शुक्रवार, 13 अक्तूबर 2017

गौवंश की महिमा

गौवंश भारतीय जीवन, संस्कृति, इतिहास का अटूट अंग है यानी जबसे सृष्टि की रचना हुई तभी से गौ इतिहास का भी प्रारम्भ होता है। आदिकाल में देव और दानवों ने अमृत प्राप्त करने के लिए समुद्र मंथन किया था। प्रभु ने कच्छप अवतार लेकर सुमेरू पर्वत को धारण किया और वासुकी नाग को रज्जू के तौर पर प्रयोग में लाकर मंथन किया गया जिसमें प्रथम हलाहल विष की ज्वाला से तारने के लिए रत्नस्वरूपा कामधेनू का प्रागट्य हुआ जो सभी मनोकामनाओं, संकल्प और आवश्यकता पूर्ण करने में सक्षम थी।

सर्वसुख प्रदायनी गौ के विषय में एक और कथा आती है। जब सृष्टि का प्रारम्भ हुआ तो ब्रह्मा जी ने मनु को सृष्टि रचना का आदेश दिया जिसके कारण हम मानव कहलाते हैं। मनु जिनका नाम पर्थु था उन्होंने गौमाता की स्तुति की और गौकृपा अनुसार गौदोहन किया और पृथ्वी पर कृषि का प्रारंभ किया। पर्थु मनु के नाम से यह धरा पृथ्वी कहलाई।

संसार में अतुलनीय हैं गौमाता। सारे भारत में कहीं भी चले जाइए और सारे तीर्थ स्थानों के देवस्थान देख आईए। आपको अधिक-से-अधिक दस-बीस देवी-देवता मिल जाएंगे, पर सारे भूमंडल में ढूंढने पर भी ऐसा कोई देवस्थान या तीर्थस्थान, ऐसा दिव्य मंदिर, दिव्य तीर्थ देखना हो तो बस वह आपको गौमाता के दर्शन से बढ़कर न कोई देव स्थान है, न कोई जप-तप है, न ही कोई सुगम कल्याणकारी मार्ग है। न कोई योग-यज्ञ है और न कोई मोक्ष का साधन ही। तीर्थों में तीर्थराज प्रयाग, उसी प्रकार देवी-देवताओं में अग्रणी गौमाता को बताया गया है। गौमाता के रोम-रोम में देवी-देवताओं का एवं समस्त तीर्थों का वास है। गौमाता  को एक ग्रास खिला दीजिए तो वह सभी देवी-देवताओं को पहुंच जाएगा। इसीलिए धर्मग्रंथ बताते हैं कि समस्त देवी-देवताओं एवं पितरों को एक साथ प्रसन्न करना हो तो गौभक्ति-गौसेवा से बढ़कर कोई अनुष्ठान नहीं है। गौमाता के दर्शन मात्र से ऐसा पुण्य प्राप्त होता है जो बड़े-बड़े यज्ञ, दान आदि कर्मों से भी नहीं प्राप्त हो सकता। ‘गौ मे माता ऋषभ: पिता में दिवं शर्म जगती मे प्रतिष्ठा।’ गाय मेरी माता और ऋषभ पिता हैं। वे इहलोक और परलोक में सुख, मंगल तथा प्रतिष्ठा प्रदान करें।

हमारे धर्मशास्त्रों के अनुसार भगवान का अवतार ही गौमाता, संतों व धर्मरक्षा के लिए होता है। गोस्वामी तुलसीदासजी रामचरितमानस में लिखते हैं-

‘विप्र धेनु सुर संत हित लीन्ह मनुज अवतार
निज इच्छा निर्मित तनु माया गुन गोपार।’

सनातन सत्य गौमाता में हैं समस्त तीर्थ गाय, गोपाल, गीता, गायत्री तथा गंगा धर्मप्राण भारत के प्राण हैं, आधार हैं। इनमें गौमाता का सर्वोपरि महत्व है। पूजनीय गौमाता, हमारी ऐसी मां है जिसकी बराबरी न कोई देवी-देवता कर सकते हैं और न कोई तीर्थ। जिस गौमाता को स्वयं भगवान कृष्ण नंगे पांव जंगल-जंगल चराते फिरे हों और जिन्होंने अपना नाम ही गोपाल रख लिया हो, उसकी रक्षा के लिए उन्होंने गौकुल में अवतार लिया। रघुवंश के राजा दिलीप गौसेवा के पर्याय और रामजन्म सुरभि गाय के दुग्ध द्वारा तैयार खीर से माना गया है, कृष्ण, जो गोपाल के नाम से जाने गए ने पूर्ण बृजक्षेत्र की रक्षा गोवर्धन पर्वत उठा कर की और माखनचोर कहलाये।


