव्य चिकित्सा में वो सारी चमत्कारिक शक्तियां मौजूद हैं, जिससे हर तरह के रोगों का सफल इलाज संभव है, गाय हमारे प्राणों का रक्षण एवं पोषण करती है, इसलिए उसे हम मां कहते हैं...
हमारी प्राकृतिक चिकित्सा पद्धति इतनी मजबूत और महत्वपूर्ण है की जिसके अन्तर्गत मनुष्य में उत्पन्न होने वाली तमाम असाध्य बीमारियों को जड़ से समाप्त किया जा सकता है.... लेकिन हम मुर्ख इंसान......अपनी तकनीको को छोड़ के बाहरी तकनीको पे ज्यादा विश्वास करने लगे है.... पोथापंडित डॉक्टर्स को भगवान मानने लगे है... और इसी का नतीजा हम भुगत रहे है इन बड़ी बड़ी फाइवस्टार होस्पिटलो के चक्कर काट के......
यदि वर्तमान समय में गौ चिकित्सा तत्काल पुनः प्रारम्भ नहीं की गई तो अस्पतालो में रोगियों की संख्या बढ़ने के कारण समस्या उत्पन्न हो जायेगी

मंगलवार, 29 नवंबर 2016

गौमाता को चरने से रोकने पर राजा जनक को नर्क द्वार का दर्शन

गौमाता को चरने से रोकने पर राजा जनक को नर्क द्वार का दर्शन

प्राचीन कालकी बात है । राजा जनक ने ज्यों ही योग बल से शरीरका त्याग किया, त्यों ही एक सुन्दर सजा हुआ विमान आ गया और राजा दिव्य-देहधारी सेवको के साथ उसपर चढकर चले । विमान यमराजको संमनीपुरीके निकटवर्ती भाग से जा रहा था । ज्यों को विमान वहाँ से  आगे बढ़ने लगा, त्यों ही बड़े ऊँचे स्वंरसे राजाको हजारों मुखोंसे निकली हुई करुणध्वनि सुनायी पडी – पुण्यात्मा राजन्! आप यहांसे जाइये नहीं, आपके शरीरको छूकर आनेवाली वयुका स्पर्श पाकर हम यातनाओ से पीडित नरकके प्राणियोंको बड़ा ही सुख मिल रहा है ।
धार्मिक और दयालु राजाने दुखी जीवोंकी करुण पुकार सुनकर दया के वश निश्चय किया कि ,जब मेरे यहाँ रहनेसे इन्हें सुख मिलता है तो यम, मैं यहीं रहूंगा । मेरे लिये यही सुन्दर स्वर्ग है । राजा वहीं ठहर गये । तब यमराजने उनसे कहा- यह स्थान तो इष्ट, हत्यारे पापियोंके लिये है । हिंसक, दूसरो पर कलंक लगानेवाले, लुटेरे, पतिपरायणा पतीका त्याग करनेवाले, मित्रों को धोखा देनेवाले, दम्भी, द्वेष और उपहास करके मन-वाणी-शरीरों, कभी भगवान्का स्मरण न करनेवाले जीव यहाँ आते हैं और उन्हें नरकोंमे डालकर मैं भयंकर यातना दिया करता हूँ । तुम तो पुण्यात्मा हो, यहाँ से अपने प्राप्य दिव्य लोक में  जाओं । जनकने कहा-  मेरे शरीरसे स्पर्शं की हुई वायु इन्हें सुख पहुँचा रही है, तब मैं केसे जाऊं ? आप इन्हें इस दुखसे मुक्त कर दें तो में भी सुखपूर्वक स्वर्गमें चला जाऊंगा ।
यमराजने [पापियों की ओर संकेत करके] कहा – ये कैसे मुक्त हो सकते है ? इन्होंने बड़े बड़े पाप किये हैं ।इस पापीने अपनेपर बिश्वास करनेवाली मित्रपत्नी पर बलात्कार किया था, इसलिये इसको मैंनेे लोहशंकु नामक नरकमे डालकर दस हजार बर्षोंतक पकाया है ।अब इसे पहले सूअरकी और फिर मनुष्य की योनि प्राप्त होगी और वहाँ यह नपुंसक होगा । यह दूसरा बलपूर्वक व्यभिचारमें प्रवृत्त था ।
सौ वर्षोंतक रौरव नरकमें पीडा भोगेगा । इस तीसरेने पराया धन चुराकर भोगा था, इसलिये दोनों हाथ काटकर इसे पूयशोणित नामक नरकमें डाला जायगा । इस प्रकार ये सभी पापी नरकके अधिकारी हैं । तुम यदि इन्हें छुड़ाना चाहते हो तो अपना पुण्य अर्पण को । एक दिन प्रातः काल शुद्ध मनसे तुमने मर्यादापुरुषोत्तम भगवान्  श्रीरघुनाथजीका ध्यान किया था और अकस्मात् रामनामका उच्चारण किया था, बस वही पुण्य इन्हें दे दो । उससे इनका उद्धार हो जायगा ।
राजाने तुरंत अपने जीवनभरका पुण्य दे दिया और इसके प्रभाव से वे सारे प्राणी नरक यन्त्रणासे तत्काल छूट गये तथा दयाके समुद्र महाराज जनकका गुण गाते हुए दिव्य लोक को चले गये ।
तब राजाने धर्मराजसे पूछा कि है जब धार्मिक पुरुषोंका यहां आना ही नहीं होता, तब फिर मुझे यहां क्यों लाया गया । है इसपर धर्मराजने कहा- राजन् तुम्हारा जीवन तो पुण्यो से भरा है, पर एक दिन तुमने छोटा सा पाप किया था ।
एकदा तु चरन्ती गां वारयामास वै भवान्।
तेन पापविपाकेन निरयद्वारदर्शनम्।।
तुमने चरती हुई गौ माता को रोक दिया था । उसी पापके कारण तुम्हें नरकका दरवाजा देखना पड़ा । अब तुम उस पापसे मुक्त हो गये और इस पुण्यदानसे तुम्हारा पुण्य और भी बढ़ गया । तुम यदि इस मार्गसे न आते तो इन बेचारोंका नरकसे कैसे उद्धार होता ? तुमजैसे दूसरोंके दुख से दुखी होनेवाले दया धाम महात्मा दुखी प्राणियोंका दुख हरनेमे ही लगे रहते हैं । भगवान्  कृपासागर हैं । पापका फल भुगतानेके बहाने इन दुखी जीवोंका दुख दूर करनेके लिये ही इस संयमनीके मार्ग सेउन्होंने तुमको यहां भेज दिया है । तदनन्तर राजा धर्मराजको प्रणाम करके परम धामको चले गये ।
(पद्मपुराण, पातालखण्ड, अध्याय १८-१९)

भगवान् शंकर की गौ भक्ति

एक बार भगवान् शिव अत्यंत मनोहारी स्वरुप धारण करके भ्रमण कर रहे थे।यद्यपि दिगंबर वेश है ,शरीर पर भस्म रमाये है सुंदर जटाएं है परंतु ऐसा सुंदर भगवान् का रूप करोडो कामदेवों को लज्जित कर रहा है।
ऋषि यज्ञ कर रहे थे और शंकर जी वहा से अपनी मस्ती में रामनाम अमृत का पान करते करते जा रहे थे। भगवान् शिव के अद्भुत रूप पर मोहित होकर ऋषि पत्नियां उनके पीछे पीछे चली गयी। ऋषियो को समझ नहीं आया की यह हमारे धर्म का लोप करने वाला अवधूत कौन है जिसके पीछे हमारी पत्नियां चली गयी। पत्नियो नहीं रहेंगी तो हमारे यज्ञ कैसे पूर्ण होंगे?
