बुधवार, 5 अप्रैल 2017

श्रीकृष्ण का ‘गोपाल’ रूप और गोपियों की दशा

श्रीकृष्ण की खिलती हुई नई किशोरावस्था, बड़े व सुडौल कंधे, सबको अभय देने वाले भुजदण्ड, मतवाले हाथी की-सी चाल–व्रज की स्त्रियों को देह की सुधि भी भुलाने वाली है। श्रीकृष्ण के श्रीअंग की शोभा देखकर गोपियां उन्हें नजर से बचाने के लिए तृण तोड़ती हैं।  इस प्रकार उस लावण्य, गुण, शील, आनन्द, दया, बल व शोभा की निधि को देख-देख कर पूरा व्रजपुर ही बलिहारी जा रहा है। जो वेदों के लिए भी अवर्णनीय हैं, तब दूसरा कोई उनके वर्णन में समर्थ कैसे हो सकता है? षोडश कलाओं से परिपूर्ण परमानन्द ही गोकुल में अवतरित हुआ है।
एक गोपी दूसरी गोपी से कहती है–ऐसे ‘गोपाल’ को देखकर उन पर तन, मन, धन–सर्वस्व न्यौछावर कर इन नवीन किशोर की मधुर मूर्ति की शोभा हृदय में रख लूँ। इस किशोर के प्रफुल्ल (पूर्ण विकसित) लाल कमल के समान नेत्र हैं, हाथ में मुरली है, उस सुन्दर श्रेष्ठ त्रिभंगयुक्त शरीर पर वनमाला व अत्यन्त सुन्दर कुसुम्भी पगड़ी की उपमा-योग्य कोई पदार्थ नहीं है।
ऐसौ गोपाल निरखि तन मन वारौं।
नव किसोर, मधुर मुरति, सोभा उर धारौं।।
अरुन तरुन कमल नैन, मुरली कर राजै।
ब्रज जन मन हरन वेनु मधुर मधुर बाजै।।
व्रजांगनाएं गोपाल की अंगकान्ति को देखकर अपने-आप को भूल गईं हैं। कोई कुण्डल की कांति पर मोहित हो गई है तो कोई अरुणाभ कपोलों को देखकर स्तब्ध हो गई है। कोई एकाग्रचित्त से उनके ललाट पर लगे चन्दन को देख रही है, तो कोई अपलक नेत्रों से उनके सुन्दर नेत्रों को देख रही है। कोई श्रीकृष्ण के पूरे श्रीअंग का दर्शन न कर पाने से पश्चात्ताप कर रही है, तो कोई गोपी उनकी सुन्दर नाक को ही देखती रह गई। कोई गोपी श्रीकृष्ण के दांतों की चमक पर ही चकित हो गई है, तो दूसरी गोपी तो गोपाल के चंचल नेत्रों के संकेत पर बिना मूल्य के ही बिक गई है–
सखी हौं स्याम रँग रँगी।
देखि बिकाय गई वह मूरति, सूरति माहिं पगी।। (श्रीगदाधरभट्टजी)
उन चित्त के चुरैया श्रीकृष्ण के रूप का गोपांगनाएं आंखों की कोर से अधीर होकर पान कर रही हैं। व्रजांगनाएं जहां-तहां मुग्ध खड़ी हैं। कभी श्रीकृष्ण के पास आने पर हर्षित और कभी दूर जाने पर उदास हो जातीं हैं। जिसने उनके जिस अंग को देखा, वह वहीं अनुरक्त होकर आत्मविस्मृत हो जाती है–’निरखि जो जिहिं अंग राँची, तहीं रही भुलाइ’ (सूरदास)।
तभी शुरु हो जाती है व्रजपुर की गोपसुन्दरियों के कण्ठ से मंगलगीतों की सुमधुर ध्वनि; दुन्दुभि, ढक्का, पटह, मृदंग, मुरज, आनक, वंशी, कांस्य आदि वाद्ययन्त्रों का आकाश को भी गुंजायमान करने वाला नाद और आनन्द में मस्त गोप-गोपियों के नृत्य की झंकार। ‘श्रीकृष्णचन्द्र की जय। रोहिणीनन्दन बलराम की जय।। राम और श्याम चिरं जीव चिरं जीव।’ इस तरह के सामूहिक घोष से चारों दिशाएं निनादित हो उठीं। इस प्रकार नीलमणि श्रीकृष्ण और उनके अग्रज बलराम आज ‘वत्सपाल’ से ‘गोपाल’ बन गए हैं।
आगे गाय पाछे गाय इत गाय उत गाय।
गोविन्द कूँ गायन में बसिबौ ही भावे।।
गायन के संग धावै गायन में सचु पावै।
गायन की खुर रेनु अंग लिपटावै।। 
गायन सों व्रज छायौ, वैकुंठ विसरायौ।
गायन के हित गिरि कर लै उठावै।।
‘छीतस्वामी’ गिरिधारी, विट्ठलेस वपु-धारी।
ग्वारिया कौ भेषु धरैं गायन में आवै।।
श्रीकृष्ण अनेक सखाओं के साथ गोचारण करते हुए वृन्दाकानन की ओर जा रहे हैं। आगे-आगे गौएं, उनके पीछे-पीछे बांसुरी बजाते हुए श्यामसुन्दर, फिर बलराम और उनके पीछे श्रीकृष्ण के यश का गान करते हुए ग्वालबाल–इस अप्रतिम दृश्य की शोभा को व्यक्त करने में वाणी भी समर्थ नहीं है।
ग्वाल मंडली मध्य स्याम घन,
पीत बसन दामिनी लजाएें।
गोप सखा आवत गुन गावत,
मध्य स्याम हलधर छवि छाएें।। (सूरदास)
गोपबालकों की मंडली के बीच मेघ के समान श्यामसुन्दर का पीताम्बर बिजली को भी लज्जित कर रहा है। गोप-सखा उनका गुणगान कर रहे हैं और बीच में कृष्ण-बलराम सुशोभित हो रहे हैं।
सुंदर स्याम, सखा सब सुंदर, सुंदर वेष धरैं गोपाल।
सुंदर पथ, सुंदर गति आवन, सुंदर मुरली सब्द रसाल।।
सुंदर लोग, सकल ब्रज सुंदर, सुंदर हलधर, सुंदर चाल।
सुंदर वचन, विलोकनि सुंदर, सुंदर गुन, सुंदर वनमाल।।
सुंदर गोप, गाइ अति सुंदर, सुंदरि गन सब करति विचार।
सूर स्याम सँग सब सुख सुंदर, सुंदर भक्त हेत अवतार।।
सूरदासजी कहते हैं–श्यामसुन्दर तो सुंदर हैं ही, उनके सभी सखा भी सुंदर हैं और इतने सौंदर्य पर भी उन्होंने गोपाल (ग्वालिए) का वेष धारण कर रखा है। सुंदर मार्ग, सुंदर गति से गोपाल का आना, सुंदर मुरली जिसके शब्द भी रसमय हैं। व्रज के सभी लोग सुंदर हैं, पूरा व्रज सुंदर है, श्रीबलराम और उनकी चाल भी सुंदर है। वाणी सुंदर, चितवन सुंदर और सूत में गुंथी वनमाला भी सुंदर है। गोप सुंदर और गाएं तो अति सुंदर हैं और सुंदर व्रजांगनाएं भी श्रीकृष्ण की सुन्दरता का ही विचार किया करती हैं। श्रीकृष्ण के साथ सभी सुख सुंदर हैं और सुंदर भक्तों के लिए उनका यह सुंदर अवतार हुआ है।
इस प्रकार परस्पर हंसते-खेलते, गौओं को भगाते-कुदाते सभी ने पास ही के वन में प्रवेश किया। कन्हैया अपने कोमल हाथों से हरी-हरी दूब तोड़ते और गायों को अपने हाथों से खिलाते। भगवान श्रीकृष्ण के हाथों का मधुर स्पर्श पाने को कामधेनु भी व्रज की गाय बनने की अभिलाषा करती है–
कामधेनु तरसत रही मैं न भई व्रज गाय।
राधा लाती दोहनी मोहन दुहते आय।।
