बुधवार, 31 अगस्त 2016

महाभारत अनुशासन पर्व अध्याय 77 श्लोक 19-35

महाभारत: अनुशासन पर्व: सप्तसप्ततितम अध्याय: श्लोक 19-35 का हिन्दी अनुवाद
जैसे नदियों की लहरों से फेन उत्पन्न होता है, उसी प्रकार चारों ओर दूध की धारा बहाती हुई अमृत (सुवर्ण) के समान वर्ण वाली उन गौओं के दूध से फेन उठने लगा। एक दिन भगवान शंकर पृथ्वी पर खड़े थे। उसी समय सुरभि के एक बछड़े के मुंह से फेन निकलकर उनके मस्तक पर गिर पड़ा इससे वे कुपित हो उठे और अपने ललाट जनित नेत्रों से, मानो रोहिणी को भस्म कर डालेंगे, इस तरह उसकी ओर देखने लगे। प्रजानाथ। रूद्र का वह भयंकर तेज जिन-जिन कपिलाओं पर पड़ा उनके रंग नाना प्रकार के हो गये। जैसे सूर्य बादलों को अपनी किरणों से बहुरंगा बना देते हैं, उसी प्रकार उस तेज ने उन सब को नाना वर्ण वाली कर दिया। परंतु जो गौऐं वहां से भागकर चन्द्रमा की ही शरण में चली गयीं, वे जैसे उत्पन्न हुई थीं वैस ही रह गयीं। उनका रंग नहीं बदला। उस समय क्रोध में भरे हुए महादेवजी से दक्ष प्रजापति ने कहा-प्रभो। आपके ऊपर अमृत का छींटा पड़ा है। गौओं का दूध बछड़ों क पीने से जूठा नहीं होता। जैसे चन्द्रमा अमृत का संग्रह करके फिर उसे बरसा देता है, उसी प्रकार ये रोहिणी गौऐं अमृत से उत्पन्न दूध देती हैं। ‘जैसे वायु, अग्नि, सुवर्ण, समुद्र और देवताओं का पीया हुआ अमृत- ये वस्तुऐं उच्छिष्ट नहीं होतीं, उसी प्रकार बछड़ों के पीने पर उन बछड़ों के प्रति स्नेह रखने वाली गौ भी दूषित या उच्छिष्ट नहीं होती। (तात्पर्य यह कि दूध पीते समय बछड़े के मुंह से गिरा हुआ झाग अशुद्व नहीं माना जाता) ये गौऐं अपने दूध और घी से इस सम्पूर्ण जगत का पालन करेंगे। सब लोग चाहते हैं कि इन गौओं के पास मंगलकारी अमृतमय दुग्ध की संपत्ति बनी रहे’। भरतनन्दन। ऐसा कहकर प्रजापति ने महादेवजी को बहुत-सी गौऐं और एक बैल भेंट किये तथा इसी उपाय के द्वारा उनके मन को प्रसन्न किया। महादेवजी प्रसन्न हुए। उन्होंने वृषभ को अपना वाहन बनाया और उसी की आकृति से अपनी ध्वजा को चिन्हित किया, इसलिये वे ‘वृषभध्वज’ कहलाये। तदनन्तर देवताओं ने महादेवजी को पशुओं का अधिपति बना दिया और गौओं के बीच में उन महेश्‍वर का नाम ‘वृषभांक’ रख दिया। इस प्रकार कपिला गौऐं अत्यन्त तेजस्विनी और शान्त वर्णवाली हैं। इसी से दान में उन्हें सब गौओं से प्रथम स्थान दिया गया है। गौऐं संसार की सर्वश्रेष्ठ वस्तु हैं। ये जगत् को जीवन देने के कार्य में प्रवृत हैं। भगवान शंकर सदा उनके साथ रहते हैं। वे चन्द्रमा से निकले हुए अमृत से उत्पन्न हुई हैं तथा शान्त, पवित्र, समस्त कामनाओं को पूर्ण करने वाली और जगत् को प्राणदान देने वाली हैं; अतः गोदान करने वाला मनुष्य सम्पूर्ण कामनाओं का दाता माना गया है। गौओं क उत्पत्ति से सम्बन्ध रखने वाली इस उत्तम कथा का सदा पाठ करने वाला मनुष्य अपवित्र हो तो भी मंगलप्रिय हो जाता है और कलियुग के सारे दोषों से छूट जाता है। इतना ही नहीं, उसे पुत्र, लक्ष्मी, धन तथा पशु आदि की सदा प्राप्ति होती है। राजन। गोदान करने वाले को हव्य, कव्य, तर्पण और शान्ति कर्म का फल तथा वाहन, वस्त्र एवं बालकों और वृद्वों को संतोष प्राप्त होता है। इस प्रकार ये सब गोदान के गुण हैं। दाता इन सबको सदा पाता ही है।वैशम्पायनजी कहते हैं- राजन। पितामह भीष्म की ये बातें सुनकर अजमीढ वंशी राजा युधिष्ठिर और उनके भाईयों ने श्रेष्ठ ब्राह्माणों को सोने के समान रंग वाले बैलों और उत्तम गौओं का दान किया। इसी प्रकार यज्ञों की दक्षिणा के लिये, पुण्यलोकों पर विजय पाने के लिये तथा संसार में अपनी उत्तम कीर्ति का विस्तार करके के लिये राजा ने उन्हीं ब्राह्माणों को सैकड़ों और हजारों गौऐं दान की ।

इस प्रकार श्रीमहाभारत अनुशासनपर्व के अन्‍तगर्त दानधर्मपर्वमें गौओं की उत्पत्ति का वर्णनविषयक सतहत्तरवाँ अध्‍याय पूरा हुआ।

महाभारत अनुशासन पर्व अध्याय 77 श्लोक 1-18

महाभारत: अनुशासन पर्व: सप्तसप्ततितम अध्याय: श्लोक 1-18 का हिन्दी अनुवाद
कपिला गौओं की उत्‍पत्ति और महिमा का वर्णन

वैशम्पायनजी कहते हैं- जनमेजय। तदन्तर राजा युधिष्ठिर ने पुनः शान्तनुनन्दन भीष्म से गोदान की विस्तृत विधि तथा तत्सम्बन्धी धर्मों के विषय में विनय पर्वूक जिज्ञासा की। युधिष्ठिर बाले- भारत। आप गोदान के उत्तम गुणों का भलीभांति पुनः मुझसे वर्णन कीजिये। वीर ऐसा अमृतमय उपदेश सुनकर मैं तृप्त नहीं हो रहा हूं। वैशम्पायनजी कहते हैं- राजन। धर्मराज युधिष्ठिर के ऐसा कहने पर उस समय शान्तनुनन्दन भीष्म केवल गोदान-सम्बन्धी गुणों का भलिभांति (विधिवत) वर्णन करने लगे। भीष्मजी ने कहा- बेटा। वात्सल्य भाव से युक्त, गुणवती और जवान गाय को वस्त्र उढाकर उसका दान करें। ब्राह्माण को ऐसी गाय का दान करके मनुष्य सब पापों से मुक्त हो जाता है। असुर्य नाम के जो अन्धकारमय लोक (नरक) हैं उनमें गोदान करने वाले पुरूष को नहीं जाना पड़ता, जिसका घास खाना और पानी पीना प्रायः समाप्त हो चुका हो, जिसका दूध नष्ट हो गया है, जिसकी इन्द्रिया का न दे सकती हों, जो वुढापा और रोग से आक्रान्त होने के कारण शरीर से जीर्ण-षीर्ण हो बिना पानी की बावड़ी समान व्यर्थ हो गयी हो, ऐसी गौ का दान करके मनुष्य ब्राह्माण को व्यर्थ कष्ट में डालता है और स्वयं भी घोर नरक में पड़ता है। जो क्रोध करने वाली दुष्टा, रोगिनी और दुबली-पतली हो तथा जिसका दाम न चुकाया गया हो, ऐसी गौ का दान करना कदापि उचित नहीं है। जो इस तरह की गाय देकर ब्राह्माण को व्यर्थ कष्ट में डालता है उसे निर्वल और निष्फल लोक ही प्राप्त होते हैं । हुष्ट-पुष्ट, सुलक्षणा, जवान तथा उत्तम गंध वाली गाय की सभी लोग प्रशंसा करते हैं। जैसे नदियों में गंगा श्रेष्ठ है, वैसे ही गौओं में कपिला गौ उत्तम मानी गयी है। युधिष्ठिर ने पूछा- पितामह। किसी भी रंग की गाय का दान किया जाये, गोदान तो एक-सा ही होगा? फिर सत्पुरूषों ने कपिला गौ की ही अधिक प्रशंसा क्यों की है? मैं कपिला के महान प्रभाव को विशेष रूप से सुनना चाहता हूं। मैं सुनने में समर्थ हूं और आप कहने मे। भीष्मजी ने कहा- बेटा। मैंने बड़े-बूढ़ों के मुंह से रोहिणी (कपिला) की उत्पत्ति का जो प्राचीन वृतांत सुना है, वह सब तुम्हे बता रहा हूं। सृष्टि के प्रारंभ में स्वयम्भू व्रम्हाजी ने प्रजापति दक्ष को यह आज्ञा दी ‘तुम प्रजा की सृष्टि करो किंतु प्रजापति दक्ष ने प्रजा के हित की इच्छा से सर्वप्रथम उनकी आजीविका का ही निर्माण किया। प्रभू। जैसे देवता अमृत का आश्रय लेकर जीवन-निर्वाक करते हैं, उसी प्रकार समस्त प्रजा आजीविका के सहारे जीवन धारण करती है। स्थावर प्राणियों से जंगम प्राणी सदा श्रेष्ठ हैं। उनमें भी मनुष्य और मनुष्यों में भी ब्राह्माण श्रेष्ठ है; क्यांकि उन्हीं में यज्ञ प्रतिष्ठित है। यज्ञ से सोम की प्राप्ति होती है और वह यज्ञ गौओं में प्रतिष्ठित है, जिससे देवता आनंदित होते हैं अतः पहले पहले आजीविका है फिर प्रजा। समस्त प्राणी उत्पन्न होते ही जीविका के लिये कोलाहल करने लगे। जैसे भूखे-प्यासे बालक अपने मां-बाप के पास जाते हैं, उसी प्रकार समस्त जीव जीविका दाता दक्ष के पास गये। प्रजाजनों की इस स्थिति पर मन-ही-मन विचार करके भगवान प्रजापति ने प्रजावर्ग की आजीविका के लिये उस समय अमृत का पान किया । अमृत पीकर जब वे पुर्ण तृप्त हो गये, तब उनके मुख से सुरभि (मनोहर) गंध निकलने लगी। सुरभि गंध के निकलने के साथ ही ‘सुरभि’ नामक गौ प्रकट हो गयी जिसे प्रजापति ने अपने मुख से प्रकट हुई पुत्री के रूप में देखा। उस सुरभि ने बहुत-सी ‘सौरभेयी’ नाम वाली गौओं को उत्पन्न किया, जो सम्पूर्ण जगत के लिये माता समान थी। उन सब का रंग सुवर्ण के समान उद्दीप्त हो रहा था। वे कपिला गौऐं प्रजाजनों के लिये आजीविका रूप दूध देने वाली थी।