ऋषियो ने ध्यान लगाया तो पता लगा यह तो साक्षात् भगवान् शिव है। ऋषियो को क्रोध आ गया, ऋषियो ने श्राप दे दिया और श्राप से भगवान् शिव के शरीर में दाह(जलन) उत्पन्न हो गया। शंकर जी वहां से अंतर्धान हो गए। हिमालय की बर्फ में चले गए, क्षीरसागर में गए, चन्द्रमा एवं गंगा जी के पास भी गए परंतु दाह शांत नहीं हुआ। भगवान् शिव अपने आराध्य गोलोकविहरि श्रीकृष्ण के पास गए,उन्होंने गौ माता की शरण जाने को कहा। अतः भगवान् शिव गोलोक में श्री सुरभि गाय का स्तवन करने लगे। उन्होंने कहा –
सृष्टि, स्थिति और विनाश करनेवाली हे मां तुम्हें बार बार नमस्कार है । तुम रसमय भावो से समस्त पृथ्वीतल, देवता और पितरोंको तृप्त करती हो । सब प्रकारके रसतत्वोंके मर्मज्ञो ने बहुत विचार करनेपर यही निर्णय किया कि मधुर रसका आस्वादन प्रदान करनेवाली एकमात्र तुम्ही हो । सम्पूर्ण चराचर विश्व को तुम्हीने बल और स्नेहका दान दिया है । है देवि! तुम रुद्रों की मां, वसुओकी पुत्री, आदित्योंकी स्वसा हो और संतुष्ट होकर वांच्छित सिद्धि प्रदान करनेवाली हो । तुम्ही धृति, तुष्टि, स्वाहा, स्वधा, ऋद्धि, सिद्धि, लक्ष्मी, धृति ( धारणा), कीर्ति, मति, कान्ति, लज्जा, महामाया, श्रद्धा और सर्वार्थसाधिनी हो ।
तुम्हारे अतिरिक्त त्रिभुवनमें कुछ भी नहीं है । तुम अग्नि और देवताओ को तृप्त करनेवाली हो और इस स्थावर जंगम-सम्पूर्ण जगत्में व्याप्त हो । देवि ! तुम सर्वदेवमयी, सर्वभूत समृद्धिदायिनी और सर्वलोकहितैषिणी हो, अतएव मेरे शरीरका भी हित करो । अनघे ! मैं प्रणत होकर तुम्हारी पूजा करता है । तुम विश्व दु:खहारिणी हो, मेरे प्रति प्रसन्न हो । है अमृतसम्भवे ! ब्राहाणों के शापानलसे मेरा शरीर दग्ध हुआ जा रहा है, तुम उसे शीतल करो ।
गौ माता ने कहा- मेरे भीतर प्रवेश करो तुम्हे कोई ताप नहीं तापा पायेगा।
भगवान् शिव ने सुरभि माताकी प्रदक्षिणा की और जैसे ही गाय ने ‘ॐ मा ‘ उच्चारण किया शिव जी गौ माता के पेट में चले गए। शिव जी को परम आनंद प्राप्त हुआ।
इधर शिवजीके न होनेसे सरे ज़गत् में हाहाकार मच गया ।शिव के न हिने से सारी सृष्टि शव के सामान प्रतीत होने लगी। शिव जी के न होने से रूद्र अभिषेक एवं यज्ञ कैसे हो? तब देवताओ ने स्तवन करके ब्राह्मणों को प्रसन्न किया और उससे पता लगाकर वे उस गोलोकमें पहुंचे, जहाँ पायसका पङ्क, घीकी नदी, मधुके सरोवर विद्यमान हैं । वहाँके सिद्ध और सनातन देवता हाथोंमें दही और पीयूष लिये रहते हैं ।
गोलोकमें उन्होंने सूर्यके समान तेजस्वी ‘नील’ नामक सुरभि सुतको गौ माता के पेट में देखा । देवता एवं ब्राह्मणों की स्तुति विनती सुनने पर भगवान् शंकर ही इस वृषभके रूपमें अवतीर्ण हुए थे । देवता और गुनियोंने देखा गोलोक की नन्दा, उक्ति, स्वरूपा, सुशीलका, कामिनी, नन्दिनी, मेध्या, हिरण्यदा, धनदा, धर्मदा, नर्मदा, सकलप्रिया, वामनलम्बिका, कृपा, दीर्घशृंगा, सुपिच्छिका, तारा, तोयिका, शांता, दुर्विषह्या, मनोरमा, सुनासा, गौरा, गौरमुखी, हरिद्रावर्णा, नीला, शंखीनी, पञ्चवर्णिका, विनता, अभिनटा, भिन्नवर्णा, सुपत्रिका, जया, अरुणा, कुण्डोध्नी, सुदती और चारुचम्पका- इन गौओके बीचमें नील वृषभ स्वच्छन्द क्रीडा कर रहा है ।
उसके सारे अङ्ग लाल वर्णके थे । मुख और मूंछ पीले तथा खुर और सींग सफेद थे । बाएं पुट्ठे पर त्रिशूल का चिन्ह और दाहिने पुट्ठे पर सुदर्शन का चिन्ह था । वही चतुष्पाद धर्म थे और वही पच्चमुख हर थे । उनके दर्शनमात्रसे वाजपेय यज्ञका फ़ल मिलता है । नीलकी उसे सारे जगत की पूजा होती है ।
नीलको चिकना ग्रास दैने से जगत् तृप्त होता है। देवता और ऋषियोने विविध प्रकारसे नीलकी स्तुति करते हुए कहा –
देव !तुम वृषरूपी भगवान् हो ।जो मनुष्य तुम्हारे साथ पापका व्यवहार करता है, वह निश्चय ही वृषल होता है और उसे रौरवादि नरकोंकी यन्त्रणा भोगनी पडती है । जो मनुष्य तुम्हें पैरोंसे छूता है, वह गाढ़े बंधनो मे बंधकर, भूख-प्याससे पीडित होकर नरक-यातना भोगता है और जो निर्दय होकर तुम्हें पीडा पहुँचाता है, वह शाश्वती गति-मुक्तिको नहीं पा सकता । ऋषियोद्वारा स्तवन करनेपर नीलने प्रसन्न होकर उनको प्रणाम किया ।अतः वृषभ भगवान् का वाहन ही नै अपितु भगवान् शिव का अंश भी है।
श्रीशिवजी वृषभध्वज और पशुपति कैसे बने ?
समुद्र मंथन से श्री सुरभि गाय का प्राकट्य हुआ। गौ माता के शारीर में समस्त देवी देवता एवं तीर्थो में निवास किया। देवताओ ने गौ माता का अभिषेक किया और श्री सुरभि गाय के रोम रोम से असंख्य बछड़े एवं गौए उत्पन्न हुये ।उनका वर्ण श्वेत(सफ़ेद) था। वे गौ माताए एवं बछड़े विविध दिशाओ में विचरण करने लगे।
एक समय सुरभीका बछड़ा मांका दूध पी रहा था ।गौ एवं बछड़ा उस समय कैलाश पर्वत के ऊपर आकाश में थे।भगवान् शिव ने उस समय समुद्र मंथन से उत्पन्न हलाहल विष पान किया था अतः उनके शरीर का ताप बढ़ने से भगवान् शिव श्री राम नाम के जाप में लीन थे। गौ के बछड़े के मुखसे दूधकां झाग उड़कर श्रीशंकरजीके मस्तकपर जा गिरा । इससे शिवजीक्रो क्रोध हो गया,यद्यपि शिवजी गौमाता की महिमा को जानते है परंतु गायो का माहात्म्य प्रकट करने के लिए उन्होंने कुछ लीला करने हेतु क्रोध किया। शंकर जी ने कहा कि यह कौन पशु है जिन्होंने हमें अपवित्र किया? शंकर जी ने अपना तीसरा नेत्र खोला ,परंतु गौ माताओ को कुछ नहीं हुआ। शंकर जी की दृष्टि अमोघ है अतः कुछ परिणाम तो अवश्य होगा। इसलिए गौ माता शिवजी की दृष्टि से अलग अलग रंगो में परिवर्तित हो गयी। तब प्रजापतिने ब्रह्मा ने उनसे कहा-
प्रभो ! आपके मस्तकपर यह अमृतका छींटा पडा है । बछडोंके पीनेसे गायका दूध जूठा नहीं होता । जैसे अमृतका संग्रह करके चन्द्रमा उसे बरसा देता है, वैसे ही रोहिणी गौएं भी अमृत सेे उत्पन्न दूध को बरसाती हैं । जैसे वायु, अग्नि, सुवर्ण, समुद्र और देवताओंका पिया हुआ अमृत कोई जूठे नहीं होते, बैसे ही बछडों को दूध पिलाती हुई गौ दूषित नहीं होती । ये गौएँ अपने दूध और घीसे समस्त जगत् का पोषण करेंगी । सभी लोग इन गौओ के अमृतमय पवित्र दूधरूपी ऐश्वर्यकी इच्छा करते हैं ।
इतना कहकर सुरभि एवं प्रजापतिने श्रीमहादेवजी को कईं गौएँ और एक वृषभ दिया । तब शिवजीने भी प्रपत्र होकर वृषभ को अपना वहन बनाया और अपनी ध्वजा को उसी बृषभके चिह्नसे सुशोभित किया । इसीसे उनका नाम ‘ वृषभध्वज पड़ा । फिर देबताओ ने महादेवजीको पशुओ-का स्वामी (पशुपति ) बना दिया और गौओके बीचमें उनका नाम बृषभांक है रखा गया । गौएं संसार सर्वश्रेष्ठ वस्तु हैं । वे सारे जगत् को जीवन देनेवाली हैं । भगवान् शंकर सदा उनके साथ रहते हैं । वे चन्द्रमा से निकले हुए अमृत्तसे उत्पन्न शान्त, पवित्र, समस्त कामनाओ को पूर्ण करनेवाली और समस्त प्राणियोंके प्राणों की रक्षा करनेवाली हैं ।

गौ माता का शास्त्र पुराणों में माहात्म्य

गौ माता का शास्त्र पुराणों में माहात्म्य

