बुधवार, 5 अप्रैल 2017

प्रथम गोचारण चले कन्हाइ

प्रथम गोचारण चले कन्हाइ


मैया री! मैं गाय चरावन जैहौं।
तूँ कहि महरि नंदबाबा सों, बड़ो भयो न डरैहौं।।
श्रीदामा लै आदि सखा सब, अरु हलधर सँग लैहौं।
दह्यौ-भात काँवरि भरि लैहौं, भूख लगै तब खैहौं।।
बंसीवट की सीतल छैयाँ खेलत में सुख पैहौं।
परमानंददास सँग खेलौं, जाय जमुनतट न्हैहौं।।
ब्रह्ममयी व्रजभूमि में भगवान श्रीकृष्ण को गौएं, गोपियां और ग्वालबाल–ये तीन अत्यन्त प्रिय थे। कन्हैया अपने साथी ग्वालबालों और गौओं के साथ क्रीड़ाकर गोपियों को आनन्दित करते रहते थे। चंचल कन्हैया की बाललीलाओं के रस का आनन्द लेते हुए बड़भागी व्रजवासियों के दिन क्षण के समान बीत रहे थे। गोकुल में आए दिन होने वाले राक्षसों के उत्पातों से बचने के लिए उपनन्दजी के परामर्श से समस्त नन्दव्रज वृन्दावन चला आया। अब वृन्दावन के अनुरुप ही नन्दनन्दन का लीलासमुद्र भी हिलोंरे लेने लगा। कन्हैया कब, कैसे, किससे वंशी बजाना सीख गए, किसी को नहीं मालूम। दल-की-दल व्रजपुर की गोपांगनाएं प्रतिदिन नन्दमहल में आतीं और कहतीं–
’प्यारे कन्हैया! विचित्र बात है। भला, देखो–कहां तो तुम्हारे ये सुकोमल नन्हें-से अधर माता के स्तनपान में भी समर्थ न थे, कहां उसी अधर पर वंशी धारणकर तुम इन्हीं कुछ दिनों में इतनी मधुर वंशी बजाना सीख गए। अरे बताओ तो सही, इतने कम समय में इस मधुर वंशीवादन की शिक्षा तुमने किस गुरु से ली।’ (श्रीआनन्दवृन्दावनचम्पू:)
श्रीकृष्ण भी ब्रजांगनाओं का प्रोत्साहन पाकर माता की गोद में बैठे वंशी में रस भरने लगते। वंशी उनके अधरों का रस पाकर और रसमयी होकर समस्त वृन्दावन में रस की सरिता बहा देती। सभी गोपियां कन्हैया की मुरली की रस-सुधा का पान करके बलिहार जातीं। कन्हैया दिन-भर दो ही कामों में व्यस्त रहते–एक, वंशी बजाना और दूसरे, सखाओं के साथ गाय और गोवत्स (बछड़ों) के साथ विभिन्न प्रकार की क्रीड़ा करना। कभी गाय-बछड़ों को अपने अधीन कर नचाते कभी उनके सींगों को पकड़कर खेलते। नन्दबाबा व नन्दरानी स्नेहवश भयभीत हो जाते पर बार-बार मना करने पर भी कन्हैया एक नहीं सुनते थे। जब देखो तब वे गायों, बछड़ों व वृषभों के संग खेलते रहते थे। माता का अधिकांश समय गोष्ठ (गायों के रहने का स्थान) में ही व्यतीत होता क्योंकि ऐसे चंचल कन्हाई पर नियन्त्रण संभव नहीं था। साथ में उन्हें बड़े भैया दाऊ का प्रोत्साहन था। अब किसका भय? माता को सूचना देने वाले तो दाऊ भैया ही हैं, जब वे ही सम्मिलित हैं तो चिन्ता किस बात की? श्रीकृष्ण कभी विश्राम करते हुए सांड़ की पीठ पर चढ़ जाते और बलराम उसकी पूंछ उमेठना शुरु कर देते। भयभीत नन्दरानी कितना भी समझाएं, पर दोनों भाई कहां मानने वाले थे।