महाभारत अनुशासन पर्व अध्याय 76 श्लोक 23-31

महाभारत: अनुशासन पर्व: षट्सप्ततितम अध्याय: श्लोक 23-31 का हिन्दी अनुवाद
‘संसार में बहुत से अश्रद्धालु है (जो इन सब बातों पर विश्‍वास नहीं करते ), तथा राक्षसी प्रकृति के मनुष्यों में बहुत से ऐसे क्षुद्र पुरुष हैं (जिन्हें ये बातें अच्छी नहीं लगती), कितनें ही पुण्यहीन मानव नास्तिक का सहारा लिये रहते हैं। उन सबको इसका उपदेश देना अभिष्ट नहीं है, उल्टे अनिष्टकारक होता है’। राजन। बृहस्पिति जी के इस उपदेश को सुनकर जिन राजाओं ने गोदान करके उसके प्रभाव से उत्तम लोक प्राप्त किये तथा जो सदा के लिये पुण्यात्मा बनकार सत्कर्मों में प्रवृत्त हुए, उनकें नामों का उल्लेख करता हूं, सुनो । उशीनर, विश्‍वगस्व, नृग, भागीरथ, सुविख्यात युवनाशकुमार महाराज मान्धाता, राजा मुचुकन्द, भूरिद्युम्न, निषधनरेश नल, सोमक, पुरूरवा, चक्रवर्ती भरत- जिनके वंश में होने वाले सभी राजा भारत कहलाये। दशरथ नन्‍दन वीर श्रीराम, अन्यान्य विख्यात कीर्ति वाले नरेश तथा महान कर्म वाले राजा दिलीप- इन समस्त विधिज्ञ नरेशों ने गोदान करके स्वर्गलोक प्राप्त किया है। राजा मान्धाता तो यज्ञ, दान, तपस्या, राजधर्म तथा गोदान आदि सभी श्रेष्ठ गुणों से सम्पन्न थे। अतः कुन्तीनन्दन। तुम भी मेरे कहे हुए बृहस्पतिजी के इस उपदेश को धारण करों और कौरव राज्य पर अधिकार पाकर उत्तम ब्राह्माण को प्रसन्नता पूर्वक पवित्र गौओं का दान करो। वैशम्पायनजी कहते हैं- जनमेजय। भीष्मजी ने जब इस प्रकार विधिवत गोदान करने की आज्ञा दी, तब धर्मराज युधिष्ठिर ने सब वैसा ही किया तथा देवताओं के देवता बृहस्पतिजी ने मान्धाता के लिये जिस उत्तम धर्म का उपदेश दिया था, उसको भी भलिभांति स्मरण रखा। नरेश्‍वर। राजाओं में श्रेष्ठ युधिष्ठिर उन दिनों सदा गोदान के लिये उद्वत होकर गोबर के साथ जौ के कणों का आहार करते हुए मन और इन्द्रियों के संयम पूर्वक पृथ्वी पर शयन करने लगे। उनके सिर पर जटाऐं बढ़ गयी और वे साक्षात धर्म के समान दैदीप्यमान होने लगे। नरेन्द्र। राजा युधिष्ठिर सदा ही गौओं के प्रति विनीत-चित्त होकर उनकी स्तुति करते रहते थे। उन्होंने फिर कभी बैल का अपनी सवारी में उपयोग नहीं किया। वे अच्छे-अच्छे घोड़ों द्वारा ही इधर-उधर की यात्रा करते थे।

इस प्रकार श्रीमहाभारत अनुशासनपर्व के अन्‍तगर्त दानधर्मपर्व में गोदान कथन विषयक छिहत्तरवाँ अध्‍याय पूरा हुआ।

महाभारत अनुशासन पर्व अध्याय 76 श्लोक 13-22

महाभारत: अनुशासन पर्व: षट्सप्ततितम अध्याय: श्लोक 13-22 का हिन्दी अनुवाद
‘इसके बाद प्रथम दृष्टि पथ में आया हुआ दाता पहले विधि पूर्वक निम्‍नांकितआधे श्‍लोक का उच्चारण करे ‘-गौओ। तुम्हारा जो रूवरुप है, वही मेरा भी है- तममें और हममें कोई अन्तर नहीं है; अतः आज तुम्हें दान में देकर हमनें अपने आपको ही दान कर दिया है।’ दाता के ऐसा कहने पर दान लेने वाला गोदान विधि का ज्ञाता ब्राह्माण शेष आधे श्लोक का उच्चारण करे-गौओ। तुम शांत और प्रचण्ड़ रुप धारण करने वाली हो। अब तुम्हारे ऊपर दाता का ममत्व (अधिकार) नहीं रहा, अब तुम मेरे अधिकार में आ गयी हो; अतः अभीष्ट भोग प्रदान करके तुम मुझें और दाता को भी प्रसन्न करो’।‘जो गौ के निष्क्रय रुप से उसका मूल्य,वस्त्र अथवा सुवर्ण का दान करता है, उसको भी गोदाता ही कहना चाहिए। मूल्य,वस्त्र अथवा सुवर्ण में दी जाने वाली गौओं का नाम क्रमश: ऊर्ध्‍वास्‍या, भवितव्या और वैष्णवी है। संकल्प के समय इनके इन्ही नामों का उच्चारण करना चाहिये अर्थात-‘ऐसा कहकर ब्राह्माण को वह दान ग्रहण करने के लिये प्रेरित करना चाहिये। ‘इनके दान का फल क्रमश: इस प्रकार है- गौ का मूल्य देने वाला छत्तीस हजार वर्षों तक, गौ की जगह वस्त्र दान करने वाला आठ हजार वर्षो तक तथा स्थान में सुवर्ण दान देने वाला पुरुष बीस हजार वर्षो तक परलोक में सुख भोगता है। इस प्रकार गौओ के निष्क्रय दान का क्रमश: फल बताया गया हैं। इसे अच्छी तरह जान लेना चाहिये। साक्षात् गौ का दान लेकर जब ब्राह्माण अपने घर की और जाने लगता है, उस समय उसके आठ पग जाते-जाते ही दाता को अपने दान का फल मिल जाता है। ‘साक्षात गौ का दान करने वाला शीलवान् और उसका मूल्य देने वाला निर्भय होता है तथा गौ की जगह इच्छानुसार सुवर्ण दान करने वाला मनुष्य कभी दुःख में नही पड़ता हैं। जो प्रातःकाल उठकर नैत्यिक नियमों का अनुष्ठान करने वाला और महाभारत का विद्धान् है तथा जो विख्यात वैष्णव है, वे सब चन्द्रलोक में जाते है। ‘गौ का दान करने के पश्चात् मनुष्य को तीन रात तक गो व्रत का पालन करना चाहिये और यहां एक रात गौओ के साथ रहना चाहिये। कामाष्टमी से लेकर तीन रात तक गोबर, गोदुग्ध अथवा गौरस मात्र का आहार करना चाहिये। ‘ जो पुरुष एक बैल का दान करता है, वह देवव्रती (सूर्यमण्ड़ल का भेदन करके जाने वाला ब्राम्हचारी) होता है। जो एक गाय और एक बैल दान करता है उसे वेदों की प्राप्ति होती है, तथा जो विधि पूर्वक गो दान यज्ञ करता है उसे उत्तम लोक मिलते है, परंतु जो विधि को नहीं जानता, उसे उत्तम फल की प्राप्ति नहीं होती। ‘जो इच्छानुसार दूध देने वाली धेनु का दान करता है, वह मानो समस्त पार्थिव भोगो का एक साथ ही दान कर देता है। जब एक गो के दान का ऐसा माहात्म्य है तब हव्य-कव्य की राशि से सुशोभित होनें वाली बहुत-सी गौओ का यदि विधिपूर्वक दान किया जाये तो कितना अधिक फल हो सकता है? नौजवान बैलों का दान उन गौओं से भी अधिक पुण्यदायक होता है। ‘जो मनुष्य अपना शिष्य नहीं है, जो व्रत का पालन नहीं करता, जिसमें श्रद्धा का अभाव है तथा जिसकी बुद्धि कुटिल है, उसे इस गो-दान विधि का उपदेश न दे; क्यों कि यह सबसे गोपनीय धर्म है; अतः इसका यत्र-तत्र सर्वत्र प्रचार नहीं करना चाहिये।

महाभारत अनुशासन पर्व अध्याय 76 श्लोक 1-12

महाभारत: अनुशासन पर्व: षट्सप्ततितम अध्याय: श्लोक 1-12 का हिन्दी अनुवाद
गोदान की वि‍धि, गौओं से प्रार्थना, गौओं के निष्‍क्रय और गोदान करने वाले नरेशों के नाम

युधिष्ठिर ने कहा- नरेश्‍वर। अब मैं गोदान की उत्तम विधि का यथार्थ रूप से श्रवण करना चाहता हूं; जिससे प्रार्थी पुरूषों के लिये अभीष्ट सनातन लोकों की प्राप्ति होती है। भीम्मजी ने कहा- पृथ्वीनाथयुधिष्ठिर । गोदान से बढकर कुछ भी नहीं है। यदि न्यायपूर्वक प्राप्त हुई गौ का दान किया जाय तो वह समस्त कुल का तत्काल उद्वार कर देती है। राजन। ऋषियों ने सत्पुरूषों के लिये समीचीन भाव से जिस विधि को प्रकट किया है, वही इन प्रजाजनों के लिये भलीभांति निश्चित किया गया है। इसलिये तुम आदिकाल से प्रचलित हुई गोदान की उप उत्तम विधि का मुझसे श्रवण करो। पूर्वकाल की बात है, जब महाराज मान्धाता के पास बहुत-सी गौऐं दान के लिये लायी गयीं, तब उन्होंने ‘कैसी गौ दान करे?’ इस संदेह में पड़कर बृहस्पतिजी से तुम्हारी ही तरह प्रश्‍न किया। उस प्रश्‍न के उत्तर में बृहस्पतिजी ने इस प्रकार कहा-गोदान करने वाले मनुष्य को चाहिये कि वह नियम पूर्वक व्रत का पालन करे और ब्राह्माण को बुलाकर उसका अच्छी तरह सत्कार करके कहे कि मैं ‘कल प्रातः काल आपको एक गौ दान करूंगा’ तत्पश्‍चात् गोदान के लिये वह लाल रंग की (रोहिणी) गौ मंगाये और ‘समंगे बहुले’ इस प्रकार कहकर गाय को संबोधित करे, फिर गौओं के बीच में प्रवेश करके इस निम्नांकित श्रुति का उच्चारण करे-‘गौ मेरी माता है। वृषभ (बैल) मेरा पिता है। वे दोनों मुझे स्वर्ग तथा ऐहिक सुख प्रदान करें। गौ ही मेरा आधार है।’ ऐसा कहकर गौओं की शरण ले और उन्हीं के साथ मौनावलम्बन पूर्वक रात बिताकर सबेरे गोदान काल में ही मौन भंग करे- बोले । इस प्रकार गौओं के साथ एक रात रहकर उनके समान व्रत का पालन करते हुए उन्हीं के साथ एकात्म भाव को प्राप्त होने से मनुष्य तत्काल सब पापों से छूट जाता है। राजन। सूर्योदय के समय बछड़े सहित गौ का तुम्हें दान करना चाहिये। इससे स्वर्ग लोक की प्राप्ति होगी और अर्थवाद मन्त्रों में जो आशी: (प्रार्थना) की गयी है, वह तुम्हारे लिये सफल होगी। (वे मन्त्र इस प्रकार है, गोदान के पश्चात् इनके द्धारा प्रार्थना करनी चाहिये-) ‘गौएं उत्साह सम्पन्न, बल और बुद्धि से युक्त, यज्ञ में काम आने वाले अमृत स्वरुप हविष्य के स्थान, इस जगत् की प्रतिष्ठा (आश्रय), पृथ्वी पर बैलों के द्धारा खेती उपजने वाली, संसार के अनादि प्रवाह को प्रवृत्त करने वाली और प्रजापति की पुत्री हैं। यह सब गौओं की प्रशंसा है। ‘सूर्य और चन्द्रमा के अंश से प्रकट हुई वे गौएं हमारे पापों का नाश करें। हमें स्वर्ग आदि उत्तम लोकों की प्राप्ति में सहायता दें। माता की भांति शरण प्रदान करें। जिन इच्छाओं का इन मन्त्रों द्धारा उल्लेख नहीं हुआ है, वे सभी गो माता की कृपा से मेरे लिये पूर्ण हों। ‘गौओ। जो लोग तुम्हारी सेवा करते हुए तुम्हारी आराधना में लगे रहते है, उनके उन कर्मों से प्रसन्न होकर तुम उन्हें क्षय आदि रोगो से छुटकारा दिलाती हो और ज्ञान की प्राप्ति कराकर उन्हें देहबन्धन से मुक्त कर देती हो। जो मनुष्य तुम्हारी सेवा करते हैं, उनके कल्याण के लिये तुम सरस्वती नदी की भांति सदा प्रयत्नशील रहती हो। गोमाताओ। तुम हमारे उपर सदा प्रसन्न रहो और पुण्यों के द्धारा प्राप्त होने वाली अभीष्ट गति प्रदान करो।

महाभारत अनुशासन पर्व अध्याय 74 श्लोक 1-15

महाभारत: अनुशासन पर्व: चतुःसप्ततितम अध्याय: श्लोक 1-15 का हिन्दी अनुवाद
दूसरों की गाय को चुराकर देने या बेचने से दोष, गोहत्‍या के भयंकर परिणाम तथा गोदान एवं सुवर्ण- दक्षिणा का माहात्‍म्‍य