• स्वप्न में गौ अथवा वृषभ के दर्शनसे कल्याण लाभ एवं व्याधि नाश होता है । इसी प्रकार स्वप्नमे गौ के थन को चूसना भी श्रेष्ठ माना पाया है । स्वप्नमे गौका घरमें ब्याना, वृषभ की सवारी करना, तालाबके बीचमें घृत मिश्रित खीरका भोजन भी उत्तम माना गया है । घीसहित खीरका भोजन तो राज्य प्राप्ति का सूचक माना गया है ।
इसी प्रकार स्वप्न में ताजे दुहे हुए फेनसहित दुग्धका पान करनेवाले को अनेक भोगो की तथा दहीके देखने से प्रसन्नता की प्राप्ति होती है । जो वृषभ से युक्त रथपर स्वप्न में अकेला सवार होता है और उसी अवस्थायें जाग जाता है, उसे शीघ्र धन मिलता है । स्वप्न में दही मिलनेसे धनकी, घी मिलनेसे यशकी और दही खानेस भीे यशकी प्राप्ति निश्चित है ।
यात्रा आरम्भ करते समय दही और दूधका दीखना शुभ शकुन माना गया है । स्वप्नमें दही भातका भोजन करनेसे कार्य सिद्धि होती है तथा बैलपर चढ़नेसे द्रव्य लाभ होता है एवं व्याधिसे छुटकारा मिलता है । इसी प्रवार स्वप्रमे वृषभ अथवा गौ का दर्शन करनेसे कुटुम्ब की वृद्धि होती है । स्वप्नमे सभी काली वस्तुओ का दर्शन निन्द्य माना गया है, केवल कृष्णा गौ का  दर्शन शुभ होता है । (स्वप्न में गोदर्शन का फल, संतो के श्री मुख से सुना हुआ)
• वृषभो को जगत् का पिता समझना चाहिये और गौएं संसार की माता हैं । उनकी पूजा करनेसे सम्पूर्ण पितरों और देवताओं की पूजा हो जाती है । जिनके गोबरसे लीपने पर सभा भवन, पौंसलेे, घर और देवमंदिर भी शुध्द हो जाते हैं, उन गौओ से बढकर और कौन प्राणी हो सकता है ?जो मनुष्य एक सालतक स्वयं भोजन करनेके पहले प्रतिदिन दूसरे की गायको मुट्ठी भर घास खिलाया करता है, उसको प्रत्येक समय गौकी सेवा करनेका फल प्राप्त होता है । (महाभारत, आश्वमेधिकपर्व, वैष्णवधर्म )
• देवता, ब्राह्मण, गो, साधु और साध्वी स्त्रीयोंके बलपर यह सारा संसार टिका हुआ है, इसीसे वे परम पूजनीय हैं । गौए जिस स्थानपर जल पीती हैं, वह स्थान तीर्थ है । गंगा आदि पवित्र नदियाँ गोस्वरूपा ही हैं ।
जहा जिस मार्ग से गो माताए जलराशि को लांघती हुई नदी आदि को पार करती है,वहां गंगा, यमुना, सिंधु, सरस्वती आदि नदियाँ या तीर्थ निश्चित रूप से विद्यमान रहते है। (विष्णुधर्मोत्तर पुराण . द्वी.खं ४२। ४९-५८)
• हे ब्राह्मणो ! गायके खुरसे उत्पन्न धूलि समस्त पापो को नष्ट कर देनेवाली है । यह धूलि चाहे तीर्थकी हो चाहे मगध कीकट आदि निकृष्ट देशोंकी ही क्यो न हो । इसमें विचार अथवा संदेह करने की कोई आवश्यकता नहीं । इतना ही नहीं वह सब प्रकार की मङ्गलकारिणी, पवित्र करनेवाली और दुख दरिद्रतारूप अलक्ष्मी को नष्ट करनेवाली है ।
गायो के निवास करनेसे वहाँक्री पृथिवी भी शुद्ध हो जाती है । जहां गायें बैठती हैं वह स्थान, वह घर सर्वथा पवित्र हो जाता है । वहां कोई दोष नहीं रहता । उनके नि: श्वास की हवा देवताओंके लिये नीराज़न के समान है । गौओ को स्पर्श करना बडा पुण्यदायक है और उससे समस्त दु-स्वप्न, पाप आदि भी नष्ट हो जाते हैं । गौओ के गरदन और मस्तकके बीच साक्षात् भगवती गंगा का निवास है । गौएं सर्वदेेवमयी  और सर्वतीर्थमयी हैं । उनके रोएँ भी बड़े ही पवित्रताप्रद और पुण्यदायक हैं । (विष्णुधर्मोत्तर पुराण ,भगवान् हंस ब्राह्मणों से)
• ब्राह्मणो! गौओ के शरीरको खुजलानेसे या उनके शरीरके कीटाणुओ को दूर करनेसे मनुष्य अपने समस्त पापोंको धो डालता है । गौओ को गोग्रास दान करनेसे महान् पुण्य की प्राप्ति होती है । गौओं को चराकर उन्हें जलाशयतक घुमाकर जल पिलानेसे मनुष्य अनन्त वर्षोतक स्वर्गमे निवास करता है । गौओ के प्रचारणके लिये गोचरभूमि की व्यवस्था कर मनुष्य नि:संदेह अश्वमेध यज्ञ का फल प्राप्त करता है । गौओ के लिये गोशालाका निर्माणकर मनुष्य पूरे नगरका स्वामी बन जाता है और उन्हें नमक खिलाने से मनुष्य को महान सौभाग्यकी प्राप्ति होती है । (विष्णुधर्मोत्तर पुराण ,भगवान् हंस ब्राह्मणों से)
•विपत्तिमें या क्रीचड़मे फंसी हुई या चोर तथा बाघ आदिके भयसे व्याकुल गौ को क्लेशस्ने मुक्त कर मनुष्य अश्वमेधयज्ञका फल प्राप्त करता है । रुग्णावस्थामे गौओ को औषधि प्रदान करनेसे स्वयं मनुष्य सभी रोगोंसे मुक्त को जाता है । गौओ को भयसे मुक्त करनेपर मनुष्य स्वयं भी सभी भयोसे मुक्त हो जाता है ।
चांडाल के हाथसे गौ को खरीद लेने पर गोमेधयज्ञका फल प्राप्त होता है तथा किसी अन्य के हाथसे गाय को खरीदकर उसका पालन करनेसे गोपालक को गोमेधयज्ञका फल प्राप्त होता है । गौओंकी शीत तथा धूपसे रक्षा करनेपर स्वर्गकी प्राप्ति होती है । (विष्णुधर्मोत्तर पुराण ,भगवान् हंस ब्राह्मणों से)
•गोमूत्र, गोमय, गोदुग्ध, गोदधि, गोघृत और कुशोदक यह पञ्चगव्य स्नानीय और पेयद्रव्योंमें परम पवित्र कहा गया है । ये सब मङ्गलमय पदार्थ भूत, प्रेत, पिशाच, राक्षस आदिसे रक्षा करनेवाले परममङ्गल तथा कलिके दुख-दोषो को नाश करनेवाले हैं । गोरोचना भी इसी प्रकार राक्षस, सर्पविष तथा सभी रोगों को नष्ट करनेवाली एवं परम धन्य है ।जो प्रात:काल उठकर अपना मुख गोघृतपात्रमें रखे घीमे देखता है उसकी दुख: दरिद्रता सर्वदाके लिये समाप्त हो जाती है और फिर पाप का बोझ नहीं ठहरता ।
(विष्णुधर्मोत्तर पुराण, राजनीति एवं धर्मशास्त्रके सम्यक ज्ञाता पुष्कर जी भगवान् परशुराम से)
•गायो,गोकुल, गोमय आदिपर थूक-खखार नहीं छोड़ना चाहिये । (पुष्कर परशुराम संवाद)
•जो गौओ के चलनेके मार्गमें, चरागाहमें जलकी व्यवस्था करता है, वह वरुणलोक को प्राप्तकर वहां दस हजार वर्षोंतक विहार करता है और जहां जहां उसका आगे जन्म होता है वह वहां सभी आनन्दो से परितृप्त रहता है । गोचरभूमि को हल आदिसे जोतनेपर चौदह इन्द्रों पर्यन्त भीषण नरक की प्राप्ति होती है ।हे परशुराम जी ! जो गौओ के पानी पीते समय विघ्न डालता है, उसे यही मानना चाहिये कि उसने घोर ब्रह्महत्या की । सिंह, व्याघ्र आदिके भयसे डरी हुई गायकी जो रक्षा करता है और कीचड़में फंसी हुई गायका जो उद्धार करता है, वह कल्पपर्यन्त स्वर्गमें स्वर्गीय भोगो का भोग करता है । गायों को घास प्रदान करनेसे वह व्यक्ति अगले जन्ममे रूपवान हो जाता है और उसे लावण्य तथा महान सौभाग्यकी प्राप्ति होती है । (पुष्कर परशुराम संवाद)
•हे परशुरामजी ! गायों को बेचना भी कल्याणकारी नहीं है। गायोंका नाम लेने से भी मनुष्य पापो से शुद्ध हो जाता है । गौओका स्पर्श सभी पापोंका नाश करनेवाला तथा सभी प्रकारका सौभाग्य एवं मङ्गलका विधायक है । गौओका दान करनेसे अनेक कुलोंका उद्धार को जाता है ।
मातृकुल, पितृकुल और भार्याकुलमे जहां एक भी गो माता निवास करती है वहां रजस्वला और प्रसूतिका आदिकी अपवित्रता भी नहीं आती और पृथ्वी में अस्थि, लोहा होनेका, धरतीके आकार प्रकार की विषमताका दोष भी नष्ट हो जाता है । गौओ के श्वास प्रश्वास से घरमे महान् शान्ति होती है । सभी शास्त्रो में  गौओके श्वास प्रश्वास को महानीराजन कहा गया है । हे परशुराम ! गौओ को छु देने मात्रसे मनुष्योंके सारे पाप क्षीण हो जाते हैं ।(पुष्कर परशुराम संवाद)