ऐसे ही अनेक कौतुकों से गायों और गोपसखाओं को सुखी कर सबने यशोदामाता द्वारा दी गयी छाक का भोजन किया।
वृंदावन वन में स्याम चरावत गैया।
वृंदावन में वंशी बजाई बैठे कदंब की छैया।।
भांति भांति के भोजन कीने पठये यशोमति मैया।
सूरदास प्रभु तुम चिरजीयो मेरो कुंवर कन्हैया।।
वृन्दावन के कोने-कोने पर इस गोपाल का ही साम्राज्य है क्योकि यह गोलोक की ही विभूति है। इसलिए यह वृन्दाभूमि उनके चरणचिह्नों–ध्वजा, पद्म, वज्र, अंकुश, जौ आदि–से पूर्व की अपेक्षा और भी अधिक अलंकृत और धन्य होने जा रही है।श्रीकृष्ण, दाऊदादा और ग्बालवालों के साथ वन में चारों ओर विचरण करने लगे। वे कभी सखाओं के साथ भंवरों के स्वर-में-स्वर मिलाकर गावें, कभी कलहंसों के साथ कूजन करें, कभी मोर के साथ नाचें। दोनों में नृत्य की होड़ लगने पर जब मोर हार जाए तो ग्वालबाल ताली पीट-पीट कर अपने सखा की पीठ ठोंकें। कभी कन्हैया मोर, चकवा आदि पक्षियों की बोली बोलते तो कभी बाघ, सिंह आदि की गर्जना से डरे हुए जीवों के समान स्वयं भी भयभीत होने की-सी लीला करते। जब कभी दाऊदादा किसी सखा की गोद में सिर रखकर सो जाएं तब कन्हैया स्वयं उनके चरण दबाएं मानो कह रहे हों कि पहले जब तुम लक्ष्मण थे, तब तुम हमारे पाँव दबाया करते थे। पर अब जब तुम बड़े भाई बने हो तो तुम्हें हमसे पाँव दबवाने पड़ेंगे। कभी कन्हैया स्वयं ग्वालबालों के साथ कुश्ती लड़ते-लड़ते थक जाते तो किसी पेड़ के नीचे पत्तों की शय्या पर सो जायें। तब सखा उनकी सेवा करें, पांव दबावें, तालवृन्त के पत्तों का पंखा झलें और उनके मन को प्रिय लगने वाले गीत गावें। इस प्रकार भगवान श्रीकृष्ण अपनी योगमाया से अपने ऐश्वर्यमय स्वरूप को छिपाकर ग्वालबालों के समान लीला करते हैं।
श्रीकृष्ण बलरामजी से कहते हैं–दादा! यह वृन्दावन के वृक्ष भी अपनी डालियों में सुन्दर फूल एवं फलों को लेकर आपके चरणकमलों में झुक रहे हैं। ये वृक्ष सिर झुकाकर आपको नमस्कार कर रहे हैं। ये पूर्वजन्मों में बड़े भक्त व संत थे। अब अपनी इच्छा से वृक्ष हो गए हैं। इन्होंने वृन्दावन का वृक्ष बनना इसलिए चाहा, ताकि व्रजरज में ही ये गड़े रहें, अपनी जगह से टस-से-मस न हों और कृष्णावतार में जब श्रीकृष्ण गोचारण के लिए आवें, तो उस झांकी का दर्शन कर अपने अनेक जन्मों की श्रीकृष्ण दर्शन की इच्छा पूरी कर सकें। उद्धवजी, ब्रह्माजी भी यही चाहते थे कि वे व्रज के वृक्ष, लता हो जावें।
श्रीकृष्ण बलरामजी से कहते हैं कि ये भंवरें, हरिणियां, कोकिला आदि भी संत हैं। अतिथि का स्वागत करना संत का स्वभाव होता है। वे अपनी प्रिय-से-प्रिय वस्तु अतिथि को भेंट कर देते हैं। इसीलिए आपके स्वागत के लिए मोर नाच रहे हैं, हरिणियां प्रेम से देख रही हैं और कोकिला कुहु-कुहु की मधुर आवाज से आपका स्वागत कर रहीं हैं। ये भंवरे भी गुंजार करते हुए आपके पावन यश का गान कर रहे हैं। धन्य है वृन्दावन की धरती, धन्य है वृन्दावन की द्रुमलता, नदी, पर्वत, खग-मृग।
दिन ढलने पर गाय व बछड़ों को एकत्र कर सब व्रज लौटे। उस समय श्रीकृष्ण की घुंघराली अलकों पर गौओं के खुरों से उड़-उड़कर धूलि पड़ी हुई थी, वे मधुर-मधुर मुरली बजा रहे थे और ग्वालबाल उनकी कीर्ति का गान करते हुए उनके पीछे-पीछे चल रहे थे। मुरली की ध्वनि सुनकर गोपियाँ व्रज से बाहर आईं। गोपियों ने अपने नेत्ररूप भ्रमरों से श्रीकृष्ण के मुखारविन्द का मकरन्द-रसपान करके दिन भर के विरह की जलन शान्त की। (अनेक जन्मों की साधना के पश्चात् साधक के हृदय में कृष्ण-तत्त्व पर पड़ा माया का पर्दा जब हट जाता है, तभी वह यह समझ सकता है कि गौओं को चराकर वन से जब श्रीकृष्ण लौटते हैं, उस समय गोपियां गोरज से रंगे कृष्ण के मुख को देखकर किस सुख का अनुभव करती हैं।)
श्रीकृष्ण आज पहली बार गोप-बालकों के संग गोचारण को गए थे। वहां से वापस आने पर नन्दबाबा और यशोदामाता उन्हें दौड़कर अपने अंक में भर लेते हैं। माता अपने पुत्र के चन्द्रमुख की बलैयां लेती हैं। कृष्ण अपनी मां को वन में गौ चराते वक्त भी नहीं भूले, सो मां के लिए कुछ जंगली फल लेकर आए हैं। माता उन्हें पाकर निहाल हैं। वे कहती हैं कि उसे कुछ नहीं चाहिए, वह तो सिर्फ कृष्ण को पाकर ही परम सुखी हैं।
जसुमति दौरि लिए हरि कनियाँ।
आजु गयौ मेरौ गाइ चरावन, हौं बलि जाउँ निछनियाँ।।
मो कारन कछु आन्यौ है बलि, बन-फल तोरि नन्हैया।
तुमहिं मिलैं मैं अति सुख पायौ, मेरे कुँवर कन्हैया।।
स्वयं परमब्रह्म परमात्मा श्रीकृष्ण ने गोचारण करके गायों के प्रति अपनी निष्ठा व प्रेम दर्शाया है और गोसेवा के महत्व का प्रतिपादन कर अपने ‘गोपाल’ नाम को सार्थक किया–’गावो मे हृदये सन्तु गवां मध्ये वसाम्यहम्।’
परमात्मा ने मानव को बुद्धि व आत्मिक गुणों से सम्पन्नकर धरती पर इसलिए भेजा है कि वह उसकी सृष्टि को और अधिक  सौन्दर्य प्रदान करके उसकी कल्पना को साकार करेगा। परन्तु ये कैसी बिडम्बना है कि मनुष्य अपनी हठ-बुद्धि के कारण न केवल परमात्मा की रचना को कुरुप बना रहा है वरन् अपने को अमानवीय घोषित कर ’मानव-मात्र की धाय–गाय’ को भी आदर देने में कमी कर दी है।
महर्षि वशिष्ठ के शब्दों में–‘नदियां जिस प्रकार समुद्र में जा मिलती हैं, उसी प्रकार सुनहरी श्रृंगोंवाली (सींगों वाली) और दूध देने वाली गौएं मुझे प्राप्त हों। ऐसा हो कि मैं नित्य गौओं को देखूं और गौएं मेरी ओर देखें। कारण, गौएं हमारी हैं और हम गौओं के हैं। गौएं हैं इसीसे हमलोग भी हैं।’