इन्द्र ने पूछा- पितामह। यदि कोई जान-बूझकर दूसरे की गौ का अपहरण करें और धन के लोभ से उसे बेच डाले, उसकी परलोक में क्या गति होती है? यह मैं जानना चाहता हूं। व्रम्हाजी ने कहा- इन्द्र जो खाने, बेचने या ब्राह्माणों को दान करने के लिये दूसरे की गाय चुराते हैं, उन्हें क्या फल मिलता है, यह सुनो। जो उच्छृंखल मनुष्य मांस बेचने के लिये गौ की हिंसा करता या गौ मांस खाता है तथा जो स्वार्थवश घातक पुरूष को गाय मारने की सलाह देते हैं, वे सभी महान पाप के भागी होते हैं। गौ की हत्या करने वाले, उसका मांस खाने वाले तथा गौ हत्या का अनुमोदन करने वाले लोग गौ के शरीर में जितने रोये होते हैं, उतने वर्षों तक नरक में डूवे रहते हैं। प्रभो।ब्राह्माण के यज्ञ का नाश करने वाले पुरूष को जैसे और जितने पाप लगते हैं, दूसरों की गाय चुराने और बेचने में भी वे ही दोष वताये गये हैं। जो दूसरों की गाय चुराकर ब्राह्माण को दान करता है, वह गोदान का पुण्य भोगने के लिये जितना समय शास्त्रों में बताया गया है, उतने ही समय तक नरक भोगता है। महातेजस्वी इन्द्र। गोदान में कुछ सुवर्ण की दक्षिणा देने का विधान है। दक्षिणा के लिये सुवर्ण सबसे उत्तम बताया गया है। इसमें संशय नहीं है। मनुष्य गोदान करने से अपनी सात पीढ़ी पहले के पितरों का और सात पीढ़ी आगे आने वाली संतानों का उद्वार करता है; किंतु यदि उसके साथ सोने की दक्षिणा भी दी जाये तो उस दान का फल दूना बताया गया है। क्योंकि इन्द्र। सुवर्ण का दान सबसे उत्तम दान है। सुवर्ण की दक्षिणा सबसे श्रेष्ठ है, तथा पवित्र करने वाली वस्तुओं में सुवर्ण ही सबसे अधिक पावन माना गया है। महातेजस्वी शतक्रतो। सुवर्ण सम्पूर्ण कुलों को पवित्र करने वाला बताया गया है। इस प्रकार मैंने तुमसे संक्षेप में यह दक्षिणा की बात बतायी। भीष्मजी कहते हैं- भरत श्रेष्ठ युधिष्ठिर । यह उपर्युक्त उपदेशब्रह्माजी ने इन्द्र को दिया। इन्द्र ने राजा दशरथ को तथा दशरथ ने अपने पुत्र श्रीरामचन्द्र जी को दिया। प्रभो। श्री रामचन्द्रजी ने भी अपने प्रिय एवं यशस्वी भ्राता लक्ष्मण को इसका उपदेश दिया फिर लक्ष्मण ने भी वनवास के समय ऋषियों को यह बात बतायी। इस प्रकार परंपरा से प्राप्त हुए इस दुर्धर उपदेश को उत्तम व्रत का पालन करने वाले ऋषि और धर्मात्मा राजा लोग धारण करते आ रहे हैं। युधिष्ठिर । मुझसे मेरे उपाध्याय (परशुराम जी) ने इस विषय का वर्णन किया था। जो ब्राह्माण अपनी मण्डली में बैठकर प्रतिदिन इस उपदेश को दोहराता है और यज्ञ में, गोदान के समय तथा दो व्यक्तियों के भी समागम में इसकी चर्चा करता है, उसको सदा देवताओं के साथ अक्षय लोक प्राप्त होते हैं। यह बात भी परमेश्‍वर भगवान ब्रम्हा ने स्वयं ही इन्द्र को बतायी है।

इस प्रकार श्रीमहाभारत अनुशासनपर्व के अन्‍तगर्त दानधर्मपर्वमें चौहत्तरवाँ अध्‍याय पूरा हुआ।

महाभारत अनुशासन पर्व अध्याय 73 श्लोक 42-51

महाभारत: अनुशासन पर्व: त्रिसप्ततितम अध्याय: श्लोक 42-51 का हिन्दी अनुवाद
हुष्ट-पुष्ट, सीधी-साधी, जवान और उत्तम गंध वाली सभी गौऐं प्रशंसनीयमानी गयी हैं। जैसे गंगा सब नदियों में श्रेष्ठ है, उसी प्रकार कपिला गौ सब गौओं में उत्तम है।(गोदान की विधि इस प्रकार है-) दाता तीन रात तक उपवास करके केवल पानी के आधार पर रहे, पृथ्वी पर शयन करे और गौओं को घास-भूसा खिलाकर पूर्ण तृप्त करे। तत्पश्‍चात्ब्राह्माणों को भोजन आदि से संतुष्ट करके उन्हें वह गौऐं दे। उन गौओं के साथ दूध पीने वाले हुष्ट-पुष्ट बछड़े भी होने चाहिये तथा वैसी ही स्फूर्ति युक्त गौऐं भी हों। गोदान करने के पश्चात तीन दिनों तक केवल गोरस पीकर रहना चाहिये। जो गौ सीधी-सूधी हो, सुगमता से अच्छी तरह दूध दुहा लेती हों, जिसका बछड़ा भी सुन्दर हो तथा जो बन्धन तुड़ाकर भागने वाली न हो, ऐसी गौ का दान करने से उसके शरीर में जितने रोय होते हैं, उतने वर्षों तक दाता परलोक में सुख भोगता है । जो मनुष्य ब्राह्माण को बोझ उठाने में समर्थ, जवान, वलिष्ठ, विनीत, सीधा-साधा, हल खींचने वाला और अधिक शक्तिशाली बैल दान करता है, वह दस धेनु दान करने वाले के लोकों में जाता है। इन्द्र। जो दुर्गम वन में फंसे हुए ब्राह्माण और गौ का उद्वार करता है, वह एक ही क्षण में समस्त पापों से मुक्त हो जाता है तथा उसे जिस पुण्य फल की प्राप्ति होती है, वह भी सुन लो। सहस्त्राक्ष। उसे अश्‍वमेध यज्ञ के समान अक्षय फल सुलभ होता है। वह मृत्यु के काल में जिस स्थिति की आकांक्षा करता है, उसे भी पा लेता है। नाना प्रकार के दिव्य लोक तथा उसके हृदय में जो-जो कामना होती हैं, वह सब कुछ मनुष्य उपर्युक्त सत्मकर्म प्रवाभ से प्राप्त कर लेता है। इतना ही नहीं वह गौओं से अनुग्रहित होकर सर्वत्र पूजित होता है। शतक्रतो। जो मनुष्य उपर्युक्त् विधि से वन में जाकर गौओं का अनुसरण करता है तथा निःस्पृह, संयमी और पवित्र होकर घास-पत्ते एवं गोबर खाता हुआ जीवन व्यतीत करता है, वह मन में कोई कामना न होने पर लोक में देवताओं के साथ आनन्दपूर्वक निवास करता है। अथवा उसकी जहां इच्छा होती है, उन्हीं लोकों में चला जाता है।

इस प्रकार श्रीमहाभारत अनुशासनपर्व के अन्‍तगर्त दानधर्मपर्वमें ब्रह्माजी और इन्द्र संवादविषयक गोदान सम्बन्धी तिहत्तरवाँ अध्‍याय पूरा हुआ।

महाभारत अनुशासन पर्व अध्याय 73 श्लोक 31-41

महाभारत: अनुशासन पर्व: त्रिसप्ततितम अध्याय: श्लोक 31-41 का हिन्दी अनुवाद
जो गो सेवा का व्रत लेने वाला पुरूष गौओं पर दया करता और प्रतिदिन एक समय भोजन करके एक समय का भोजन गौओं का दे देता है, इस प्रकार दस वर्षों तक गौ सेवा में तत्पर रहने वाले पुरूष को अनन्त सुख प्राप्त होते हैं । शतक्रतो। जो एक समय भोजन करके दूसरे समय के बचाये हुए भोजन से गाय खरीद कर उसका दान करता है, वह उस गौ के जितने रोये होते हैं, उतने गौओं के दान का अक्षय फल पाता है। यह ब्राह्माण के लिये फल बताया गया। अब क्षत्रीय को मिलने वाले फल का वर्णन सुनो। यदि क्षत्रिय इसी प्रकार पांच वर्षों तक गौ की आराधना करे तो उसे वही फल प्राप्त होता है। उससे आधे समय में वैश्‍य को और उससे भी आधे समय में शूद्र को उसी फल की प्राप्ति बतायी गयी है। जो अपने आपको बेचकर भी गाय को खरीदकर उसका दान करता है, वह ब्रम्हाण्ड में जब तक गो जाति की सत्ता देखता है, तब तक उस दान का अक्षय फल भोगता रहता है। महाभाग इन्द्र। गौओं के रोम-रोम में अक्षय लोकों की स्थिति मानी गयी है। जो संग्राम में गौओं को जीतकर उनका दान कर देता है, उनके लिये वे गौऐं स्वयं अपने को बेचकर लेकर दी हुई गौओं के समान अक्षय फल देने वाली होती हैं- इस बात को तुम जान लो। जो संयम और नियम का पालन करने वाला पुरूष गौओं के अभाव में तिल धेनु का दान करता है, वह उस धेनु की सहायता पाकर दुर्गम संकट से पार हो जाता है तथा दूध की धारा बहाने वाली नदी के तट पर रहकर आनन्द भोगता है। केवल गौओं का दान मात्र कर देना प्रषन्सा की बात नहीं है, उसके लिये उत्तम पात्र, उत्तम समय, विशिष्ट गौ, विधि और काल का ज्ञान आवश्‍यक है। विप्रवर। गौओं में जो परस्पर तारतम्य है, उसको तथा अग्नि और सूर्य के समान तेजस्वी पात्र को जानना बहुत ही कठिन है। जो वेदों के स्वाध्याय से सम्पन्न तथा शुद्व कुल में उत्पन्न, शान्त भाव, यज्ञ परायण, पापभीरू और बहुज्ञ है, जो गौओं के प्रति क्षमा भाव रखता है, जिसका स्वभाव अत्यन्त तीखा नहीं है, जो गौओं की रक्षा करने में समर्थ और जीविका से रहित है, ऐसे ब्राह्माण को गोदान का उत्तम पात्र बताया गया है। जिसकी जीविका क्षीण हो गयी हो तथा जो अत्यन्त कष्ट पा रहा हो, ऐसे ब्राह्माण को सामान्य देश-काल में भी दूध देने वाली गाय का भी दान करना चाहिये। इसके सिवा खेती के लिये, होम-सामग्री के लिये, प्रसूता स्त्री के पोषण के लिये, गुरू दक्षिणा के लिये अथवा शिशु पालन के लिये सामान्य देश-काल में भी दुधारू गाय का दान करना उचित है। गर्भिणी, खरीदकर लायी हुई, ज्ञान या विद्या के बल से प्राप्त की हुई, दूसरे प्राणियों के बदले में लायी हुई अथवा युद्व में पराक्रम प्रकट करके प्राप्त की हुई, दहेज में मिली हुई, पालन में कष्ट समझकर स्वामी के द्वारा परित्यक्त हुई तथा पालन-पोषण के लिये आपने पास आई हुई विषिष्ठ गौऐं इन उपर्युक्त कारणों से ही दान के लिये प्रशंसनीय मानी गयी हैं।