• जिसको गायका दूध, दही और घी खानेका सौभाग्य नहीं प्राप्त होता, उसका शरीर मल के समान है । अन्न आदि पाँच रात्रितक, दूध सात रात्रितक, दही बीस रात्रितक और घी एक मासतक शरीरमे अपना प्रभाव रखता है । जो लगातार एक मासतक बिना गव्यका(बिना गौ के दूध से उत्पन्न पदार्थ)भोजन करता है उस मनुष्यके भोजनमें प्रेतों को भाग मिलता है, इसलिये प्रत्येक युुग में सब कार्योंके लिये एकमात्र गौ ही प्रशस्त मानी गयी है । गौ सदा और सब समय धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष ये चारों पुरुषार्थ प्रदान करनेवाली है । (पद्मपुराण, ब्रह्माजी और नारद मुनि संवाद)
•गायो से  उत्पन्न दूध, दही, घी, गोबर, मूत्र और रोचना-ये छ: अङ्ग (गोषडङ्ग) अत्यन्त पवित्र हैं और प्राणियोंके सभी भापों को नष्ट कर उन्हें शुद्ध करनेवाले हैं । श्रीसम्पन्न बिल्व वृक्ष गौओके गोबरसे ही उतपन्न हुआ है । यह भगवान् शिवजी को अत्यन्त प्रिय है । चूँकि उस वृक्षमें पद्महस्ता भगवती लक्ष्मी साक्षात् निवास करती हैं, इसीलिये इसे श्रीवृक्ष भी कहा गया है । बादमें नीलकमल एवं रक्तकमलके बीज भी गोबरसे ही उत्पन्न हुए थे । गौओ के मस्तकसे उत्पन्न परम पवित्र गोरोचना है समस्त अभीष्टो की सिद्धि करनेवाली तथा परम मङ्गलदायिनी है ।
अत्यन्त सुगन्धित गुग्गुल नामका पदार्थ गौओ के मूत्रसे ही उत्पन्न हुआ है । यह देखनेसे भी कल्याण करता है । यह गुग्गुल सभी देवताओं का आहार है, विशेषरूप भगवान् शंकर का प्रिय आहार है । संसारके सभी मङ्गलप्रद बीच एवं सुन्दर से सुन्दर आहार तथा मिष्टान्न आदि सब के सब गौके दूधसे ही बनाये जाते हैं । सभी प्रक्रार की मङ्गल कामनाओ को सिद्ध करनेके लिये गायका दही लोकप्रिय है । देवताओ को तृप्त करनेवाला अमृत नामक पदार्थ गायके घीसे ही उत्पन्न हुआ है । (भविष्यपुराण, उत्तरपर्व, अ.६९, भगवान् श्रीकृष्ण युधिष्ठीर संवाद)
•गौओ को खुजलाना तथा उन्हें स्नान कराना भी गोदानके समान फल वाला होता है । जो भयसे दुखी (भयग्रस्त) एक गायकी रक्षा करता है, उसे सौं गोदानका फल प्राप्त होता है । पृथ्वी में समुद्रसे लेकर जितने भी बड़े तीर्थ-सरिता-सरोवर आदि हैं, वे सब मिलकर भी गौ के सींग के जलसे स्नान करनेके षोडशांश के तुल्य भी नहीं होते।(बृहत्पराशर स्मृति, अध्याय ५)
• राम-वनवास के समय भरत १४ वर्षतक इसी कारण स्वस्थ रहकर आध्यात्मिक उन्नति करते रहे, क्योंकि वे अन्न के साथ गोमूत्रका सेवन करते थे ।
गोमूत्रयावकं श्रुत्वा भ्रातरं वल्कलाम्बरम्।।
(श्रीमद्भागवत ९ । १० । ३४)
• गोमाताका दर्शन एवं उन्हें नमस्कार करके उनकी परिक्रमा केरे । ऐसा करने से सातों द्विपोसहित भूमण्डल की प्रदक्षिणा हो जाती है । गौएँ समस्त प्राणियो की माताएँ एवं सारे सुख देनेवाली हैं । वृद्धिकी आकांक्षा करनेवाले मनुष्य को नित्य गो माताओ की प्रदक्षिणा करनी चाहिये ।
• जिस व्यक्तिकें पास श्राद्धके लिये कुछ भी न हो वह यहि पितरो का ध्यान करके गो माता को श्रद्धापूर्वक घास खिला दे तो उसको श्राद्धका फल मिल जाता है । (निर्णयसिंधुु)
• गौ माताए समस्त प्राणियोंकी माता हैं और सारे सुखों को देनेवाली हैं, इसलिये कल्याण चाहनेवाले मनुष्य सदा गोओंकी प्रदक्षिणा करें । गौओ को लात न मारे । गौओ के बीचसे होकर न निकले। मङ्गलकी आधारभूत गो-देवियोंकी सदा पूजा को । (महा ,अनु ६९ । ७-८)
• जब गौए चर रही हों या एकांत में बैठी हों, तब उन्हें तंग न करें । प्यास से पीडित होकर जब भी क्रोध से अपने स्वामी की ओर देखती है तो उसका बंधुबांधवोसहित नाश हो जाता है । राजाओ को चाहिये कि गोपालन और गोरक्षण करे । उतनी ही संख्यामे गाय रखे, जितनीका अच्छी तरह भरण-पोषण हो सके । गाय कभी भी भूखसे पीडित न रहे, इस बातपर विशेष ध्यान रखना चाहिये ।
• जिसके घरमें गाय भूखसे व्याकुल होकर रोती है, वह निश्चय ही नरक में जाता है । जो पुरुष गायोंके घरमें सर्दी न पहुँचने का और जलके बर्तन को शुद्ध जलसे भर रखनेका प्रबन्ध कर देता है, वह ब्रह्मलोकमे आनन्द भोग करता है ।
• जो मनुष्य सिंह, बाघ अथवा और किसी भयसे डरी हुई, कीचड़ में धसी हुई या जलमें डूबती हुई गायको बचाता है वह एक कल्पतक स्वर्ग-सुख का भोग करता है । गायकी रक्षा, पूजा और पालन अपनी सगी माताके समान करना चाहिये । जो मनुष्य गायों को ताड़ना देता है, उसे रौरव नरक की प्राप्ति होती है । (हेभाद्रि)
• गोबर और गोमूत्र से अलक्ष्मी का नाश होता है,  इसलिये उनसे कभी घृणा न करे। जिसके घरमें प्यासी गाय बंधी रहती है, रजस्वला कन्या अविवाहिता रहती है और देवता बिना पूज़नके रहते हैं, उसके पूर्वकृत सारे पुण्य नष्ट हो जाते हैं । गायें जब इच्छानुसार चरती होती हैं, उस समय जो मनुष्य उन्हें रोकता है, उसके पूर्व पितृगण पतनोन्मुख होकर काँप उठते हैं । जो मनुष्य मूर्खतावश गायों को लाठी से मारते हैं उनको बिना हाथके होकर यमपुरीमें जाना पड़ता है । (पद्मपुराण, पाताल .अ १८)
• गायको यथायोग्य नमक खिलाने से पवित्र लोककी प्राप्ति होती है और जो अपने भोजनसे पहले गाय को घास चारा खिलाकर तृप्त करता है, उसे सहस्त्र गोदानका फल मिलता है । (आदित्यपुराण)
• अपने माता पिताकी भांती श्रद्धापूर्वक गायोंका पालन करना चाहिये । हलचल, दुर्दिन और विप्लवके अवसर पर  गायों को घास और शीतल जल मिलता रहे, इस बातका प्रबन्ध करते रहना चाहिये । (ब्रह्मपुराण)
• गोमाताका दर्शन एवं उन्हें नमस्कार करके उनकी परिक्रमा केरे । ऐसा करने से सातों द्विपोसहित भूमण्डल की प्रदक्षिणा हो जाती है । गौएँ समस्त प्राणियो की माताएँ एवं सारे सुख देनेवाली हैं । वृद्धिकी आकांक्षा करनेवाले मनुष्य को नित्य गो माताओ की प्रदक्षिणा करनी चाहिये ।
•जिस व्यक्तिकें पास श्राद्धके लिये कुछ भी न हो वह यहि पितरो का ध्यान करके गो माता को श्रद्धापूर्वक घास खिला दे तो उसको श्राद्धका फल मिल जाता है । (निर्णयसिंधुु)
•महर्षि वसिष्ठ जी ने अनेक प्रकार से गो माता की महिमा तथा उनके दान आदिकी महिमा बताते हुए मनुष्यो के लिये एक महत्त्वपूर्ण उपदेश तथा एक मर्यादा स्थापित करते हुए कहा –
नाकीर्तयित्वा गा: सुप्यात् तासां संस्मृत्य चोत्पतेत्। सायंप्रातर्नमस्येच्च गास्तत: पुष्टिमाप्नुयात्।।
गाश्च संकीर्तयेन्नित्यं नावमन्येेत तास्तथा ।
अनिष्ट स्वप्नमालक्ष्य गां नर: सम्प्रकीर्तयेत्।।
(महाभा, अनु ७८। १६, १८)
अर्थात् ‘ गौओ का नामकीर्तन किये बिना न सोये । उनका स्मरण करके ही उठे और सबेरे-शाम उन्हें नमस्कार करे। इससे मनुष्य को बल और पुष्टि प्राप्त होती है । प्रतिदिन गायो का जाम ले, उनका कभी अपमान न को । यदि बुरे स्वप्न दिखायी दें तो मनुष्य गो माता का नाम ले ।