प्रथम गोचारण चले कन्हाइ

प्रथम गोचारण चले कन्हाइ


मैया री! मैं गाय चरावन जैहौं।
तूँ कहि महरि नंदबाबा सों, बड़ो भयो न डरैहौं।।
श्रीदामा लै आदि सखा सब, अरु हलधर सँग लैहौं।
दह्यौ-भात काँवरि भरि लैहौं, भूख लगै तब खैहौं।।
बंसीवट की सीतल छैयाँ खेलत में सुख पैहौं।
परमानंददास सँग खेलौं, जाय जमुनतट न्हैहौं।।
ब्रह्ममयी व्रजभूमि में भगवान श्रीकृष्ण को गौएं, गोपियां और ग्वालबाल–ये तीन अत्यन्त प्रिय थे। कन्हैया अपने साथी ग्वालबालों और गौओं के साथ क्रीड़ाकर गोपियों को आनन्दित करते रहते थे। चंचल कन्हैया की बाललीलाओं के रस का आनन्द लेते हुए बड़भागी व्रजवासियों के दिन क्षण के समान बीत रहे थे। गोकुल में आए दिन होने वाले राक्षसों के उत्पातों से बचने के लिए उपनन्दजी के परामर्श से समस्त नन्दव्रज वृन्दावन चला आया। अब वृन्दावन के अनुरुप ही नन्दनन्दन का लीलासमुद्र भी हिलोंरे लेने लगा। कन्हैया कब, कैसे, किससे वंशी बजाना सीख गए, किसी को नहीं मालूम। दल-की-दल व्रजपुर की गोपांगनाएं प्रतिदिन नन्दमहल में आतीं और कहतीं–
’प्यारे कन्हैया! विचित्र बात है। भला, देखो–कहां तो तुम्हारे ये सुकोमल नन्हें-से अधर माता के स्तनपान में भी समर्थ न थे, कहां उसी अधर पर वंशी धारणकर तुम इन्हीं कुछ दिनों में इतनी मधुर वंशी बजाना सीख गए। अरे बताओ तो सही, इतने कम समय में इस मधुर वंशीवादन की शिक्षा तुमने किस गुरु से ली।’ (श्रीआनन्दवृन्दावनचम्पू:)
श्रीकृष्ण भी ब्रजांगनाओं का प्रोत्साहन पाकर माता की गोद में बैठे वंशी में रस भरने लगते। वंशी उनके अधरों का रस पाकर और रसमयी होकर समस्त वृन्दावन में रस की सरिता बहा देती। सभी गोपियां कन्हैया की मुरली की रस-सुधा का पान करके बलिहार जातीं। कन्हैया दिन-भर दो ही कामों में व्यस्त रहते–एक, वंशी बजाना और दूसरे, सखाओं के साथ गाय और गोवत्स (बछड़ों) के साथ विभिन्न प्रकार की क्रीड़ा करना। कभी गाय-बछड़ों को अपने अधीन कर नचाते कभी उनके सींगों को पकड़कर खेलते। नन्दबाबा व नन्दरानी स्नेहवश भयभीत हो जाते पर बार-बार मना करने पर भी कन्हैया एक नहीं सुनते थे। जब देखो तब वे गायों, बछड़ों व वृषभों के संग खेलते रहते थे। माता का अधिकांश समय गोष्ठ (गायों के रहने का स्थान) में ही व्यतीत होता क्योंकि ऐसे चंचल कन्हाई पर नियन्त्रण संभव नहीं था। साथ में उन्हें बड़े भैया दाऊ का प्रोत्साहन था। अब किसका भय? माता को सूचना देने वाले तो दाऊ भैया ही हैं, जब वे ही सम्मिलित हैं तो चिन्ता किस बात की? श्रीकृष्ण कभी विश्राम करते हुए सांड़ की पीठ पर चढ़ जाते और बलराम उसकी पूंछ उमेठना शुरु कर देते। भयभीत नन्दरानी कितना भी समझाएं, पर दोनों भाई कहां मानने वाले थे।
अक्सर वह दाऊदादा के साथ माता की नजरों से बचकर वन में चले जाया करते थे जहां गोपबालक गोचारण कर रहे होते थे। वे उन गोपबालकों के साथ बछड़ा चराते हुए खेलते रहते थे। अपने प्राणप्रियतम नीलमणि व बलराम को वन में इतनी दूर अकेले गया देखकर नन्दरानी का हृदय धक्-धक् करने लगता। नन्ददम्पत्ति ने इस भय से कि खेलते-खेलते पता नहीं किसी दिन किधर चले न जाएं, निश्चय किया कि–’सचमुच ये राम (बलराम) और श्याम बहुत चंचल हो गए हैं। यदि ये गोवत्सों के संग के बिना रह नहीं सकते तो अच्छा है कि व्रज के निकट रहकर ये छोटे बछड़ों को चराया करें।’ कन्हैया को तो मनवांछित प्राप्त हो गया। गोचारण तो गोपजाति का स्वधर्म है।
चले हरि वत्स चरावन आज।
मुदित जसोमति करत आरती साजे सब सुभ साज।।
मंगलगान करत ब्रजबनिता, मोतिन पूरे थाल।
हँसत हँसावत बत्स-बाल सँग चले जात गोपाल।।
जो सारे लोकों के ईश्वर हैं, परमब्रह्म परमात्मा हैं, वे ही श्रीकृष्ण-बलराम अब वत्सपाल (बछड़ों के चरवाहे) बने हुए हैं। वे तड़के ही उठकर कलेवे का भोजन (छाक) ले लेते और बछड़ों को चराते हुए वन में घूमा करते। श्रीकृष्ण के अगणित बछड़ों के साथ ग्वालबाल हाथों में बेंत, सिंगी और बांसुरी लेकर अपने-अपने बछड़ों के साथ वत्सचारण के लिए निकल पड़ते। वन में वे विभिन्न रंगों के फलों, फूलों, कोंपलों, पत्तों, मोरपंखों व गेरू आदि से श्रीकृष्ण का व अपना श्रृंगार करते। कोई ग्वाल बांसुरी बजाता, कोई सिंगी फूंकता, कोई कोयल के साथ स्वर में स्वर मिलाकर कुहु-कुहु करता, कोई बंदर की पूंछ पकड़ कर खींचता, कोई पक्षियों की छाया के साथ दौड़ लगाता, कोई मयूर नृत्य करता, कोई मेंढक के साथ फुदकता, कोई अपने शब्द की प्रतिध्वनि (इको) को ही बुरा-भला कहता। अनेक कल्पों की तपस्या के बाद भी योगियों के लिए जिन सच्चिदानन्द परमब्रह्म श्रीकृष्ण के चरणकमलों की रज अप्राप्य है, वही भगवान श्रीकृष्ण व्रजवासी बालकों के साथ खेलते हैं, उनके सौभाग्य की महिमा का बखान नहीं किया जा सकता।
इस प्रकार खेलते-कूदते बाल्यावस्था बीत गई। कन्हैया छह वर्ष पूरा करके सातवें वर्ष में प्रवेश करते हैं। अब उनकी आयु का प्रवाह भी बाल्यावस्था को पार कर पौगण्डावस्था में प्रवेश कर रहा है। उसी के अनुरुप उनकी मेधा व बल का विकास हो चुका है। मेघश्याम शरीर, कमलनेत्र व विकसित वक्ष:स्थल और स्वभाव में भी पौगण्डावस्था के चिह्न दिखने लगे हैं। आजतक श्रीकृष्ण वत्सपाल थे, छोटे-छोटे बछड़ों को लेकर चराने जाते थे। एक दिन नीलमणि कृष्ण ने मां से कह ही दिया–’मां! मैं बड़ा हो गया हूँ, मुझे ‘गोपाल’ होना है। मुझे गायों की सेवा करनी है। अब जब मैं और दाऊदादा बड़े हो गए हैं तो केवल बाबा ही क्यों गोचारण का कार्य करें?’
मैया री! मैं गाय चरावन जैहौं।
तूँ कहि महरि नंदबाबा सों, बड़ो भयो न डरैहौं।।
कन्हैया की बात सुनकर माता का हृदय भयभीत हो गया। अभी तो मेरे नीलमणि के दूध के दाँत भी नहीं उतरे हैं, यह भला वन में गोचारण करने कैसे जाएगा? हठीले मोहन बात पकड़ लेने पर छोड़ना जानते ही नहीं।
इधर भगवान श्रीकृष्ण की लीलाशक्ति ने भी अपना उपक्रम करना शुरु कर दिया। जिन गोवत्सों को नन्दनन्दन वत्सपाल बनकर गोपशिशुओं के साथ वन में ले जाया करते थे, वे सब गौएं बन चुकी थीं। श्रीकृष्ण-बलराम के हाथ से जिन गोवत्सों ने कोमल तृण (घास) का ग्रास लिया था, जिनका दोहन (दूध दुहना) कन्हैया के हस्तकमलों से हुआ था, जिनकी सेवा-सुश्रुषा व्रजराजकुमार के हाथों से हुई थीं, उनके अंत:स्तल में कन्हैया के प्यार की अनन्त स्मृतियां बसी हुईं थीं; पर उनकी मूक वाणी उसे व्यक्त नहीं कर पा रही थी। अत: वे अब किसी गोपसेवक को अपने शरीर का स्पर्श तक नहीं करने देती थीं। न ही वे गौएं किसी अन्य गोपसेवक के संग वन में विचरण करने को जाती थीं। सभी गोपसेवकों ने नन्दरायजी को जाकर सूचना दी कि अब गोधन आपके पुत्र के बिना एक पग भी वन की ओर अग्रसर नहीं होता। जब तक श्रीकृष्ण स्वयं उनके आगे आकर खड़े न हो जावें, किसी भी प्रकार गौएं वन जाने को तैयार नहीं होती हैं। किसी भी गोप को अपने पास आता देखकर वे बिदक जातीं  हैं और कन्हैया के गोष्ठ में आने पर पूरा गोष्ठ ‘हम्बारव’ से गूंज जाता है, उनके थनों से दूध बरसने लगता है। गायों के थनों में इतना दुग्ध कहां से आता, इसे कोई नहीं जानता। सभी गोपसेवक गायों का कन्हैया के प्रति अद्भुत आकर्षण देखकर अचम्भित रह जाते पर इसका रहस्य न जान पाते। गोपों ने नन्दरायजी से कहा–’व्रजराज! यह तो जानी हुई बात है, जहां कहीं जिसके प्रति भी आपका पुत्र प्रेम प्रदर्शित करता है, वहां-वहां सर्वत्र यही परिणाम सामने आता है।’
नन्दबाबा गोपों से सुनते, स्वयं भी देखते, अनुभव करते कि मेरे पुत्र में सचमुच गोसंरक्षण की अद्वितीय योग्यता है। परन्तु पिता का मन अपने पुत्र के अनिष्ट के लिए कंस द्वारा बार-बार भेजे गए राक्षसों की याद से सिहर उठता। उपनन्दजी व अन्य गोपों ने नन्दरायजी को समझाते हुए कहा–’व्रजराज! यह तो आपके तप का ही प्रभाव है जो आपके पुत्र में इतनी विलक्षण बुद्धि व बल आ गया है, उसने दुष्ट राक्षसों का जो संहार किया, उसमें किसी अन्य की कोई सहायता नहीं ली। इसलिए आगे भी मंगल ही होगा।’