महाभारत अनुशासन पर्व अध्याय 73 श्लोक 18-30

महाभारत: अनुशासन पर्व: त्रिसप्ततितम अध्याय: श्लोक 18-30 का हिन्दी अनुवाद
शुक्र। जो जुए में धन जीतकर उसके द्वारा गायों को खरीदता है और उनका दान करता है वह दस हजार दिव्य वर्षों तक उसके पुण्य फल का उपभोग करता है। जो पैतृक संपत्ति से न्याय पूर्वक प्राप्त की हुई गौओं का दान करता है, ऐसे दाताओं के लिये वे गौऐं अक्षय फल देने वाली हो जाती हैं। शचीपते। जो पुरूष दान में गौऐं लेकर फिर शुद्व हृदय से उनका दान कर देता है, उसे भी यहां अक्षय एवं अटल लोकों की प्राप्ति होती है- यह निश्चित रूप से समझ लो । जो जन्म से ही सदा सत्य बोलता, इन्द्रियों को काबू में रखता, गुरूजनों तथा ब्राह्माणों की कठोर बातों को भी सह लेता और क्षमाशील होता है, उसकी गौओं के समान गति होती है। अर्थात वह गोलोक में जाता है।शचीपते शक्र।ब्राह्माण के प्रति कभी कुवाच्य नहीं बोलना चाहिये और गौओं के प्रति कभी मन से भी द्रोह का भाव नहीं रखना चहिये। जो ब्राह्माण गौओं के समान वृति से रहता है और गौओं के लिये घास आदि की व्यवस्था करता है साथ ही सत्य और धर्म में तत्पर रहता है, उसे प्राप्त होने वाले फल का वर्णन सुनो। वह यदि एक गौ का भी दान करे तो उसे एक हजार गोदान के समान फल मिलता है।यदि क्षत्रीय भी इन गुणों से युक्त होता है तो उसे भी ब्राह्माण के समान ही (गोदान का ) फल मिलता है। इस बात को अच्छी तरह सुन लो। उसकी (दान दी हुई) गौ भीब्राह्माण की गौ के तुल्य फल देने वाली होती है। यह धर्मात्माओं को निश्‍चय है। यदि वैश्‍य में भी उपयुक्त गुण हों तो उसे भी एक गोदान करने पर ब्राह्माण की अपेक्षा (आधे भाग) पांच सौ गौओं के दान का फल मिलता है और विनयशील शूद्र को ब्राह्माण के चैथाई भाग अर्थात ढाई सो गौओं के दान का फल प्राप्त होता है । जो पुरूष सदा सावधान रहकर इस उपयुक्त धर्म का पालन करता है तथा जो सत्यवादी, गुरूसेवापरायण, दक्ष, क्षमाशील, देवभक्त, शान्तचित्त, पवित्र, ज्ञानवान, धर्मात्मा और अहंकार शून्य होता है वह यदि पूर्वोक्त विधि से ब्राह्माण को दूध देने वाली गाय का दान करे तो उसे महान फल की प्राप्ति होती है। इन्द्र। जो सदा एक समय भोजन करके नित्य गोदान करता है, सत्य में स्थित होता है, गुरू की सेवा और वेदों का स्वाध्याय करता है, जिसके मन में गौओं के प्रति भक्ति है, जो गौओं का दान देकर प्रसन्न होता है तथा जन्म से ही गौओं को प्रणाम करता है, उसको मिलने वाले इस फल का वर्णन सुनो। राजसूय यज्ञ का अनुष्ठान करने से जिस फल की प्राप्ति होती है तथा बहुत से सुवर्ण की दक्षणा देकर यज्ञ करने से जो फल मिलता है, उपर्युक्त मनुष्य भी उसके समान ही उत्तम फल का भागी होता है। यह सभी सिद्व-संत-महात्मा एवं ऋषियों का कथन है।जो गौ सेवा का व्रत लेकर प्रतिदिन भोजन से पहले गौओं को गौ ग्रास अर्पण करता है तथा शान्त एवं निर्लोभ होकर सदा सत्य का पालन करता रहता है, वह सत्य शील पुरूष प्रतिवर्ष एक सहस्त्र गोदान करने पुण्य का भागी होता है।

महाभारत अनुशासन पर्व अध्याय 73 श्लोक 1-17

महाभारत: अनुशासन पर्व: त्रिसप्ततितम अध्याय: श्लोक 1-17 का हिन्दी अनुवाद
ब्रह्माजी का इन्‍द्र से गोलोक और गोदान की महिमा बताना

ब्रह्माजी ने कहा- देवेन्द्र। गोदान के सम्बन्ध में तुमने जो यह प्रश्‍न उपस्थित किया है, तुम्हारे सिवा इस जगत् में दूसरा कोई ऐसा प्रश्‍न करने वाला नहीं है। शुक्र। ऐसे अनेक प्रकार के लोक हैं, जिन्हें तुम नहीं देख पाते हो। मैं उन लोकों को देखता हूं और पतिव्रता स्त्रियां भी उन्हें देख सकती हैं। उत्तम व्रत का पालन करने वाले ऋषि तथा शुभ बुद्वि वाले ब्राह्माण अपने शुभ कर्मों के प्रभाव से वहां सषरीर चले जाते हैं। श्रेष्ठ व्रत के आचरण में लगे हुए योगी पुरूष समाधि-अवस्था में अथवा मृत्यु के समय जब शरीर से सम्बन्ध त्याग देते हैं, तब अपने शुद्व चित्त के द्वारा स्वप्न की भांति दीखने वाले उन लोकों का यहां से भी दर्शन करते हैं। सहस्त्राक्ष। वे लोक जैसे गुणों से सम्पन्न हैं, उनका वर्णन सुनो, वहां काल और बुढ़ापा का आक्रमण नहीं होता। अग्नि का भी जोर नहीं चलता। वहां किसी का किंचिन्मात्र भी अमंगल नहीं होता। उस लोक में न रोग है न शोक। इन्द्र वहां की गौऐं अपने मन में जिस-जिस वस्तु की इच्छा रखती है, वे सब उन्हें प्राप्त हो जाती है, यह मेरी प्रत्यक्ष देखी हुई बात है। वे जहां जाना चाहती हैं जाती है; जैसे चलतना चाहती हैं चलती हैं और संकल्प मात्र से सम्पूर्ण भोगों का प्राप्त कर उनका उपभोग करती हैं।बावड़ी, तालाब, नदियां, नाना प्रकार वन, गृह और पर्वत आदि सभी वस्तुऐं वहां उपलब्ध हैं। गोलोक समस्त प्राणियों के लिये मनोहर है। वहां की प्रत्येक वस्तु पर सबका समान अधिकार देखा जाता है। इतना विशाल दूसरा कोई लोक नहीं है। इन्द्र। जो सब-कुछ सहने वाले, क्षमाशील, दयालु, गुरूजनों की आज्ञा में रहने वाले और अहंकार रहित हैं, वे श्रेष्ठ मनुष्य ही उस लोक में जाते हैं। जो सब प्रकार के मांसों का भोजन त्याग देता है, सदा भगवच्चिन्तन में लगा रहता है, धर्मपरायण होता है, माता-पिता की पूजा करता, सत्य बोलता, ब्राह्माणों की सेवा में संलग्न रहता, जिसकी कभी निंदा नहीं होती, जो गौओं और ब्राह्माणों पर कभी क्रोध नहीं करता, धर्ममय में अनुरक्त होकर गुरूजनों की सेवा करता है, जीवन भर के लिये सत्य का व्रत ले लेता है, दान में प्रवृत रहकर जिस किसी के भी अपराध करने पर भी उसे क्षमा कर देता है, जिसका स्वभाव मृदुल है, जो जितिन्द्रिय है, देवाराधक, सबका आतिथ्य-सत्कार करने वाला और दयालु है, ऐसी ही गुणों वाला मनुष्य उस सनातन एवं अविनाशी गोलोक में जाता है।परस़्त्रीगामी, गुरूहत्यारा, असत्यवादी, सदा बकवाद करने वाला, ब्राह्माणों से वैर बांधकर रखने वाला, मित्रद्रोही, ठग, कृतग्न, शठ, कुटिल, धर्मद्वेषी और ब्रह्म हत्यारा- इन सब दोषों से युक्त दुरात्मा मनुष्य कभी मन से भी गोलोक का दर्शन नहीं पा सकता; क्यों कि वहां पुण्यात्माओं का निवास है।सुरेश्‍वर। सतकृतो। यह सब मैंने तुम्हें विशेष रूप से गोलोक का महात्म्य बताया है। अब गोदान करने वालों को जो फल प्राप्त होता है, उसे सुनो। जो पुरूष अपनी पैतृक संपत्ति से प्राप्त हुए धन के द्वारा गौऐं खरीदकर उनका दान करता है, वह उस धन से धर्म पूर्वक उपार्जित हुए अक्षय लोकों का प्राप्त होता है।

महाभारत अनुशासन पर्व अध्याय 72 श्लोक 1-12

महाभारत: अनुशासन पर्व: द्विसप्ततितम अध्याय: श्लोक 1-12 का हिन्दी अनुवाद
गौओं के लोक औरगोदान विषयक युधिष्ठिर और इन्‍द्र के प्रश्‍न

युधिष्ठिर ने पूछा- प्रभो। आपने नाचिकेत ऋषि के प्रति किये गये गोदान सम्बन्धी उपदेश की चर्चा की और गौओं के महात्म्य का भी संक्षेप से वर्णन किया। महामते पितामह। महात्मा राजा नृग ने अनजान में किये हुए एक मात्र अपराध के कारण महान दुःख भोगा था। जब द्वारिका पुरी बसने लगी थी, उस समय उनका उद्वार हुआ और उनके उस उद्वार हेतु हुए भगवान श्रीकृष्ण। ये सारी बातें मैंने ध्यान से सुनी और समझी हैं। परंतु प्रभो। मुझे गो लोक के सम्बन्ध में कुछ संदेह है; अतः गोदान करने वाले मनुष्य जिस लोक में निवास करते हैं, उसका मैं यर्थात वर्णन सुनना चाहता हूं । भीष्मजी ने कहा- युधिष्ठिर । इस विषय में जानकर लोग एक प्राचीन इतिहास का उदाहरण दिया करते हैं। जैसा कि इन्द्र ने किसी समय ब्रह्माजी से यही प्रश्‍न किया था। इन्द्र ने पूछा- भगवन। मैं देखता हूं कि गोलोक निवासी पुरूष अपने तेज से स्वर्ग वासियों की कांति फीकी चित्र करते हुए उन्हें लांघकर चले जाते हैं; अतः मेरे मन में यहां यह संदह होता है ।भगवन। गौओं के लोक कैसे हैं? अनघ यह मुझे बाताइये। गोदान करने वाले लोग जिन लोकों में निवास करते हैं, उनके विषय में निम्नांकित बातें जानना चाहता हूं। वे लोक कैसे हैं? वहां क्या फल मिलता है? वहां का सबसे महान गुण क्या है? गादान करने वाले मनुष्य सब चिन्ताओं से मुक्त होकर वहां किस प्रकार पहुंचते हैं? उदाता को गोदान का फल वहां कितने समय तक भोगने को मिलता है? अनेक प्रकार का दान कैसे किया जाता है? अथवा थोड़ा-सा भी दान किस प्रकार सम्भव होता है? बहुत-सी गौओं का दान कैसा होता है? अथवा थोड़ी-सी गौओं का दान कैसा माना जाता है? गोदान न करने भी लोग किस उपाय से गोदान करने वालों के समान हो जाते हैं? यह मुझे बताइये। प्रभो। बहुत दान करने वाला पुरूष अल्प दान करने वाले के समान कैसे हो जाता है? तथा सुरेश्‍वर। अल्प दान करने वाला पुरूष बहुत दान करने वाले के तुल्य किस प्रकार हो जाता है? भगवन। गोदान में कैसी दक्षिणा श्रेष्ठ मानी जाती है? यह सब यथार्थ रूप से मुझे बताने की कृपा करें।

इस प्रकार श्रीमहाभारत अनुशासनपर्व के अन्‍तगर्त दानधर्मपर्वमें गोदान सम्बन्धी बहत्तरवाँ अध्‍याय पूरा हुआ।

महाभारत अनुशासन पर्व अध्याय 71 श्लोक 53-55

महाभारत: अनुशासन पर्व: एकसप्ततितम अध्याय: श्लोक 53-57 का हिन्दी अनुवाद
‘जो मनुष्य किसी श्रेष्ठ ब्राह्माण को सहस्त्र, शत, दस अथवा पांच गौओं का उनके अच्छे बछड़ों सहित दान करता है अथवा एक ही गाय देता है, उसके लिये वह गौ परलोक में पवित्र तीर्थों वाली नदी बन जाती है। ‘प्राप्ति, पुष्टि तथा लोक रक्षा करने के द्वारा गौऐं इस पृथ्वी पर सूर्य की किरणों के समान मानी गयी हैं। एक ही ‘गो’ शब्द धेनु और सूर्य-किरणों का बोधक है। गौओं से ही संतति और उपभोग प्राप्त होते हैं; अतः गोदान करने वाला मनुष्य किरणों का दान करने वाले सूर्य के ही समान माना जाता है। ‘शिष्य जब गोदान करने लगे, तब उसे ग्रहण करने के लिये गुरू को चुने। यदि गुरू ने वह गोदान स्वीकार कर लिया तो शिष्यनिश्‍चय ही स्वर्गलोक में जाता है। विधि के जानने वाले पुरूषों के लिये यह गोदान महान धर्म है। अन्य सब विधियां इस विधि में ही अन्तर्भूत हो जाती हैं। ‘तुम न्याय के अनुसार गोधन प्राप्त करके पात्र की परीक्षा करने के पष्चात श्रेष्ठ ब्राह्माणों को उनका दान कर देना और दी हुई वस्तुओं को ब्राह्माण के घर पहुंचा देना। तुम पुण्यात्मा का पुण्य कार्य में प्रवृत रहने वाले हो; अतः देवता, मनुष्य तथा हम लोग तुमसे ही धर्म की ही आशा रखते हैं’। ब्रह्मर्षें। धर्मराज के ऐसा कहने पर मैंने उन धर्मात्मा देवता को मस्तक झुकाकर प्रणाम किया और फिर उनकी आज्ञा लेकर मैं आपके चरणों के समीप लौअ आया।
इस प्रकार श्रीमहाभारत अनुशासनपर्व के अन्‍तगर्त दानधर्मपर्वमें यमराज का वाक्य नामक इकहत्तरवाँ अध्‍याय पूरा हुआ।