अक्सर वह दाऊदादा के साथ माता की नजरों से बचकर वन में चले जाया करते थे जहां गोपबालक गोचारण कर रहे होते थे। वे उन गोपबालकों के साथ बछड़ा चराते हुए खेलते रहते थे। अपने प्राणप्रियतम नीलमणि व बलराम को वन में इतनी दूर अकेले गया देखकर नन्दरानी का हृदय धक्-धक् करने लगता। नन्ददम्पत्ति ने इस भय से कि खेलते-खेलते पता नहीं किसी दिन किधर चले न जाएं, निश्चय किया कि–’सचमुच ये राम (बलराम) और श्याम बहुत चंचल हो गए हैं। यदि ये गोवत्सों के संग के बिना रह नहीं सकते तो अच्छा है कि व्रज के निकट रहकर ये छोटे बछड़ों को चराया करें।’ कन्हैया को तो मनवांछित प्राप्त हो गया। गोचारण तो गोपजाति का स्वधर्म है।
चले हरि वत्स चरावन आज।
मुदित जसोमति करत आरती साजे सब सुभ साज।।
मंगलगान करत ब्रजबनिता, मोतिन पूरे थाल।
हँसत हँसावत बत्स-बाल सँग चले जात गोपाल।।
जो सारे लोकों के ईश्वर हैं, परमब्रह्म परमात्मा हैं, वे ही श्रीकृष्ण-बलराम अब वत्सपाल (बछड़ों के चरवाहे) बने हुए हैं। वे तड़के ही उठकर कलेवे का भोजन (छाक) ले लेते और बछड़ों को चराते हुए वन में घूमा करते। श्रीकृष्ण के अगणित बछड़ों के साथ ग्वालबाल हाथों में बेंत, सिंगी और बांसुरी लेकर अपने-अपने बछड़ों के साथ वत्सचारण के लिए निकल पड़ते। वन में वे विभिन्न रंगों के फलों, फूलों, कोंपलों, पत्तों, मोरपंखों व गेरू आदि से श्रीकृष्ण का व अपना श्रृंगार करते। कोई ग्वाल बांसुरी बजाता, कोई सिंगी फूंकता, कोई कोयल के साथ स्वर में स्वर मिलाकर कुहु-कुहु करता, कोई बंदर की पूंछ पकड़ कर खींचता, कोई पक्षियों की छाया के साथ दौड़ लगाता, कोई मयूर नृत्य करता, कोई मेंढक के साथ फुदकता, कोई अपने शब्द की प्रतिध्वनि (इको) को ही बुरा-भला कहता। अनेक कल्पों की तपस्या के बाद भी योगियों के लिए जिन सच्चिदानन्द परमब्रह्म श्रीकृष्ण के चरणकमलों की रज अप्राप्य है, वही भगवान श्रीकृष्ण व्रजवासी बालकों के साथ खेलते हैं, उनके सौभाग्य की महिमा का बखान नहीं किया जा सकता।
इस प्रकार खेलते-कूदते बाल्यावस्था बीत गई। कन्हैया छह वर्ष पूरा करके सातवें वर्ष में प्रवेश करते हैं। अब उनकी आयु का प्रवाह भी बाल्यावस्था को पार कर पौगण्डावस्था में प्रवेश कर रहा है। उसी के अनुरुप उनकी मेधा व बल का विकास हो चुका है। मेघश्याम शरीर, कमलनेत्र व विकसित वक्ष:स्थल और स्वभाव में भी पौगण्डावस्था के चिह्न दिखने लगे हैं। आजतक श्रीकृष्ण वत्सपाल थे, छोटे-छोटे बछड़ों को लेकर चराने जाते थे। एक दिन नीलमणि कृष्ण ने मां से कह ही दिया–’मां! मैं बड़ा हो गया हूँ, मुझे ‘गोपाल’ होना है। मुझे गायों की सेवा करनी है। अब जब मैं और दाऊदादा बड़े हो गए हैं तो केवल बाबा ही क्यों गोचारण का कार्य करें?’