अत: आज सभी गोपों और कन्हैया की मांग को मानते हुए नन्दबाबा ने समस्त गायों के संचरण व संरक्षण का भार कन्हैया को सौंप दिया। सभी गोपों व उपनन्दजी ने श्रीकृष्ण के गोचारण के लिए ज्योतिषियों से शुभ मुहुर्त निकलवाने का परामर्श दिया। उसी समय शांडिल्य ऋषि वहां आ गए। यशोदामाता ने पाद्य-अर्घ्य आदि से पूजन कर ऋषि से कहा–’महाराज! कन्हैया की ‘गोपाल’ होने की इच्छा है, कोई अच्छा मुहुर्त बताइए।’ शांडिल्य ऋषि ने कन्हैया के जन्माक्षर देखकर कार्तिक शुक्ल पक्ष, श्रवण-नक्षत्र युक्त अष्टमी (गोपाष्टमी), बुधवार का शुभमुहुर्त बताया। सारे व्रज में यह बात फैल गई। सभी व्रजवासियों ने भी निश्चय किया कि हम भी अपने बच्चों को उसी दिन से गोचारण के लिए भेजेंगे।
गाय चरावन को दिन आयो।
फूली फिरत जसोदा अंग अंग लालन उबट न्हवायो।।
भूषन बसन पलट पहेराये रोरी तिलक बनायो।
बिप्र बुलाय वेदध्वनि कीनी मोतिन-चोक पुरायो।।
देत असीस सकल गोपीजन आनंद मंगल गायो।
लटकत चलत लाडिलो बनकों परमानंद जिय भायो।।
दिन और रात का अवसान होकर गोचारण के शुभ दिन का मंगल प्रभात हुआ। मन-ही-मन नन्दबाबा आज के पुण्यप्रभात को धन्यवाद दे रहे हैं। सब ओर आनन्द छाया है–‘आजु ब्रज छायो अति आनंद।’ नन्दनन्दन श्रीकृष्ण के प्रथम गोचारण महोत्सव के उपलक्ष्य में व्रजपुर में क्या-क्या हुआ, उसका पूरा वर्णन करना तो किसी के लिए भी संभव नहीं है। सप्तमी तिथी की रात्रि को कन्हैया को निद्रा ही नहीं आई। वे प्रात:काल जाग गए। नन्दरायजी के आदेश से नंदमहल के साथ व्रजपुर के प्रत्येक घर, द्वार, तोरण-द्वार, वीथी (गली), चौराहे को सजाया गया है। द्वार पर चौक पूर कर मंगल कलश रखे गए है। घर-घर मंगलगीत गाए जा रहे हैं।
माता के आनन्द का क्या कहना? जिसका सौंदर्य सारे जग को विस्मित कर दे, जो मोहन है, मनमोहन हैं, भुवन मनमोहन हैं; उनको उबटन लगाकर स्नानादि कराकर नन्दरानी ने ‘गोपाल’ बनने के योग्य सुन्दर नवीन वस्त्राभूषणों से और भी सजा दिया। कहीं नजर न लग जाए, इसलिए माथे पर काजल का डिठौना भी लगा दिया–’राइ लोन उतार जसोदा गोबिंद बल बल जाय।’
माता के हाथों से सजकर नीलमणि श्रीकृष्ण आंगन में खड़े हैं। यशोदामाता ने कन्हैया से कहा कि बेटा तुम्हारे कोमल पैरों में वन के कांटे चुभेंगे इसलिए तुम जड़ीदार जूतियां पहनकर गोचारण के लिए जाओ। कन्हैया ने कहा–’माँ! यदि तू मुझे जूते पहनने के लिए कहती है तो मेरी पूज्या गायों के लिए भी जूते बनवा दे।’ माता ने कहा–’बेटा तू तो मनुष्य और छोटा बालक है। तेरे कोमल चरणों को वनों के जंगली कांटों से बहुत कष्ट होगा। गाएं तो पशु हैं। भला वे कैसे जूती पहन सकती हैं।’
कन्हैया ने माता से कहा–’माँ! तूने आज गायों को पशु कहा, सो कहा, आगे से कभी न कहना। जो गायों को पशु कहता है, वह मुझे जरा भी नहीं सुहाता है। गाएं पशु नहीं–’गावो विश्वस्य मातर:।’ गाएं समस्त विश्व की माता हैंसभी कामनाओं को पूरा करने वाली कामधेनु हैं। गौओं के रोम-रोम में देवताओं का वास है। ये सर्वतीर्थमयी हैं। ये भवसागर से पार लगाने वाली व गोलोक की प्राप्ति कराने वाली मेरी इष्ट हैं। मैं तो गोपाल हूँ। गोपाल तो गायों का सेवक है। यदि गायें नंगे पैर चलती हैं, तो उनका सेवक भी नंगे पैर चलेगा।’
गोधन पूजें गोधन गावें।
गोधन के सेवक संतत हम, गोधन ही को माथो नावें।।
गोधन मात-पिता गुरु गोधन, देव जानि नित ध्यावें।
गोधन कामधेनु कल्पतरु, गोधन पै माँगे सोई पावें।। (परमानन्ददास)
कन्हैया ने गायों की सेवा बड़े प्रेम से की है, गायों की ऐसी सेवा अब तक किसी ने नहीं की।
इष्टदेव प्रभु सबहिके, जिनकी गउएं सेव।
तिनकी सेवा सौं स्वयं, चार पदारथ लेव।।
जिनके सेवक हैं स्वयं गोकुलेश गोपाल।
उनकी सेवा से कहौ, क्यों न कटै भवजाल।। (श्रीराधाकृष्णजी श्रोत्रिय, ‘सांवरा’)
श्रीकृष्ण के श्रृंगार के बाद उनका रक्षा-विधान सम्पन्न हुआ है। ब्राह्मणों ने पुण्याहवाचन कर्म कराकर गुरुजनों के साथ कन्हैया को आशीर्वचन दिए। नन्दरानी, रौहिणीजी और अनेक व्रजगोपियों ने मंगलगीत गाकर नंदनन्दन की आरती उतारी। कन्हैया उस अपार गोधन के समीप गए। उन्होंने गायों को पाद्य आदि अर्पण कर उनकी पूजा-अर्चना की। उन्हें तृण व लड्डू खिलाकर तृप्त किया और फिर गायों की प्रदक्षिणा कर साष्टांग वंदन कर उनके खुरों का स्पर्श कर स्तवन किया। गायें भी कन्हैया को देखकर रँभाने लगती हैं। यशोदामाता का हृदय भी प्रेम से भर उठा है, वह कहती हैं–’गायों की सेवा कभी व्यर्थ नहीं जाती, गायों का आशीर्वाद पाकर ही मेरा बालक सुखी होगा।’
कन्हैया की गायों का श्रृंगार और चमक-दमक देखने लायक थी–
गाइन की छवि नहिं कहि परै। रूप अनूप सब के हिय हरै।।
कंचन भूषन सब के गरै। घनन घनन घंटागन करै।।
उज्जल बरन सु को है हंस। कामधेनु सब जिन कौ अंस।।
दरपन सम तन अति दुति देत। जिन मधि हरि झांई झुकि लेत।।
श्रीकृष्ण और बलराम का सुन्दर मुंह निहारती हुई गौएं उनके आगे-पीछे और अगल-बगल में खड़ीं थीं। गौओ के गले में क्षुद्रघंटिकाओं (छोटी घण्टियों) की व सोने की मालाएं पहनाई गयीं थीं। पैरों में घुंघुरु व पूंछ के बालों में मोरपंख व मोतियों के गुच्छे पहनाये गये थे। दोनों सींगों के बीच में मणिमय अलंकार, पीठ पर मोतियों की झूल, चमकते हुए सींगों से गौओं की शोभा बहुत बढ़ गई थी। गौओं के भाल पर लाल तिलक, पीले रंग से रंगी पूछें व अरुणराग से रंगे खुर–सब-की-सब भव्य-मूर्ति सी दिखाई पड़ रहीं थीं। कोई कैलास के समान श्वेत वर्ण की, कोई लाल, कोई पीली, कोई चितकबरी, कोई श्यामा, कोई धूमिल वर्ण, तो कोई तांबई रंग की थी और उन सबके नेत्र कन्हैया की ओर ही लगे थे। नन्दबाबा व नन्दरानी ने अपने इष्टदेव नारायण को मनाया। ब्राह्मणों को स्वर्णदान कर कन्हैया के लिए सबसे आशीर्वाद लिए–
’बिप्र बुलाय दान करि सुबरन सबकी सुखद असीसें लीन्हीं। 
कर पकराइ नयन भरि अँसुवन सकल सँभार दाउए दीन्हीं।।
बड़ी सुखी हैं नन्दरानी आज, पर जब कन्हैया चलने लगे तब पुत्र के वात्सल्य-स्नेह में आकंठ डूबे माता के मन ने आशंकाओं के पहाड़ खड़े कर दिए। वे डर गईं कि वन में मेरे कन्हैया का कोई अनिष्ट न हो जाए। नन्दरानी की आंखों में आंसू छलक आए। उन्होंने दाऊजी को कन्हैया का हाथ पकड़ाकर कहा–’बेटा! तुम बड़े हो, यह कन्हैया बड़ा चंचल है; अपने इस छोटे भाई की सम्भाल रखना।’ तभी कन्हैया के सभी ग्वालसखा आ गए। यशोदामाता उनमें से एक-एक को समझाती हैं–’मेरे लाला का ध्यान रखना। यह बहुत शरारती हो गया है।’ ग्वालमित्रों ने कहा–मां! तुम इसकी जरा भी चिन्ता न करना। हम इसका हाथ पकड़कर ही चलने वाले हैं।’ जो जगत को सम्हालने वाला है उसे ये ग्वालमित्र प्रेम से सम्हालने चले हैं।
परन्तु माता यशोदा का पुत्रप्रेम तो विलक्षण है। वह पुकार रही हैं–’बलराम! बेटा! तू नीलमणि के आगे हो जा। अरे सुबल! तू मेरे लाल के पीछे हो जा। अरे ओ श्रीदामा! ओ सुदाम! तुम दोनों इस नीलमणि के अगल-बगल में रहना। अरे बालको! सुनते हो, देखो, तुम सब अपने इस प्यारे मित्र नीलमणि को सब ओर से घेर कर चलना।’ इस प्रकार माता यशोदा सभी को श्रीकृष्ण का ध्यान रखने का निर्देश दे रही हैं। दें भी क्यों न? अब तक बार-बार कन्हैया का अनिष्ट करने के लिए कंस द्वारा भेजे गए राक्षसों के भय से माता का हृदय अभी तक आशंकित है। इस कारण उनकी आंखें निरन्तर झर-झर बरस रही हैं।
नन्दबाबा निर्निमेष नयनों से श्रीकृष्ण के लिए यशोदा की प्रेमदशा देख रहे थे। उनके हृदय का आनन्द-रस आंसू बनके आंखों के रास्ते बाहर आना चाहता था। आज वे इस मंगलबेला के लिए अपने नारायण को मन-ही-मन धन्यवाद दे रहे थे। नन्दबाबा ने अपने पुत्र के हाथ में एक छोटी-सी मणिमय लाल लकुटी (छड़ी) पकड़ा दी। सजे-धजे गोवत्स व गाएं द्वार पर कन्हैया की प्रतीक्षा कर रहे हैं। कन्हैया के आते ही सभी आनन्द में भरकर कूदने लगे। नन्दलाल ने माता-पिता व सभी गोपजन को प्रणाम किया और गोचारण के लिए चल दिए–
प्रथम गोचारण चले कन्हाइ।
कुंडल लोल कपोल विराजत सुंदरता चल आई।।
माथे मुकुट पीताम्बर की छवि वनमाला पहराइ।
घर घरतें सब छाक लेत हैं संग सखा सुखदाइ।।
गाय हाँक आगें कर लीनी पाछे मुरली बजाइ।
परमानंद प्रभु मनमोहन ब्रजजन सुरति कराइ।।
गोपियां मंगलगीत गा रही हैं। अपने घर के सामने आने पर सभी गोपांगनाएं कन्हैया की आरती उतार रही हैं। आगे-आगे गोवत्स और गौएं और उनके पीछे सखाओं के साथ नन्दनन्दन कंधे पर छींका (वन में खाने के लिए माता द्वारा दिया गया भोजन) रखे हुए चल रहे हैं। गौओं, ग्वालबालों व नंदनन्दन पर गोपियां पुष्प बरसा रही हैं। इस अद्भुत दृश्य को देखने के लिए देवी-देवता अपने-अपने लोकों को छोड़कर व्रज में चले आए हैं।