महाभारत अनुशासन पर्व अध्याय 71 श्लोक 40-52

महाभारत: अनुशासन पर्व: एकसप्ततितम अध्याय: श्लोक 40-52 का हिन्दी अनुवाद
‘घी के अभाव में जो व्रत-नियम से युक्त हो तिलमयी धेनु को दान करता है, वह उस धेनु के द्वारा संकट से उद्वार पाकर दूध की नदी में आनन्दित होता है। ‘तिल के अभाव में जो व्रतशील एवं नियमनिष्ट होकर जलमयी धेनु का दान करता है, वह अभीष्ट वस्तुओं को बहाने वाली इस शीतल नदी के निकट रहकर सुख भोगता है’। धर्म से कभी च्युत न होने वाले पूज्य पिताजी। इन प्रकार धर्मराज ने मुझे वहां यह सब स्थान दिखाये। वह सब देखकर मुझे बड़ा हर्ष प्राप्त हुआ। तात। मैं आपके लिये यह प्रिय वृतान्त निवेदन करता हूं कि मैंने वहां थोड़े-से ही धन से सिद्व होने वाला यह गोदान रूप महान यज्ञ प्राप्त किया है। वह यहां वेदविधि के अनुसार मुझसे प्रकट होकर सवत्र प्रचलित होगा। आपके द्वारा मुझे जो श्राप मिला, वह वास्तम में मुझपर अनुग्रह के लिये ही प्राप्त हुआ था, जिससे मैंने यमलोक में जाकर वहां यमराज को देखा। महात्मन। वहां दान के फल को प्रत्यक्ष देकर मैं संदेह रहित दान धर्मों का अनुष्ठान करूंगा। महर्षे। धर्मराज ने बारंबार प्रसन्न होकर मुझसे यह भी कहा था कि ‘जो लोग दान से सदा पवित्र होना चाहें’ वे विशेष रूप से गोदान करें । ‘मुनिकुमार। धर्म निर्दोष विषय है। तुम धर्म की अवहेलना न करना। उत्तम देश, काल प्राप्त होने पर सुपात्र को दान देते रहने चाहिये। अतः तुम्हें सदा ही गोदान करचा उचित है। इस विषय में तुम्हारे भीतर कोई संदेह नहीं होना चाहिये। ‘पूर्वकाल में शांत चित्त वाले पुरूषों ने दान के मार्ग में स्थित हो नित्य ही गौओं का दान किया था। वे अपनी उग्र तपस्या के विषय में संदेह न रखते हुए भी यथाशक्ति दान दान देते ही रहते थे। ‘कितने ही शुद्व चित्त, श्रद्वालु एवं पुण्यात्मा पुरूष ईष्या का त्याग करके समय पर यथाशक्ति गोदान करके परलोक में पहुंचकर अपने पुण्यमय शील-स्वभाव के कारण स्वर्गलोक में प्रकाशित होते हैं। ‘न्यायपूर्वक उपार्जित के किये हुए इस गोधन का ब्राह्माणों को दान करना चाहिये तथा पात्र की परीक्षा करके सुपात्र को दी हुई गाय उसके घर पहुंचा देना चाहिये और किसी भी शुभ अष्टमी से आरम्भ करके दस दिनों तक मनुष्य को, गौरस, गोबर अथवा गौमूत्र का आहार करके रहना चाहिये। ‘एक बैल का दान करने से मनुष्य देवताओं का सेवक होता है। दो बैलों का दान करने पर उसे वेद विद्या की प्राप्ति होती है। उन बैलों से जुते हुए छकड़े का दान करने से तीर्थ सेवन का फल प्राप्त होता है और कपिला गाय के दान से समस्त पापों का परित्याग हो जाता है। ‘मनुष्य न्यायतः प्राप्त हुई एक भी कपिला गाय का दान करके सभी पापों से मुक्त हो जाता है। गौरस से बढकर दूसरी कोई वस्तु नहीं है; इसलिये विद्वान पुरूष गोदान का महादान बतलाते हैं। गौऐं दूध देकर सम्पूर्ण लोकों का भूख के कष्ट से उद्वार करती हैं। ये लोक में सब के लिये अन्न पैदा करती हैं। इस बात को जानकर भी जो गौंओं के प्रति सौहार्द का भाव नहीं रखता वह पाप आत्मा मनुष्य नरक में पड़ता है।

महाभारत अनुशासन पर्व अध्याय 71 श्लोक 31-39

महाभारत: अनुशासन पर्व: एकसप्ततितम अध्याय: श्लोक 31-39 का हिन्दी अनुवाद
‘‘जो ब्राह्माण वेदों के स्वाध्याय से सम्पन्न, अत्यन्त तपस्वी तथा यज्ञ के अनुष्ठान में लगा हुआ हो, वही इन गौओं के दान का सर्वोत्तम पात्र है। इनके सिवा जो ब्राह्माण कृच्छ्र व्रत से मुक्त हुए हों और परिबार की पुष्टि के लिये गोदान के प्रार्थी होकर आये हों, वे भी दान के उत्तम पात्र हैं। इन सुयोग्य पात्रों को निमित्त बनाकर दान में दी गयी श्रेष्ठ गौऐं उत्तम मानी गयी हैं।‘‘ तीन रात तक उपवास पूर्वक केवल जल पीकर धरती पर शयन करें। तत्पश्‍चात् खिला-पिलाकर तृप्त की हुई गौओं का भोजन आदि से संतुष्ट किये हुए ब्राह्माणों को दान करें। वे गौऐं बछड़ों के साथ रहकर प्रसन्न हों, सुन्दर बच्चे देने वाली हों तथा अन्यान्य आवश्‍यक सामग्रियों से युक्त हों। ऐसी गौओं का दान करके तीन दिनों तक केवल गौरस का आहार करके रहना चाहिये। ‘‘उत्तम शील- स्वभाव वाली, भले बछड़े वाली और भाग कर न जाने वाली दुधारू गाय का कांस्य के दुग्ध पात्र सहित दान करके उस गौ के शरीर में जितने रोये होते हैं उतने वर्षों तक दाता स्वर्गलोक का सुख भोगता है। ‘‘इसी प्रकार जो शिक्षा लेकर काबू में किये हुए, बोझ ढोने में समर्थ, बलवान, जवान, कृषक- समुदाय की जीविका चलाने योग्य, पराक्रमी और विशाल डील-डौल वाले बैल का ब्राह्माणों को दान देता है, वह दुधारू गाय का दान करने वाले के तुल्य ही उत्तम लोकों का उपभोग करता है। जो गौओं के प्रति क्षमाशील, उनकी रक्षा करने में समर्थ, कृतज्ञ और आजीविका से रहित है, ऐसे ब्राह्माण को गोदान का उत्तम पात्र बताया गया है। जो वूढा हो, रोगी होने के कारण पथ्य-भोजन चाहता हो, दुर्भिक्ष आदि के कारण घवराया हो, किसी महान यज्ञ का अनुष्ठान करने वाला हो या जिसके लिये खेती की आवश्‍यकता पड़ी हो, होम के लिये हविष्य प्राप्त करने की इच्छा हो अथवा घर में स्त्री के बच्चा पैदा होने वाला हो अथवा गुरू के लिये दक्षणा देनी हो अथवा बालक की पुष्टि के लिये गौ दुग्ध की आवश्‍यकता आ पड़ी हो, ऐसे व्यक्तियों को ऐसे अवसरों पर गोदान के लिये सामान्य देश-काल माना गया है। ( ऐसे समय में देश-काल का विचार नहीं करना चाहिये)। जिन गौओं का विशेष भेद जाना हुआ हो, जो खरीद कर लायी गयी हों अथवा ज्ञान के पुरस्कार से प्राप्त हुई हों अथवा प्राणियों के अदला-बदली से खरीदी गयी हों या जीत कर लायी गयी हों अथवा दहेज में मिली हों, ऐसी गौऐं दान के लिये उत्तम मानी गयी हैं’’।।नाचीकेत कहता है- वैवस्वत यम की बात सुनकर मैंने पुनः उनसे पूछा- ‘भगवन। यदि अभाव वश गोदान न किया जा सके तो गोदान करने वालों को ही मिलने वाले लोकों में मनुष्य कैसे जा सकता है?’तदनन्तर बुद्विमान यमराज ने गोदान सम्बन्धी गति तथा गोदान के समान फल देने वाले दान का वर्णन किया, जिसके अनुसार बिना गाय के भी लोग गोदान करने वाले हो सकते हैं? ‘जो गौओं के अभाव में संयम-नियम से युक्त हों घृत धेनु को दान करता है, उसके लिये ये घृत वाहिनी नदियां वत्सला गौओं की भांति घृत बहाती हैं।

महाभारत अनुशासन पर्व अध्याय 71 श्लोक 17-30

महाभारत: अनुशासन पर्व: एकसप्ततितम अध्याय: श्लोक 17-30 का हिन्दी अनुवाद
‘तब सब सदस्यों से घिरकर उनके द्धारा पूजित होते हुए मैंने वैवस्वत यम से धीरे से कहा-‘धर्मराज। मैं आपके राज्य में आया हूं; मैं जिन लोको में जाने के योग्य होउ, उनमें जाने के लिये मुझे आज्ञा दीजिये। ‘तब यमराज ने मुझसे कहा-‘सौम्य। तुम मरे नही हो। तुम्हारे तपस्वी पिता ने इतना ही कहा था कि तुम यमराज को देखो। विप्रवर। वे तुम्हारे पिता प्रज्वलित अग्नि के समान तेजस्वी हैं। उनकी बात झूठी नहीं की जा सकती। ‘तात। तुमने मुझे देख लिया। अब तुम लौट जाओ। तुम्हारे शरीर का निर्माण करने वाले वे तुम्हारे पिताजी शोकमग्न हो रहे हैं। वत्स। तुम मेरे प्रिय अतिथि हो। तुम्हारा कौन-सा मनोरथ मैं पूर्ण करु?। तुम्हारी जिस-जिस वस्तु के लिये इच्छा हो, उसे मांग लो’। ‘उनके ऐसा कहने पर मैंने इस प्रकार उत्तर दिया-‘भगवन। मैं आपके उस राज्य में आ गया हूं, जहां से लौटकर जाना अत्यंत कठिन है। यदि मैं आपकी दृष्टि में वर पाने के योग्य होऊं तो पुण्यात्मा पुरुषों को मिलने वाले समृद्धिशाली लोको का मैं दर्शन करना चाहता हूं। ‘द्धिजेन्द्र। तब यम देवता ने वाहनो से जुते हुए उत्तम प्रकाश से युक्त तेजस्वी रथ पर मुझे बिठाकर पुण्यात्माओं को प्राप्त होने वाले अपने यहां के सभी लोकों का मुझे दर्शन कराया। ‘तब मैंने महा मनस्वी पुरुषो को प्राप्त होने वाले वहां की तेजोमय भवनो का दर्शन किया। उनके रुप-रंग और आकार-प्रकार अनेक तरह के थे। उन भवनो का सब प्रकार के रत्नो द्धारा निर्माण किया गया था । ‘कोई चन्द्रमण्डल के समान उज्ज्वल थे। किन्हीं पर क्षुद्र घंटियो से युक्त झालरें लगी थीं। उनमें सैंकड़ों कक्षाएं और मंजिले थीं। उनके भीतर जलाशय और वन-उपवन सुशोभित थे। कितनो का प्रकाश नीलमणिमय सूर्य के समान था। कितने ही चांदी और सोने के बने हुए थे। किन्ही-किन्ही भवनो के रंग प्रातः कालीन सूर्य के समान लाल थे। उनमें से कुछ विमान या भवन तो स्थावर थे औेर कुछ इच्छानुसार विचरने वाले थे।