इसी प्रकार वे आगे कहते हैं की जो मनुष्य श्रद्धापूर्वक रात-दिन निम्न मन्त्रका बराबर कीर्तन करता है वह सम अथवा विषम किसी भी स्थितिमें भयसे सर्वथा मुक्त हो जाता है और सर्वदेवमयी गोमाताका कृपा पात्र बन जाता है ।
मन्त्र इस प्रकार है –
गा वै पश्याम्यहं नित्यं जाब: पश्यन्तु मां सदा ।
गावोsस्माकं वयं तासां यतो गावस्ततो वयम्।।
(महाभा, अनु ७८ । २४)
अर्थात् मैं सदा गौओका दर्शन करू और गौए मुझपर कृपा दृष्टि करें । गौए हमारी हैं और हम गौओकै हैं । जहां गौए रहें, वहीं हम रहें, चूँकी गौए हैं इसीसे हमलोग भी हैं।
आगे गौमूत्र गोबर और दूध के गुण दिए गए है। पढ़ने के लिए आगे क्लिक करे-
सर्वदेवमयी गौ माता की जय।
सब संत भक्तो की जय।।

श्री भक्तमाल – गौ ब्राह्मण प्रतिपालक भगवान् श्री परशुराम SRI BHAKTAMAL – SRI PARSHURAM JI

एक बार महर्षि ऋचीक से उनकी पत्नी और सास दोनो ने ही पुत्र प्राप्ति के लिये प्रार्थना की। महर्षि ऋचीक ने उनकी प्रार्थना स्वीकार करके दोनो के लिये अलग अलग मंत्रो से चरु पकाया और स्नान करनेके लिये चले गये ।सत्यवती की मां ने यह समझकर कि ऋषिने अपनी पत्नी के लिये श्रेष्ठ चरु पकाया होगा अतः उसने बेटी से वह चरु मांग लिया । इसपर सत्यवती ने अपना चरु माँ को दे दिया और माँ का चरु वह स्वयं खा गयी । 
जब ऋचीक मुनिको इस बातका पता चला, तब उन्होंने अपनी पत्नी सत्यवती-से कहा कि तुमने बडा अनर्थ कर डाला। अब तुम्हारा पुत्र तो लोगो को दण्ड देनेवाला घोर प्रकृतिका होगा और तुम्हारा भाई होगा एक श्रेष्ठ ब्रह्मवेत्ता । (सत्यवती-ने ऋचीक मुनि को प्रसन्न किया और प्रार्थना की कि  स्वामी ! ऐसा नहीं होना चाहिये । तब उन्होंने कहा – अच्छी बात है । पुत्रके बदले तुम्हारा पौत्र वैसा घोर प्रकृतिका होगा । समयपर सत्यवतीके गर्भसै जमदग्निका जन्म हुआ ।(परंतु जमदग्नि की जगह उनके पुत्र परशुराम घोर प्रकृति के हुए) के  सत्यवती समस्त लोकों को पवित्र करनेवाली परम पुण्यमयी कौशिकी नदी बन गयी । 
महाभारत्तमें कहा गया है कि त्रेतायुग एवं द्वापरयुग के सन्धिकाल में वैशाख शुक्ल तृतीया ( अक्षय तृतीया) के शुभ दिन उत्तम नक्षत्र और उत्तम मुहूर्त में भृगुकुलोत्पन्न महर्षि जमदग्नि एवं काशिराज सुता भगवती रेणुका के माध्यमसे भगवान् विष्णुका भार्गवराम (परशुराम) के रूपमें पृथ्वीपर अवतार हुआ । 
महर्षि जमदग्नि का आश्रम रेवा-नर्मदानदी के तटपर था । वहांपर भगवान् परशुरामका आविर्भाव हुआ था । उनके पितामह महातपस्वी ऋचीक का विवाह क्षत्रिय गाधिराज की सुपुत्री (ऋषि विश्वामित्रकी बहिन) सत्यवती के साथ हुआ था । उन दिनों विशेष कारणों से कुछ ब्राह्मण ऋषियोंके विवाह क्षत्रिय राजकन्याओ के साथ हुए हैं । ऐसे विवाहोंमें संतति ब्राह्मण ही मानी जाती है । महर्षि जमदग्नि एवं भगवती रेणुका को पाँच पुत्र हुए
१ ) रुमण्वान् २) सुषेण ३ ) वसु ४) विश्वावसु तथा ५) भार्गवराम (परशुराम) । परशुराम सबसे छोटे थे तथापि सबसे वीर एवं वेदज्ञ थे ।
पाँच वर्षकी अवस्था में उनका सविधि यझोपवीत संस्काऱ हुआ, तत्पश्चात् माता पिता की सम्मति लेकर वे शालग्रामक्षेत्रमे जाकर गुरु महर्षि कश्यप के समक्ष उपस्थित हुए और शास्त्र तथा शस्त्रका ज्ञान प्रदान करनेके लिये उनसे प्रार्थना की ।
गुरु महर्षि कश्यपने परशुराम को सविधि दीक्षा दी और शास्त्र एवं शस्त्रविद्या सिखाना प्रारम्भ किया । क्रुशाग्रबुद्धि सम्पन्न एवं अदम्य उत्साही होनेसे परशुराम अल्प समयमें ही चारों वेद और धनुविद्यामें निपुण हो गये । गुरु की आज्ञा तथा आशीर्वाद लेकर परशुराम अपने माता पिताके पास आये और उनका भी आशीर्वाद प्राप्त किया । 
परशुराम अपने घरसे प्रस्थान कर गन्धमादन पर्वत पर गये और उत्कट तपस्याद्वारा उन्होंने भगवान् शंकर को प्रसन्न कर उनसे उच्चकोटिकी धनुर्विद्या प्राप्त की- परशुरामने भगवान् शंकरसे ४१ अस्त्र भी प्राप्त किये, जो भयंकर तथा महाविनाशक थे, जैसे कि ब्रह्मास्त्र, रौद्रास्त्र, आग्नेयास्त्र, वायत्वास्त्र इत्यादि। इन महान् अस्त्रों के प्रताप से परशुराम महाधनुर्धर एवं मन्त्रविशारद हुए ।
वाल्मीकी रामायण में वर्णन है कि परशुराम महापुरुष, भीमकाय, जटावल्कलधारी, अनाचारी पाण्याचारी राजाओ के विनाशक थे। उनके एक स्कन्धपर बडा भारी अतितीक्ष्य परशु (फरसा) रहता था और दूसरे स्कन्धपर विद्युत् सा अमोघ धनुष रहता था । वे त्रिपुरघ्न त्रिपुरके विध्वंसक महाबली शिवसदृश थे । ये रुरु नामक मृगका चर्म धारण करते।धनुर्वेद की विधिवत् शिक्षा इन्होंने अपने पिता से ही प्राप्त की।पिता के चरणों में परशुराम जी की अनन्य भक्ति थी।अत्यंत तीक्ष्ण धार वाला अमोघ परशु धारण करने के कारण भगवान् राम का परशु सहित नाम परशुराम पड़ा।यह परशु भगवान् शंकर के उसी महातेज से निर्मित हुआ था, जिससे श्रीविष्णु का सुदर्शन चक्र और देवराज इंद्र का वज्र बना था।
हरिवंश (२।३९।२१-२२) में उनके विषयमें वर्णन है कि एक बार जब बलराम और श्रीकृष्णने दक्षिणापथ की यात्रा की तो सह्याचलक्री पर्वतश्रेणियों के समीप वे वेणा नदीके तया पहुँचे, वहाँ एक विशाल बरगद का वृक्ष था, उसी वृक्षके नीचे विराजमान भूगुनन्दन परशुरामजी को उन्होंने देखा, जिनके एक कन्धे पर फरसा था और जो जटा और वल्कल धारण किये हुए थे । उनके शरीरका वर्ण गौर तथा अग्निशिखा के समान प्रकाशमान था । वे सूर्यके समान तेजस्वी दिखायी देते थे । क्षत्रियोंका अन्त करनेवाले परशुराम किसीसे क्षुब्ध होनेवाले नहीं थे । प्रणामनिवेदन एबं कुशलक्षेमके अनन्तर मगधराज ज़रासंध के साथ किस प्रकार युद्ध किया जाय और विजय मिले, इस विषय में श्रीकृष्णने महाबली परशुराम से मार्गदर्शन प्राप्त किया था । 
भगवान् दत्तात्रेय श्री विद्या के परम आचार्य है। इन्हीने परशुराम जी को अधिकारी जानकार श्री विद्या का उपदेश किया था। दत्तात्रेय भगवान् से परशुराम जी ने षोडशी मन्त्र की दीक्षा ग्रहण कर साधना हेतु महेंद्रपर्वत पर जाकर भगवती त्रिपुरसुंदरी की आराधना की और उनसे चिरंजीवी पद प्राप्त किया।भगवती की कृपा से वे सिद्ध पुरुष बन गए।
भीष्मपितामह ने परशुराम जी से अस्त्र विद्या सीखी थी । 
महाभारत में वर्णन है–  एक बार भीष्मपिततामह ने अपने भाई विचित्रवीर्य के लिये काशिराज की तीन कन्याओ ( १) अम्बा ( २) अम्बिका और (३) अम्बालिका का स्वयंवर से जाकर हरण किया था । उनमे से अम्बाने कहा कि उसे राजा शाल्व के साथ प्रेम है । ऐसा सुनकर भीषाने उसे मुक्त कर दिया । अम्बा जब शाल्व के यास गयी तो उसने भीष्मद्वारा अपहृत हुई जानकर उसका त्याग कर दिया । इससे वह क्रुद्ध हुई और भीष्म को पाठ सिंखाने के लिये महाबली परशुराम की सहायता प्राप्त करने हेतु जमदग्नि ऋषिके आश्रममें पहुंची । उसने सारा वृत्तान्त परशुरामजी को सुनाया और भीष्म उसे स्वीकार करें, ऐसा करने की विनती को । अम्बा काशिराज की पुत्री थी और परशुराम की माता रेणुका भी काशी से सम्बन्धित थी । इस घनिष्ट सम्बन्ध से परशुराम जी ने अम्बा को सहायता देनेका वचन दिया । फिर परशुरामने दूत भेजकर अपने शिष्य भीष्म को अपने यास बुलवाया और अम्बा को स्वीकार करनेको कहा । आजीवन ब्रह्मचर्यव्रतधारी भीष्मने गुरु परशुरामका प्रस्ताव अमान्य कर दिया । शिष्य की अवज्ञा  देखकर परशुराम क्रुद्ध हुए और युद्धके लिये आह्वान किया । 