भगवान श्रीकृष्ण के प्रथम गोचारण पर गायों का अनुपम श्रृंगार




गाय सच्ची श्रीस्वरूपा (श्रीमती)

गाय सच्ची श्रीस्वरूपा (श्रीमती)

ऊँ नमो गोभ्य: श्रीमतीभ्य: सौरभेयीभ्य एव च।
नमो ब्रह्मसुताभ्यश्वच पवित्राभ्यो नमो नम:।।
इस श्लोक में गाय को श्रीमती कहा गया है। लक्ष्मीजी को चंचला कहा जाता है, वह लाख प्रयत्न करने पर भी स्थिर नहीं रहतीं। किन्तु गौओं में और यहां तक कि गोमय में इष्ट-तुष्टमयी लक्ष्मीजी का शाश्वत निवास है इसलिए गौ को सच्ची श्रीमती कहा गया है। सच्ची श्रीमती का अर्थ है कि गोसेवा से जो श्री प्राप्त होती है उसमें सद्-बुद्धि, सरस्वती, समस्त मंगल, सभी सद्-गुण, सभी ऐश्वर्य, परस्पर सौहार्द्र, सौजन्य, कीर्ति, लज्जा और शान्ति–इन सबका समावेश रहता है। शास्त्रों में वर्णित है कि स्वप्न में काली, उजली या किसी भी वर्ण की गाय का दर्शन हो जाए तो मनुष्य के समस्त कष्ट नष्ट हो जाते हैं फिर प्रत्यक्ष गोभक्ति के चमत्कार का क्या कहना?
यहां तक कि साक्षात् ब्रह्म भी गोलोक का परित्याग कर भारतभूमि पर गोकुल (गोधन) का बाहुल्य देखकर अत्यन्त लावण्यमय रूप धरकर उनकी सेवा के लिए अवतरित हुए। श्रीमद्भागवत में श्रीशुकदेवजी कहते है कि भगवान गोविन्द स्वयं अपनी समृद्धि, रूपलावण्य एवं ज्ञान-वैभव को देखकर चकित हो जाते थे (३।२।१२)। श्रीकृष्ण को भी आश्चर्य होता था कि सभी प्रकार के ऐश्वर्य, ज्ञान, बल, ऋषि-मुनि, भक्त, राजागण व देवी-देवताओं का सर्वस्व समर्पण–ये सब मेरे पास एक ही साथ कैसे आ गए। वास्तव में यह सब उनकी गोसेवा का ही फल था। भगवान श्रीकृष्ण ने अपने लोक को ही गोलोक नाम दिया। जब श्रीकृष्ण का जन्म हुआ तो नन्दबाबा ने कई लाख गौएं दान में दीं। नन्दबाबा को उनकी यह ‘नन्द’ की पदवी तथा श्रीराधा के पिता को ‘वृषभानुजी’ की पदवी गौओं की संख्या के ही कारण है। गर्गसंहिता के गोलोक-खण्ड में बताया गया है कि जो ग्वालों के साथ नौ लाख गायों का पालन करे, उसे ‘नन्द’ कहते हैं और पांच लाख गायों के पालक को ’उपनन्द’ कहते हैं। ‘वृषभानु’ उसे कहते हैं जो दस लाख गायों का पालन करता है।
गायें जहां स्वयं तपोमय हैं वहां अपनी सेवा करने वाले को भी तपोमय बना देती हैं। यज्ञ और दान का तो मुख्य स्तम्भ ही है गाय। अत: हमारी यही कामना है–
गावो ममाग्रतो नित्यं गाव: पृष्ठत एव च।
गावो मे सर्वतश्चैव गवां मध्ये वसाम्यहम्।।
‘गौएं मेरे आगे रहें। गौएं मेरे पीछे रहें। गौएं मेरे चारों ओर रहें और मैं गौओं के बीच में रहूं।’
गौ के सम्बन्ध में शतपथ ब्राह्मण (७।५।२।३४) में कहा गया है–’गौ वह झरना है, जो अनन्त, असीम है, जो सैंकड़ों धाराओं वाला है।’ पृथ्वी पर बहने वाले झरने एक समय आता है जब वे सूख जाते हैं। इन्हें एक स्थान से दूसरे स्थान पर भी नहीं ले जा सकते हैं किन्तु गाय रूपी झरना इतना विलक्षण है कि इसकी धारा कभी सूखती नहीं। अपनी संतति (संतानों) के द्वारा सदा बनी रहती है। साथ ही इस झरने को एक-स्थान से दूसरे स्थान पर ले भी जा सकते हैं।

यज्ञस्वरूपा गाय

यज्ञस्वरूपा गाय

भगवान ने विश्व के पालनार्थ यज्ञपुरुष की प्रधान सहायिका के रूप में गोशक्ति का सृजन किया है। इस यज्ञ की प्रक्रिया को सशक्त बनाने वाली रसदात्री गोमाता है। क्योंकि यज्ञ की सम्पूर्ण क्रियाओं में गाय द्वारा प्रदत्त दुग्ध, दही, घृत, पायस आदि द्रव्य अनिवार्य होते हैं। हविष्य को धारण करने की अग्निशक्ति का कारण भी गोघृत ही है। गौओं को साक्षात् यज्ञरूप बतलाया है। इनके बिना यज्ञ किसी भी तरह नहीं हो सकता। देवगण मन्त्रों के अधीन हैं, मन्त्र ब्राह्मणों के अधीन हैं और ब्राह्मणों को भी हव्य-कव्य, पंचगव्यादि गौ के द्वारा ही प्राप्त होती हैं। महर्षि पाराशर के अनुसार ब्रह्माजी ने एक ही कुल के दो भाग कर दिए–एक भाग गाय और एक भाग ब्राह्मण। ब्राह्मणों में मन्त्र प्रतिष्ठित हैं और गायों में हविष्य प्रतिष्ठित है। अत: गायों से ही सारे यज्ञों की प्रतिष्ठा है। स्कन्दपुराण में ब्रह्मा, विष्णु व महेश के द्वारा कामधेनु की स्तुति की गई है–
त्वं माता सर्वदेवानां त्वं च यज्ञस्य कारणम्।
त्वं तीर्थं सर्वतीर्थानां नमस्तेऽस्तु सदानघे।।
अर्थात् हे अनघे ! तुम समस्त देवों की जननी तथा यज्ञ की कारणरूपा हो और समस्त तीर्थों की महातीर्थ हो, तुमको सदैव नमस्कार है।
वेद हमारे ज्ञान के आदिस्त्रोत हैं। वे हमें देवताओं को प्रसन्न करने की विद्या–यज्ञानुष्ठान का पाठ पढ़ाते हैं। संसारचक्र का पालन करने वाले देवताओं की प्रसन्नता ही हमारी सुख-समृद्धि का साधन है। अत: यज्ञ हमारी लौकिक उन्नति और कल्याण दोनों के लिए आवश्यक हैं। यज्ञ से हम जो चाहें प्राप्त कर सकते हैं। इस यज्ञचक्र को चलाने के लिए ही वेद, अग्नि, गौ एवं ब्राह्मणों की सृष्टि हुई। वेदों में यज्ञानुष्ठान की विधि बताई गई है एवं ब्राह्मणों के द्वारा यह विधि सम्पन्न होती है। अग्नि के द्वारा आहुतियां देवताओं को पहुंचाई जाती हैं और गौ से हमें देवताओं को अर्पण करने योग्य हवि प्राप्त होता है। इसलिए हमारे शास्त्रों में गौ को ‘हविर्दुघा’ (हवि देने वाली) कहा गया है। गोघृत देवताओं का परम हवि है और यज्ञ के लिए भूमि को जोतकर तैयार करने एवं गेहूं, चावल, जौ, तिल आदि हविष्यान्न पैदा करने का काम बैलों (गाय के बछड़ों) द्वारा किया जाता है। यही नहीं, यज्ञभूमि को शुद्ध व परिष्कृत करने के लिए उस पर गोमूत्र छिड़का जाता है और गोबर से लीपा जाता है तथा गोबर के कंडों से ही यज्ञाग्नि प्रज्जवलित की जाती है। गोमय से लीपे जाने पर पृथ्वी पवित्र यज्ञभूमि बन जाती है और वहां से सारे भूत-प्रेत और अन्य तामसिक पदार्थ दूर हो जाते हैं। यज्ञानुष्ठान से पूर्व प्रत्येक यजमान की देहशुद्धि के लिए पंचगव्य पीना होता है जो गाय के ही दूध, दही, घी, गोमूत्र व गोमय (गोबर) से तैयार होता है। जो पाप किसी प्रायश्चित से दूर नहीं होते, वे गोमूत्र के साथ अन्य चार गव्य पदार्थ (दूध, दही, घी, गोमय) से युक्त होकर पंचगव्य रूप में हमारे अस्थि, मन, प्राण और आत्मा में स्थित पाप समूहों को नष्ट कर देते हैं।
‘पंचगव्यप्राशनं महापातकनाशनम्।’
देवताओं को आहुति पहुंचाने के लिए हमारे यहां दो ही मार्ग माने गये हैं–अग्नि और ब्राह्मणों का मुख। दूध में पकाये गये चावल जिन्हें आधुनिक भाषा में खीर कहते हैं और संस्कृत में परमान्न (सर्वश्रेष्ठ भोजन)–यही देवताओं और ब्राह्मणों को विशेष प्रिय होती है। घी को सर्वश्रेष्ठ रसायन माना गया है; गोमूत्र सब जलों में श्रेष्ठ है; गोरस सब रसों में श्रेष्ठ है।