‘उन भवनो में भक्ष्य और भोज्य पदार्थों के पर्वत खडे थे। वस्त्रो और शैय्याओं के ढेर लगे थे तथा सम्पूर्ण मनोवांछित फलों को देने वाले बहुत-से वृक्ष उन गृहों की सीमा के भीतर लहालहा रहे थे। ‘उन दिव्य लोकों में बहुत-सी नदियां, गलियां, सभाभवन, बावडियां, तालाब और जोतकर तैयार खडे़ हुए घोषयुक्त सहस्त्रों रथ मैंने सब और देखे थे। ‘मैंने दूध बहाने वाली नदियां, पर्वत, घी और निर्मल जल भी देखे तथा यमराज की अनुमति से और भी बहुत-से पहले के न देखे हुए प्रदेशों का दर्शन किया। ‘उन सब को देखकर मैंने प्रभावशाली पुरातन देवता धर्मराज से कहा- ‘प्रभो। ये जो घी और दूध की नदियां बहती रहती हैं, जिनका स्त्रोत कभी सूखता नहीं है, किनके उपभोग में आती हैं- इन्हें किन का भोजन नियत किया गया है?’‘यमराज ने कहा- ब्रह्मन। तुम इन नदियों को उन श्रेष्ठ पुरूषों का भोजन समझो, जो गौरस दान करने वाले हैं। जो गोदान में तत्पर हैं, उन पुण्यात्माओं के दूसरे भी सनातन लोग विद्यमान हैं, जिनके दुःख-शोक से रहित पुण्यात्मा भरे पड़े हैं। ‘‘विप्रवर। केवल इनका दान मात्र ही प्रषस्त नहीं है; सुपात्र ब्राह्माण, उत्तम समय, विषिष्ठ गौ तथा दान की सर्वोत्तम विधि- इन सब बातों को जानकर ही गोदान करना चाहिये। गौओं का आपस में जो तारतम्य है, उसे जानना बहुत कठिन काम है और अग्नि एवं सूर्य के समान तेजस्वी पात्र को पहचानना भी सरल नहीं है ।

महाभारत अनुशासन पर्व अध्याय 71 श्लोक 1-16

महाभारत: अनुशासन पर्व: एकसप्ततितम अध्याय: श्लोक 1-16 का हिन्दी अनुवाद
पिता के शाप से नाचिकेत का यमराज के पास जाना और यमराज का नाचिकेत को गोदान की महिमा बताना

युधिष्ठिर ने पूछा- निष्पाप महाबाहो। गौओं के दान से जिस फल की प्राप्ति होती है, वह मुझे विस्तार के साथ बताइये। मुझे आपके वचनामृतों को सुनते-सुनते तृप्ति नहीं होती है, इसलिये अभी और कहिये । भीष्मजीने कहा- राजन। इस विषय में विज्ञ पुरुष उद्दालक ऋषि और नाचिकेत दोनो के संवाद रुप इस प्राचीन इतिहास का उदाहरण दिया करते हैं। एक समय उद्दालक ऋषि नें यज्ञ की दीछा लेकर अपने पुत्र नाचिकेत से कहा- ‘तुम मेंरी सेवा में रहो।’ । उस यज्ञ का नियम पूरा हो जाने पर महर्षि ने अपने पुत्र से कहा- बेटा। मैंनें समिधा, कुशा, फूल, जल का घडा और प्रचुर भोजन-सामग्री (फल-मूल आदि)- इन सबका संग्रह करके नदी किनारे रख दिया और स्नान तथा वेदपाठ करने लगा। फिर उन सब वस्तुओं को भूलकर मैं यहां चला आया। अब तुम जाकर नदी तट से वह सब सामान यहां ले आओ’।नाचिकेत जब वहां गया, तब उसे कुछ न मिला। सारा सामान नदी के वेग में बह गया था। नाचिकेत मुनि लौट आया और पिता से बोला-‘मुझे तो वहां वह सब सामान नहीं दिखायी दिया’। महा तपस्वी उद्दालक मुनि उस समय भूख-प्यास से कष्ट पा रहे थे, अतः रुष्ट होकर बाले-‘ अरे वह सब तुम्हें क्यों नही दिखायी देगा? जाओ यमराज को देखो।’ इस प्रकार उन्हौने उसे शाप दे दिया। पिता के वाग्वज्र से पीड़ित हुआ नाचिकेत हाथ जोड़कर बोला- प्रभो। प्रसन्न हाइये। इतना ही कहते-कहते वह निष्प्राण होकर पृथ्वी पर गिर पडा । नाचिकेत गिरा देख उसके पिता भी दुःख सा मूर्छितहो गये और ‘अरे, यह मैनें क्या कर डाला।’ ऐसा कहकर पृथ्वी पर गिर पडे । दःख में डूबे और बारबार अपने पुत्र के लिये शोक करते हुये ही महर्षि का वह शेष दिन व्यतीत हो गया और भयानक रात्रि भी आकर समाप्त हो गयी । कुरुश्रेष्ठ। कुश की चटाई पर पड़ा हुआ नाचिकेत पिता के आंसुओ की धारा से भीगकर कुछ हिलने-डुलने लगा, मानो वर्षा से सिंचकर अनाज की सूखी खेती हरी हो गयी हो। महर्षि का वह पुत्र मरकर पुनः लौट आया, मानो नींद टूट जाने से जाग उठा हो। उसका शरीर दिव्य सुगन्ध से व्याप्त हो रहा था। उस समय उद्दालक ने उससे पूछा- बेटा। क्या तुमनेे अपने कर्म से शुभ लोको पर विजय पायी है? मेरे सौभाग्य से ही तुम पुनः यहां चले आये हो। तुम्हारा यह शरीर मनुष्यो का-सा नही है-दिव्य भाव को प्राप्त हो गया है। अपने महात्मा पिता से इस प्रकार पूछने पर परलोक की सब बातो को प्रत्यक्ष देखने वाला नाचिकेत महर्षियों के बीच में पिता से वहां का सब वृतान्त निवेदन करने लगा- ‘पिताजी। मैं आपकी आज्ञा का पालन करने के लिये यहां से तुरन्त प्रस्थिन हुआ और मनोहर कान्ति एवं प्रभाव से युक्त विशाल यमपुरी में पहुंचकर मैंने वहां की सभा देखी, जो सुवर्ण के समान सुन्दर प्रभा से प्रकाशित हो रही थी। उसका तेज सहस्त्रों योजन दूर तक फैला हुआ था। ‘मुझे सामने से आते देख विवस्वान के पुत्र यम ने अपने सेवको को आज्ञा दी कि ‘इनके लिये आसन दो’ उन्होंने आपके नाते अर्ध्‍य आदि पूजन सम्बन्धी उपचारो से स्‍वयं ही मेरा पूजन किया।

महाभारत अनुशासन पर्व अध्याय 70 श्लोक 14-33

महाभारत: अनुशासन पर्व: सप्ततितम अध्याय: श्लोक 14-33 का हिन्दी अनुवाद
तब मैंने दान लेने वाले ब्राह्माण से प्रार्थना पूर्वक कहा- मैं इस गाय के बदले आपको दस हजार गौऐं देता हूं (आप इन्हें इनकी गाय वापस दे दीजिये)। यह सुनकर वह यों बोला महाराज। यह गौ देशकाल के अनुरूप, पूरा दूध देने वाली, सीधी-साधी और अत्यन्त दयालु स्वभाव की है। यह बहुत मीठा दूध देने वाली है। धन्य भाग्य जो यह मेरे घर आयी। यह सदा मेरे ही यहां रहे।‘अपने दूध से यह गौ मेरे मातृहीन शिशु का प्रतिदिन पालन करती है; अतः मैं इसे कदापि नहीं दे सकता।’ यह कहकर वह उस गाय को लेकर चला गया। ‘तब मैंने उस दूसरे ब्राह्माण से याचना की- भगवन। उसके बदले में आप मुझझे एक लाख गौऐं ले लीजिये। ‘मधुसूदन। तब उस ब्राह्माण ने कहा- मैं राजाओं का दान नहीं लेता। मैं अपने लिये धन का उपार्जन करने में समर्थ हूं मुझे तो शीघ्र मेरी वही गौ ला दीजिये । मैंने उसे सोना, चांदी, रथ और घोड़े- सब कुछ देना चाहा परंतु वह उत्तम ब्राह्माण कुछ न लेकर तत्काल चुपचाप चला गया। ‘इसी बीच में काल की प्रेरणा से मैं मृत्यु को प्राप्त हुआ और पितृलोक में पहुंच कर धर्मराज से मिला। ‘यमराज ने मेरा आदर-सत्कार करके मुझसे यह बात कही- राजन। तुम्हारे पुण्य कर्मों की तो गिनती ही नहीं है। परंतु अनजान में तुमसे एक पाप भी बन गया है। उस पाप को तुम पीछे भोगो या पहले ही भोग लो, जैसी तुम्हारी इच्छा हो, करो। आपने प्रजा के धन-जन की रक्षा के लिये प्रतिज्ञा की थी; किंतु उस ब्राह्माण की गाय खो जाने के कारण आपकी वह प्रतिज्ञा झूठी हो गयी। दूसरी बात यह है कि आपने ब्राह्माण के धन का भूल से अपहरण कर लिया था। इस तरह आपके द्वारा दो तरह का अपराध हो गया है। ‘तब मैंने धर्मराज से कहा- प्रभो। मैं पहले पाप ही भोग लूंगा। उसके बाद पुण्य का उपभोग करूंगा। इतना कहना था कि मैं पृथ्वी पर गिरा । ‘गिरते समय उच्च स्वर से बोलते हुए यमराज की यह बात मेरे कानों में पड़ी- ‘महाराज। एक हजार दिव्य वर्ष पूर्ण होने पर तुम्हारे पाप कर्म का भोग समाप्त होगा। उस समय जनार्दन भगवान श्रीकृष्ण आकर तुम्हारा उद्वार करेंगे और तुम अपने पुण्य कर्मों के प्रभाव से प्राप्त हुए सनातन लोकों में जाओगे’।‘कुऐं में गिरने पर मैंने देखा, मुझे तिर्यग्योनि (गिरगिट की देह) मिली है और मेरा सिर नीचे की ओर है। इस योनि में भी मेरी पूर्वजन्मों की स्मरणशक्ति ने मेरा साथ नहीं छोड़ा है । ‘श्रीकृष्ण। आज आपने मेरा उद्वार कर दिया। इसमें आपके तपोबल के सिवा और क्या कारण हो सकता है। अब मुझे आज्ञा दीजिये, मैं स्वर्गलोक को जाऊंगा’। भगवान श्रीकृष्ण ने उन्हें आज्ञा दे दी और वे शत्रुदमन नरेश उन्हें प्रणाम करके दिव्य मार्ग का आश्रय ले स्वर्गलोक को चले गये। भरतश्रेष्ठ। कुरूनन्दन। राजा नृग नके स्वर्गलोक को चले जाने पर वसुदेवनन्दन भगवान श्रीकृष्ण ने इस श्लोक का गान किया- ‘समझदार मनुष्य को ब्राह्माण के धन का अपहरण नहीं करना चाहिये। चुराया हुआ ब्राह्माण का धन चोर का उसी प्रकार नाश कर देता है, जैसे ब्राह्माण की गौ ने राजा नृग का सर्वनाश किया था। कुन्तीनन्दन। यदि सज्जन पुरूष सत्पुरूषों का संग करें तो उनका वह संग व्यर्थ नहीं जाता। देखा, श्रेष्ठ पुरूष के समागम के कारण राजा नृग का नरक से उद्वार हो गया।।युधिष्ठिर । गौओं का दान करने से जैसा उत्तम फल मिलता है, वैसे ही गौओं से द्रोह करने पर बहुत बड़ा कुफल भोगना पड़ता है; इसलिये गौओं को कभी कष्ट नहीं पहुंचाना चाहिये।
इस प्रकार श्रीमहाभारत अनुशासनपर्व के अन्‍तगर्त दानधर्मपर्वमें नृगका उपाख्यानविषयक सत्तरवाँ अध्‍याय पूरा हुआ।