मैया री! मैं गाय चरावन जैहौं।
तूँ कहि महरि नंदबाबा सों, बड़ो भयो न डरैहौं।।
कन्हैया की बात सुनकर माता का हृदय भयभीत हो गया। अभी तो मेरे नीलमणि के दूध के दाँत भी नहीं उतरे हैं, यह भला वन में गोचारण करने कैसे जाएगा? हठीले मोहन बात पकड़ लेने पर छोड़ना जानते ही नहीं।
इधर भगवान श्रीकृष्ण की लीलाशक्ति ने भी अपना उपक्रम करना शुरु कर दिया। जिन गोवत्सों को नन्दनन्दन वत्सपाल बनकर गोपशिशुओं के साथ वन में ले जाया करते थे, वे सब गौएं बन चुकी थीं। श्रीकृष्ण-बलराम के हाथ से जिन गोवत्सों ने कोमल तृण (घास) का ग्रास लिया था, जिनका दोहन (दूध दुहना) कन्हैया के हस्तकमलों से हुआ था, जिनकी सेवा-सुश्रुषा व्रजराजकुमार के हाथों से हुई थीं, उनके अंत:स्तल में कन्हैया के प्यार की अनन्त स्मृतियां बसी हुईं थीं; पर उनकी मूक वाणी उसे व्यक्त नहीं कर पा रही थी। अत: वे अब किसी गोपसेवक को अपने शरीर का स्पर्श तक नहीं करने देती थीं। न ही वे गौएं किसी अन्य गोपसेवक के संग वन में विचरण करने को जाती थीं। सभी गोपसेवकों ने नन्दरायजी को जाकर सूचना दी कि अब गोधन आपके पुत्र के बिना एक पग भी वन की ओर अग्रसर नहीं होता। जब तक श्रीकृष्ण स्वयं उनके आगे आकर खड़े न हो जावें, किसी भी प्रकार गौएं वन जाने को तैयार नहीं होती हैं। किसी भी गोप को अपने पास आता देखकर वे बिदक जातीं  हैं और कन्हैया के गोष्ठ में आने पर पूरा गोष्ठ ‘हम्बारव’ से गूंज जाता है, उनके थनों से दूध बरसने लगता है। गायों के थनों में इतना दुग्ध कहां से आता, इसे कोई नहीं जानता। सभी गोपसेवक गायों का कन्हैया के प्रति अद्भुत आकर्षण देखकर अचम्भित रह जाते पर इसका रहस्य न जान पाते। गोपों ने नन्दरायजी से कहा–’व्रजराज! यह तो जानी हुई बात है, जहां कहीं जिसके प्रति भी आपका पुत्र प्रेम प्रदर्शित करता है, वहां-वहां सर्वत्र यही परिणाम सामने आता है।’
नन्दबाबा गोपों से सुनते, स्वयं भी देखते, अनुभव करते कि मेरे पुत्र में सचमुच गोसंरक्षण की अद्वितीय योग्यता है। परन्तु पिता का मन अपने पुत्र के अनिष्ट के लिए कंस द्वारा बार-बार भेजे गए राक्षसों की याद से सिहर उठता। उपनन्दजी व अन्य गोपों ने नन्दरायजी को समझाते हुए कहा–’व्रजराज! यह तो आपके तप का ही प्रभाव है जो आपके पुत्र में इतनी विलक्षण बुद्धि व बल आ गया है, उसने दुष्ट राक्षसों का जो संहार किया, उसमें किसी अन्य की कोई सहायता नहीं ली। इसलिए आगे भी मंगल ही होगा।’