औषधियों के स्वामी धनवंतरी ने गौभक्ति और गौसेवा कर आरोग्य प्रदायनी गौ दुग्ध, गौ घी, गौदधि, गौमूत्र और गोबर के मिश्रण से पंचगव्य की रचना की। यहां तक कि गाय के गोबर और मूत्र को एक पर्यावरण रक्षक के रूप में माना जाता था और फर्श और घरों की दिवारों रसोई में इस्तेमाल किया गया था, शुद्ध रहने के लिए हर घर और मानव शरीर पर गौमूत्र छिड़काव एक आम बात थी।


गोकुल यानी जहां 10,000 से अधिक गौवंश हों और नन्द जो की हजारों गौवंश का अधिपति हो जाना जाता था। सनातन धर्म में कन्या को दुहिता का नाम दिया है, यानी दुग्ध को दोहन करने वाली, गाय का दान एक सबसे महान दान माना जाता था। शास्त्रों में कहा है सब योनियों में मनुष्य योनी श्रेष्ठ है। क्योंकि वह गौमाता की निर्मल आभा में अपने जीवन को धन्य कर सकते हैं। मानव संरक्षण, कृषि और अन्न उत्पादन में गौवंश का अटूट सहयोग और साथ रहा है। इसी कारण हमारे शास्त्र वेद पुराण गौ महिमा से भरे हुए हैं।

अर्थववेद में कहा गया है-

मित्र ईक्षमाण आवृत आनंद:युज्यमानों
वैश्वदेवोयुक्त: प्रजापति विर्मुक्त: सर्पम्।
एतद्वैविश्वरूपं सर्वरूपं गौरूपम् उपैनंविश्वरूपा:
सर्वरूपा: पशवस्तिष्ठन्ति य एवम् वेद।।

अर्थात देखते समय गौ मित्र देवता है, पीठ फेरते समय आनंद है। हल तथा गाड़ी में जोतते समय(बैल) विश्वदेव, जाने पर प्रजापति तथा जब खुला हो तो सबकुछ बन जाता है। यही विश्वरूप अथवा सर्वरूप है, यही गौरूप है। जिसे इस विश्वरूप का यर्थाथ ज्ञान होता है उसके पास विविध प्रकार के पशु रहते हैं। अथर्ववेद में ही कहा गया है ब्राह्मण तथा क्षत्रिय विश्वरूप गौ के नितंब हैं। गंधर्व पिंडलियां तथा अप्सारायें छोटी हड्डियां हैं। देवता इसके गुदा हैं, मनुष्य आते, अन्य प्राणी अमाशय हैं। राक्षस रक्त तथा इतर मानव पैर हैं। गाय के संबंध में एक जगह कहा गया है-

प्रत्यंग तिष्ठन् धातोदड तिष्ठनन्रसविता तृणाणि प्राप्त: सोमों राजा।

अर्थात् पश्चिमाभिमुख खड़े होते समय गाय विधाता उत्तराभिमुख खड़े होते समय सविता तथा घास चरते समय चंद्रमा है। विभिन्न ग्रंथों में कहा गया है कि गाय के अंगों में ईश्वर का वास है। उदाहरणार्थ-बृहत्पराशरस्मृतिपद्मपुराण (सृष्टिखंड अथर्ववेद में गायों को संपतियों का भंडार कहा गया है।)

 यच्च गां पदा स्फुरति प्रत्यड् सूर्यं च मेहति,
तस्य वृश्वामि तेमूलं च्छाया करवोपरम।।

अर्थात जो गाय को पैर से ठुकराता है और जो सूर्य की ओर मुंह करके मूत्रोत्सर्ग करता है मैं उस पुरूष का मूल ही काट देता हूं संसार में फिर उसे छाया मिलना कठिन है। प्रभु राम के वनवास गमन के पश्चात जब भरत उनसे मिलने वन में गये तो प्रभु का पहला प्रशन भरत से यही था कि तुम्हारे राज्य में गाय तो ठीक से हैं न स्कंदपुराण (आवंत्यखंड रेखाखंड अध्याय-13) ब्रह्मांडपुराण (गोसावित्रीस्त्रोत) भविष्यपुराण (उत्तरपर्व बह्मवैर्वापुराण के श्रीकृष्णजन्म कांड आदि में गाय की महिमा का वर्णन है। गौवध का निषेध करते हुये वेद में कहा गया है-

माता रूद्राणां दुहिता वसूनां स्वसादित्यनाममृत्स्य नाभि:
प्रश्नु वोचं चिकितुषे जनायमा गामनागादितिं वधिष्ट।

अर्थात गौ रूद्रों की माता वसुओं की पुत्री अदितिपुत्रों की बहन तथा धृतरूप अमृत का खजाना है। प्रत्येक विचारशील मनुष्य को मैंनें यही कहा है कि निरपराध व अवध्य गौ का कोई वध न करे।

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