गुरुवार, 29 दिसंबर 2016

गौ की उत्पत्ति और उसका सर्वोपरि महत्व

गौ की अपार महिमा और दैवी गुणों से हिन्दू शास्त्रों के पृष्ठ भरे पड़े हैं। पुराणों में गौ के प्रभाव और उसकी श्रेष्ठता की ऐसी अनगिनत कथाएँ मिलती हैं जिन से विदित होता है कि हमारे पूर्वज गौ के महान भक्त थे और उसकी रक्षा करना अपना बहुत बड़ा धर्म समझते थे। गौ-रक्षा में प्राण अर्पण कर देना हिन्दू बड़े पुण्य की बात समझते थे और उसका पालन करना बड़े सौभाग्य की बात मानी जाती थी। गौ का महत्व यहाँ तक समझा जाता था कि उसके शरीर में उन 33 करोड़ देवताओं का निवास बतलाया गया और उसकी उत्पत्ति अमृत,लक्ष्मी आदि चौदह रत्नों के अंतर्गत मानी गई । यद्यपि ये कथायें एक प्रकार की रूपक हैं पर उनके भीतर बड़े-बड़े आध्यात्मिक तथा कल्याणकारी तत्त्व भरे हैं।

गौ की उत्पत्ति की पुराणों में कई प्रकार की कथायें मिलती हैं। पहली तो यह है कि जब ब्रह्मा एक मुख से अमृत पी रहे थे तो उनके दूसरे मुख से कुछ फेन निकल गया और उसी से आदि-गाय सुरभि की उत्पत्ति हुई। दूसरी कथा में कहा गया है कि दक्ष प्रजापति की साठ लड़कियाँ थीं उन्हीं में से एक सुरभि भी थी। तीसरे स्थान पर यह बतलाया गया है कि सुरभि अर्थात् स्वर्गीय गाय की उत्पत्ति समुद्र मंथन के समय चौदह रत्नों के साथ ही हुई थी। सुरभि से सुनहरे रंग की कपिला गाय उत्पन्न हुई। जिसके दूध से क्षीर सागर बना।
प्राचीन काल से आर्य-जाति गौ की बहुत अधिक महिमा मानती आई है। ऋग्वेद तथा अन्य वेदों में भी गौ के गुणानुवाद के सैकड़ों मंत्र भरे पड़े हैं। गीता में श्रीकृष्ण भगवान ने भी कहा है कि ‘गौओं में कामधेनु मैं हूँ।” गाय के शरीर में सभी देवता निवास करते हैं। शास्त्रों में कहा गया है कि धन की देवी लक्ष्मी जी पहले गाय के रूप में आयी और उन्हीं के गोबर से विल्व वृक्ष की उत्पत्ति हुई।
कपिल मुनि के शाप से जले हुये अपने साठ हजार पूर्वजों की राख का पता जब राजा रघु नहीं लगा सके तब वे गुरु वशिष्ठ जी के पास आये। गुरुजी ने दया करके उनकी आँखों में नन्दिनी गाय का मूत्र आँज दिया, जिससे रघु को दिव्य दृष्टि प्राप्त हो गई और वे पृथ्वी में दबी हुई अपने पुरखों की राख का पता लगाने में समर्थ हो सके।
गंगाजी को पहले पहल जब संसार (मृत्यु लोक) में आने को कहा तो वे बहुत दुखी हुई और आना कानी करने लगीं। उन्होंने कहा कि “पृथ्वी पर पापी लोग मुझ में स्नानादि करके अपवित्र किया करेंगे, इसलिये मैं मृत्युलोक में न जाऊँगी। तब पितामह ब्रह्माजी ने समझाया कि “लोग तुमको कितना भी अपवित्र करें किन्तु फिर भी गौ का पैर लगने से तुम पवित्र होती रहोगी।” इससे भी गौ और गंगा के हिन्दू धर्म से विशेष सम्बन्ध होने पर प्रकाश पड़ता है।