अत: आज सभी गोपों और कन्हैया की मांग को मानते हुए नन्दबाबा ने समस्त गायों के संचरण व संरक्षण का भार कन्हैया को सौंप दिया। सभी गोपों व उपनन्दजी ने श्रीकृष्ण के गोचारण के लिए ज्योतिषियों से शुभ मुहुर्त निकलवाने का परामर्श दिया। उसी समय शांडिल्य ऋषि वहां आ गए। यशोदामाता ने पाद्य-अर्घ्य आदि से पूजन कर ऋषि से कहा–’महाराज! कन्हैया की ‘गोपाल’ होने की इच्छा है, कोई अच्छा मुहुर्त बताइए।’ शांडिल्य ऋषि ने कन्हैया के जन्माक्षर देखकर कार्तिक शुक्ल पक्ष, श्रवण-नक्षत्र युक्त अष्टमी (गोपाष्टमी), बुधवार का शुभमुहुर्त बताया। सारे व्रज में यह बात फैल गई। सभी व्रजवासियों ने भी निश्चय किया कि हम भी अपने बच्चों को उसी दिन से गोचारण के लिए भेजेंगे।
गाय चरावन को दिन आयो।
फूली फिरत जसोदा अंग अंग लालन उबट न्हवायो।।
भूषन बसन पलट पहेराये रोरी तिलक बनायो।
बिप्र बुलाय वेदध्वनि कीनी मोतिन-चोक पुरायो।।
देत असीस सकल गोपीजन आनंद मंगल गायो।
लटकत चलत लाडिलो बनकों परमानंद जिय भायो।।
दिन और रात का अवसान होकर गोचारण के शुभ दिन का मंगल प्रभात हुआ। मन-ही-मन नन्दबाबा आज के पुण्यप्रभात को धन्यवाद दे रहे हैं। सब ओर आनन्द छाया है–‘आजु ब्रज छायो अति आनंद।’ नन्दनन्दन श्रीकृष्ण के प्रथम गोचारण महोत्सव के उपलक्ष्य में व्रजपुर में क्या-क्या हुआ, उसका पूरा वर्णन करना तो किसी के लिए भी संभव नहीं है। सप्तमी तिथी की रात्रि को कन्हैया को निद्रा ही नहीं आई। वे प्रात:काल जाग गए। नन्दरायजी के आदेश से नंदमहल के साथ व्रजपुर के प्रत्येक घर, द्वार, तोरण-द्वार, वीथी (गली), चौराहे को सजाया गया है। द्वार पर चौक पूर कर मंगल कलश रखे गए है। घर-घर मंगलगीत गाए जा रहे हैं।
माता के आनन्द का क्या कहना? जिसका सौंदर्य सारे जग को विस्मित कर दे, जो मोहन है, मनमोहन हैं, भुवन मनमोहन हैं; उनको उबटन लगाकर स्नानादि कराकर नन्दरानी ने ‘गोपाल’ बनने के योग्य सुन्दर नवीन वस्त्राभूषणों से और भी सजा दिया। कहीं नजर न लग जाए, इसलिए माथे पर काजल का डिठौना भी लगा दिया–’राइ लोन उतार जसोदा गोबिंद बल बल जाय।’
माता के हाथों से सजकर नीलमणि श्रीकृष्ण आंगन में खड़े हैं। यशोदामाता ने कन्हैया से कहा कि बेटा तुम्हारे कोमल पैरों में वन के कांटे चुभेंगे इसलिए तुम जड़ीदार जूतियां पहनकर गोचारण के लिए जाओ। कन्हैया ने कहा–’माँ! यदि तू मुझे जूते पहनने के लिए कहती है तो मेरी पूज्या गायों के लिए भी जूते बनवा दे।’ माता ने कहा–’बेटा तू तो मनुष्य और छोटा बालक है। तेरे कोमल चरणों को वनों के जंगली कांटों से बहुत कष्ट होगा। गाएं तो पशु हैं। भला वे कैसे जूती पहन सकती हैं।’
कन्हैया ने माता से कहा–’माँ! तूने आज गायों को पशु कहा, सो कहा, आगे से कभी न कहना। जो गायों को पशु कहता है, वह मुझे जरा भी नहीं सुहाता है। गाएं पशु नहीं–’गावो विश्वस्य मातर:।’ गाएं समस्त विश्व की माता हैंसभी कामनाओं को पूरा करने वाली कामधेनु हैं। गौओं के रोम-रोम में देवताओं का वास है। ये सर्वतीर्थमयी हैं। ये भवसागर से पार लगाने वाली व गोलोक की प्राप्ति कराने वाली मेरी इष्ट हैं। मैं तो गोपाल हूँ। गोपाल तो गायों का सेवक है। यदि गायें नंगे पैर चलती हैं, तो उनका सेवक भी नंगे पैर चलेगा।’
