शनिवार, 1 अप्रैल 2017

गौवंश संरक्षण-विचारणीय प्रश्न:-

गौवंश हमारी संस्कृति की धुरी है । गाय को हम माता समान आदर देते हैं । फिर भी इस देश में गौवंश की जितनी दयनीय स्थिति है, उतनी अन्यत्र किसी भी देश में नहीं है । किसी भी अन्य पशु की तुलना में इस देश में गौभक्तों की और गौ—प्रेमियों की संख्या कई गुणा अधिक है । फिर भी गौवंश के साथ ऐसा दुर्व्यवहार क्यों और कैसे हो रहा है ? इसका हम सबको कारण जानना जरूरी है ।

तय है कि प्रमुख कारण तो सरकार की गलत नीतियां है । मांस,लॉबी,मांस निर्यात लॉबी, चमड़ा लॉबी आदि की सरकारी तंत्र में सांठ — गांठ हैं परन्तु इसके पीछे हम जीवदया प्रेमियों का भी कम अप्रत्यक्ष हाथ नहीं है । अर्थ केन्द्रित समाज में नैतिक मूल्यों का ह्रास होता है और हिंसा बढ़ती है वहीं धर्म केन्द्रित समाज में नैतिक मूल्यों का विकास होता है और अहिंसा का पल्लवन। आज हिंसा बढ़ रही है, यह समस्या भी है कि और चिंता का विषय भी । हम यहाँ मुख्य रूप से उसी सामाजिक पक्ष को जानने—समझने का प्रयास करेंगे, क्योंकि जो बाते हमारे हाथ में हैं, उसे तो हम तुरन्त सुधार कर सही दिशा ले ही सकते हैं ।

पहले हम वर्तमान परिस्थितियों पर दृष्टि डालते हैं—
१. भारतीय अर्थ व्यवस्था पूर्व में मूलत: कृषि प्रधान थी, अब उसकी भूमिका में तीव्र गति से ह्रास हो रहा है । देश में उद्योग, व्यवसाय और सेक्टर, इन क्षेत्रों की भूमिका तेजी से बढ़ रही है ।

२. कृषि में गौवंश की भूमिका में तेजी से कमी आई है । ट्रैक्टर और फर्टिलाइजर ने इनका स्थान ले लिया है । इन दोनों क्षेत्रों में अनुदान का र्आिथक लालच है । जीवदया प्रेमी और गौवंश रक्षा हेतु सहायता देने वाले अधिकांश उद्योगपति ट्रैक्टर और र्फिटलाइजर से जुड़े है । अत: उनका निजी स्वार्थ भी बड़ी रुकावट है ।

३. दूध के क्षेत्र में भैंस और जर्सी गायों की बढ़ती हुई भूमिका के कारण देशी गाय का आर्थिक पक्ष बेहद कमजोर हो गया है ।

४.भारत देश में सैकड़ों वर्षों से गौशाला की संस्कृति होते हुए भी आज भी देश में आदर्श और आर्थिक स्वावलंबी गौशालाएँ अपवाद रूप में ही हैं जिन्हें हम जनता और सरकार के समक्ष मॉडल के रूप में प्रस्तुत कर सके । गौशाला चलाने वालों की मानसिकता आज भी आर्थिक स्वावलंबन की न होकर मुख्यत: लोगों का भावनात्मक दोहन कर अधिक से अधिक दान एकत्र करने की ही अधिक रहती हैं अत: गोमये वसते लक्ष्मी के हमारे उद्बोध के बावजूद भी गाय आर्थिक स्वावलम्बन का प्रतिरूप नहीं बन पाई है, जो दुखद है ।

५. प्राचीन काल से ही भारतवर्ष में गौशाला संस्कृति विद्यमान है । पूर्व में कत्लखाने यांत्रिक नहीं होते थे। वे छोटे—छोटे स्थानीय मांग की पूर्ति हेतु ही होते थे। स्वाधीनता प्राप्त होने तक देश से मांस निर्यात बोल कर कोई व्यापार नहीं होता था। अत: उस समय तक गौशालाओं से गौरक्षण के उद्देश्य की सम्पूर्ति हो जाती थी।