रामचन्द्र जी पूर्वज महाराज दलीप की गौ-सेवा का उदाहरण बड़ा महत्वपूर्ण है। उन्होंने एक दिन मार्ग में जाती हुई नन्दिनी को देखकर प्रणाम नहीं किया, इस पर उसके महाराज को पुत्रहीन होने का शाप दे दिया। इससे दुखी होकर वे गुरु वशिष्ठ के पास गये और शाप से मुक्ति पाने के लिए बड़ी विनय करने लगे। वशिष्ठ जी ने नन्दिनी गाय उनको दे दी और उसका भली प्रकार से पूजन और सेवा करने को कहा। उनके आदेशानुसार राजा और रानी दोनों मिलकर उसकी सेवा करने लगे। राजा गाय को वन में चराने ले जाते। वे नन्दिनी के चलने पर चलते थे, उसके बैठने पर बैठ जाते थे। एक दिन राजा का ध्यान जरा देर के लिए वन के दृश्य की तरफ चला गया कि नन्दिनी बड़े जोर से चिल्लाई। राजा ने देखा कि एक सिंह गाय को दबोच कर खाना चाहती है। उन्होंने तुरन्त अपना धनुष उठाकर तीर चलाना चाहा, पर दैवी मायावश तीर छूट न सका। तब राजा ने विवश होकर नन्दिनी गाय के बदले अपना शरीर सिंह को देने के लिये चुपचाप उसके सामने पड़ गये। पर जब कुछ देर तक पड़े रहने पर भी सिंह ने उनको नहीं खाया तो उन्होंने मस्तक उठाकर देखा। उस समय वह माया रूपी सिंह गायब हो चुका था और केवल नन्दिनी खड़ी प्रसन्न हो रही थी। राजा की इस अनुपम भक्ति से वह संतुष्ट हो गई और उसने राजा को पुत्र होने का वरदान दे दिया।
प्रसिद्ध देशभक्त महादेव गोविन्द रानाडे के जन्म के सम्बन्ध में भी ऐसी ही बात सुनने में आई है। उनके माता पिता के कोई पुत्र न था और वे वृद्ध हो चले थे। एक दिन कोई संत उनके दरवाजे पर भिक्षार्थ आ गए। दंपत्ति ने उनकी बड़ी सेवा की । साधु ने उन्हें उदास देखकर कारण पूछा और निस्सन्तान होने की बात सुनकर कहा-तुम एक दूध देने वाली सवत्सा काली गाय रखो। उसको साबुत गेहूँ खिलाओ, जो गोबर के साथ निकल आवें। उन्हीं दानों को धोकर, साफ करके आटा तैयार करो। ब्रह्मचर्यपूर्वक रहकर उसी की रोटी खाओ। छह मास तक ऐसा करने से तुम्हारी मनोकामना पूर्ण हो सकेगी। दंपत्ति ने वैसा ही किया और फलस्वरूप उनको पुत्ररत्न प्राप्त हुआ काली गाय से पुत्र प्राप्त होने की बात भारतवर्ष में सर्वत्र प्रसिद्ध है।
गणेश जी के जन्म समय की एक मनोहर कथा इस प्रकार है कि गणेशजी जब उत्पन्न हुये उसी समय महादेव जी ने भूल से उनका मस्तक काट दिया। इससे पार्वती जी बहुत अधिक रोने लगी। गणेश जी को ठीक करने को देवताओं के वैद्य अश्विनी कुमार बुलाये गये और उनको मुँह माँगा वरदान देने को कहा गया। इस पर उन्होंने किसी हाथी का मस्तक जोड़ कर गणेशजी को जीवित कर दिया और वरदान में स्वयं महादेवजी को ही माँगा। इस पर बड़ी समस्या उपस्थित हो गई और निपटारा करने को देवताओं की पंचायत की गई। उसमें महादेवजी का मूल्य एक गाय रक्खा गया और वही अश्विनी कुमार को देकर संतुष्ट किया।
