गुरुवार, 8 सितंबर 2016

आरोग्य एवं पर्यावरण संरक्षण के लिए गोपालन अनिवार्य

आरोग्य एवं पर्यावरण संरक्षण के लिए गोपालन अनिवार्य 
 
भगवान श्रीकृष्ण ने गाय को कामधेनु कहा है। कामधेनु अर्थात हमारी समस्त कामनाओं की पूर्ति करने वाली है। गौमाता की देह में सभी देवता निवास करते हैं। शास्त्रों का कथन है कि धन की अधिष्ठात्री देवी लक्ष्मी सर्वप्रथम गाय के रूप में प्रकट हुई और उन्हीं के गोबर से विल्व (बेल का पेड़) वृक्ष की उत्पति हुई। वेदों में गाय का गुणानुवाद भावभरी ऋचाओं और मंत्रों में किया गया है। यजुर्वेद (3ः2) में कहा है ‘हे गोओ! आप अन्न प्रदान करने वाली हैं, आप की कृपा से हम अन्न को प्राप्त करें। आप पूजनीय हैं। आप की सेवा से हम में सात्विक एवं उच्च भाव पैदा हों। आप बल व सामथ्र्य प्रदात्री है, हमें भी आप बलवान एवं सामथ्र्यवान करे। आप धन संपदा को बढ़ाने वाली हैं, अतः हमारे पास भी संपदा में अभिवृद्धि हो।’’
 
गौमाता भारतीय संस्कृति की दिव्यता एवं देवत्व का परम पवित्र प्रतीक है। गौमाता मानव जाति को अनन्य अनुदान देती है।

 यह माता के समान उपकार करने वाली, दीर्घायु और आरोग्य प्रदान करने वाली है। यह कई प्रकार के मानव मात्र की सेवा करती है। इस के उपकार, अनुदान एवं वरदान से मानव कभी उऋण नहीं हो सकता। गौओं के दूध से निर्बल मनुष्य सबल और स्वस्थ बनता है और निस्तेज व कांतिहीन मानव तेजस्वी होता है। गाय से घर की शोभा बढ़ती है। यही कारण है कि गाय को माता और देवतुल्य मानकर ‘मातेव रक्षति’ के दिव्य भाव से उसकी प्रार्थना की गई है। गाय की महत्ता और महिमा अपार है।
 
हमारे देष में गाय मांगलिक समझी जाती है। गाय के प्रति सम्मान का यह भाव अकारण नहीं है। गौ सेवा द्वारा ही प्राचीन भारत खुषहाल और समृद्धिषाली रहा और यह तथ्य आज भी उतना ही ठीक व समय के अनुकूल है। भारतीय कृषि और गोपालन का परस्पर घनिष्ठ संबंध है। वे एक दूसरे के पूरक हैं। एक के द्वारा दूसरे का पोषण होता है। हमारे देष की आर्थिक सरंचना गोपालन पर निर्भर हैं क्योंकि यहां की अधिकतर जनता की आजीविका का मुख्य स्रोत कृषि व्यवसाय है और उसका प्रमुख आधार बैल है, जो गाय से प्राप्त होता है। हमारी अर्थनीति का प्राण व आधार गौधन है। इसकी उपेक्षा नहीें की जा सकती।
 
पाष्चात्य विद्वान एवं मनीषी भी गाय को पवित्र एवं आदर भाव से देखते थे। सर विलियम बैडरवर्न ने गौ माता के प्रति अपनी भावाभिव्यक्ति कुछ इस तरह से दी है ‘‘मैं इस की कल्पना कर सकता हूँ कि किसी राष्ट्र के बिना भी गौ हो सकती है, किन्तु मैं स्वप्न में भी यह अनुमान नहीं कर सकता कि कोई राष्ट्र बिना गौ के रह सकता है।’’ अमेरिका के प्रसिद्ध लेखक वाल्टर ए. डामर के अनुसार गौ के सौम्य रूप में देवत्व भरा है। वह महानता और भव्यता से ओतप्रोत है। गाय में शत-प्रतिषत मातृत्व है और मनुष्य जाति से उसका संबंध माता के समान है।
मनुष्यतेर जीवों में गाय का भावनात्मक स्तर सर्वाधिक होता है। उसके स्वभाव में करूणा, ममता, शालीनता, संतोष जैसी सत्प्रवृतियों को बाहुल्य होता है। उसमें उत्साह, स्फूर्ति, बलिष्ठता और सहनषीलता अन्य पशुओं की अपेक्षा अधिक होती है। ये सब गुण गाय के दूध में भी रहते हैं। उसे प्रयोग करने वाली की मनस्थिति एवं प्रवृत्ति भी उसी ढांचे में ढलती है। तत्वदर्षियों ने गाय को अनेक आत्मिक गुणों से संपन्न पाया है। उसके अनुसार उसका सान्निध्य, सेवा, उपक्रम एवं गोरस का सेवन बौद्धिक एवं भावनात्मक विकास में सहायक होता है। दुग्धपान करने वाले के अंदर भी सात्विकता में अभिवृद्धि होती है। 
गाय, चैतन्यता, प्रेम, करूणा, त्याग, संतोष और सहिष्णुता आदि दिव्य गुणों से परिपूर्ण है। गाय के रोम रोम में सात्विकता का संचार होता है। श्रद्धापूर्वक उसकी सेवा करने से अंतकरण में परमात्मा के स्मरण का स्फुरण होता है। अतः इस लाभ से लाभान्वित होने के लिए गोपालन एवं गोसेवा करनी चाहिए, जिस से हम आर्थिक लाभ, शारीरिक स्वास्थ्य, मानसिक शांति एवं आत्मिक उपलब्धि प्राप्त कर सके।
 
 
प्रस्तुति: लाजपत राय सभरवाल
 

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