गौ महिमा

इस संसार में ‘गौ’ एक अमूल्य और कल्याणप्रद पशु है। सूर्य भगवान के उदय होने पर उनकी ‘ज्योति’, ‘आयु’ और ‘गो’–ये तीन किरणें स्थावर-जंगम (चराचर) सभी प्राणियों में कम या अधिक मात्रा में प्रविष्ट होती हैं; परन्तु ‘गो’ नाम की किरण गौ-पशु में ही अधिक मात्रा में समाविष्ट होती है इसीलिए इनको ‘गौ’ नाम से पुकारते हैं। ‘गो’ नामक सूर्य किरण की पृथ्वी स्थावरमूर्ति (अचलरूप) और गौ-पशु जंगममूर्ति (चलायमानरूप) है। गौ और पृथ्वी दोनों ही परस्पर एक-दूसरे की सहायिका और सहचरी हैं। मृत्युलोक की आधारशक्ति ‘पृथ्वी’ है और देवलोक की आधारशक्ति ‘गौ’ है। पृथ्वी को ‘भूलोक’ कहते हैं और गौ को ‘गोलोक’ कहते हैं। भूलोक नीचे है और गोलोक ऊपर है। जिस प्रकार मनुष्यों के मल-मूत्रादि कुत्सित आचरणों को पृथ्वीमाता सप्रेम सहन करती है, उसी प्रकार गौमाता भी मनुष्यों के जीवन का आधार होते हुए उनके वाहन, ताड़न आदि कुत्सित आचरणों को सहन करती है। इसीलिए वेदों में पृथ्वी और गौ के लिए ‘मही’ (क्षमाशील) शब्द का प्रयोग किया गया है। मनुष्यों में भी जो सहनशील होते हैं, वे महान माने जाते हैं। संसार में पृथ्वी व गौ से अधिक क्षमावान और कोई नहीं है। शास्त्रों में गौ को सर्वदेवमयी और सर्वतीर्थमयी कहा गया है। इसलिए गौ के दर्शन से समस्त देवताओं के दर्शन और समस्त तीर्थों की यात्रा करने का पुण्य प्राप्त हो जाता है।
समस्त प्राणियों को धारण करने के लिए पृथ्वी गोरूप ही धारण करती है। जब-जब पृथ्वी पर असुरों का भार बढ़ता है, तब-तब वह देवताओं के साथ भगवान विष्णु की शरण में गोरूपधारण करके जाती है। गौ, विप्र, वेद, सती, सत्यवादी, निर्लोभी और दानी–इन सात महाशक्तियों के बल पर ही पृथ्वी टिकी है पर इनमें गौ का ही प्रथम स्थान है।
गो शब्द स्त्रीलिंग और पुल्लिंग दोनों में प्रयुक्त होता है। गाय रूप से विष्णुपत्नी भूदेवी का रूप होने से माता है और गो वृषभ
रूप से धर्म का रूप होने से सबका पिता है। गौ धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष इन चारो पुरुषार्थों की धात्री होने के कारण कामधेनु है, इसका अनिष्ट चिन्तन ही पराभव (विनाश) का कारण है। शास्त्रों में गाय को प्रत्यक्ष देवी माना है। उनके रोम-रोम में देवताओं का वास है। गोमूत्र में गंगाजी का व गोबर में लक्ष्मीजी का निवास है। भवसागर से पार लगाने वाली गोमाता की सेवा करने से व इनकी कृपा से ही गोलोक की प्राप्ति होती है।
अथर्ववेद, उपनिषदों, महाभारत, रामायण, पुराण व स्मृतियां गोमहिमा से भरे पड़े हैं। गाय को ‘सुरभि’, ‘कामधेनु’, ‘अर्च्या’, ‘यज्ञपदी’, ‘कल्याणी’, ‘इज्या’, ‘बहुला’, ‘कामदुघा’, ‘विश्व की आयु’, ‘रुद्रों की माता’ व ‘वसुओं की पुत्री’ कहा गया है। सर्वदेवमयी गोमाता को वेदों में ‘अघ्न्या’ (अवध्या) बतलाया है। श्रुति का वचन है–‘मा गामनागामदितिं वधिष्ट।’ (ऋक्संहिता ८।१०१।१५)।इसका अर्थ है कि गाय निरपराधिनी है, निर्दोष है तथा पीड़ा पहुंचाने योग्य नहीं है और अखण्डनीय है। अत: इसकी किसी भी प्रकार हिंसा न करो, तनिक भी कष्ट न पहुंचाओ। गाय सदा पूजनीय है।
गौ को त्यागमूर्ति कहा गया है; क्योंकि उसके सभी अंग-प्रत्यंग दूसरे के उपयोग में आते हैं। इस महागुण से गौ ‘सर्वोत्तम माता’ कही गयी है। तृणों के आहार पर जीवन धारणकर गाय मानव के लिए अलौकिक अमृतमय दूध प्रदान करती है। गोमाता हमें प्रतिधुक् (ताजा दुग्ध), श्रृत (गरम दुग्ध), शर (मक्खन निकाला हुआ दुग्ध), दही, मट्ठा, घृत, खीस (इन्नर, पनीर, छैना), खीस का पानी (वाजिन, whey water), नवनीत और मक्खन–ये दस प्रकार के अमृतमय भोज्य पदार्थ देती है जिन्हें खाकर हम आरोग्य, बल, बुद्धि, ओज और शारीरिक बल प्राप्त करते हैं। अपने दूध से, पुत्र से और मरने पर अपने चमड़े-हड्डियों से भी सेवा करने वाली और पवित्रता की मूर्ति–गोबर से घर को और गोमूत्र द्वारा शरीर को पवित्र करती है। जगद्गुरु वीरभद्र शिवाचार्यजी महाराज के शब्दों में–
हैं गोमय-गोमूत्र शुद्धतम इनके पावन और पवित्र।
जिनके सेवन से होते हैं दूर भूरि भव-रोग विचित्र।।
अभागा है वह देश व समाज जहां आज उस गोविन्द की गाय को उचित सम्मान व रक्षण नहीं मिल रहा। श्रीरामनारायनदत्तजी शास्त्री के शब्दों में–
गौओं की महिमा कौन भला बतलाये,
जिनके गुण-गौरव वेदों ने भी गाये।।
जिनकी सेवा के हेतु अरे इस जग में,
भगवान स्वयं मानव बनकर थे आए।।
इनके भीतर धन-धान हमारे सोये।
इनके भीतर अरमान हमारे सोये।।
ये कामधेनु हैं क्षीरसमुद्र धरा का,
इनके भीतर भगवान हमारे सोये।।
इस प्रकार वेदों से लेकर समस्त धार्मिक-ग्रन्थों में और प्राचीन ऋषि-मुनियों और विद्वानों से लेकर आधुनिक विद्वानों तक सभी की सम्मति में गोमाता का स्थान सर्वश्रेष्ठ है। भूमण्डल पर मातृशक्ति का प्रत्यक्ष रूप गोमाता है। महाभारत के अनुशासनपर्व में भीष्मपितामह युधिष्ठिर को ‘गौ की महिमा’ बताते हुए कहते हैं–’गौ सभी सुखों को देने वाली है और वह सभी प्राणियों की माता है।

भगवान श्रीकृष्ण और उनकी गो-सेवा

गोकुलेश गोविन्द प्रभु, त्रिभुवन के प्रतिपाल।
गो-गोवर्धन-हेतु हरि, आपु बने गोपाल।।
द्वापर में दुइ काज-हित, लियौ प्रभुहि अवतार।
इक गो-सेवा, दूसरौ भूतल कौं उद्धार।। (श्रीराधाकृष्णजी श्रोत्रिय, ‘सांवरा’)
श्रीकृष्णावतार में भगवान श्रीकृष्ण ‘गोपाल’ और ‘गोविन्द’ नाम धारणकर गायों के सेवक व रक्षक बन कर अवतरित हुए।
भगवान श्रीकृष्ण का बाल्यजीवन गो-सेवा में बीता इसीलिए उनका नाम ‘गोपाल’ पड़ा। पूतना के वध के बाद गोपियां श्रीकृष्ण के अंगों पर गोमूत्र, गोरज व गोमय लगा कर शुद्धि करती हैं क्योंकि उन्होंने पूतना के मृत शरीर को छुआ था और गाय की पूंछ को श्रीकृष्ण के चारों ओर घुमाकर उनकी नजर उतारती हैं। तीनों लोकों के कष्ट हरने वाले श्रीकृष्ण के अनिष्ट हरण का काम गाय करती है। जब-जब श्रीकृष्ण पर कोई संकट आया; नन्दबाबा और यशोदामाता ब्राह्मणों को स्वर्ण, वस्त्र व पुष्पमाला से सजी गायों का दान करते थे। यह है गोमाता की महिमा और श्रीकृष्ण के जीवन में उनका महत्व। वे व्रजराजकिशोर व्रज के वनोपवनों में, गिरिराज की मनोरम घाटियों में तथा कालिन्दी के कमनीय कूलों पर नंगे चरणों गोपसमूहों के साथ गौओं के पीछे-पीछे घूमा करते थे। नंदबाबा के घर सैंकड़ों ग्वालबाल सेवक थे पर श्रीकृष्ण गायों को दुहने का काम भी स्वयं करना चाहते थे–
तनक कनक की दोहनी दे री मैया।
तात दुहन सिखवन कह्यौ मोहि धौरी गैया।।
सूरदासजी ने यशोदामाता और लाड़ले कान्हा के आपसी संवादों से गो-महिमा और श्रीकृष्ण की गो-भक्ति का कितना मधुर वर्णन किया है–
आजु मैं गाइ चरावन जैहौं।
बृंदाबन के भांति-भांति फल अपने कर मैं खेहौं।।
ऐसी बात कहौ जनि बारे, देखो अपनी भांति।
तनक-तनक पग चलिहौ कैसैं, आवत ह्वैह्वै राति।।
प्रात जात गैया लै चारन, घर आवत हैं सांझ।
तुम्हरौ कमल-बदन कुम्हिलैहैं, रेंगत घामहिं मांझ।।
तेरी सौं मोहिं घाम न लागत, भूख नहीं कछु नेक।
सूरदास प्रभु कह्यौ न मानत, परयौ आपनी टेक।।