भगवान कृष्ण का गौ-पालन और गौ-भक्ति तो प्रसिद्ध ही है जिससे उनका नाम ही गोपाल पड़ गया। वे स्वयं गायों को चराते थे, उनकी सब प्रकार से सेवा सुश्रूषा करते थे, जो गायों को कष्ट पहुँचाता था उसे दण्ड देते थे। गायों की रक्षा को ही उन्होंने गोवर्धन धारण किया और इन्द्र का मान मिटा दिया। भागवत में बतलाया है कि जब गोपियों के साथ रास करते हुये वे अत्यन्त शान्त हो गये तो अपने बाँये अंग से उन्होंने गौ उत्पन्न की जिससे दूध का एक कुण्ड बन गया और सब किसी ने उसी दूध को पीकर अपनी कान्ति दूर की। कृष्णजी के सम्बन्ध में ऐसी कथाएँ भरी पड़ी हैं। यह कहने में कोई अत्यन्ति नहीं कि भगवान कृष्ण को गौ-पालन से ही अपूर्व शक्ति प्राप्त हुई थी जिसके प्रभाव से उन्होंने संसार का उद्धार करने वाली गीता का ज्ञान प्रकट किया।
च्यवन ऋषि के विषय में भी एक बड़ी रोचक कथा है कि एक बार वे गंगाजी के गर्भ में तपस्या कर रहे थे। वहीं पर कुछ मछुए मछली मारने आये तो जाल में मछली के बदले मुनिजी ही फँस कर चले आये। मछुए उनको राजा के दरबार में बेचने के लिये ले गये। राजा ने उनके बदले में एक थैली सोने की मोहरें मछुओं को देना चाहा, परन्तु मुनि जी ने कहा कि हमारा मोल इतना कम नहीं हो सकता । राजा ने और भी बहुत सा सोना और अन्त में अपना समस्त राज्य मुनिजी के बदले में देना चाहा, पर उन्होंने उसे कम ही बतलाया। तब राजा ने विनयपूर्वक पूछा ‘महाराज, आप ही बतलायें कि आपका मूल्य क्या होगा?” च्यवन ऋषि बोले कि हमारा मूल्य एक गाय है। आप एक गाय दे दीजिये, बस यही हमारा वास्तविक मूल्य है।” इस पर मछुओं को एक गाय दे दी गई। इससे प्रकट होता है कि उस युग में गाय का मूल्य राज्य से भी अधिक समझ जाता था।
राजस्थान के क्षत्रियों में प्रमुख सिसोदिया वंश के संस्थापक बघा रावल बचपन में गायें चराया करते थे। एक दिन की बात है कि एक गाय ने गोष्ठ (गौशाला) में आकर दूध नहीं दिया। मालकिन ने यह शंका करके कि बघा ने गाय को दुहकर सब दूध पी लिया है, उसे खूब पीटा। निरपराध बघा को इससे मर्यान्तक पीड़ा हुई। दूसरे दिन भी वह गाय चराने गया और इस बात की खूब निगरानी रखने लगा कि गाय के दूध को कौन पीता है। संध्या के समय जब गायें घर की ओर चलीं तो उसने देखा कि एक गाय झुण्ड से अलग होकर एक लिंग-महादेव पर दूध ढाल रही है। अब तो बघा को चोर का पता लग गया और वह लाठी लेकर महादेव को पीटने लगा। भोले बाबा उसकी सरलता और सच्चाई को देखकर प्रसन्न हुये और उन्होंने बघा को वरदान दिया । इससे आगे चलकर वे बड़े प्रतापशाली नरेश बने और उन्होंने महान सिसोदिया वंश की स्थापना की। इसी वंश में राणा साँगा और महाराणा प्रताप जैसे देशभक्त, उत्पन्न हुये जिनका नाम और यश आज भी लोगों को प्रेरणा दे रहा है।
इसी प्रकार भारतवर्ष में सदा से बड़े-बड़े व्यक्ति गौ की सेवा में संलग्न रहे हैं और इसके प्रभाव से उनको यश, मान, धन आदि समस्त साँसारिक सफलतायें प्राप्त हुई हैं। वास्तव में गौ भारतवर्ष के सामाजिक और धार्मिक जीवन की एक स्तम्भ के समान है और उसे सदैव सुदृढ़ बनाये रखना हमारा परम कर्त्तव्य है।
(श्री धर्मेन्द्रनाथ, ढकियारघा)

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