परशुराम जी के पास रथ नहीं था । तब भीष्म ने कहा ब्रह्मन्! मैं रथपर बैठा हूँ और आप धरती पर खड़े है इस कारण मैं  आपसे युद्ध नहीं करूँगा । मुझसे युद्ध करने के लिये आप कवच पहनकर रथारूढ़ हो जायँ । तब युद्धभूमि में मुस्कराते हुए परशुराम जी ने भीष्म से कहा-  कुरुनन्दन भीष्म मेंरे लिये पृथ्वी ही रथ है, चारों वेद ही उत्तम अश्नोंके समान मेरे वहन हैं, वायुदेव ही सारथि हैं और वेदमाताएं (गायत्री, सावित्री और सरस्वती) ही कवच हैं । इन सबसे आवृत एवं सुरक्षित होकर मैं रणक्षेत्रमे युद्ध करूँगा । 
इतना कहकर पराक्रमी परशुरामजी ने भीष्म को अपने वीक्ष्य शरोंसे घेर लिया । उस समय भीष्म ने देखा -परशुरामजी एक नगरतुल्य विस्तृत, अद्भुत एवं दिव्य विमानमें बैठे हैं । उसमें दिव्य अश्व जुते थे । वह स्वर्णनिर्मित रथ प्रत्येक रीतिसे सजा हुआ था । उसमें सम्पूर्ण श्रेष्ठ आयुध रखे हुए थे । परशुराम जी ने सूर्य-चन्द्र-खचित कवच शरण कर रखा था और उनके प्रिय सखा वेदवेत्ता अकृतव्रण उनके सारथिका कार्यं कर रहे थे। परम पराक्रमी, परम तेजस्वी, परम तपस्वी, परम पितृभक्त भगवान् परशुराम जी के साथ भीष्म का भयानक संग्राम हुआ ।गुरु शिष्यका भीषण युद्ध तेईस दिनपर्यन्त चला । सुहृदोंके समझाने पर युद्ध बंद हुआ तो भीष्म ने परमर्षि परशुराम जी के समीप जाकर उनके चरणोंमें प्रणाम किया । परशुरामजीने मुस्कराकर भीष्म से कहा –
भीष्म ! इस जगत में भूतलपर विचरने वाला कोई भी क्षत्रिय तुम्हरे समान नहीं है । जाओ, इस युद्धमें तुमने मुझे बहुत संतुष्ट किया है ।
उन दिनों हैहयवंश का अधिपति था अर्जुन ( सहस्त्रबाहु नाम से भी जाने जाते है)। वह एक श्रेष्ठ क्षत्रिय था । उसने अनेकों प्रकार की सेवा शुश्रुषा करके भगवान् दत्तात्रेय जी को प्रसन्न कर लिया और उनसे एक हजार भुजाएँ तथा कोई भी शत्रु युद्धमें पराजित न कर सके ,यह वरदान प्राप्त कर लिया । साथ ही इंद्रियों का अबाध बल, अतुल सम्पत्ति, तेजस्विता, वीरता, कीर्ति और शारीरिक बल भी उसने उनके, कृपासे प्राप्त कर लिये थे । वह योगेश्वर हो गया था । उसमें ऐसा ऐश्वर्य था किं वह सूक्ष्म से सूक्ष्म, स्थूल से स्थूल रूप धारण कर लेता । सभी सिद्धियां उसे प्राप्त थीं । वह संसारमें वायु की तरह सब जगह बेरोक टोक विचरा करता । एक बार गले में वैजयन्ती माला पहने सहस्त्रबाहु अर्जुन बहुत भी सुन्दरी स्त्रियो के साथ नर्मदा नदीमें जल विहार कर रहा था । उस समय मदोन्मत्त सहस्त्रबाहु ने अपनी बांहो से नदीका प्रवाह रोक दिया । दशमुख रावणका शिविर भी वहीं कहीं पासमें ही था । नदीकी धारा उलटी बहने लगी, जिससे उसका शिविर डूबने लगा । रावण अपनेको बहुत बडा वीर तो मानता ही था, इसलिये सहस्त्रार्जुन का यह पराक्रम उससे सहन नहीं हुआ ।जब रावण सहस्त्रबाहु अर्जुनके पास जाकर बुरा भला कहने लगा, तब उसने स्त्रियो के सामने ही खेल खेलमें रावण को पकड़ लिया और अपनी राजधानी माहिष्मती ले जाकर बंदरके समान केद कर लिया । पीछे पुलस्त्य जी के कहने पर सहस्त्रबाहु ने रावण को छोड़ दिया ।
एक दिन सहस्त्रबाहु अर्जुन शिकार खेलने के लिये बड़े घोर जंगल मे निकल गया था । दैववश वह जमदग्नि मुनिके आश्रमपर जा पहुंचा । परम तपस्वी जमदग्नि मुनिके आश्रममें कामधेनु गाय रहती थी । उसके प्रताप से उन्होंने सेना,मंत्री और वाहनों के साथ हैहयाधिपति का खूब स्वागत सत्कार किया । वीर हैहयाधिपति ने देखा कि जमदग्नि मुनिका ऐश्वर्य तो मुझसे भी बढा चढा है । इसलिये उसने उनके स्वागत सत्कार को कुछ भी आदर न देकर कामधेनु को ही ले लेना चाहा ,परंतु महर्षि जमदग्नि ने कहा – राजन!यह कामधेनु तो मेरे समस्त धर्म-कर्मो की जननी है।यज्ञीय सामग्री,देवता,ऋषि,पितर और अतिथियों का सत्कार ही नहीं,इसी गौके द्वारा मेरे सारे इहलौकिक तथा पारलौकिक कर्म संपन्न होते है।मैं इसे देनेका विचार भी कैसे कर सकता हूँ। उसने अभिमानवश जमदग्नि मुनिसे माँगा भी नहीं, अपने सेवकों को आज्ञा दी कि कामधेनु को छीन ले चलो । उसकी आज्ञासे उसके सेवक बछड़े के साथ बां बां डकराती हुई कामधेनुको बलपूर्वक महिषातीपुरी ले गये । 
जब वे सब चले गये, तब परशुरा जी आश्रमपर आये और उसकी दुष्टता का वृत्तान्त सुनकर चोट खाये हुए साँप की तरह क्रोधसे तिलमिला उठे । उन्हीने राजा कार्तवीर (सहस्त्रबाहु) करने की भीषण प्रतिज्ञा कर ली।तब महर्षि जमदग्नि ने कहा की तुम ब्रह्मदेव के पास जाकर उनसे आज्ञा ले आओ। ब्रह्मदेव के पास जाने पर ब्रह्मदेव ने परशुराम को भगवान् शिव की आज्ञा लेने को कहा। परशुराम वहासे कैलाश पर्वतपर पहुचे और शिव जी को सारा वृत्तांत सुनाया ।शिव जी ने प्रसन्न होकर पापाचारी राजा कार्तवीर्य का वध करने की आज्ञा दी। परशराम जी अपना भयंकर फरसा, तरकस, ढाल एवं धनुष लेकर बड़े बेगसे उसके पीछे दौड़े जिसे कोई किसीसे न दबने वाला सिंह हाथीपर टूट पड़े।
सहस्त्रबाहु अर्जुन अभी अपने नगर में प्रवेश कर की रहा था कि उसने देखा परशुरामजी महाराज बड़े वेगसे उसीकी ओर झपटे आ रहे हैं । उनकी बडी विलक्षण झाँकी थी । वे हाथमें धनुष बाण और फरसा लिये हुए थे, शरीरपर काला मृगचर्म धारण किये हुए थे और उनकी जटाएँ सूर्य की किरणों के समान चमक रही थी । 
उन्हें देखते ही उसने गदा, खड्ग,बाण, ऋष्टि, शतघ्नी और शक्ति आदि आयुधो सेे सुसज्जित एवं हाथी, घोड़े, रथ तथा पदातियों से युक्त अत्यन्त भयंकर सत्रह अक्षोहिणी रोना भेजी । भगवान परशुराम ने बात ही बात में अकेले ही उस भारी सेना को नष्ट कर दिया ।भगवान् परशुरामजी की गति मन और वायुके समान थी । बस, वे शत्रु की सेना काटते ही जा रहे थे । जहाँ-जहाँ वे अपने फरसे का प्रहार करते, वहाँ वहाँ सारथि और वाहनोंके साथ बडे बडे वीरो की बाँहें, जाँघे और कंधे कट-कटकर पृथ्वीपर गिरते जति थे ।हैहयाधिपति अर्जुनने देखा कि मेरी सेनाके सैनिक, उनके धनुष, ध्वजाएँ और ढाल भगवान् परशुराम के फरसे और बाणोंसे कट-कटकर खूनसे लथपथ रणभूमि में गिर गये हैं, तब उसे बडा क्रोध आया और वह स्वयं भिड़नेके लिये आ धमका।
उसने एक साथ ही अपनी हजार भुजाओ से पाँच  धनुष्यो पर बाण चढाये और परशुराम जी पर छोड़े । परंतु परशुरामजी तो समस्त शस्त्र धारियों के शिरोमणि ठहरे । उन्होंने अपने एक धनुष पर छोड़े हुए बानो से ही एक साथ सबको काट डाला ।अब हैहयाधिपति अपने हाथों से पहाड़ और पेड़ उखाड़कर बड़े वेगसे युद्धधुतिमें परशुरामजी की ओर झपटा।
महाबली परशुराम भगवान् ने अपने सामर्थ्य के विषय में दुष्ट राजा कार्तवीर्य से गर्जना करते हुए कहा था- 