कन्हैया ने आज माता से गाय चराने के लिए जाने की जिद की और कहने लगे कि भूख लगने पर वे वन में तरह-तरह के फलों के वृक्षों से फल तोड़कर खा लेंगें। पर माँ का हृदय इतने छोटे और सुकुमार बालक के सुबह से शाम तक वन में रहने की बात से डर गया और वे कन्हैया को कहने लगीं कि तुम इतने छोटे-छोटे पैरों से सुबह से शाम तक वन में कैसे चलोगे, लौटते समय तुम्हें रात हो जाएगी। तुम्हारा कमल के समान सुकुमार शरीर कड़ी धूप में कुम्हला जाएगा परन्तु कन्हैया के पास तो मां के हर सवाल का जवाब है। वे मां की सौगन्ध खाकर कहते हैं कि न तो मुझे धूप (गर्मी) ही लगती है और न ही भूख और वे मां का कहना न मानकर गोचारण की अपनी हठ पर अड़े रहे।
मोरमुकुटी, वनमाली, पीताम्बरधारी श्रीकृष्ण यमुना में अपने हाथों से मल-मल कर गायों को स्नान कराते, अपने पीताम्बर से ही गायों का शरीर पौंछते, सहलाते और बछड़ों को गोद में लेकर उनका मुख पुचकारते और पुष्पगुच्छ, गुंजा आदि से उनका श्रृंगार करते। तृण एकत्रकर स्वयं अपने हाथों से उन्हें खिलाते। गायों के पीछे वन-वन वे नित्य नंगे पांव कुश, कंकड़, कण्टक सहते हुए उन्हें चराने जाते थे। गाय तो उनकी आराध्य हैं और आराध्य का अनुगमन पादत्राण (जूते) पहनकर तो होता नहीं।
परमब्रह्म श्रीकृष्ण गायों को चराने के लिए जाते समय अपने हाथ में कोई छड़ी आदि नहीं रखते थे; केवल वंशी लिए हुए ही गायें चराने जाते थे। वे गायों के पीछे-पीछे ही जाते हैं और गायों के पीछे-पीछे ही लौटते हैं, गायों को मुरली सुनाते हैं। सुबह गोसमूह को साष्टांग प्रणिपात (प्रणाम) करते और सायंकाल ‘पांडुरंग’ बन जाते (गायों के खुरों से उड़ी धूल से उनका मुख पीला हो जाता था)। इस अद्भुत दृश्य को देखने के लिए देवी-देवता अपने लोकों को छोड़कर व्रज में चले आते और आश्चर्यचकित रह जाते कि जो परमब्रह्म श्रीकृष्ण बड़े-बड़े योगियों के समाधि लगाने पर भी ध्यान में नहीं आते, वे ही श्रीकृष्ण गायों के पीछे-पीछे नंगे पांव वनों में हाथ में वंशी लिए घूम रहे हैं। इससे बढ़कर आश्चर्य की बात भला और क्या होगी?
जब वन से गायों के समूह को लेकर लौटते तो उस समय उनकी छवि की शोभा को देखने के लिए यूथ-की-यूथ व्रजांगनाएं मार्ग के दोनों ओर खड़ीं रहतीं और आपस में कहतीं–सखी ! तनिक श्यामसुन्दर की रूपमाधुरी तो देख। मोहन गायें चराकर आ रहे हैं। उनके मस्तक पर नारंगी पगड़ी है जिस पर मयूरपिच्छ का मुकुट लगा है, मुख पर काली-काली अलकें बिखरी हुई हैं जिनमें चम्पा की कलियां सजाई गयीं हैं, उनके नुकीले अरुनारे (आंखों की लालिमायुक्त कोर), चंचल नेत्र हैं, टेढ़ी भौंहें, लाल-लाल अधरों पर खेलती मधुर मुसकान और अनार के दानों जैसी दंतपक्ति, वक्ष:स्थल पर वनमाला और गाय के खुर से उड़कर मुख पर लगी धूल सुहावनी लग रही है। गोपबालकों की मंडली के बीच मेघ के समान श्याम श्रीकृष्ण रसमयी वंशी बजाते हुए चल रहे हैं और सखामंडली उनकी गुणावली गाती चल रही है। गेरु आदि से चित्रित सुन्दर नट के समान वेष में ये नवलकिशोर मस्त गजराज की तरह चलते हुए आ रहे हैं। चलते समय उनकी कमर में करधनी के किंकणी और चरणों के नुपुरों के साथ गायों के गले में बंधी घण्टियों की मधुर ध्वनि–ये सब मिलकर कानों में मानो अमृत घोल रहे हों। इस सांवले, सुकुमार की चितवन में, चन्द्रिका में, मुरली में ऐसी कौन-सी मोहिनी है जो इनको देखते ही सुर, नर, मुनि, खग-मृग सब मोहित हो जाते हैं। हमारा मन भी कभी घर में नहीं लगता–‘जब तैं दृष्टि परे मनमोहन, गृह मेरौ मन न लगौ री। अष्टछाप के कवि नन्ददासजी के शब्दों में–
गोरज राजत साँवरें अंग।
देख सखी बन ते ब्रज आवत गोबिंद गोधन संग।।
भगवान श्रीकृष्ण को केवल गायों से ही नहीं अपितु गोरस (दूध, दही, मक्खन, आदि) से भी अद्भुत प्रेम था, उस प्रेम के कारण ही श्रीकृष्ण गोरस की चोरी भी करते थे। श्रीकृष्ण द्वारा ग्यारह वर्ष की अवस्था में मुष्टिक, चाणूर, कुवलयापीड हाथी और कंस का वध गोरस के अद्भुत चमत्कार के प्रमाण हैं और इसी गोदुग्ध का पानकर भगवान श्रीकृष्ण ने दिव्य गीतारूपी अमृत संसार को दिया।
भगवान श्रीकृष्ण ने गोमाता की रक्षा के लिए क्या-क्या नहीं किया? उन्हें दावानल से बचाया, ब्रह्माजी से छुड़ाकर लाए, गायों के लिए ही कालियह्रद को शुद्ध किया। कालियह्रद का जल पीने से जो गायें मृत्यु को प्राप्त हुईं, उन्हें श्रीकृष्ण ने जीवनदान दिया। इन्द्र के कोप से गायों और व्रजवासियों की रक्षा के लिए गिरिराज गोवर्धन को कनिष्ठिका अंगुली पर उठाया। तब देवराज इन्द्र ने ऐरावत हाथी की सूंड़ के द्वारा लाए गए आकाशगंगा के जल से तथा कामधेनु ने अपने दूध से उनका अभिषेक किया और कहा कि ‘जिस प्रकार देवों के राजा देवेन्द्र हैं, उसी प्रकार आप हमारे राजा ‘गोविन्द’ हैं।
भगवान श्रीकृष्ण ने ही ‘गोधन की सौं’ शपथ प्रचलित कराई। वंशी की ध्वनि से प्रत्येक गाय को नाम ले-लेकर पुकारते थे और वंशी की टेर सुनकर चाहे वे गायें कितनी भी दूर क्यों न हों, दौड़कर उनके पास पहुंच जातीं और चारों ओर से उन्हें घेरकर खड़ी हो जाती हैं–
गोविन्द गिरि चढ़ गाय बुलावत।
गायँ बुलाईं धूमर-धौरी टेरत वेणु बजाय।।
जब श्रीकृष्ण सांदीपनिमुनि के आश्रम में विद्याध्ययन के लिए गए वहां भी उन्होंने गो-सेवा की। उनकी द्वारकालीला में तो स्पष्ट वर्णन है कि 13,084 ऐसी गायों का दान प्रतिदिन द्वारकाधीश श्रीकृष्ण करते थे जो पहले-पहल ब्यायी हुई, दुधार, बछड़ों वाली, सीधी, शान्त होती थीं और जिनके सींग स्वर्णमण्डित, खुर रजतमण्डित, पूंछ में मोती की माला और जवाहरात से पिरोई हुयी रेशमी झूल होती थी। इतना गोदान नित्य करते थे तो भगवान श्रीकृष्ण के पास कितनी गौएं होंगी? इस प्रकार कृष्णावतार में गाय ही प्रधान है।
भक्त बिल्वमंगल ने श्रीकृष्णकर्णामृत ग्रन्थ में कहा है–हे प्रभो ! तुम व्रज की कीच में तो विहार करते हो, पर ब्राह्मणों के यज्ञ में पहुंचने में आपको लज्जा आती है। गायों के व बछड़ों के हुंकार करने पर उनकी हुंकारवाली भाषा को आप समझ लेते हो, बस दौड़े हुए आप उनके पास चले जाते हो और उनको गले से लगा लेते हो। पर जब बड़े-बड़े ज्ञानी स्तुति करते हैं तब आप चुप खड़े रह जाते हो। हे कृष्ण! मैं जान गया, आप और किसी तत्त्व का आदर नहीं करते, तुम तो केवल प्रेम का आदर करते हो। जिसके हृदय में प्रेम है, उसी से तुम रीझ जाते हो।
अष्टछाप के एक अन्य कवि छीतस्वामी ने गोविंद के गो-प्रेम का बहुत ही सुन्दर शब्दों में वर्णन किया है–
आगे गाय पाछे गाय, इत गाय उत गाय,
गोबिंद कों गायन में बसिबोई भावै।
गायन के संग धावै, गायन में सचु पावै,
गायन की खुररेनु अंग लपटावै।।
गायन सों ब्रज छायो, बैकुंठ बिसरायो,
गायन के हेत कर गिरि लै उठावै।
छीतस्वामी गिरधारी बिट्ठलेस बपुधारी
ग्वारिया को भेस धरें गायन में आवै।।