६. समय ने करवट बदली, अन्य व्यापार की तरह मांस और चमड़े के व्यापार का भी अब वैश्वीकरण हो गया है । बूचड़खाना आज स्थानीय मांग के अतिरिक्त भी लाभ देने वाला एक बड़ा व्यपार बन गया है । दूसरी तरफ आधुनिक कृषि और शहरी परिवेश में पशुओं की उपयोगिता दूध ओर मांस के लिए ही रह गयी है । पंचगव्य और ड्रॉट एनिमल पॉवर का उपयोग और क्षेत्र सिकुड़ गया है ।

७. ऐसी परिस्थितियों में हमारा दुर्भाग्य यह रहा है कि समय के साथ—साथ हम अहिंसा प्रेमी, पशु प्रेमी, गौ प्रेमी और जीवदया प्रेमी समुदाय के लोग भावनात्मक कार्य पद्धति वाली उसी पुरानी मानसिकता से आज भी इन क्षेत्रों में कार्यरत है, जबकि आज की आवश्यकता प्रोफेशनल कार्यशैली की है ।

८. आज कारपोरेट का जमाना है । नीरा राडिया प्रकरण के बाद अब कारपोरेट लॉबिंग की ताकत को पूरा देश जान चुका है । देश में ताकतवर मांस लॉबी, मांस निर्यात लॉबी, चर्म उद्योग लॉबी, र्फिटलाइजर लॉबी, पाल्ट्री लॉबी, सी फूड लॉबी और न जाने कौन—कौन सी लॉबी काम कर रही है जो हमारे गौवंश संरक्षण संवद्र्धन के क्षेत्र के सबसे बड़े रोड़े है । उनकी सरकारी तन्त्र पर पकड़ हमसे बहुत अधिक है । वे अधिकारियों व विशेषज्ञों की सोच का प्रभावित करने के लिए हर हथकण्डे प्रयोग में लाते हैं । उनके पास आर्थिक ताकत है तथा उनकी प्रोपेशनल कार्यशैली है ।

९. इन परिस्थितियों में हमें भी अपनी कार्यशैली में बदलाव लाना जरूरी है । मात्र सरकार को कोसते रहना या व्यवस्था को दोषी कर देना पर्याप्त नहीं है ।

१०. भारत देश में कुल पशुधन सन् २००३ के आंकड़ों के अनुसार ४६ करोड़ ४४ लाख था जिनमें १५ करोड़ ६८ लाख देशी गौधन, २ करोड़ २० लाख विदेशी गौधन अर्थात् कुल १७ करोड़ ८८ लाख देश में कुल गौधन था।

११. भारत देश में करीब दो करोड़ गौवंश का प्रतिवर्ष बूचड़खानों में कत्ल होता है । अर्थात् ५५ से ६० हजार गौधन प्रतिदिन। अन्य पशुओं के कत्ल के आंकड़े इनके अतिरिक्त है ।

१२. भारत देश में अधिकृत करीब तीन हजार गौशालाएँ हैं, जहाँ अन्दाजन ३० लाख गौवंश को संरक्षण प्राप्त है ।

१३. भारत देश में गौशालाओं की क्षमता पिछले २५—३० वर्षों में दो गुना से ज्यादा नहीं बढ़ पाई है ।

१४. भारत देश में गौशालाओं में करीब तीन हजार करोड़ रुपया प्रत्यक्ष—अप्रत्यक्ष प्रतिवर्ष खर्च बैठता है । प्रति गाय दस हजार रूपयें प्रतिवर्ष के हिसाब से। कोर्ट कचहरी के, कत्लखाने विरोध आंदोलन एवं अन्य खर्च अतिरिक्त है ।

१५. भारत देश में अधिकांश गौशाला खर्च जीवदया प्रेमी बंधुओं के आर्थिक सहयोग से ही पूरा होता है ।