मेरे अग्रभाग में चारो वेदों का दिव्या महातेज है और मेरे पृष्ठभाग में मंत्रयुक्त शिवधनुष है,मई वेदमंत्रों के शाप से भी और अमोघ बाण से भी पृथ्वी को ध्वंस कर सकता हूं।
परशुरामजी ने अपनी तीखी धारवाले फरसे से बडी फुर्तीके साथ उसकी सांपो के समान भुजाओं को काट डाला ।जब उसकी बाहे कट गयी, तब उन्होंने पहाड़ की चोटीकी तरह उसका ऊँचा सिर धड़से अलग कर दिया । पिताके मर जानेपर उसके दस हजार लड़के डरकर भग गये ।
गौ भक्त परशुराम जी ने जैसे ही गौ माता को देखा तो जैसे महापाषाण द्रवित हो गया हो ,परशुराम जी के नेत्रो से अश्रु निकल पड़े। उन्होंने गौ माता के गले में अपनी लंबी बाहे दाल दी ।विपक्षी विरोंके नाशक परशुरामजी ने बछड़ेके साथ कामधेनु लौटा ली । वह बहुत ही दुखी हो रही थी। उन्होंने उसे अपने आश्रमपर लाकर पिताजी को सौंप दिया और महिष्मतीमें सहस्त्रबाहु ने तथा उन्होंने जो कुछ किया था, सब अपने पिताजी तथा भाइयों को कह सुनाया ।यद्यपि शिव जी ने आज्ञा दी थी राज के वध की परंतु फिर भी महर्षि जमदग्नि का मन परशुराम जी द्वारा किये भीषण हिंसा से अशांत हो गया। सब कुछ सुनकर जमदग्नि मुनिने कहा -हाय, हाय, परशुराम ! तुमने बड़ा पाप किया । राम, राम ! तुम बडे वीर हो, परंतु सर्वदेवमय नरदेवका तुमने व्यर्थ ही वध किया ।बेटा ! हमलोग ब्राह्मण हैं । क्षमाके प्रभाव सेे ही इम संसारमें पूजनीय हुए हैं । और तो क्या, सबके दादा ब्रह्माजी भी क्षमाके बलसे ही ब्रह्मपदक्रो प्राप्त हुए हैं । ब्राह्मणोंकी शोभा क्षमाके द्वारा ही सूर्यंकी प्रभाके समान चमक उठती है । सर्वशक्तिमान् भगवान् श्रीहरि भी क्षमावानोंपर ही शीघ्र प्रसन्न होते हैं ।  बस ! सार्वभौम राजाका वध ब्राह्मणक्री हत्यासे भी बढकर है । जाओ, भगवान् का स्मरण करते हुए तीर्थो का सेवन करके अपने पापों को धो डालो ।तुम्हारे लिए प्रायश्चित्त आवश्यक है।
परशुराम जी ने कहा – पिताजी, प्रेमपूर्वक स्वागत करनेवाले तपस्वी ब्राह्मण की गाय बलपूर्वक छीन लेने वाले नराधम और परम पातकी का वध पाप नहीं।परशुराम जी ने सर झुकाकर शांतिपूर्वक उत्तर दिया।पर आपके आदेश अनुसार मई प्रायश्चित्त अवश्य करूँगा।आपकी प्रत्येक आज्ञा मुझे शिरोधार्य है।
इसके बाद वे एक वर्षतक तीर्थयात्रा करके अपने आश्रमपर लौट आये । एक दिन की बात है ,परशुराम जी की माता रेणुका गंगातट पर गयी हुई थीं । वहां उन्होंने देखा कि गन्धर्वराज चित्ररथ कमलों की माला पहने अप्सराओ के साथ विहार कर रहा है । वे जल लानेके लिये नदीतट पर गयी थी, परंतु वहाँ जलक्रीडा करते हुए गन्धर्व को देखने लगों अंतर पतिदेव के हवनका समय हो गया है इस बातको भूल गयी । उनका मन कुछ कुछ चित्ररथ की ओर खिंच भी गया था । हवनका समय बीत गया, यह जानकर वे महर्षि जमदग्नि के शापसे भयभीत हो गयीं और तुरंत वहासे आश्रमपर चली आयी । वहां जलका कलश महर्षिके सामने रखकर हाथ छोड़ खडी हो गयीं ।  जमदग्नि मुनिने अपनी पत्नी का मानसिक व्यभिचार जान लिया और क्रोध करके कहा – मेरे पुत्रो ! इस पापिनी को मार डालो। परंतु चारो में से किसी भी पुत्र ने उनकी यह मातृवध की आज्ञा स्वीकार नहीं की । इसके बाद पिता की आज्ञासे परशुराम जी ने माताके साथ साथ चारो भाइयो का मस्तक काट दिया। अपने पिता जी के योग और तपस्याका प्रभाव वे भलीभांति जानते थे ।पशुरामजी के इस कार्य पर महर्षि जमदग्नि बहुत प्रसन्न हुए और उन्होंने कहा- बेटा ! तुम्हारी जो इच्छा हो, वा मांग लो । 
परशुरामजीने कहा -पिताश्री ! मेरी माता और सब भाई जीवित हो जायँ तथा उन्हें इस बात की याद न रहे कि मैंने उन्हें मारा था है । युद्ध में मेरा कोई सामना कर सके और मैं दीर्घायु प्राप्त करू। यही होगा इस प्रकार महर्षि बोले ,आगे उन्हीने कहा इन सब के सिर इनके धड़ से जिद दो। जैसे कोई सोकर उठे, सब के सब अनायास ही सकुशल उठ बैठे । उन्हीने समझा ,हमें गाढ़ निद्रा आ गयी थी। परशुराम जी ने अपने पिताजी का तपोबल जानकर ही तो अपने सुहृदों का वध किया था।
सहस्त्रबाहु के जो लड़के परशुराम जी सेे हारकर भाग आये थे, उन्हें अपने पिताके वध की याद निरन्तर बनी रहती थी । कही एक क्षणके लिये भी उन्हें चैन नहीं मिलता था । एक दिन की बात है, परशुरामजी अपने भाइयों के साथ आश्रम से बाहर वन में दूर चले गये हुए हैे। यह अवसर पाकर वैर साधने के लिये सहस्त्रबाहुके लड़के वहाँ आ पहुँचे ।उस समय महर्षि जमदग्नि अग्निशालामें बैठे हुए थे और अपनी समस्त वृत्तियों से पवित्रकीर्ति भगवान् के ही चिन्तनमें मग्न हो रहे थे । उन्हें बाहर की कोई सुध न थी । उसी समय उन पापियोंने जमदग्नि ऋषि को मार डाला। उन्होंने पहले से ही ऐसा पापपूर्ण निश्चय कर रखा था। परशुराम जी की माता रेणुका बड़ी दीनता से उनसे प्रार्थना कर रही थी परंतु उन सबो ने उनकी एक न सुनी। वे पापी महर्षि जमदग्नि का मस्तक काट कर अपने साथ ले गए। 
सती रेणुका दुःख और शोक से आतुर हो गयी और सिर पीट पीटकर जोर जोर से रोने लगी-  परशुराम ! बेटा परशुराम शीघ्र आओ । परशुरामजीने बहुत दूरसे माता का ‘हा राम ! हा राम!यह करुण क्रन्दन सुन लिया । वे बडी शीघ्रतासे आश्रमपर आये और वहां जाकर देखा कि पिताजी मार डाले गये हैं ।उस समय परशुरामजी को बडा दुख हुआ । साथ ही क्रोध, असहिष्णुता, मानसिक पीडा और शोकके वेगसे वे अत्यन्त मोहित हो गये । ‘हाय पिताजी ! आप तो बड़े महात्मा थे । पिताजी ! आप तो धर्मके सच्चे पुजारी थे । आप हमलोगों को छोड़कर स्वर्ग चले गये है । परशुराम जी ने अपने मृत पिता के शरीर पर इक्कीस घाव देखे। इस प्रकार विलापकर उन्होंने पिताका शरीर तो भाइयों को सौंप दिया और स्वयं हाथमे फरसा उठाकर क्षत्रियोंका संहार कर डालनेका निश्चय किया ।  परशुरामजीने माहिषाती नगरीमें जाकर सहस्त्रबाहु अर्जुनके पुत्रोंके सिरों से नगरके बीचो-बीच एक बड़ा भारी पर्वत खडा कर दिया । उस नगरक्री शोभा तो उन ब्रह्मधाती नीच क्षत्रियोंके कारण ही नष्ट हो चुकी थी ।उनके रक्त से एक बडी भयंकर नदी बह निकली, जिसे देखकर ब्राह्मणद्रोहियोंका ह्रदय भयसे कांप उठता था । भगवान् ने देखा कि वर्तमान क्षत्रिय अत्याचारी हो गये हैं । इसलिये उन्होंने अपने पिताके वध का निमित्त बनाकर इक्वदीस बार मृथ्वीको क्षत्रिय हीन कर दिया और कुरुक्षेत्रके समन्तपंचक में ऐसे पांच तालाब बना दिये, जो रक्तके जलसे भरे हुए थे ।
*विविध ग्रंथो में कल्प भेद के अनुसार विविध कथाये प्राप्त होती है।
रेणुका माहात्म्य नामक ग्रन्थ में लिखा है – परशुराम जी ने एक पलड़े में महर्षि जमदग्नि का धड़ रखा तथा दूसरे पलड़ेमे विधवा माता रेणुका को बैठाया, फिर कांवड़ को अपने कंधेपर उठाकर तीर्थाटन को चल पड़े और सह्याद्रिपर्वत पर माहुरगढ़ नामक तीर्थक्षेत्रमें पहुंचे । उस समय आकाशवाणी सुनायी पडी कि इस पवित्र क्षेत्रमें तुम अपने पिता महर्षि जमदग्नि के धड़का अग्नि संस्कार करो । तब परशुरामने वैसा ही किया । वहांपर रेणुका स्वपति के देहके साथ अग्नि में प्रविष्ट होकर सती हुई । 