भगवान शंकर वृषभध्वज

एक बार भगवान शंकर से ऋषियों का कुछ अपराध हो गया। ऋषियों ने उन्हें घोर शाप दे डाला। महेश्वर गोलोक में सुरभी की शरण में गए और उन्होंने स्तुति करते हुए कहा–’मां सुरभी ! तुम सृष्टि, स्थिति, विनाश करने वाली, रस से भूतल को आप्यायित करने वाली, विश्व-हेतु और सबको बल-पोषण प्रदान करने वाली, रुद्रों की मां, आदित्यों की बहन, वसुओं की पुत्री और घृतरूप अमृत का खजाना हो। यज्ञभाग वहन करने वाली शक्ति ‘स्वाहा’ और पितरों के लिए पिण्डोदक वहन करने वाली ‘स्वधा’ भी तुम्ही हो। ब्राह्मणों के शाप से मेरा शरीर दग्ध (जला) हुआ जा रहा है, तुम उसे शीतल करो।’
इस प्रकार स्तुति करके शंकरजी सुरभी की देह में प्रवेश कर गए और सुरभी ने उन्हें अपने गर्भ में धारण कर लिया। शिवजी के न होने से त्रिलोकी में हाहाकार मच गया। सभी देवता उन्हें ढूंढ़ते हुए गोलोक पहुंचे वहां उन्हें परम तेजस्वी ‘नीलवृषभ’ दिखाई दिया। भगवान शंकर ही इस वृषभ के रूप में सुरभी से अवतीर्ण हुए थे। तब सभी ऋषियों व देवताओं ने नीलवृषभरुपी शंकरजी की स्तुति करते हुए वर दिया कि मृत प्राणी के एकादशाह के दिन नीलवृषभ को गायों के समूह में छोड़ दिया जाएगा तो वह जगत का कल्याण करता रहेगा। भगवान प्रजापति ने महादेवजी को एक वृषभ प्रदान किया जिसे शंकरजी ने अपना वाहन बनाया और अपनी ध्वजा को उसी वृषभ के चिह्न से सुशोभित किया। इसीलिए उनका नाम वृषभध्वज पड़ा। फिर देवताओं ने महादेवजी को पशुओं का स्वामी (पशुपति) बना दिया। गौओं के बीच में उनका नाम वृषभांक रखा गया।
धर्म का जन्म गाय से है; क्योंकि धर्म वृषभरूप है और गाय के पुत्र को ही वृषभ कहा जाता है। नीलवृषभ के रूप में स्वयं धर्म प्रकट हुए हैं।

गौ सुरभी की स्तुति

एक बार वाराहकल्प में आदि गौ सुरभी ने दूध देना बंद कर दिया। उस समय तीनों लोकों में दूध का अभाव हो गया जिससे समस्त देवता चिन्तित हो गए। तब सभी देवताओं ने ब्रह्माजी से प्रार्थना की। ब्रह्माजी की आज्ञा से इन्द्र ने आदि गौ सुरभी की स्तुति की–
नमो देव्यै महादेव्यै सुरभ्यै च नमो नम:।
गवां बीजस्वरूपायै नमस्ते जगदम्बिके।।
नमो राधाप्रियायै च पद्मांशायै नमो नम:।
नम: कृष्णप्रियायै च गवां मात्रे नमो नम:।।
कल्पवृक्षस्वरूपायै सर्वेषां सततं परे।
श्रीदायै धनदायै बुद्धिदायै नमो नम:।।
शुभदायै प्रसन्नायै गोप्रदायै नमो नम:।
यशोदायै कीर्तिदायै धर्मदायै नमो नम:।। (देवीभागवत ९।४९।२४-२७)
अर्थात्–देवी एवं महादेवी सुरभी को नमस्कार है। जगदम्बिके ! तुम गौओं की बीजस्वरूपा हो, तुम्हे नमस्कार है। तुम श्रीराधा को प्रिय हो, तुम्हें नमस्कार है। तुम लक्ष्मी की अंशभूता हो, तुम्हे बारम्बार नमस्कार है। श्रीकृष्णप्रिया को नमस्कार है। गौओं की माता को बार-बार नमस्कार है। जो सबके लिए कल्पवृक्षस्वरूपा तथा श्री, धन और वृद्धि प्रदान करने वाली हैं, उन भगवती सुरभी को बार-बार नमस्कार है। शुभदा, प्रसन्ना और गोप्रदायिनी सुरभी को बार-बार नमस्कार है। यश और कीर्ति प्रदान करने वाली धर्मज्ञा देवी को बार-बार नमस्कार है।
इस स्तुति से आदि गौ सुरभि प्रसन्न हो गईं। फिर तो सारा विश्व दूध से परिपूर्ण हो गया। दूध से घृत बना और घृत से यज्ञ होने लगे जिससे देवता भी प्रसन्न हो गए।
ललकते सुर भी सुरभी हेतु,
यही है धर्म-शक्ति का केतु।
नन्दिनी-कामधेनु का रूप,
घूमते जिनके पीछे भूप।। (पं. जगमोहननाथ अवस्थी)

गाय गोलोक की एक अमूल्य निधि है

हरे हरे तिनकों पर अमृत-घट छलकाती गौ माता,
जब-जब कृष्ण बजाते मुरली लाड़ लड़ाती गौ माता।
तुम्ही धर्म हो, तुम्ही सत्य हो, पृथ्वी-सा सब सहती हो,
मोक्ष न चाहे ऐसे बंधन में बँधकर तुम रहती हो।
प्यासे जग में सदा दूध की नदी बहाती गौ माता,
जब-जब कृष्ण बजाते मुरली लाड़ लड़ाती गौ माता।। (डा. श्रीमहेन्द्रजी मधुकर)
गाय गोलोक की एक अमूल्य निधि है, जिसकी रचना भगवान ने मनुष्यों के कल्याणार्थ आशीर्वाद रूप से की है। अत: इस पृथ्वी पर गोमाता मनुष्यों के लिए भगवान का प्रसाद है। भगवान के प्रसादस्वरूप अमृतरूपी गोदुग्ध का पान कर मानव ही नहीं अपितु देवगण भी तृप्त होते हैं। इसीलिए गोदुग्ध को ‘अमृत’ कहा जाता है। गौएं विकाररहित दिव्य अमृत धारण करती हैं और दुहने पर अमृत ही देती हैं। वे अमृत का खजाना हैं। सभी देवता गोमाता के अमृतरूपी गोदुग्ध का पान करने के लिए गोमाता के शरीर में सदैव निवास करते हैं। ऋग्वेद में गौ को ‘अदिति’ कहा गया है। ‘दिति’ नाम नाश का है और ‘अदिति’ अविनाशी अमृतत्व का नाम है। अत: गौ को ‘अदिति’ कहकर वेद ने अमृतत्व का प्रतीक बतलाया है।

गौओं की जननी, सम्पूर्ण गौओं की बीजस्वरूपा आदि गौ सुरभी का प्राकट्य

गौओं की जननी, सम्पूर्ण गौओं की बीजस्वरूपा आदि गौ सुरभी का प्राकट्य

एक बार भगवान श्रीकृष्ण गोलोक में श्रीराधा व गोपियों के साथ वृन्दावन में विहार कर रहे थे। सहसा परम कौतुकी
राधिकापति भगवान श्रीकृष्ण के मन में दूध पीने की इच्छा होने लगी। तब भगवान ने अपने वामभाग से लीलापूर्वक ‘सुरभी’ गौ को प्रकट किया। उसके साथ बछड़ा भी था जिसका नाम ‘मनोरथ’ था। उस सवत्सा गौ को सामने देख श्रीकृष्ण के पार्षद सुदामा ने एक रत्नमय पात्र में उसका दूध दुहा और उस सुरभी से दुहे गये गर्म-गर्म स्वादिष्ट दूध को स्वयं भगवान श्रीकृष्ण ने पीया। मृत्यु तथा बुढ़ापा को हरने वाला वह दुग्ध अमृत से भी बढ़कर था। सहसा दूध का वह पात्र हाथ से छूटकर गिर पड़ा और पृथ्वी पर सारा दूध फैल गया। उस दूध से वहां एक सरोवर बन गया जिसकी लम्बाई-चौड़ाई सब ओर से सौ-सौ योजन थी। गोलोक में वह सरोवर ‘क्षीरसरोवर’ के नाम से प्रसिद्ध हुआ। गोपिकाओं और श्रीराधा के लिए वह क्रीडा-सरोवर बन गया। उस क्रीडा-सरोवर के घाट दिव्य रत्नों द्वारा निर्मित थे। भगवान की इच्छा से उसी समय असंख्य कामधेनु गौएं प्रकट हो गयीं। जितनी वे गौएं थीं, उतने ही बछड़े भी उस सुरभी गौ के रोमकूप से निकल आए। इस प्रकार उन सुरभी गौ से ही गौओं की सृष्टि मानी गयी है।
स्वयं भगवान श्रीकृष्ण ने सुरभि गौ की पूजा की। इनकी पूजा का मन्त्र है–’ऊँ सुरभ्यै नम:’। यह षडक्षर मन्त्र एक लाख जप करने पर सिद्ध हो जाता है और साधक को ऋद्धि, वृद्धि, मुक्ति देने के साथ ही उनकी समस्त मनोकामनाओं को पूरा करने वाला कल्पवृक्ष है। लक्ष्मीस्वरूपा, राधा की सहचरी, गौओं की आदि जननी सुरभी गौ की पूजा दीपावली के दूसरे दिन पूर्वाह्नकाल में की जाती है। कलश, गाय के मस्तक, गौओं के बांधने के खम्भे, शालग्राम, जल अथवा अग्नि में सुरभी की भावना (ध्यान) करके इनकी पूजा कर सकते हैं।