१६. विचारणीय तथ्य यह है कि हमारी सामाजिक क्षमता ३० लाख गौ—संरक्षण तक सीमित है और कटने वाले गौवंश के आंकड़े है दो करोड़ गौधन प्रतिवर्ष।

१७. क्या हम इतनी बड़ी संख्या में कटने वाले पशुओं को बचा पाने में सक्षम है ? क्या हमने सार्थक समाधान ढूँढने की दिशा में कोई बड़ी पहल की है ? क्या इसका कोई फार्मूला हमारे पास है ?

१८. हमार प्रयास वैसा ही है जैसे पत्ते और टहनी की देखभाल करना, जबकि सम्पूर्ण जड़ ही खतरे में हैं, आज तो गाय के अस्तित्व पर ही खतरा मंडरा रहा है । असल में हम मूल समस्या की अनदेखी कर रहे हैं । हमारी सारी शक्ति—श्रम और संसाधन, मात्र भावनात्मक संतुष्टि हेतु कुछ पशुओं को प्रत्यक्ष अभय देने में ही समाप्त हो रही है ।

१९. हम अधिकांश लोग व्यापारी समाज में हैं । हम अपने व्यापार का प्रतिवर्ष हानि — लाभ का हिसाब बनाते हैं । उसका आकलन करते हैं । हमें अपने गौरक्षा अभियान का भी ऐसा ही एक आकलन तैयार करना चाहिए। देश स्वाधीनता के इन ६४ — ६५ वर्षों में उस महान आंदोलन के हानि — लाभ का क्या हिसाब — किताब है ? स्थिति क्यों बद से बदतर हुई है ? क्या हमें अपनी स्ट्रेटेजी में समय की मांग के अनुसार बदलाव नहीं लाना चाहिए ?

२०. वर्तमान में हमारी सारी शक्ति मात्र निम्न कार्यों में ही अधिक व्यय हो रही है—

गौशाला चलाने में, अकाल के वक्त चारा व्यवस्था करने में।
बूचड़खाना जाती गायों को पकड़ने , संरक्षण देने और कोई कचहरी करने में।
बूचड़खाना के निर्माण का विरोध करने में।
आईये, अब हम कुछ करणीय कार्य तथा सुझावों की चर्चा करते हैं :
१. हमें राज्यवर स्थिति की समीक्षा करके उसके अनुसार अलग—अलग स्ट्रेटेजी बनाकर कार्य करना चाहिए। गुजरात और राजस्थान की स्थिति अलग है, बंगाल, पूर्वोत्तर राज्य और दक्षिण के तमिलनाडु व केरल की भिन्न स्थिति है । राज्यवार प्रति व्यक्ति दूध और मांस के खपत आंकड़ों से इसे ठीक से समझा जा सकता है । गुजरात और राजस्थान में जहाँ प्रति व्यक्ति, प्रति माह मांस उत्पाद पर खर्च मात्र दस रुपये है वही पश्चिम बंगाल, केरल और पूर्वोत्तर राज्यों में यह सौ—सवा सौ रुपया है । इसके अतिरिक्त जल, कृषि, भूमि, पशु उपलब्धता व अन्य स्थितियाँ भी हर राज्य की भिन्न भिन्न है, अत: सब राज्यों के लिए एक सी कार्य योजना कारगर नहीं हो सकती।

२. सम्पूर्ण गौशाला व्यय के एक शतांश का कम से कम दसवां भाग अर्थात् करीब तीन करोड़ रुपया प्रतिवर्ष प्रोपेशनल ढंग से कार्यरत समग्र सोच वाले व्यक्तियों के नेतृत्व में कलकत्ता, दिल्ल, मुम्बई सदृश शहरों में सम्पूर्ण साधन सम्पन्न कार्यालय खर्च हेतु प्रावधान करना आज समय की जरूरत है ।