महाभारत अनुशासन पर्व अध्याय 70 श्लोक 1-13

महाभारत: अनुशासन पर्व: सप्ततितम अध्याय: श्लोक 1-13 का हिन्दी अनुवाद
ब्राह्माण के धन का अपहरण करने से होने वाली हानि के विषय में दृष्‍टान्‍त के रुप में राजा नृग का उपाख्‍यान
भीष्मजी कहते हैं- करूश्रेष्ठ। इस विषय में श्रेष्ठ पुरूष वह प्रसंग सुनाया करते हैं, जिसके अनुसार एक ब्राह्माण के धन को लेने के कारण राजा नृग को महान कष्ट उठाना पड़ा था। पार्थ।हमारे सुनने में आया है कि पूर्व काल में जब द्वारिकापुरी बस रही थी, उसी समय वहां घास और लताओं से ढका हुआ एक विशाल कूप दिखाई दिया। वहां रहने वाले यदुवंशी बालक उस कुऐं का जल पीने की इच्छा से बड़े परिश्रम के साथ उस घास-फूस को हटाने के लिये महान प्रयत्न करने लगे। इतने में ही उस कुऐ के ढके हुए जल में स्थित हुए एक विशालकाय गिरगिट पर उनकी दृष्टि पड़ी । फिर तो वे सहस्त्रों बालक उस गिरगिट को निकालने का यत्न करने लगे। गिरगिट का शरीर एक पर्वत के समान था। बालकों ने उसे रस्सियों और चमड़े की पट्टियों से बांधकर खींचने के लिये बहुत जोर लगाया परंतु वह टस-से-मस न हुआ। जब बालक उसे निकालने में सफल न हो सके, तब वे भगवान श्री कृष्ण के पास गये।उन्होंने भगवान श्रीकृष्ण से निवदेन किया- भगवन। एक बहुत बड़ा गिरगिट कुऐं में पड़ा है, जो कुऐं के सहारे आकाश को घेर कर वैठा है; पर उसको निकालने वाला कोई नहीं है। यह सुनकर भगवान श्रीकृष्ण उस कुऐं के पास गये उन्होंने उस गिरगिट को कुऐं से बाहर निकाला और अपने पावन हाथ के स्पर्श से राजा नृग का उद्वार कर दिया। इसके बाद उनसे परिचय पूछा। तब राजा ने उन्हें अपना परिचय देते हुए कहा- प्रभो। पूर्व जन्म में मैं राजा नृग था, जिसने एक सहस्त्र यज्ञों का अनुष्ठान किया था।उनकी ऐसी बात सुनकर भगवान श्रीकृष्ण ने पूछा- राजन। आपने तो सदा पुण्य कर्म ही किया था- पाप कर्म कभी नहीं किया, फिर आप ऐसी दुगर्ति में कैसे पड़ गये? बताईये क्यों आपको ऐसा कष्ट प्राप्त हुआ।नरेश्‍वर। हमने सुना है कि पूर्वकाल में आपने ब्राह्माणों को पहले एक लाख गौऐं दान की। दूसरी बार सौ गौओं का दान किया। तीसरी बार पुनः सौ गौऐं दान में दी। चैथी बार आपने गौदान का ऐसा सिलसिला चलाया कि लगातार अस्सी लाख गौओं का दान कर दिया (इस प्रकार आपके द्वारा इक्यासी लाख दौ सौ गौऐं दान में दी गयी) आपके उन सब दानों का पुण्य फल कहां चला गया? तब राजा नृग ने भगवान श्रीकृष्ण से कहा- प्रभो। एक अग्निहोत्री ब्राह्माण परदेश चला गया था। उसके पास एक गाय थी, जो एक दिन अपने स्थान से भागकर मेरे गौओं के झुण्ड में आ मिली। ‘उस समय मेरे ग्वालों ने दान के लिये मंगायी गई एक हजार गौओं में उसकी भी गिनती कर दी और मैंने परलोक में मनाबांछित फल की इच्छा से वह गौ भी एक ब्राह्माण को दे दी। ‘कुछ दिनों बाद जब वह ब्राह्माण जब परदेश से लौटा, तब अपनी गाय ढ़ढने लगा, ढूढते-ढूढते जब वह गाय उसे दूसरे के घर मिली तब उस ब्राह्माण ने, जिसकी वह गौ पहले थी, उस दूसरे ब्राह्माण से कहा- यह गाय तो मेरी है। ‘फिर तो वे दोनों आपस में लड़ पड़े और अत्यन्त क्रोध में भरे मेरे पास आये। उनमें से एक ने कहा- महाराज। यह गौ मुझे आपने दान में दी है (और यह ब्राह्माण इसे अपनी बता रहा है)। दूसरे ने कहा- महाराज। वास्तव में यह मेरी गाय है। आपने उसे चुरा लिया है।

सोमवार, 29 अगस्त 2016

गौ माता - क्यों हिंदू मानते हैं गाय को माता


गौ माता - क्यों हिंदू मानते हैं गाय को माता
गाय हिंदू समुदाय में माता का दर्जा दिया जाता है, उसकी पूजा की जाती है। ग्रामीण इलाकों में तो आज भी हर रोज खाना बनाते समय पहली रोटी गाय के नाम की बनती है। प्राचीन समय से ही अन्य पालतु पशुओं की तुलना में गाय को अधिक महत्व दिया जाता है। हालांकि वर्तमान में परिदृश्य बदला है और गौ धन को पालने का चलन कम हो गया है, लेकिन गाय के धार्मिक महत्व में किसी तरह की कोई कमी नहीं आयी है बल्कि पिछले कुछ समय से तो गाय को राष्ट्रीय पशु बनाने तक मांग उठने लगी है। गौहत्या को धार्मिक दृष्टि से ब्रह्म हत्या के समान माना जाता है हाल ही में हरियाणा में तो गौहत्या पर सख्त कानून भी बनाया गया है। आइये जानते हैं गाय को क्यों माता का दर्जा देते हैं हिंदू लोग और क्यों माना जाता है इसे श्रेष्ठ?

गाय का धार्मिक एवं पौराणिक महत्व

गाय को माता मानने के पिछे यह आस्था है कि गाय में समस्त देवता निवास करते हैं व प्रकृति की कृपा भी गाय की सेवा करने से ही मिलती है। भगवान शिव का वाहन नंदी (बैल), भगवान इंद्र के पास समस्त मनोकामनाओं को पूर्ण करने वाली गाय कामधेनू, भगवान श्री कृष्ण का गोपाल होना एवं अन्य देवियों के मातृवत गुणों को गाय में देखना भी गाय को पूज्य बनाते हैं।
भविष्य पुराण के अनुसार गोमाता के पृष्ठदेश यानि पीठ में ब्रह्मा निवास करते हैं तो गले में भगवान विष्णु विराजते हैं। भगवान शिव मुख में रहते हैं तो मध्य भाग में सभी देवताओं का वास है। गऊ माता का रोम रोम महर्षियों का ठिकाना है तो पूंछ का स्थान अनंत नाग का है, खूरों में सारे पर्वत समाये हैं तो गौमूत्र में गंगादि पवित्र नदिया, गौमय जहां लक्ष्मी का निवास तो माता के नेत्रों में सूर्य और चंद्र का वास है। कुल मिलाकर गाय को पृथ्वी, ब्राह्मण और देव का प्रतीक माना जाता है। प्राचीन समय में गोदान सबसे बड़ा दान माना जाता था और गौ हत्या को महापाप। यही कारण रहे हैं कि वैदिक काल से ही हिंदू धर्म के मानने वाले गाय की पूजा करते आ रहे हैं। गाय की पूजा के लिये गोपाष्टमी का त्यौहार भी भारत भर में मनाया जाता है।

गाय का आर्थिक महत्व

प्राचीन काल में तो व्यक्ति की समृद्धि, संपन्नता गोधन से ही आंकी जाती थी यानि जिसके पास जितनी ज्यादा गाय वह उतना ही धनवान, तमाम कर्मकांडो, संस्कारों में गो दान को ही अहमियत दी जाती थी, परिवार का भरण पोषण गाय पर ही निर्भर करता था, खेतों को जोतने के लिये बैल गाय से ही मिलते थे, दूध, दही, घी की आपूर्ति तो होती ही थी, गौ मूत्र और गोबर तक उपयोगी माने जाते हैं। कुल मिलाकर मनुष्य के जीवन स्तर को समृद्ध बनाने में गाय अहम भूमिका निभाती थी, लेकिन आज हालात बदल चुके हैं अब गाय का आर्थिक महत्व कम होने लगा है और धार्मिक महत्ता अभी बची हुई है।

वैज्ञानिक महत्व

ऐसा नहीं है कि गाय केवल धार्मिक और आर्थिक दृष्टि से ही महत्वपूर्ण होती है। बल्कि कुछ वैज्ञानिक तथ्य भी हैं जो गाय के महत्व को दर्शाते हैं। भले ही दूध, दही, घी के मामले में आज भैंस से मात्रात्मक दृष्टि से उत्पादन ज्यादा मिलता हो लेकिन गुणवत्ता के मामले में गाय के दूध, व गाय के दूध से बने उत्पादों का कोई मुकाबला नहीं हैं। एक और गाय का दूध ज्यादा शक्तिशाली होता है तो वहीं उसमें वसा की मात्रा भैंस के दूध के मुकाबले बहुत कम मात्रा में पायी जाती है। गाय के दूध से बने अन्य उत्पाद भी काफी पौष्टिक होते हैं।
माना जाता है कि गाय ऑक्सीजन ग्रहण करती है और ऑक्सीजन ही छोड़ती है। गौमूत्र में ऐसे तत्व होते हैं जो हृद्य रोगों के लिये लाभकारी हैं। जैसे कि गौमूत्र में पोटेशियम, सोडियम, नाइट्रोजन, फास्फेट, यूरिया, यूरिक एसिड और दूध देते समय हुए गौमूत्र में लेक्टोज आदि की मात्रा का आधिक्य होता है। जिसे चिकित्सीय दृष्टि से लाभकारी माना जाता है।
गाय का गोबर खाद के रुप में इस्तेमाल करने पर जमीन की उपजाऊ क्षमता में वृद्धि होती है। इस तरह कई कारण हैं जो गाय के वैज्ञानिक महत्व को भी बतलाते हैं।

क्या सभी गाय पूजने योग्य हैं

चूंकि हिंदू धर्म के मानने वाले मुख्यत: भारत में हैं भारत में गाय की 28 नस्लें पाई जाती हैं। रेड सिंधी, साहिवाल, गिर, देवनी, थारपारकर आदि तो दुधारु गायों की नस्लें हैं। गाय दूसरे देशों में भी मिलती हैं जिनकी दूध के उत्पादन की क्षमता भी भारतीय गायों से ज्यादा होती है। आजकल विदेशी नस्ल की गायों को पालने का चलन भी उनकी उत्पादकता के चलते भारत में भी बढ़ रहा है लेकिन धार्मिक रुप से देशी गाय को ही पूजनीय माना जाता है। गुणवत्ता के मामले में भी देशी गाय का दूध ही बेहतर बताया जाता है।

गोवत्स द्वादशी / बछ बारस : जानिए गौ-पूजन का महत्व

गोवत्स द्वादशी : परिवार की खुशहाली का पर्व 

भाद्रपद मास में कृष्ण पक्ष की द्वादशी तिथि को का पर्व मनाया जाता है। इस अवसर पर गाय और बछड़े की पूजा की जाती है। भाद्रपद मास में पड़ने वाले इस उत्सव को ‘वत्स द्वादशी’ या ‘बछ बारस’ के नाम से भी जाना जाता हैं। ऐसा माना जाता है वर्ष में कि दूसरी बार यह पर्व कार्तिक मास के शुक्ल पक्ष में भी मनाया जाता है।
 
भारतीय धार्मिक पुराणों में गौमाता में समस्त तीर्थ होने की बात कहीं गई है। पूज्यनीय गौमाता हमारी ऐसी मां है जिसकी बराबरी न कोई देवी-देवता कर सकता है और न कोई तीर्थ। गौमाता के दर्शन मात्र से ऐसा पुण्य प्राप्त होता है जो बड़े-बड़े यज्ञ, दान आदि कर्मों से भी नहीं प्राप्त हो सकता।
 
पौराणिक जानकारी के अनुसार भगवान श्रीकृष्ण के जन्म के बाद माता यशोदा ने इसी दिन गौमाता का दर्शन और पूजन किया था। जिस गौमाता को स्वयं भगवान कृष्ण नंगे पांव जंगल-जंगल चराते फिरे हों और जिन्होंने अपना नाम ही गोपाल रख लिया हो, उसकी रक्षा के लिए उन्होंने गोकुल में अवतार लिया। ऐसे गौमाता की रक्षा करना और उनका पूजन करना हर भारतवंशी का धर्म है। 
 
शास्त्रों में कहा है सब योनियों में मनुष्य योनी श्रेष्ठ है। यह इसलिए कहा है कि वह गौमाता की निर्मल छाया में अपने जीवन को धन्य कर सकें। गौमाता के रोम-रोम में देवी-देवता एवं समस्त तीर्थों का वास है। इसीलिए धर्मग्रंथ बताते हैं समस्त देवी-देवताओं एवं पितरों को एक साथ प्रसन्न करना हो तो गौभक्ति-गौसेवा से बढ़कर कोई अनुष्ठान नहीं है। गौमाता को बस एक ग्रास खिला दो, तो वह सभी देवी-देवताओं तक अपने आप ही पहुंच जाता है।  
 