महाभारत्तमें आया है कि भगत्रान् परशुरामने इस पृथ्वीको इक्सीस बार क्षत्रियो से सूनी करके उनके रक्तसे  समन्तपंचक में पांच रुधिर कुण्ड भर दिये और रक्ताञ्जलिके द्वारा उन कुंडो में पितरोंका तर्पण किया तर्पण के समय उन्होंने अपने पितामहका साक्षात् दर्शन किया । ऋचीक आदि पितृगण परशुराम जी के पास आकर बोले – राम ! तुम्हारी पितृभक्ति और पराक्रमसे हम बहुत प्रसन्न हैं, तुम्हें जिस वरकी अभिलाषा हो, माँग लो । इसपर परशुरामजीने कहा -पितृगणो ! मैंने जो क्रोधवश क्षत्रियवंश का विध्वंस किया है, इस पापसे मैं मुक्त हो जाऊँ और मेरे बनाये ये सरोवर पृथ्वी में प्रसिद्ध तीर्थ हो जायँ । ऐसा ही होगा-‘ एवं भविष्यति  ( महाभारत) यह कहकर पितरोंने उन्हें वरदान दिया और कहा- अब शेष क्षत्रिय वंश का संहार मत करना ,उन्हें क्षमा कर देना ।
स्कंदपुराण में वर्णन है-यद्यपि परशुराम जी के पाप पितरों के आशीर्वाद से ही भस्म हो गए थे परंतु भगवान् शिव का माहात्म्य प्रकट करने हेतु भगवान् ने एक लीला रची। 
परशुराम जी को क्षत्रियों के वध करने का जो पाप लगा । उस पाप के प्रयाश्चित्त के लिये उन्होंने अश्वमेध यज्ञ किया । उस यज्ञ में सारी पृथ्वी उन्होंने कश्यप ऋषि को दान में दे डाली और असंख्य ब्राह्मणों को हाथी, घोडा, रथ, पालकी, सोना, चांदी अदि दिये । यह सब करनेपर भी परशुराम जी को अनेक प्राणियों के वधज़नित पाप से मुक्ति नहीं मिली । इससे वे रैवतक पर्वत पर गये और वहां बहुत समय तक उग्र तप करते रहे । कठिन तप करनेपर भी हत्या से छुटकारा न मिलनेपर परशुराम ने महेन्द्र, मलय, सह्य, हिमालय आदि पवित्र पर्वतो की यात्रा की । तत्पमृचात् नर्मदा, यमुना, चन्द्रभागा, गंगा, इरावती, वितस्ता, चर्मण्वती, गोमती, गोदावरी आदि पुण्यसलिला नदियों में श्रद्धापूर्वक स्नान किया ।
इसीके साथ साथ गया, कुरुक्षेत्र, नैमिशारण्य, पुष्कर, प्रभास आदी सभी तीर्थो का सेवन किया, पर हत्याजनित पापसे मुक्ति नहीं मिली । अपने इस कठिन परिश्रम को निष्फल देखकर परशुराम जी अपने मनमें सोचने लगे कि मैने तीर्थो का सेवन क्रिया, पवित्र नदियो के जलसे अपने पापो को धोने का प्रयत्न किया, घोर तपस्या भी की, परंतु मुझे हत्या के पाप से छुटकारा नहीं मिला । इससे ज्ञात होता है कि आजकल ये लिब निसत्त्व हो गये है । अतएव इनका सेवन करना व्यर्थ है । मैने अपने शरीर को व्यर्थ ही कष्ट दिया । वे इस प्रकार दुखित हो ही रहे थे कि इतने में देवर्षि नारद वहाँ आ पहुंचे । उन्हें सादर अभिवादन कर परशुरामजी कहने लगे कि देवर्षे! पिताकी आज्ञासे मैंने अपनी माता का वध किया और पिताके वध करनेवालों से बदला लेनेके लिये भुमण्डल के समस्त क्षत्रियो का विनाश कर डाला । यह सब करनेपर मुझे हत्याजनित पाप का भय हुआ, उसके निवारण के लिये मैंने अनेक तप और तीर्थ किये, पर. अब तक किसीसे प्रायश्चित्त नहीं हुआ ।
नारदजी बोले कि महाकाल वन(उजैन अवंतिका) में ब्रह्महत्या-जनित पाप का निवारण करनेवाला सर्व सिद्धि दायक ज़टेश्वर नामक शिवजी का एक महालिङ्ग है । परशुराम ! तुम वहां शीघ्र जाओ और उनकी आराधना करो । उनके प्रसाद से तुम समस्त पापोंसे मुक्त हो जाओगे ।  नारदजी के उपदेशानुसार परशुराम जी उसी समय उनको
प्रणाम कर सर्वकामना परिपूरक पवित्र महाकालवन को चल दिये । वहां पहुंचकर चिरकाल तक श्री जटेश्वर महादेवजी की आराधना की। उनकी एकनिष्ठ आराधना से प्रसन्न होकर भगवान् शिव ने लिङ्गसे प्रकट होकर उन्हें दर्शन दिये । उनके परमानन्दप्रद दर्शन पाकर परशुराम जी मुग्ध हो गये और स्तुति करने लगे कि ‘प्रभो ! आप शरणागतवत्सल हैं दीनजनोंके हित करने के लिये आप अनेक रूप धारण करते है । हे करुणावरुणालय ! मैं इस समय हत्याजनित पापसे दबा जा रहा हूं । इससे मेरा उद्धार कीजिये । यदि जाप मुझपर प्रसन्न है तो मुझे यही वर दीजिये कि आपके चरण कमलों में मेरा अविचल एवं प्रगाढ़ प्रेम बना रहे । उनकी स्तुति से भगवान् शंकर प्रसन्न होकर उन्हें हत्या के पाप-से मुक्त कर दिया और कहा कि आजसे इस लिङ्गका नाम तुम्हारे ही नामसे विख्यात होगा । इसे लोग अब ‘रामेश्वर’ कहेंगे (यह रामेश्वर शिवलिंग श्रीराम द्वारा स्थापित लिंग से पृथक है)। जो लोग भक्ति पूर्वक रामेश्वर की पूजा करेंगे, उनके जन्म भरके पाप जल जायेंगे । हजारों ब्रह्म हत्याओ के भी पाप श्रीरामेश्वरजी के दर्शन करने से विनष्ट हो जायेगे । स्कन्दपुराण के अवन्तिखंड (लिङ्गमाहाल्य २९ । ४७ ५० ) में इस शिवलिंग का बड़ा माहात्म्य लिखा है ।
श्रीमद्भागवत में लिखा है-परशुराम जी ने अपने पिताजीका सिर लाकर उनके धड़ से जोड़ा दिया और यज्ञोंद्वारा सर्वदेवमय आत्मस्वरुप भगवान का यजन किया । 
यज्ञोंमें उन्होंने पूर्व दिशा होता को, दक्षिण दिशा ब्रह्माक्रो, पश्चिम दिशा अध्वर्यु को और उत्तर दिशा सामगान करनेवाले उद् गाता को दे दी । इसी प्रकार अग्निकोण आदि दिशाएँ ऋत्विजो को दीं, कश्यपजी को मध्यधुति दी, उपद्रष्टा को आर्यावर्त दिया तथा दूसरे सदस्यों को अन्यान्य दिशाएं प्रदान कर दीं । इसके बाद अज्ञात स्नान करके वे समस्त पापोंसे मुक्त हो गये और ब्रह्मनदी सरस्वती के तटपर मेघरहित सूर्य के समान शोभायमान हुए । महर्षि जमदग्नि को स्मृतिरूप संकल्पमय शरीर की प्राप्ति हो गयी । परशुराम जी से सम्मानित होकर वे सप्तर्षियोंके मण्डलमें सातवें ऋषि हो गये ।  कमललोचन जमदग्नि नन्दन भगवान् परशुराम आगामी मन्वन्तरमें सप्तर्षिर्योक्रे मण्डलमें रहकर वेदों का विस्तार करेंगे ।  वे आज भी किसीको किसी प्रकारका दण्ड न देते हुए शान्त चित्तसे महेन्द्र पर्वतपर निवास करते हैं । वहां सिद्ध, गन्धर्व और चारण उनके चरित्रका मधुर गान करते रहते हैं । 
समस्त पृथ्वी का दान कर भगवान् परशुराम महेंद्र पर्वत पर निवास करने लगे तब एक समय महर्षि भरद्वाज के यशस्वी पुत्र द्रोण धनुर्वेद, दिव्यास्त्रों एवं नीतिशास्त्र के ज्ञान के लिए भगवान् परशुराम के पास पहुँचे। मैं आंगिरस कुलोत्पन्न महर्षि भरद्वाज का अयोनिज पुत्र द्रोण हूं।अपना परिचय देते हुए द्रोण ने परशुराम जी के चरणों में प्रणाम् किया और कहा- मै धन की इच्छासे आपके पास आया हूं, आप मुझपर दया करे। 
अब तो मैंने केवल अपने शारीर को ही बचा रखा है अन्य सब कुछ दान कर दिया। किसी एक को मांग लो । प्रभो! आप मुझे सम्पूर्ण अस्त्र उनके प्रयोग तथा उपसंहार विधि प्रदान करे । द्रोणने निवेदन किया । तब रेणुकानन्दन ने अपने सब अस्त्र द्रोण को दे दिये । आचार्य द्रोण परशुराम।जी से दुर्लभ ब्रह्मास्त्र का भी ज्ञान प्राप्तकर धरतीपर अत्यधिक शक्तिशाली हो गये । 
श्री परशुराम जी कल्पांत स्थायी है।अधिकारी व्यक्ति को आज भी भगवान् परशुराम के दर्शन होते है। ऐसे महान शिव भक्त, पितृभक्त, गौ भक्त ,महाबली ,गौ-ब्राह्मण रक्षक भगवान् परशुराम को कोटिशः वंदन है।