३. कार्यालय व्यय की उपयोगिता और प्रासंगिकता को ठीक से समझना बेहद जरूरी है ।

४. इन कार्यालयों का कार्य देशव्यापी कार्यकताओं की नेटर्विकग स्थापित करना, सम्पूर्ण तथ्यगत आंकड़ों की सूक्ष्म समीक्षा करना, डाटा बैंक का कार्य करना तथा योजना आयोग स्तर पर, विशेषज्ञों के स्तर पर व सरकारी तंत्र के स्तर पर अधिकारियों को प्रभावी ढंग से अपने पक्ष में करने हेतु उपक्रम करना। जैसे व्यापार और उद्योग जगत पिक्की व एसोवैम जैसे संगठन के माध्यम से करते हैं ।

५. जब तक हम ऐसे कारपोरेट कार्यालय की उपयोगिता को स्वीकार नहीं करते हैं, जब तक इस समस्या का जड़ से उपचार हमें सम्भव नहीं लगता।

६. पशुओं की उपयोगिता के दायरे को बढ़ाना, आर्गेनिक कृषि को बढ़ावा देना, आदि अनेक महत्वपूर्ण कार्य हमें करने हैं ।

७. गाय गौशाला में नहीं, किसान के पास और खेत में ही सुरक्षित रह सकती है । उन्हें अर्थ भार से मुक्त करने की दिशा में सार्थक और कारगर उपाय खोजने होंगे। सामाजिक और सरकारी, दोनों स्तर पर। तभी देश में सम्पूर्ण गौरक्षा संभव है ।

८. भारत देश में मांस की मांग कम हो, इसके लिए व्यापक स्तर पर मांसाहार बहुल क्षेत्रों में शाकाहार का प्रचार—प्रसार करना होगा। वर्तमान में देश में मांस की खपत प्रतिव्यक्ति प्रतिवर्ष डेढ किलों से बढ़कर तीन किलों अर्थात् दुगुनी हो गई है ।

९. भारत देश के युवा वर्ग को इस दिशा में विशेष जागरूक बनाना होगा। क्योंकि भविष्य के वे ही सक्रिय नागरिक बनने वाले हैं ।

१०. भारत देश के प्रत्येक राज्य एंव जिले में कम से कम र्आिथक स्वावलम्बी आदर्श गौशाला की स्थापना करनी होगी, जो आदर्श मॉडल के रूप में प्रस्तुत की जा सके। मात्र भाषण देने से या लेख लिखने से यह कार्य संभव नहीं होगा।

११. वर्तमान में भारत देश में इन क्षेत्रों में कार्यरत लोगों के बीच आपसी संवाद की बेहद कमी है, आपस में कोई समन्वय नहीं है । उसे इन कार्यालयों के माध्यम से दूर करना समय की मांग है । साथ आना शुरुआत है, साथ रहना प्रगति है और साथ काम करना ही सफलता की कुंजी है । Coming together is begining keeping together is progress and working together is success यह अंग्रेजी की एक प्रसिद्ध कहावत है । अत: आईये, हम मिलकर काम करें। हमारे बीच आपसी सम्वाद का होना बेहद महत्वपूर्ण है ।

१२. भारत देश में आज चार से पांच लाख पशु और करीब पचास लाख से अधिक पक्षी प्रतिदिन मांसाहारियों के पेट में पहुँच जाते हैं और उन्हें अकाल मरण को प्राप्त होना पड़ता है ।

१३. वर्ष २००६—०७ में भारत देश में कुल मांस उत्पादन मात्र ६५ लाख टन का था वहीं वर्ष २०११—१२ के लिए उसका अनुमानित लक्ष्य १०५ लाख टन का है । इसी प्रकार अण्डे का उत्पादन इस दौरान ४९०० करोड़ से बढ़कर लक्ष्य ७८९० करोड़ अण्डों के उत्पादन का है । तय है यह सब पशु हत्या को बढ़ावा देकर ही होने वाला है ।