भविष्य पुराण के अनुसार गौमाता कि पृष्ठदेश में ब्रह्म का वास है, गले में विष्णु का, मुख में रुद्र का, मध्य में समस्त देवताओं और रोमकूपों में महर्षिगण, पूंछ में अनंत नाग, खूरों में समस्त पर्वत, गौमूत्र में गंगादि नदियां, गौमय में लक्ष्मी और नेत्रों में सूर्य-चन्द्र विराजित हैं।
 
इसीलिए बछ बारस, गोवत्स द्वादशी के दिन महिलाएं अपने बेटे की सलामती, लंबी उम्र और परिवार की खुशहाली के लिए यह पर्व मनाती है। इस दिन घरों में विशेष कर बाजरे की रोटी‍ जिसे सोगरा भी कहा जाता है और अंकुरित अनाज की सब्जी बनाई जाती है। इस दिन गाय की दूध की जगह भैंस या बकरी के दूध का उपयोग किया जाता है। 

 

हमारे शास्त्रों में इसका माहात्म्य बताते हुए कहा गया है कि बछ बारस के दिन जिस घर की महिलाएं गौमाता का पूजन-अर्चन करती हैं। उसे रोटी और हरा चारा खिलाकर उसे तृप्त करती है, उस घर में मां लक्ष्मी की कृपा सदैव बनी रहती है और उस परिवार में कभी भ‍ी अकाल मृत्यु नहीं होती है। 

गोवत्स द्वादशी / बछ बारस : पढ़ें पौराणिक कथा

गोवत्स द्वादशी/की पौराणिक कथा के अनुसार प्राचीन समय में भारत में सुवर्णपुर नामक एक नगर था। वहां देवदानी नाम का राजा राज्य करता था। उसके पास एक गाय और एक भैंस थी। 
उनकी दो रानियां थीं, एक का नाम 'सीता' और दूसरी का नाम 'गीता' था। सीता को भैंस से बड़ा ही लगाव था। वह उससे बहुत नम्र व्यवहार करती थी और उसे अपनी सखी के समान प्यार करती थी। 
 
राजा की दूसरी रानी गीता गाय से सखी-सहेली के समान और बछडे़ से पुत्र समान प्यार और व्यवहार करती थी। 
 
यह देखकर भैंस ने एक दिन रानी सीता से कहा- गाय-बछडा़ होने पर गीता रानी मुझसे ईर्ष्या करती है। इस पर सीता ने कहा- यदि ऐसी बात है, तब मैं सब ठीक कर लूंगी। 
 
सीता ने उसी दिन गाय के बछडे़ को काट कर गेहूं की राशि में दबा दिया। इस घटना के बारे में किसी को कुछ भी पता नहीं चलता। किंतु जब राजा भोजन करने बैठा तभी मांस और रक्त की वर्षा होने लगी। महल में चारों ओर रक्त तथा मांस दिखाई देने लगा। राजा की भोजन की थाली में भी मल-मूत्र आदि की बास आने लगी। यह सब देखकर राजा को बहुत चिंता हुई। 
 
उसी समय आकाशवाणी हुई- 'हे राजा! तेरी रानी ने गाय के बछडे़ को काटकर गेहूं की राशि में दबा दिया है। इसी कारण यह सब हो रहा है। कल 'गोवत्स द्वादशी' है। इसलिए कल अपनी भैंस को नगर से बाहर निकाल दीजिए और गाय तथा बछडे़ की पूजा करें। 
 
इस दिन आप गाय का दूध तथा कटे फलों का भोजन में त्याग करें। इससे आपकी रानी द्वारा किया गया पाप नष्ट हो जाएगा और बछडा़ भी जिंदा हो जाएगा। अत: तभी से गोवत्स द्वादशी के दिन गाय-बछड़े की पूजा करने का ‍महत्व माना गया है तथा गाय और  बछड़ों की सेवा की जाती है। 

शनिवार, 27 अगस्त 2016

गाय के दोहे

गाय के दोहे 
होता है जिस का हृदयदया-प्रेम का धाम
उस को देते हैं किशनगौशाला का काम

ऋषि-मुनियों ने सूत सेपूछा - क्या है श्रेष्ठ
फ़ौरन बोले सूत जीगौ सेवा है श्रेष्ठ

कौन काम लाभार्थ है कौन काम परमार्थ
गौ-पालन लाभार्थ हैगौ-सेवा परमार्थ

उस माँ को शत-शत नमनवन्दन बारम्बार
गौ सेवा करता रहेजिस का घर-परिवार

ऐसे मनुआ श्रेष्ठ हैंउन को कहो कुलीन
रहते हैं जो हर घड़ी गौ सेवा में लीन

इक दिन बस यूँ ही कियाहम ने गूगल सर्च
शौक़-मौज़ से कम लगाएक गाय का खर्च

यदि चहरे पर चाहियेरूप और लालित्य
दहीदूधगौ-मूत्र कासेवन करिये नित्य

सीधे दिल तक जायगी अमरित रस की धार
गैया के थन से कभी होंठ लगा तो यार

खान साब! ये हम नहींकहती है कुरआन
गौमाता के पेट में है दौलत की खान

समझा है यूनान नेलगा-लगा कर जोड़
खाओगे गौ-माँस तोबढ़ सकती है कोढ़

इंगलिश में पढ़ कर मुझेज्ञात हुआ ये ज्ञान
गौ गोबर अरु सींग सेफ़स्ल बने गुणवान

एक बार यदि मान लेंमार्टिन का प्रारूप
गौ-गोबर सेतेल केभर सकते हैंकूप

अमरीकाइङ्ग्लेंड भीकरने लगे बखान
अब तो गौ के दूध की महिमा को पहिचान

कोई भी संसार मेंकरता नहीं विरोध
अपना आयुर्वेद हैयुगों युगों का शोध

चलो यहीं पे रोक देंये पगलौट जुनून
एलोपैथिक मेडिसिनदेती नहीं सुकून

अगर गाय की पीठ परफेरे कोई हाथ
हो सकता है छोड़ देबी. पी. उस का साथ

गैया खाये साल में जितने का आहार
उस से दस गुण मोल के देती है उपहार

बछिया होती है अगरमिलें दूध के दाम
बछड़ा भी हो जाय तोकरे खेत का काम

दुद्दू पी कर, भेंस के - पड्डा जी अलसात
लेकिन बछड़ा गाय काकरता है उत्पात

यदि पैसे ही से तुझेसमझ पड़े है मोल
तो भैया फिर दूध सेमट्ठा तक तू तोल

महाभारत अनुशासनपर्व अध्याय 83 श्लोक 25-52

महाभारत: अनुशासनपर्व: त्र्यशीतितमो अध्याय: श्लोक 25-52 का हिन्दी अनुवाद
‘तात ! पहले सत्ययुग में जब महामना देवेश्‍वरगण तीनों लोकों पर शासन करते थे और अमरश्रेष्ठ जब देवी अदिति पुत्र के लिये नित्य एक पैर से खड़ी रहकर अत्यन्त घोर एवं दुष्कर तपस्या करती थीं और उस तपस्या से संतुष्ट होकर साक्षात भगवान विष्णु ही उनके गर्भ में पदार्पण करने वाले थे उन्हीं दिनों की बात है, महादेवी अदिति को महान तप करती देख दक्ष की धर्मपारायण पुत्री सुरभि देवी ने बड़े हर्ष के साथ घोर तपस्या आरंभ की।‘कैलास के रमणीय शिखर पर जहां देवता और गन्धर्व सदा विराजित रहते हैं, वहां वह उत्तम योग का आश्रय ले ग्यारह हजार वर्षों तक एक पैर से खड़ी रही।' उसकी तपस्या से देवता, ऋषि और बड़े-बड़े नाग भी संतप्त हो उठे।‘वे सब लोग मेरे साथ ही सुभलक्षिणा तपस्विनी सुरभि देवी के पास जाकर खड़े हुए।' तब मैंने वहां उससे कहा-‘सती-साध्वी देवी। तुम किस लिये यह घोर तपस्या करती हो?' 'शोभने ! महाभागे ! मैं तुम्हारी इस तपस्या से बहुत संतुष्ट हूं। देवी ! तू इच्छानुसार वर मांग।’ पुरन्दर ! इस तरह मैंने सुरभि को वर मांगने के लिये प्रेरित किया। सुरभि ने कहा- भगवन ! निष्पाप लोक पितामह। मुझे वर लेने की कोई आवश्‍यकता नहीं है। मेरे लिये तो सबसे बड़ा वर यही है कि आज आप मुझ पर प्रसन्न हो गये हैं। ब्रह्माजी ने कहा देवेश्‍वर ! देवन्द्र ! शचीपते ! जब सुरभि ऐसी बात कहने लगी तब मैंने उसे जो उत्तर दिया वह सुनो। (मैंने कहा-) देवी ! सुभानने ! तुमने लोभ और कामना को त्याग दिया है। तुम्हारी इस निष्काम तपस्या से मैं बहुत प्रसन्न हूं; अतः तुम्हें अमरत्व का वरदान देता हूं । तुम मरी कृपा से तीनों लोकों के ऊपर निवास करोगी और तुम्हारा वह धाम ‘गोलोक’ नाम से विख्यात होगा। महाभागे ! तुम्हारी सभी शुभ संतानें, समस्त पुत्र और कन्याऐं मानवलोक में उपयुक्त कर्म करती हुई निवास करेंगी । देवी ! शुभे ! तुम अपने मन से जिन दिव्य अथवा मानवी भोगों का चिंतन करोगी तथा जो स्वर्गीय सुख होगा, वे सभी तुम्हें स्वतः प्राप्त होते रहेंगे। सहस्त्राक्ष। सुरभि के निवास भूत गोलोक में सबकी सम्पूर्ण कामनाऐं पूर्ण होती हैं। वहां मृत्यु और बुढ़ापा का आक्रमण नहीं होता है। अग्नि का भी जोर नहीं चलता। वासव ! वहां न कोई दुर्भाग्य है और न अशुभ। वहां दिव्य वन, भवन तथा परम सुन्दर एवं इच्छानुसार विचरने वाले विमान मौजूद हैं। कमल नयन इन्द्र ! ब्रह्मचर्य, तपस्या, यत्न, इन्द्रिय - संयम, नाना प्रकार के दान, पुष्य, तीर्थ सेवन, महान तप और अनान्य शुभ कर्मों के अनुष्ठान से ही गोलोक की प्राप्ति हो सकती है। असुरसूदन शक्र। इस प्रकार तुम्हारे पूछने के अनुसार मैंने सारी बातें बतलायी हैं। अब तुम्हें गौओं का कभी तिरस्कार नहीं करना चाहिये।भीष्मजी कहते हैं- युधिष्ठिर ! ब्रह्माजी का यह कथन सुनकर सहस्त्र नेत्रधारी इन्द्र प्रतिदिन गौओं की पूजा करने लगे। उन्होंने उनके प्रति बहुत सम्मान प्रकट किया। महाघुते ! यह सब मैंने तुमसे गौओं का परम पावन, परम पवित्र और अत्यन्त उत्तम महात्म्य कहा है। पुरुषसिंह। यदि इसका कीर्तन किया जाये तो यह समस्त पापों से छुटकारा दिलाने वाला है। जो एकाग्रचित हो सदा यज्ञ और श्राद्ध में हव्य और कव्य अर्पण करते समय ब्राह्माणों को यह प्रसंग सुनायेगा, उसका दिया हुआ (हव्य और कव्य) समस्त कामनाओं का पूर्ण करने वाला और अक्षय होकर पितरों को प्राप्त होगा। गौभक्त मनुष्य जिस-जिस वस्तु की इच्छा करता है वह सब उसे प्राप्त होती है। स्त्रियों में जो भी गौओं की भक्ता है, वे मनोबांछित कामनाऐं प्राप्त कर लेती हैं। पुत्रार्थी मनुष्य पुत्र पाता है और कन्यार्थी कन्या। धन चाहने वालों को धन और धर्म चाहने वालों को धर्म प्राप्त होता है। विद्यार्थी विद्या पाता है और सुखार्थी सुख। भारत! गौभक्त के लिये यहां कुछ भी दुर्लभ नहीं है।

इस प्रकार श्रीमहाभारत अनुशासनपर्व के अन्‍तगर्त दानधर्मपर्वमें गोलाक का वर्णन विषयक तिरासीवाँ अध्‍याय पूरा हुआ।