गोधन पूजें गोधन गावें।
गोधन के सेवक संतत हम, गोधन ही को माथो नावें।।
गोधन मात-पिता गुरु गोधन, देव जानि नित ध्यावें।
गोधन कामधेनु कल्पतरु, गोधन पै माँगे सोई पावें।। (परमानन्ददास)
कन्हैया ने गायों की सेवा बड़े प्रेम से की है, गायों की ऐसी सेवा अब तक किसी ने नहीं की।
इष्टदेव प्रभु सबहिके, जिनकी गउएं सेव।
तिनकी सेवा सौं स्वयं, चार पदारथ लेव।।
जिनके सेवक हैं स्वयं गोकुलेश गोपाल।
उनकी सेवा से कहौ, क्यों न कटै भवजाल।। (श्रीराधाकृष्णजी श्रोत्रिय, ‘सांवरा’)
श्रीकृष्ण के श्रृंगार के बाद उनका रक्षा-विधान सम्पन्न हुआ है। ब्राह्मणों ने पुण्याहवाचन कर्म कराकर गुरुजनों के साथ कन्हैया को आशीर्वचन दिए। नन्दरानी, रौहिणीजी और अनेक व्रजगोपियों ने मंगलगीत गाकर नंदनन्दन की आरती उतारी। कन्हैया उस अपार गोधन के समीप गए। उन्होंने गायों को पाद्य आदि अर्पण कर उनकी पूजा-अर्चना की। उन्हें तृण व लड्डू खिलाकर तृप्त किया और फिर गायों की प्रदक्षिणा कर साष्टांग वंदन कर उनके खुरों का स्पर्श कर स्तवन किया। गायें भी कन्हैया को देखकर रँभाने लगती हैं। यशोदामाता का हृदय भी प्रेम से भर उठा है, वह कहती हैं–’गायों की सेवा कभी व्यर्थ नहीं जाती, गायों का आशीर्वाद पाकर ही मेरा बालक सुखी होगा।’
कन्हैया की गायों का श्रृंगार और चमक-दमक देखने लायक थी–
गाइन की छवि नहिं कहि परै। रूप अनूप सब के हिय हरै।।
कंचन भूषन सब के गरै। घनन घनन घंटागन करै।।
उज्जल बरन सु को है हंस। कामधेनु सब जिन कौ अंस।।
दरपन सम तन अति दुति देत। जिन मधि हरि झांई झुकि लेत।।
श्रीकृष्ण और बलराम का सुन्दर मुंह निहारती हुई गौएं उनके आगे-पीछे और अगल-बगल में खड़ीं थीं। गौओ के गले में क्षुद्रघंटिकाओं (छोटी घण्टियों) की व सोने की मालाएं पहनाई गयीं थीं। पैरों में घुंघुरु व पूंछ के बालों में मोरपंख व मोतियों के गुच्छे पहनाये गये थे। दोनों सींगों के बीच में मणिमय अलंकार, पीठ पर मोतियों की झूल, चमकते हुए सींगों से गौओं की शोभा बहुत बढ़ गई थी। गौओं के भाल पर लाल तिलक, पीले रंग से रंगी पूछें व अरुणराग से रंगे खुर–सब-की-सब भव्य-मूर्ति सी दिखाई पड़ रहीं थीं। कोई कैलास के समान श्वेत वर्ण की, कोई लाल, कोई पीली, कोई चितकबरी, कोई श्यामा, कोई धूमिल वर्ण, तो कोई तांबई रंग की थी और उन सबके नेत्र कन्हैया की ओर ही लगे थे। नन्दबाबा व नन्दरानी ने अपने इष्टदेव नारायण को मनाया। ब्राह्मणों को स्वर्णदान कर कन्हैया के लिए सबसे आशीर्वाद लिए–
’बिप्र बुलाय दान करि सुबरन सबकी सुखद असीसें लीन्हीं। 
कर पकराइ नयन भरि अँसुवन सकल सँभार दाउए दीन्हीं।।