१४. आपमें से बहुत से लोग जानते हैं कि हमने अकेले ने १०वीं पंचवर्षीय योजना के मांस संबंधी सात सदस्यीय उपसमिति में सदस्य नामित होकर सरकार की ५६ हजार ग्रामीण बूचड़खानों के निर्माण की योजना को सम्पूर्ण निरस्त करवा पाने की ऐतिहासिक सफलता प्राप्त की थी। फलस्वरूप योजना के उन पांच वर्षों के काल में देश से मांस निर्यात का व्यापार एक निश्चित सीमा तक ठहरा रहा और करोड़ों करोड़ पशुओं को प्रतिवर्ष अप्रत्यक्ष अभय मिला। ११वीं योजना में हमलोग समाज के सहयोग के अभाव में कोई भूमिका नहीं निभा पाये, फलत: इस योजना काल के पहले तीन वर्षों में ही देश से मांस निर्यात का आंकड़ा तीन गुणा वृद्धि को प्राप्त हो गया। यह तथ्य आप सबके सामने जब रिकार्ड है । मांस निर्यात का आंकड़ा १७—१८ सौ करोड़ से बढ़कर ५४ सौ करोड़ के आस—पास पहुँच चुका है ।

१५. सरकार अभी बारहवीं पंचवर्षीय योजना हेतु समितियों के गठन की प्रक्रिया चालू कर चुकी है । नामों पर विचार चल रहा है । हमें पता चलते ही हमने इस बार पुन: सक्रिय भूमिका निभाने हेतु अपने प्रयास तेज कर दिये। कम से कम २०—२५ लाख रुपयों की व्यवस्था करने हेतु हमने संस्था के माध्यम से समाज को सहयोग हेतु निवेदन किया। परन्तु दुर्भाग्य है कि लोगों की सोच को देखिये, संस्था को तीन — चार महीने में मात्र पन्द्रह सौ रुपये प्राप्त हुए है और साथ ही दर्जनों पत्र इस अपेक्षा से आये हैं कि हम पूर्व की तरह इस बार भी सरकार पर नवीन बूचड़खानों के निर्माण पर पूरी तर से रोक लगवा पाने में सफलता प्राप्त करें। इस वर्ष दस माह में हमारी अहिंसा पेडरेशन संस्था को मात्र पैंतालिस हजार रुपयों की प्राप्ति हुई हैं हमारे विशाल कार्यालय में हम अकेले ही चपरासी और क्लर्व से लेकर ऊपर तक सबकुछ है । आप सोच सकते हैं कि इन सीमित संसाधनों से क्या किया जा सकता है ? पिछले करीब बीस वर्षों से कमोवेश इन्हीं परिस्थितियों में हम किसी प्रकार कार्य कर रहे हैं । यह है हमारी अहिंसा के लिए, जीवदया के लिए और गौरक्षा के लिए सामाजिक सोच की स्थिति। अब चिन्तन आपको करना है कि आप मात्र टहनियों की देखभाल करना चाहते हैं या जड़ को भी सुरक्षित करना चाहते हैं ? प्रश्न देशी नस्ल के अस्तित्व को बचाये रखने का है ? प्रश्न जीवदया की मूल भावना का है ? प्रश्न सह—अस्तित्व के सिद्धांत की रक्षा का है? गेंद अब आपके पाले में हैं । निर्णय अब आपको करना है कि आप भावनात्मक कार्यशैली चाहते हैं या प्रोपेशनल कार्यशैली? प्रश्न हमारी भावी पीढ़ी को सुरक्षा देने का है । इन शब्दों में जानें -

जीना हो तो पूरा जीना, मरना हो तो पूरा मरना,
बहुत बडा अभिशाप जगत में, आधा जीना आधा मरना।
और अन्त में— यह अंधेरा इसलिए है, खुद अंधेरे में है आप,
आप अपने दिल को एक दीपक बनाकर देखिए।


साभार —चीरंजीलाल जैन बगड़ा
महामंत्री- अहिंसा फैडरेशन, कोलकाता,भारत 

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