बड़ी सुखी हैं नन्दरानी आज, पर जब कन्हैया चलने लगे तब पुत्र के वात्सल्य-स्नेह में आकंठ डूबे माता के मन ने आशंकाओं के पहाड़ खड़े कर दिए। वे डर गईं कि वन में मेरे कन्हैया का कोई अनिष्ट न हो जाए। नन्दरानी की आंखों में आंसू छलक आए। उन्होंने दाऊजी को कन्हैया का हाथ पकड़ाकर कहा–’बेटा! तुम बड़े हो, यह कन्हैया बड़ा चंचल है; अपने इस छोटे भाई की सम्भाल रखना।’ तभी कन्हैया के सभी ग्वालसखा आ गए। यशोदामाता उनमें से एक-एक को समझाती हैं–’मेरे लाला का ध्यान रखना। यह बहुत शरारती हो गया है।’ ग्वालमित्रों ने कहा–मां! तुम इसकी जरा भी चिन्ता न करना। हम इसका हाथ पकड़कर ही चलने वाले हैं।’ जो जगत को सम्हालने वाला है उसे ये ग्वालमित्र प्रेम से सम्हालने चले हैं।
परन्तु माता यशोदा का पुत्रप्रेम तो विलक्षण है। वह पुकार रही हैं–’बलराम! बेटा! तू नीलमणि के आगे हो जा। अरे सुबल! तू मेरे लाल के पीछे हो जा। अरे ओ श्रीदामा! ओ सुदाम! तुम दोनों इस नीलमणि के अगल-बगल में रहना। अरे बालको! सुनते हो, देखो, तुम सब अपने इस प्यारे मित्र नीलमणि को सब ओर से घेर कर चलना।’ इस प्रकार माता यशोदा सभी को श्रीकृष्ण का ध्यान रखने का निर्देश दे रही हैं। दें भी क्यों न? अब तक बार-बार कन्हैया का अनिष्ट करने के लिए कंस द्वारा भेजे गए राक्षसों के भय से माता का हृदय अभी तक आशंकित है। इस कारण उनकी आंखें निरन्तर झर-झर बरस रही हैं।
नन्दबाबा निर्निमेष नयनों से श्रीकृष्ण के लिए यशोदा की प्रेमदशा देख रहे थे। उनके हृदय का आनन्द-रस आंसू बनके आंखों के रास्ते बाहर आना चाहता था। आज वे इस मंगलबेला के लिए अपने नारायण को मन-ही-मन धन्यवाद दे रहे थे। नन्दबाबा ने अपने पुत्र के हाथ में एक छोटी-सी मणिमय लाल लकुटी (छड़ी) पकड़ा दी। सजे-धजे गोवत्स व गाएं द्वार पर कन्हैया की प्रतीक्षा कर रहे हैं। कन्हैया के आते ही सभी आनन्द में भरकर कूदने लगे। नन्दलाल ने माता-पिता व सभी गोपजन को प्रणाम किया और गोचारण के लिए चल दिए–
प्रथम गोचारण चले कन्हाइ।
कुंडल लोल कपोल विराजत सुंदरता चल आई।।
माथे मुकुट पीताम्बर की छवि वनमाला पहराइ।
घर घरतें सब छाक लेत हैं संग सखा सुखदाइ।।
गाय हाँक आगें कर लीनी पाछे मुरली बजाइ।
परमानंद प्रभु मनमोहन ब्रजजन सुरति कराइ।।
गोपियां मंगलगीत गा रही हैं। अपने घर के सामने आने पर सभी गोपांगनाएं कन्हैया की आरती उतार रही हैं। आगे-आगे गोवत्स और गौएं और उनके पीछे सखाओं के साथ नन्दनन्दन कंधे पर छींका (वन में खाने के लिए माता द्वारा दिया गया भोजन) रखे हुए चल रहे हैं। गौओं, ग्वालबालों व नंदनन्दन पर गोपियां पुष्प बरसा रही हैं। इस अद्भुत दृश्य को देखने के लिए देवी-देवता अपने-अपने लोकों को छोड़कर व्रज में चले आए हैं।

भगवान श्रीकृष्ण के प्रथम गोचारण पर गायों का अनुपम श्रृंगार




कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें