शुक्रवार, 25 अक्तूबर 2019

अवश्य पढ़ें बहुत सुंदर कहानी

एक गाय घास चरने के लिए एक जंगल में चली गई। शाम ढलने के करीब थी। उसने देखा कि एक बाघ उसकी तरफ दबे पांव बढ़ रहा है। 
वह डर के मारे इधर-उधर भागने लगी। वह बाघ भी उसके पीछे दौड़ने लगा। दौड़ते हुए गाय को सामने एक तालाब दिखाई दिया। घबराई हुई गाय उस तालाब के अंदर घुस गई। 
वह बाघ भी उसका पीछा करते हुए तालाब के अंदर घुस गया। तब उन्होंने देखा कि वह तालाब बहुत गहरा नहीं था। उसमें पानी कम था और वह कीचड़ से भरा हुआ था। 
उन दोनों के बीच की दूरी काफी कम  थी। लेकिन अब वह कुछ नहीं कर पा रहे थे। वह गाय उस कीचड़ के अंदर धीरे-धीरे धंसने लगी। वह बाघ भी उसके पास होते हुए भी उसे पकड़ नहीं सका। वह भी धीरे-धीरे कीचड़ के अंदर धंसने लगा। दोनों ही करीब करीब गले तक उस कीचड़ के अंदर फंस गए। 
दोनों हिल भी नहीं पा रहे थे। गाय के करीब होने के बावजूद वह बाघ उसे पकड़ नहीं पा रहा था। 
थोड़ी देर बाद गाय ने उस बाघ से पूछा, क्या तुम्हारा कोई गुरु या मालिक है? 
बाघ ने गुर्राते हुए कहा, मैं तो जंगल का राजा हूं। मेरा कोई मालिक नहीं। मैं खुद ही जंगल का मालिक हूं।
 गाय ने कहा, लेकिन तुम्हारी उस शक्ति का यहां पर क्या उपयोग है? 
उस बाघ ने कहा, तुम भी तो फंस गई हो और मरने के करीब हो। तुम्हारी भी तो हालत मेरे जैसी ही  है।

गाय ने मुस्कुराते हुए कहा,.... बिलकुल नहीं। मेरा मालिक जब शाम को घर आएगा और मुझे वहां पर नहीं पाएगा तो वह ढूंढते हुए यहां जरूर आएगा और मुझे इस कीचड़ से निकाल कर अपने घर ले जाएगा। तुम्हें कौन ले जाएगा? 

थोड़ी ही देर में सच में ही एक आदमी वहां पर आया और गाय को कीचड़ से निकालकर अपने घर ले गया। 
जाते समय गाय और उसका मालिक दोनों एक दूसरे की तरफ कृतज्ञता पूर्वक देख रहे थे। वे चाहते हुए भी उस बाघ को कीचड़ से नहीं निकाल सकते थे, क्योंकि उनकी जान के लिए वह खतरा था।

*गाय ----समर्पित ह्रदय का प्रतीक है।* 
*बाघ ----अहंकारी मन है।*
 और 
*मालिक---- ईश्वर का प्रतीक है।* 
*कीचड़---- यह संसार है।*
 और
*यह संघर्ष---- अस्तित्व की लड़ाई है।* 

किसी पर निर्भर नहीं होना अच्छी बात है, लेकिन मैं ही सब कुछ हूं, मुझे किसी के सहयोग की आवश्यकता नहीं है, यही अहंकार है, और यहीं से विनाश का बीजारोपण हो जाता है।
   
  ईश्वर से बड़ा इस दुनिया में सच्चा हितैषी कोई नहीं होता, क्यौंकि वही अनेक रूपों में हमारी रक्षा करता है
                   

धनतेरस की हार्दिक शुभकामनाएं

धनतेरस की हार्दिक शुभकामनाएं। 
 हमारा असली धन गौवंश है ।
गौवंश को घर लाईये आप को कभी किसी चीज की कमी नही होगी ।
आजकल लोग गाय छोड़ बगला, गाडी को असली धन मानते हैं। ये सब धन हो सकते पर साथ मे सुख शान्ति नहीं नहीं देते जैसे गाय धन के साथ सबको सुख शान्ति का आशीर्वाद प्रदान करती हैं । गाय देश,संस्कृति ,धर्म, समाज,सम्प्रदाय सबका कल्याण करने वाली जगतजननी है। गौवंश अपने देश का असली धन हैं उसे हम सब मिलकर बचाये। क्योंकि गाय बचेगी तो देश बचेगा। गाय ईस देश की अर्थव्यवस्था का हिस्सा है। 
गौवंश कामधेनु है । गाय का भारत देश मे अहम योगदान है। 
आओ गौवंश बचाये।

बुधवार, 23 अक्तूबर 2019

परम पूज्य द्वाराचार्य मलुकपीठाधीश्वर श्रीराजेन्द्रदासजी महाराज की वाणी गौ महिमा

पूज्यश्री महाराजजी ने बड़ी सुन्दर बात कही। एक सूत्र में ही सब कुछ कह दिया। एक तो यह कहा कि गाय के प्रति जिसकी भक्ति नहीं, श्रद्धा नहीं है, निष्ठा नहीं है, वह कभी भी गोविन्द का भक्त नहीं हो सकता। जो सच्चे अर्थ में गोविन्द का भक्त होगा वह गोभक्त अवश्य होगा। क्योंकि गोविन्द तो इष्ट है और गाय अति इष्ट है। इष्ट की इष्ट है ना गाय, इसलिये। इष्ट श्रीगोविन्द और गोविन्द की भी इष्ट श्रीगोमाता है। भगवान अनुचर है गाय के। भगवान भी गाय के आगे नहीं चलते पीछे-पीछे चलते हैं। गायें चर करके तृप्त होकर के पवित्र श्रीयमुनाजी के जल को पीकरके जब बैठ जाती हैं तब ठाकुरजी बैठते हैं। तब तक बैठते नहीं, खड़े रहते हैं और इसके बाद ठाकुरजी छाछ आरोगते हैं, प्रसाद पाते हैं और पुनः जब गोचारण करके लौटते हैं तो फिर गोवंश के पीछे-पीछे चलकर आते हैं।
ऐसे, श्रीकृष्ण का भक्त यदि उसकी गाय में श्रद्धा नहीं है, गव्य पदार्थों में श्रद्धा नहीं है, कैसे स्वीकार किया जाय की वह भगवत् भक्त है, संत है अथवा वैष्णव है या आस्तिक है। इतना ही नहीं गाय में श्रद्धा नहीं है तो उसे भारतीय कहलाने का अधिकार नहीं है। हमारे वृन्दावन में एक परम तपस्वी ज्ञानवृद वयोवृद ऋषिकल्प महापुरुष विराजमान थे। जिनके चरणों में बैठकर दास को यत्किन्चित
स्वाध्याय करने का अवसर प्राप्त हुआ। अनन्तश्री सम्पन्न पूज्य पंडित श्रीराजवंशी द्विवेदीजी धर्मसंघ वाले गुरुजी। एक बार दास ने सहज ही गुरुजी से पूछा! गुरुजी अत्यन्त सरल कोई परिभाषा बतायें सनातनधर्मी हिन्दू की। तो गुरुजी हंसने लगे। तो गाय के प्रति श्रद्धा की बात गुरुजी ने नहीं की। गुरुजी ने कहा गोमय और गोमूत्र में जिसकी श्रद्धा हो, गोमय में जिसे दिव्य सुगन्ध का अनुभव होता हो, गोमूत्र में जिसको दिव्य सुगन्धका अनुभव होता हो उसको उसका दर्शन करके चित्त में घृणा
उत्पन्न नहीं होती हो, वही हिन्दू है, वही सनातनधर्मी है। अगर गोबर, गोमूत्र को देखकर श्रद्धा उत्पन्न नहीं होती, मन सात्विक नहीं होता तो गुरुजी कहते थे कहीं न कहीं से मलेच्छत्व उसमें आ गया है,  वर्णसंकरी उसमे आ गया है।

गौभक्त स्वामी प्रभुदत्त ब्रह्मचारी

 जन्म तथा शिक्षा

प्रभुदत्त ब्रह्मचारी का जन्म संवत 1942 (1885 ई.) में जनपद अलीगढ़, उत्तर प्रदेश के ग्राम अहिवासी नगला में एक निर्धन परिवार में हुआ था। इनके पिता का नाम पण्डित मेवाराम था। विदुषी माता अयुध्यादेवी से संत सुलभ संस्कार प्राप्त कर उन्होंने आजीवन ब्रह्मचर्य व्रत धारण किया था। बल्देव, बरसाना, खुर्जा, नरवर एवं वाराणसी में उन्होंने संस्कृत का अध्ययन किया। स्वामी करपात्री जी एवं साहित्यकार कन्हैयालाल मिश्र प्रभाकर उनके सहपाठी थे। वे ‘श्रीकृष्ण गोविंद हरे मुरारी, हे नाथ नारायण वासुदेव’ मंत्र के द्रष्टा थे। प्रभुदत्त ब्रह्मचारी जी का व्यक्तित्व विलक्षण और विराट था। छोटी अवस्था में ही वे गृह त्यागकर गुरुकुल में रहे, जहाँ शिक्षा-दीक्षा ग्रहण की। बचपन से ही सांसारिकता से विरक्त रहे ब्रह्मचारी जी ने तप को ही जीवन का लक्ष्य बना लिया था। वे संस्कृत साहित्य का गहरा अध्ययन करते रहे।

स्वतंत्रता संग्राम में योगदान

महात्मा गाँधी का आह्वान सुनकर पढ़ाई छोड़कर प्रभुदत्त ब्रह्मचारी स्वतंत्रता संग्राम में कूद पड़े। अंग्रेज़ों के विरुद्ध आन्दोलनों में सक्रिय भाग लिया, जिसके फलस्वरूप उन्हें कठोर कारावास का दण्ड भोगना पड़ा। भारत के स्वतंत्र होने पर राजनेताओं की विचारधारा से दु:खी होकर वे सदा के लिए राजनीति से अलग हो गए और झूसी में ‘हंसस्कूल’ नामक स्थान पर वट वृक्ष के नीचे तप करने लगे। ‘गायत्री महामंत्र’ का जप किया। वैराग्य भाव से हिमालय की ओर भी गए और फिर मथुरा आकर वृन्दावन में बस गए।

ब्रजभाषा के कवि

संत प्रभुदत्त ब्रह्मचारी ब्रजभाषा के सिद्धहस्त कवि थे। उन्होंने सम्पूर्ण भागवत को महाकाव्य के रूप में छन्दों में लिखा था। ‘भागवत चरित कोश’ ब्रजभाषा में लिखने का एकमात्र श्रेय इन्हीं को प्राप्त है।

‘गौहत्या निरोध समिति’ का गठन

भारत में गायों की हत्या होते देखकर प्रभुदत्त ब्रह्मचारी को बहुत दु:ख हुआ। उन्होंने ‘गौहत्या निरोध समिति’ बनाई और उसके अध्यक्ष बने। सन 1960-1961 में कश्मीर से कन्याकुमारी तक उन्होंने कई बार भ्रमण किया। अक्‍तूबर – नवम्बर १९६६ ई० में अखिल भारतीय स्तर पर गोरक्षा-आन्दोलन चला। भारत साधु-समाज, आर्यसमाज, सनातन धर्म, जैन धर्म आदि सभी भारतीय धार्मिक समुदायों ने इसमें बढ़-चढ़कर भाग लिया। ७ नवम्बर १९६६ को संसद पर हुये ऐतिहासिक प्रदर्शन में देशभर के लाखों लोगों ने भाग लिया। इस प्रदर्शन में गोली चली और अनेक व्यक्ति शहीद हुये। इस आन्दोलन में चारों शंकराचार्य तथा स्वामी करपात्री जी भी जुटे थे। जैन मुनि सुशीलकुमार जी तथा सार्वदेशिक सभा के प्रधान लाला रामगोपाल शालवाले और हिन्दू महासभा के प्रधान प्रो॰ रामसिंह जी भी बहुत सक्रिय थे। श्री प्रभुदत्त ब्रह्मचारी तथा पुरी के जगद्‍गुरु शंकराचार्य श्री स्वामी निरंजनदेव तीर्थ तथा महात्मा रामचन्द्र वीर के आमरण अनशन ने आन्दोलन में प्राण फूंक दिये थे
सन्‌ १९६७ में गो-हत्या के प्रश्न को लेकर प्रभुदत्त ब्रह्मचारी जी ने ८० दिन तक व्रत किया और सरकार के विशेष आग्रह पर अपना व्रत भंग किया। वे रा. स्व. संघ के द्वितीय सरसंघचालक श्री गुरुजी के भी निकट रहे।

हरिनाम संकीर्तन

उनका संकीर्तन में अटूट लगाव था। वृन्दावन में यमुना के तट पर वंशीवट के निकट संकीर्तन भवन की स्थापना की तो प्रयाग राज प्रतिष्ठानपुर झूसीमें अनेकानेक प्रकल्पों के साथ संकीर्तन भवन प्रतिष्ठित किया। वसंत विहार दिल्ली में संकीर्तन भवन में हनुमान जी की विशालकाय मूर्ति पधारने की योजना का संकल्प लिया, क्रियान्वित किया। झूसीप्रवास में वर्षो उपवास के साथ गंगा मैया के जल में प्रविष्ट हो समाधिस्थ स्थिति में गायत्री महामंत्र का पारायण किया था। वृंदावन में वस्त्र के स्थान पर टाट का प्रयोग कर यमुना पार सहस्त्रों गायों को साथ लेकर गोचारण किया। पूज्य ब्रह्मचारी जी सिद्धांतों को आचरण में लाकर प्रस्तुत करने वाले प्रेरक व्यक्तित्व के धनी थे

साहित्य रचना

प्रभुदत्त ब्रह्मचारी भारतीय संस्कृति के स्तम्भ रहे थे। उन्होंने निम्न साहित्यिक रचनाएँ की थीं-
‘भारतीय संस्कृति व शुद्धि’
‘श्री श्री चैतन्य चरितावली’
‘महाभारत के प्राण महात्मा कर्ण’
‘गोपालन’
‘शिक्षा’
‘बद्रीनाथ दर्शन’
‘मुक्तिनाथ दर्शन’
‘महावीर हनुमान’

निधन

संत प्रभुदत्त ब्रह्मचारी ने संवत 2047 (1990 ई.) के चैत्र माह में कृष्ण पक्ष की प्रतिपदा तिथि को भौतिक देह का त्याग  वृन्दावन धाम में किया।

गौभक्त महात्मा रामचन्द्र वीर जी

महात्मा रामचन्द्र वीर (जन्म १९०९ – मृत्यु २००९) वीर जी ऐसे परम तेजस्वी संत थे जिनकी दहाड़ से, ओजस्वी वाणी से, पैनी लेखनी की धार के प्रहार से राष्ट्रद्रोही, धर्मद्रोही कांप उठते थे। वे ऐसे प्राणिवत्सल संत थे जिनका ह्रदय धर्म व मजहब के नाम पर निरीह पशु-पक्षियों की हत्या देखकर द्रवित हो उठता था। उन्होंने जगह-जगह पहुंचकर कुछ मंदिरों में अंधविश्वास व गलत रूढ़ियों के कारण की जाने वाली पशु बलि के विरुद्ध न केवल प्रवचनों के माध्यम से जनजागरण किया, अपितु अनशन व प्रचार करके लगभग ग्यारह सौ देवालयों में पशु बलि की राक्षसी व धर्मविरोधी कुप्रथा को बन्द करवाने में सफलता प्राप्त की। इस महान गोभक्त विभूति के अनशनों के कारण देश के कई राज्यों में गोहत्याबन्दी कानून बनाये गये।
गोभक्ति की प्रेरणा
वीर जी को गोभक्ति अपने पिता से विरासत में मिली थी। वीर जी ने जब देखा देश के विभिन राज्यों में कसाईखाने बनाकर गोवंश को नष्ट किया जा रहा है तो इन्होंने गोहत्या पर पूर्ण प्रतिबन्ध लगने तक आजीवन अन्न और नमक न ग्रहण करने कीजो कठिन प्रतिज्ञा की जिसे इन्होंने अंतिम साँस तक निभाया.
काठियावाड़ के नवाबी राज्य मांगरोल के शासक मुहम्मद जहाँगीर ने राज्य में गोवंश हत्या को प्रोत्साहन दिया था। वीर जी को स्थानीय गोभक्तो से जब यह पता चला तो वे सन १९३५ में मांगरोल जा पहुंचे और गोहत्या पर प्रतिबन्ध की मांग को लेकरअनशन शुरू कर दिया, परिणामस्वरुप शासन को झुकना पड़ा और गोहत्या पर प्रतिबन्ध लगा दिया गया।
गोरक्षा अभियान में विश्वविख्यात अनशन
गोरक्षा आन्दोलन के दौरान गोहत्या तथा गोभक्तों के नरसंहार के विरुद्ध पुरी के शंकराचार्य स्वामी निरंजनदेव तीर्थ, संत प्रभुदत्त ब्रह्मचारी व वीर जी ने अनशन किये. तब वीर जी ने भी पूरे १६६ दिन का अनशन करके संसार भर में गोरक्षा की मांगपहुँचाने में सफलता प्राप्त की थी।
सतत संघर्ष
वीर जी महाराज ने देश की स्वाधीनता, मूक प्राणियों व गोमाता की रक्षा व हिन्दू हितों के लिए २८ बार जेल यातनाएं सहन कीं |
वीर जी स्वामी श्रद्धानन्द, पंडित मदनमोहन मालवीय, वीर सावरकर, भाई परमानन्द जी, केशव बलिराम हेडगवार जी के प्रति श्रद्धा भाव रखते थे। संघ के द्वितीय सरसंघचालक माधव सदाशिव गोलवालकर उपाख्य श्री गुरुजी,भाई हनुमान प्रसाद पोद्दार, लाला हरदेव सहाय, संत प्रभुदत्त ब्रह्मचारी, स्वामी करपात्री जैसे लोग वीर जी के त्यागमय, तपस्यामय, गाय और हिन्दुओं की रक्षा के लिए किये गए संघर्ष के कारण उनके प्रति आदर भाव रखते थे।
महाप्रयाण
वीर जी गोरक्षा के लिए संघर्ष करते हुए २४ अप्रैल २००९ ई० को शतायु पूर्ण करते हुए विराटनगर (राजस्थान) में स्वर्ग सिधार गए|

गौसेवा संकल्प

– आइए मिलकर हम गोसेवा संकल्प लें –

गोसेवा संकल्प

मैं …(आप अपना नाम लें)… गोरक्षार्थ – गोहितार्थ आज से निम्नलिखित गोसेवा संकल्प लेता हूँ।
  1. नित्य नियम मे इष्ट उपासना के अंतर्गत गोरक्षार्थ नियमित प्रार्थना करूंगा।
  2. निराश्रित एवं असहाय गोवंश के सम्पोषणार्थ नियमित गोग्रास प्रदान करूंगा।
  3. दैनिक उपासना, आहार एवं औषधियों मे यथाप्राप्त गोउत्पादों का ही प्रयोग करूंगा।
  4. गोवंश का अहित हो ऐसी वस्तुओं और व्यक्तियों से व्यवहार नहीं करूंगा।
  5. जो जन प्रतिनिधि एवं राजनीतिक दल गौवंश को संरक्षणता प्रदान करने के लिए प्रतिबद्ध हो उन्हीं को अपना विस्वास मत दूँगा।
उपरोक्त पांचों संकल्प श्री कृष्ण भगवान और उनकी प्रिय गौमाता की प्रसन्नता हेतु लेने पर हमारे मनों मे दृढ़ता आएगी। भगवान कृष्ण हमें हमारा गोसेवा संकल्प पूरा करने की शक्ति दें ऐसी नियमित प्रार्थना करनी चाहिए।
आपके द्वारा लिया गया गोसेवा संकल्प ही हमारे उद्देश्यों के प्रति आपकी बहुत बड़ी सहायता है।
आपका बहुत धन्यवाद।

गौ करुणानिधि :भाग 5

हिंसक और रक्षक का परस्पर संवाद

मद्य भी मांस खाने का ही कारण है, इसी से यहां संक्षेप से थोड़ा-सा लिखते हैं –
प्रमत्त – कहो जी ! मांस छूटा, सो छूटा, परन्तु मद्य में तो कोई भी दोष नहीं है ?
शान्त – मद्य पीने में भी वैसे ही दोष हैं जैसे कि मांस खाने में । मनुष्य मद्य पीने से नशे के कारण नष्‍टबुद्धि होकर अकर्त्तव्य कर लेता और कर्त्तव्य को छोड़ देता है, न्याय का अन्याय और अन्याय का न्याय आदि विपरीत कर्म करता है । और मद्य की उत्पत्ति विकृत पदार्थों से होती है, और वह मांसाहारी अवश्य हो जाता है, इसलिये इसके पीने से आत्मा में विकार उत्पन्न होते हैं । और जो मद्य पीता है, वह विद्यादि गुणों से रहित होकर उन दोषों में फंस कर अपने धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष फलों को छोड़ पशुवत् आहार, निद्रा, भय, मैथुन आदि कर्मों में प्रवृत्त होकर अपने मनुष्य-जन्म को व्यर्थ कर देता है । इसलिये नशा अर्थात् मदकारक द्रव्यों का सेवन कभी न करना चाहिये ।
जैसा मद्य है, वैसे भांग आदि पदार्थ भी मादक हैं, इसलिये इनका सेवन कभी न करे, क्योंकि ये भी बुद्धि का नाश करके प्रमाद, आलस्य और हिंसा आदि में मनुष्य को लगा देते हैं । इसलिये मद्यपान के समान इनका भी सर्वथा निषेध ही है ।
इसलिये हे धार्मिक सज्जन लोगो ! आप इन पशुओं की रक्षा तन, मन, धन से क्यों नहीं करते ? हाय !! बड़े शोक की बात है कि जब हिंसक लोग गाय, बकरे आदि पशु और मोर आदि पक्षियों को मारने के लिये ले जाते हैं, तब वे अनाथ तुम हमको देख के राजा और प्रजा पर बड़े शोक प्रकाशित करते हैं – कि देखो ! हमको विना अपराध बुरे हाल से मारते हैं, और हम रक्षा करने तथा मारने वालों को भी दूध आदि अमृत पदार्थ देने के लिये उपस्थित रहना चाहते हैं, और मारे जाना नहीं चाहते । देखो, हम लोगों का सर्वस्व परोपकार के लिये है, और हम इसीलिये पुकारते हैं कि हमको आप लोग बचावें, हम तुम्हारी भाषा में अपना दुःख नहीं समझा सकते, और आप लोग हमारी भाषा नहीं जानते, नहीं तो क्या हममें से किसी को कोई मारता, तो हम भी आप लोगों के सदृश अपने मारने वालों को न्यायव्यवस्था से फांसी पर न चढ़वा देते ? हम इस समय अतीव कष्‍ट में हैं, क्योंकि कोई भी हमको बचाने में उद्यत नहीं होता । और जो कोई होता है तो उससे मांसाहारी द्वेष करते हैं । अस्तु, वे तो स्वार्थ के लिये द्वेष करो तो करो, क्योंकि ‘स्वार्थी दोषं न पश्यति’ जो स्वार्थ साधने में तत्पर हैं, वे अपने दोषों पर ध्यान नहीं देते, किन्तु दूसरों को हानि हो तो हो मुझको सुख होना चाहिये, परन्तु जो उपकारी हैं वे इनके बचाने में अत्यन्त पुरुषार्थ करें, जैसा कि आर्य लोग सृष्‍टि के आरम्भ से आज तक वेदोक्त रीति से प्रशंसनीय कर्म करते आये हैं, वैसे ही सब भूगोलस्थ सज्जन मनुष्यों को करना उचित है ।
धन्य है आर्यावर्त्त देशवासी आर्य लोगों को कि जिन्होंने ईश्‍वर के सृष्‍टिक्रम के अनुसार परोपकार ही में अपना तन, मन, धन लगाया और लगाते हैं, इसीलिये आर्यावर्त्तीय राजा, महाराजा, प्रधान और धनाढ़्य लोग आधी पृथ्वी में जंगल रखते थे कि जिससे पशु और पक्षियों की रक्षा होकर औषधियों का सार दूध आदि पवित्र पदार्थ उत्पन्न हों, जिनके खाने पीने से आरोग्य, बुद्धि-बल, पराक्रम आदि सदगुण बढ़ें । और वृक्षों के अधिक होने से वर्षा-जल और वायु में आर्द्रता और शुद्धि अधिक होती है। पशु और पक्षी आदि के अधिक होने से खात भी अधिक होता है । परन्तु इस समय के मनुष्यों का इससे विपरीत व्यवहार है कि जंगलों को काट और कटवा डालना, पशुओं को मार और मरवा खाना और विष्‍टा आदि का खात खेतों में डाल अथवा डलवा कर रोगों की वृद्धि करके संसार का अहित करना, स्वप्रयोजन साधना और परप्रयोजय पर ध्यान न देना; इत्यादि काम उल्टे हैं ।
विषादप्यमृतं ग्राह्यम् सत्पुरुषों का यही सिद्धान्त है कि विष से भी अमृत लेना । इसी प्रकार गाय आदि का मांस विषवत् महारोगकारी छोड़कर और उनसे उत्पन्न हुए दूध आदि अमृत रोगनाशक हैं उनको लेना । अतःएव इनकी रक्षा करके विषत्यागी और अमृतभोजी सब को होना चाहिये । सुनो बन्धुवर्गो ! तुम्हारा तन, मन, धन गाय आदि की रक्षारूप परोपकार में न लगे तो किस काम का है ? देखो, परमात्मा का स्वभाव कि जिसने सब विश्‍व और सब पदार्थ परोपकार ही के लिये रच रक्खे हैं, वैसे तुम भी अपना तन, मन, धन परोपकार ही के लिये अर्पण करो ।
बड़े आश्‍चर्य की बात है कि पशुओं को पीड़ा न होने के लिये न्यायपुस्तक में व्यवस्था भी लिखी है कि जो पशु दुर्बल और रोगी हों उनको कष्‍ट न दिया जावे और जितनी बोझ सुखपूर्वक उठा सकें वितना ही उन पर धरा जावे । श्रीमती राजराजेश्‍वरी श्रीविक्टोरिया महाराणी का विज्ञापन भी प्रसिद्ध है कि इन अव्यक्तवाणी पशुओं को जो जो दुःख दिया जाता है वह वह न दिया जावे । जो यही बात है कि पशुओं को दुःख न दिया जावे, तो क्या भला मार डालने से भी अधिक कोई दुःख होता है ? क्या फांसी से अधिक दुःख बन्दीगृह में होता है ? जिस किसी अपराधी से पूछा जाय कि तू फांसी चढ़ने में प्रसन्न है वा बंधीघर पर रहने में ? तो वह स्पष्‍ट कहेगा कि फांसी में नहीं, किन्तु बन्धीघर के रहने में ।
और जो कोई मनुष्य भोजन करने को उपस्थित हो उसके आगे से भोजन के पदार्थ उठा लिये जावें और उसको वहां से दूर किया जावे, तो क्या वह सुख मानेगा ? ऐसे ही आजकल के समय में कोई गाय आदि पशु सरकारी जंगल में जाकर घास और पत्ता जो कि उन्हीं के भोजनार्थ हैं, विना महसूल दिये खावें व खाने को जावें, तो बेचारे उन्हीं पशुओं और उनके स्वामियों की दुर्दशा होती है । जंगल में आग लग जावे तो कुछ चिन्ता नहीं, किन्तु वे पशु न खाने पावें । हम कहते हैं कि किसी अति क्षुधातुर राजा वा राजपुरुष के सामने आये चावल आदि वा डबलरोटी आदि छीन कर न खाने देवें और उनकी दुर्दशा की जावे तो जैसा दुःख इनको विदित होगा क्या वैसा ही उन पशु, पक्षियों और उनके स्वामियों को न होता होगा ?
ध्यान देकर सुनिये कि जैसा दुःख सुख अपने को होता है, वैसा ही औरों को भी समझा कीजिये । और यह भी ध्यान में रखिये कि वे पशु आदि और उनके स्वामी तथा खेती आदि कर्म करनेवाले प्रजा के पशु आदि और मनुष्यों और मनुष्यों के अधिक पुरुषार्थ ही से राजा का ऐश्‍वर्य अधिक बढ़ता और न्यून से नष्‍ट हो जाता है, इसीलिये राजा प्रजा से कर लेता है कि उनकी रक्षा यथावत् करे, न कि राजा और प्रजा के जो सुख के कारण गाय आदि पशु हैं उनका नाश किया जावे । इसलिये आज तक जो हुआ सो हुआ, आगे आँखें खोल कर सबके हानिकारक कर्मों को न कीजिये और न करने दीजिये । हां, हम लोगों का यही काम है कि आप लोगों को भलाई और बुराई के काम जता देवें, और आप लोगों का यही काम है कि पक्षपात छोड़ सबकी रक्षा और बढ़ती करने में तत्पर रहें । सर्वशक्तिमान् जगदीश्‍वर हम और आप पर पूर्ण कृपा करे कि जिससे हम और आप लोग विश्‍व के हानिकारक कर्मों को छोड़ सर्वोपकारक कामों को करके सब लोग आनन्द में रहें । इन सब बातों को सुन मत डालना किन्तु सुन रखना, इन अनाथ पशुओं के प्राणों को शीघ्र बचाओ ।
हे महाराजाधिराज जगदीश्‍वर ! जो इनको कोई न बचावे तो आप इनकी रक्षा करने और हम से कराने में शीघ्र उद्यत हूजिये ॥
॥इति समीक्षा-प्रकरणम् ॥

गौ करुणानिधि :भाग 4

हिंसक और रक्षक का परस्पर संवाद

हिंसक – ईश्‍वर ने सब पशु आदि सृष्‍टि मनुष्य के लिये रची है, और मनुष्य अपनी भक्ति के लिये । इसलिये मांस खाने में दोष नहीं हो सकता ।
रक्षक – भाई ! सुनो, तुम्हारे शरीर को जिस ईश्‍वर ने बनाया है, क्या उसी ने पशु आदि के शरीर नहीं बनाये हैं ? जो तुम कहो कि पशु आदि हमारे खाने को बनाये हैं, तो हम कह सकते हैं कि हिंसक पशुओं के लिये तुमको उसने रचा है, क्योंकि जैसे तुम्हारा चित्त उनके मांस पर चलता है, वैसे ही सिंह, गृध्र आदि का चित्त भी तुम्हारे मांस खाने पर चलता है, तो उन के लिये तुम क्यों नहीं ?
हिंसक – देखो, ईश्‍वर ने मनुष्यों के दांत पैने मांसाहारी पशुओं के समान बनाये हैं । इससे हम जानते हैं कि मनुष्यों को मांस खाना उचित है ।
रक्षक – जिन व्याघ्रादि पशुओं के दांत के दृष्‍टान्त से अपना पक्ष सिद्ध किया चाहते हो, क्या तुम भी उनके तुल्य ही हो ? देखो, तुम्हारी मनुष्य जाति उनकी पशु जाति, तुम्हारे दो पग और उनके चार, तुम विद्या पढ़ कर सत्यासत्य का विवेक कर सकते हो, वे नहीं । और यह तुम्हारा दृष्‍टान्त भी युक्त नहीं, क्योंकि जो दांत का दृष्‍टान्त लेते हो तो बंदर के दांतों का दृष्‍टान्त क्यों नहीं लेते ? देखो ! बन्दरों के दांत सिंह और बिल्ली आदि के समान हैं और वे मांस कभी नहीं खाते । मनुष्य और बन्दर की आकृति भी बहुत सी मिलती है, जैसे मनुष्यों के हाथ पग और नख आदि होते हैं, वैसे ही बन्दरों के भी हैं । इसलिये परमेश्‍वर ने मनुष्यों को दृष्‍टान्त से उपदेश दिया है कि जैसे बन्दर मांस कभी नहीं खाते और फलादि खाकर निर्वाह करते हैं, वैसे तुम भी किया करो । जैसा बन्दरों का दृष्‍टान्त सांगोपांग मनुष्यों के साथ घटता है, वैसा अन्य किसी का नहीं । इसलिये मनुष्यों को अति उचित है कि मांस खाना सर्वथा छोड़ देवें ।
हिंसक  देखो ! जो मांसाहारी पशु और मनुष्‍य हैं वे बलवान् और जो मांस नहीं खाते, वे निर्बल होते हैं, इससे मांस खाना चाहिये ।
रक्षक – क्यों अल्प समझ की बातें मानकर कुछ भी विचार नहीं करते । देखो, सिंह मांस खाता और सुअर वा अरणा भैंसा मांस कभी नहीं खाता, परन्तु जो सिंह बहुत मनुष्यों के समुदाय में गिरे तो एक वा दो को मारता और एक दो गोली वा तलवार के प्रहार से मर भी जाता है, और जब वराही सुअर वा अरणा भैंसा जिस प्राणिसमुदाय में गिरता है, तब उन अनेक सवारों और मनुष्यों को मारता और अनेक गोली बरछी तथा तलवार आदि के प्रहारों से भी शीघ्र नहीं गिरता, और सिंह उनसे डरके अलग सटक जाता है, और वह सिंह से नहीं डरता ।
और जो प्रत्यक्ष दृष्‍टान्त देखना चाहो तो एक मांसाहारी का, एक दूध घी और अन्नाहारी मथुरा के मल्ल चौबे से बाहुयुद्ध हो तो अनुमान है कि मांसाहारी को पटक उसकी छाती पर चौबा चढ़ ही बैठेगा । पुनः परीक्षा होगी कि किस किस के खाने से बल न्यून और अधिक होता है । भला, तनिक विचार तो करो कि छिलकों के खाने से अधिक बल होता है अथवा रस और जो सार है उसके खाने से ? मांस छिलके के समान और दूध घी सार रस के तुल्य है, इसको जो युक्तिपूर्वक खावे तो मांस से अधिक गुण और बलकारी होता है, फिर मांस का खाना व्यर्थ और हानिकारक, अन्याय अधर्म और दुष्‍ट कर्म क्यों नहीं ?
हिंसक  जिस देश में सिवाय मांस के अन्य कुछ भी नहीं मिलता, वहां वा आपत्काल में अथवा रोगनिवृत्ति के लिये मांस खाने में दोष नहीं होता ।
रक्षक – यह आपका कहना व्यर्थ है, क्योंकि जहां मनुष्य रहते हैं वहां पृथिवी अवश्य होती है । जहां पृथ्वी है वहां खेती वा फल फूल आदि होते ही हैं, और जहां कुछ भी नहीं होता, वहां मनुष्य भी नहीं रह सकते । और जहां ऊसर भूमि है, वहां मिष्‍ट जल और फूल फलाहारादि के न होने से मनुष्यों का रहना भी दुर्घट है । और आपत्काल में भी अन्य उपायों से निर्वाह कर सकते हैं, जैसे मांस के न खाने वाले करते हैं । और विना मांस के रोगों का निवारण भी औषधियों से यथावत् होता है, इसलिये मांस खाना अच्छा नहीं ।
हिंसक  जो कोई भी मांस न खावे तो पशु इतने बढ़ जायं कि पृथ्वी पर भी न समावें, और इसीलिये ईश्‍वर ने उनकी उत्पत्ति भी अधिक की है, तो मांस क्यों न खाना चाहिये ?
रक्षक – वाह ! वाह ! वाह ! यह बुद्धि का विपर्यास आपको मांसाहार से ही हुआ होगा । देखो, मनुष्य का मांस कोई भी नहीं खाता, पुनः क्यों न बढ़ गये । और इनकी अधिक उत्पत्ति इसलिये है कि एक मनुष्य के पालन व्यवहार में अनेक पशुओं की अपेक्षा है । इसलिये ईश्‍वर ने उनको अधिक उत्पन्न किया है ।
हिंसक  ये जितने उत्तर किये, वे सब व्यवहार सम्बन्धी हैं, परन्तु पशुओं को मार के मांस खाने में अधर्म तो नहीं होता, और जो होता है तो तुम को होता होगा, क्योंकि तुम्हारे मत में निषेध है । इसलिये तुम मत खाओ और हम खावें, क्योंकि हमारे मत में मांस खाना अधर्म नहीं है ।
रक्षक  हम तुम से पूछते हैं कि धर्म और अधर्म व्यवहार ही में होते हैं वा अन्यत्र ? तुम कभी सिद्ध न कर सकोगे कि व्यवहार से भिन्न धर्माधर्म होते हैं । जिस जिस व्यवहार से दूसरों की हानि हो वह वह ‘अधर्म’ और जिस जिस व्यवहार से उपकार हो, वह वह ‘धर्म’ कहाता है । तो लाखों के सुख लाभकारक पशुओं का नाश करना अधर्म और उनकी रक्षा से लाखों को सुख पहुँचाना धर्म क्यों नहीं मानते ? देखो, चोरी जारी आदि कर्म इसीलिये अधर्म हैं कि इनसे दूसरे की हानि होती है । नहीं तो जो जो कर्म जगत् में हानिकारक हैं वे वे ‘अधर्म’ और जो जो परोपकारक हैं वे वे ‘धर्म’ कहाते हैं ।
जब एक आदमी की हानि करने से चोरी आदि कर्म पाप में गिनते हो, तो गवादि पशुओं को मार के बहुतों की हानि करना महापाप क्यों नहीं ? देखो ! मांसाहारी मनुष्यों में दया आदि उत्तम गुण होते ही नहीं, किन्तु स्वार्थवश होकर दूसरे की हानि करके अपना प्रयोजन सिद्ध करने ही में सदा रहते हैं । जब मांसाहारी किसी पुष्‍ट पशु को देखता है तभी उसको इच्छा होती है कि इसमें मांस अधिक है, मारकर खाऊं तो अच्छा हो । और जब मांस का न खानेवाला उसको देखता है तो प्रसन्न होता है कि यह पशु आनन्द में है । जैसे सिंह आदि मांसाहारी पशु किसी का उपकार तो नहीं करते, किन्तु अपने स्वार्थ के लिये दूसरे का प्राण भी ले मांस खाकर अति प्रसन्न होते हैं, वैसे ही मांसाहारी मनुष्य भी होते हैं । इसलिये मांस का खाना किसी मनुष्य को उचित नहीं ।
हिंसक  अच्छा जो यही बात है तो जब तक पशु काम में आवें तब तक उनका मांस न खाना चाहिये, जब बूढ़े हो जावें वा मर जावें तब खाने में कुछ भी दोष नहीं ।
रक्षक  जैसे दोष उपकार करनेवाले माता पिता आदि के वृद्धावस्था में मारने और उनके मांस खाने में है, वैसे उन पशुओं की सेवा न कर मार के मांस खाने में है । और जो मरे पश्‍चात् उनका मांस खावे तो उसका स्वभाव मांसाहारी होने से अवश्य हिंसक होके हिंसारूपी पाप से कभी न बच सकेगा। इस वास्ते किसी अवस्था में मांस न खाना चाहिये ।
हिंसक  जिन पशुओं और पक्षियों अर्थात् जंगल में रहने वालों से उपकार किसी का नहीं होता और हानि होती है, उनका मांस खाना चाहिये वा नहीं ?
रक्षक  न खाना चाहिये, क्योंकि वे भी उपकार में आ सकते हैं । देखो, सौ भंगी जितनी शुद्धि करते हैं, उनसे अधिक पवित्रता एक सुअर वा मुर्गा अथवा मोर आदि पक्षी सर्प आदि की निवृत्ति करने आदि अनेक उत्तम उपकार करते हैं । और जैसे मनुष्यों का खान पान दूसरे के खाने पीने से उनका जितना अनुपकार होता है, वैसे जंगली मांसाहारी का अन्न जंगली पशु और पक्षी हैं और जो विद्या वा विचार से सिंह आदि वनस्थ पशु और पक्षियों से उपकार लेवें तो अनेक प्रकार का लाभ उनसे भी हो सकता है । इस कारण माँसाहार का सर्वथा निषेध होना चाहिये ।
भला, जिनके दूध आदि खाने पीने में आते हैं, वे माता पिता के समान माननीय क्यों न होने चाहियें ? ईश्‍वर की सृष्‍टि से भी विदित होता है कि मनुष्यों से पशु और पक्षी आदि अधिक रहने से कल्याण है । क्योंकि ईश्‍वर ने मनुष्यों के खाने पीने के पदार्थों से भी पशु और पक्षियों के खाने पीने के पदार्थ घास, वृक्ष, फूल, फलादि अधिक रचे हैं, और वे विना जोते, बोए, सींचे के पृथ्वी पर स्वयं उत्पन्न होते हैं । और वहां वृष्‍टि भी करता है, इसलिये समझ लीजिये कि ईश्‍वर का अभिप्राय उनके मारने में नहीं किन्तु रक्षा ही करने में है ।
हिंसक  जो मनुष्य पशु को मार के मांस खावें उन को पाप होता है, और जो बिकता मांस मूल्य से ले वा भैरव, चामुण्डा, दुर्गा, जखैया अथवा वाममार्ग और यज्ञ आदि की रीति से चढ़ा समर्पण कर खावें तो उनको पाप नहीं होना चाहिये, क्योंकि वे विधि करके खाते हैं ।
रक्षक  जो कोई मांस न खावे, न उपदेश और न अनुमति आदि देवे, तो पशु आदि कभी न मारे जावें । क्योंकि इस व्यवहार में बहकावट लाभ और बिक्री न हो, तो प्राणियों को मारना बन्द ही हो जावे । इस में प्रमाण भी है –
अनुमन्ता विशसिता निहन्ता क्रयविक्रयी ।
संस्कर्त्ता चोपहर्ता च खादकश्‍चेत्ति घातकाः ॥
– मनु० अ. ५ । श्‍लो० ५१ ॥
अर्थ – अनुमति = मारने की आज्ञा देने, मांस के काटने, पशु आदि के मारने, उनको मारने के लिये लेने और बेचने, मांस के पकाने, परसने और खानेवाले आठ मनुष्य घातक हिंसक अर्थात् ये सब पापकारी हैं ।
और भैरव आदि के निमित्त से भी मांस खाना मारना व मरवाना महापापकर्म है । इसलिये दयालु परमेश्‍वर ने वेदों में मांस खाने वा पशु आदि के मारने की विधि नहीं लिखी ।

गौ करुणानिधि भाग: 3

जैसे ऊंट-ऊंटनी से लाभ होते हैं, वैसे ही घोड़े-घोड़ी और हाथी आदि से अधिक कार्य सिद्ध होते हैं । इसी प्रकार सुअर, कुत्ता, मुर्गा, मुर्गी और मोर आदि पक्षियों से भी अनेक उपकार होते हैं । जो मनुष्य हिरण और सिंह आदि पशु और मोर आदि पक्षियों से भी उपकार लेना चाहें तो ले सकते हैं, परन्तु सब की रक्षा उत्तरोत्तर समयानुकूल होवेगी । वर्तमान में परमोपकारक गौ की रक्षा में मुख्य तात्पर्य है। दो ही प्रकार से मनुष्य आदि का प्राणरक्षण, जीवन, सुख, विद्या, बल और पुरुषार्थ आदि की वृद्धि होती है – एक अन्नपान, दूसरा आच्छादन । इनमें से प्रथम के विना मनुष्यादि का सर्वथा प्रलय और दूसरे के विना अनेक प्रकार की पीड़ा प्राप्‍त होती है ।
देखिये, जो पशु निःसार घास तृण पत्ते फल फूल आदि खावें और सार दूध आदि अमृतरूपी रत्‍न देवें, हल गाड़ी आदि में चल के अनेक विध अन्न आदि उत्पन्न कर सबके बुद्धि बल पराक्रम को बढ़ा के नीरोगता करें, पुत्र, पुत्री और मित्र आदि के समान मनुष्यों के साथ विश्‍वास और प्रेम करें, जहाँ बांधें वहाँ बंधे रहें, जिधर चलावें विधर चलें, जहां से हटावें वहां से हट जावें, देखने और बुलाने पर समीप चले आवें, जब कभी व्याघ्रादि पशु वा मारने वाले को देखें अपनी रक्षा के लिये पालन करने वाले के समीप दौड़ कर आवें कि यह हमारी रक्षा करेगा । जिनके मरे पर चमड़ा भी कंटक आदि से रक्षा करे, जंगल में चर के अपने बच्चे और स्वामी के लिये दूध देने को नियत स्थान पर नियत समय चले आवें, अपने स्वामी की रक्षा के लिये तन मन लगावें, जिनका सर्वस्व राजा और प्रजा आदि मनुष्यों के सुख के लिये है, इत्यादि शुभगुणयुक्त, सुखकारक पशुओं के गले छुरों से काट कर जो मनुष्य अपना पेट भर, सब संसार की हानि करते हैं, क्या संसार में उनसे भी अधिक कोई विश्‍वासघाती, अनुपकारक, दुःख देने वाले और पापी मनुष्य होंगे ?
इसीलिये यजुर्वेद के प्रथम ही मंत्र में परमात्मा की आज्ञा है कि – अघन्याः यजमानस्य पशून् पाहि – हे मनुष्य ! तू इन पशुओं को कभी मत मार, और यजमान अर्थात् सब के सुख देने वाले मनुष्यों के सम्बन्धी पशुओं की रक्षा कर, जिनसे तेरी भी पूरी रक्षा होवे । और इसीलिये ब्रह्मा से लेके आज पर्यन्त आर्य लोग पशुओं की हिंसा में पाप और अधर्म समझते थे, और अब भी समझते हैं । और इनकी रक्षा से अन्न भी महंगा नहीं होता, क्योंकि दूध आदि के अधिक होने से दरिद्र को भी खान पान में मिलने पर न्यून ही अन्न खाया जाता है, और अन्न के कम खाने से मल भी कम होता है । मल के न्यून होने से दुर्गन्ध भी न्यून होता है, दुर्गन्ध के स्वल्प होने से वायु और वृष्‍टिजल की अशुद्धि भी न्यून होती है । उससे रोगों की न्यूनता होने से सबको सुख बढ़ता है ।
इनसे यह ठीक है कि गो आदि पशुओं के नाश होने से राजा और प्रजा का भी नाश हो जाता है, क्योंकि जब पशु न्यून होते हैं तब दूध आदि पदार्थ और खेती आदि कर्मों की भी घटती होती है। देखो, इसी से जितने मूल्य से जितना दूध और घी आदि पदार्थ तथा बैल आदि पशु सात सौ वर्ष के पूर्व मिलते थे, वितना दूध घी और बैल आदि पशु इस समय दशगुणे मूल्य से भी नहीं मिल सकते । क्योंकि सात सौ वर्ष के पीछे इस देश में गवादि पशुओं को मारने वाले मांसाहारी विदेशी मनुष्य बहुत आ बसे हैं । वे उन सर्वोपकारी पशुओं के हाड मांस तक भी नहीं छोड़ते, तो नष्‍टे मूले नैव फलं न पुष्पम् जब कारण का नाश कर दे तो कार्य नष्‍ट क्यों न हो जावे ? हे मांसाहारियो ! तुम लोग जब कुछ काल के पश्‍चात् पशु न मिलेंगे, तब मनुष्यों का मांस भी छोड़ोगे या नहीं ? हे परमेश्‍वर ! तू क्यों इन पशुओं पर, जो कि विना अपराध मारे जाते हैं, दया नहीं करता ? क्या उन पर तेरी प्रीति नहीं है ? क्या उनके लिये तेरी न्यायसभा बंद हो गई है ? क्यों उनकी पीड़ा छुड़ाने पर ध्यान नहीं देता, और उनकी पुकार नहीं सुनता । क्यों इन मांसाहारियों के आत्माओं में दया प्रकाश कर निष्‍टुरता, कठोरता, स्वार्थपन और मूर्खता आदि दोषों को दूर नहीं करता ? जिससे ये इन बुरे कामों से बचें ।

गौ करुणानिधि: भाग 2

अथ समीक्षा-प्रकरणम् – गोकृष्यादिरक्षिणीसभा

इस सभा का नाम गोकृष्यादिरक्षिणीसभा इसलिये रक्खा है जिससे गवादि पशु और कृष्यादि कर्म्मों की रक्षा और वृद्धि होकर सब प्रकार के उत्तम सुख मनुष्यादि प्राणियों को प्राप्‍त होते हैं, और इस के विना निम्नलिखित सुख कभी प्राप्‍त नहीं हो सकते ।
सर्वशक्तिमान् जगदीश्‍वर ने इस सृष्‍टि में जो जो पदार्थ बनाये हैं, वे निष्प्रयोजन नहीं, किन्तु एक एक वस्तु अनेक अनेक प्रयोजन के लिये रचा है । इसलिये उन से वे ही प्रयोजन लेना न्याय है अन्यथा अन्याय । देखिये जिसलिये यह नेत्र बनाया है, इससे वही कार्य लेना सब को उचित होता है, न कि उसको पूर्ण प्रयोजन न लेकर बीच ही में नष्‍ट कर दिया जावे । क्या जिन जिन प्रयोजनों के लिये परमात्मा ने जो जो पदार्थ बनाये हैं, उन उन से वे वे प्रयोजन न लेकर उनको प्रथम ही विनष्‍ट कर देना सत्पुरुषों के विचार में बुरा कर्म नहीं है ? पक्षपात छोड़कर देखिये, गाय आदि पशु और कृषि आदि कर्मों से सब संसार को असंख्य सुख होते हैं वा नहीं ? जैसे दो और दो चार, वैसे ही सत्यविद्या से जो जो विषय जाने जाते हैं वे अन्यथा कभी नहीं हो सकते ।
जो एक गाय न्यून से न्यून दो सेर दूध देती हो, और दूसरी बीस सेर, तो प्रत्येक गाय के ग्यारह सेर दूध होने में कुछ भी शंका नहीं । इस हिसाब से एक मास में ८।ऽ सवा आठ मन दूध होता है । एक गाय कम से कम ६ महीने, और दूसरी अधिक से अधिक १८ महीने तक दूध देती है, तो दोनों का मध्यभाग प्रत्येक गाय के दूध देने में बारह महीने होते हैं । इस हिसाब से बारहों महीनों का दूध ९९।ऽ निन्नानवे मन होता है । इतने दूध को औटा कर प्रति सेर में एक छटांक चावल और डेढ़ छटांक चीनी डाल कर खीर बना खावें, तो प्रत्येक पुरुष के लिये दो सेर दूध की खीर पुष्कल होती है । क्यूंकि यह भी एक मध्यभाग की गिनती है, अर्थात् कोई दो सेर दूध की खीर से अधिक खायेगा और कोई न्यून । इस हिसाब से एक प्रसूता गाय के दूध से १९८० एक हजार नौ सौ अस्सी मनुष्य एक वार तृप्‍त होते हैं । गाय न्यून से न्यून आठ और अधिक से अधिक अट्ठारह वार ब्याती है, इसका मध्यभाग तेरह वार आया, तो २५७४० पच्चीस हजार सात सौ चालीस मनुष्य एक गाय के जन्म भर के दूधमात्र से एक वार तृप्‍त हो सकते हैं ।
इस गाय की एक पीढ़ी में छः बछिया और सात बछड़े हुये । इनमें से एक का मृत्यु रोगादि से होना सम्भव है, तो भी बारह रहे । उन छः बछियाओं के दूधमात्र से उक्त प्रकार १५४४४० एक लाख चौवन हजार चार सौ चालीस मनुष्यों का पालन हो सकता है । अब रहे छः बैल, सो दोनों साख में एक जोड़े से २००।ऽ दो सौ मन अन्न उत्पन्न हो सकता है । इस प्रकार तीन जोड़ी ६००।ऽ छः सौ मन अन्न उत्पन्न कर सकती हैं, और उनके कार्य का मध्यभाग आठ वर्ष है । इस हिसाब से ४८००।ऽ चार हजार आठ सौ मन अन्न उत्पन्न करने की शक्ति एक जन्म में तीनों जोड़ी की है । ४८००।ऽ इतने मन अन्न से प्रत्येक मनुष्य का तीन पाव अन्न भोजन में गिनें, तो २५६००० दो लाख छप्पन हजार मनुष्‍यों का एक वार भोजन होता है । दूध और अन्न को मिला कर देखने से निश्‍चय है कि ४१०४४० चार लाख दश हजार चार सौ चालीस मनुष्यों का पालन एक वार के भोजन से होता है । अब छः गाय की पीढ़ी परपीढियों का हिसाब लगाकर देखा जावे तो असंख्य मनुष्‍यों का पालन हो सकता है । और इसके मांस से अनुमान है कि केवल अस्सी मांसाहारी मनुष्‍य एक वार तृप्‍त हो सकते हैं । देखो ! तुच्छ लाभ के लिये लाखों प्राणियों को मार असंख्य मनुष्यों की हानि करना महापाप क्यों नहीं ?
यद्यपि गाय के दूध से भैंस का दूध कुछ अधिक और बैलों से भैंसा कुछ न्यून लाभ पहुँचाता है, तदपि जितना गाय के दूध और बैलों के उपयोग से मनुष्यों को सुखों का लाभ होता है उतना भैंसियों के दूध और भैंसों से नहीं । क्योंकि जितने आरोग्यकारक और बुद्धिवर्द्धक आदि गुण गाय के दूध और बैलों में होते हैं, उतने भैंस के दूध और भैंसे आदि में नहीं हो सकते । इसीलिये आर्यों ने गाय सर्वोत्तम मानी है।
और ऊंटनी का दूध गाय और भैंस के दूध से भी अधिक होता है, तो भी इन के दूध के सदृश नहीं । ऊंट और ऊंटनी के गुण भार उठाकर शीघ्र पहुँचाने के लिये प्रशंसनीय हैं ।

गौ करुणानिधि: भाग 1

नमो विश्‍वम्भराय जगदीश्‍वराय
अथ गोकरुणानिधिः
स्वामिदयानन्दसरस्वतीनिर्मितः
गाय आदि पशुओं की रक्षा से सब प्राणियों के सुख के लिए अनेक सत्पुरुषों की सम्मति के अनुसार आर्यभाषा में बनाया ।
_________________________________
ओ३म् नमो नमः सर्वशक्तिमते जगदीश्‍वराय ॥
गोकरुणानिधिः
इन्द्रो॒ विश्‍व॑स्य राजति । शन्नो॑ अस्तु द्वि॒पदे॒ शं चतु॑ष्पदे ॥

- य. अ. ३६ । मं. ८ ॥
तनोतु सर्वेश्‍वर उत्तमम्बलं गवादिरक्षं विविधं दयेरितः ।

अशेषविघ्नानि निहत्य नः प्रभुः सहायकारी विदधातु गोहितम् ॥१॥

ये गोसुखं सम्यगुशन्ति घीरस्ते धर्म्मजं सौख्यमथाददन्ते ।

क्रूरा नराः पापरता न यन्ति प्रज्ञाविहीनाः पशुहिंसकास्तत् ॥२॥

भूमिका

वे धर्मात्मा विद्वान् लोग धन्य हैं, जो ईश्‍वर के गुण, कर्म, स्वभाव, अभिप्राय, सृष्‍टि-क्रम, प्रत्यक्षादि प्रमाण और आप्‍तों के आचार से अविरुद्ध चलके सब संसार को सुख पहुँचाते हैं । और शोक है उन पर जो कि इनसे विरुद्ध स्वार्थी दयाहीन होकर जगत् में हानि करने के लिये वर्त्तमान हैं । पूजनीय जन वे हैं जो अपनी हानि होती हो तो भी सब के हित के करने में अपना तन, मन, धन लगाते हैं । और तिरस्करणीय वे हैं जो अपने ही लाभ में सन्तुष्‍ट रहकर सबके सुखों का नाश करते हैं ।
ऐसा सृष्‍टि में कौन मनुष्य होगा जो सुख और दुःख को स्वयं न मानता हो ? क्या ऐसा कोई भी मनुष्‍य है कि जिसके गले को काटे वा रक्षा करे, वह दुःख और सुख को अनुभव न करे ? जब सब को लाभ और सुख में ही प्रसन्नता है, तो विना अपराध किसी प्राणी का प्राणवियोग करके अपना पोषण करना यह सत्पुरुषों के सामने निन्द्य कर्म क्यों न होवे? सर्वशक्तिमान् जगदीश्‍वर इस सृष्‍टि में मनुष्यों के आत्माओं में अपनी दया और न्याय को प्रकाशित करे कि जिससे ये सब दया और न्याययुक्त होकर सर्वदा सर्वोपकारक काम करें, और स्वार्थपन से पक्षपातयुक्त होकर कृपापात्र गाय आदि पशुओं का विनाश न करें, कि जिससे दुग्ध आदि पदार्थों और खेती आदि क्रिया की सिद्धि से युक्त होकर सब मनुष्य आनन्द में रहें ।
इस ग्रन्थ में जो कुछ अधिक, न्यून वा अयुक्त लेख हुआ हो उसको बुद्धिमान लोग इस ग्रन्थ के तात्पर्य के अनुकूल कर लेवें । धार्मिक विद्वानों की यही योग्यता है कि वक्ता के वचन और ग्रन्थकर्त्ता के अभिप्राय के अनुसार ही समझ लेते हैं । यह ग्रन्थ इसी अभिप्राय से रचा गया है कि जिससे गौ आदि पशु जहां तक सामर्थ्य हो बचाये जावें और उनके बचाने से दूध, घी और खेती के बढ़ने से सब को सुख बढ़ता रहे । परमात्मा कृपा करे कि यह अभीष्‍ट शीघ्र सिद्ध हो ।
इस ग्रन्थ में तीन प्रकरण हैं – एक समीक्षा, दूसरा नियम और तीसरा उपनियम । इन को ध्यान दे पक्षपात छोड़ विचार के राजा तथा प्रजा यथावत् उपयोग में लावें कि जिससे दोनों के लिये सुख बढ़ता ही रहे ।
॥इति भूमिका॥

श्रद्धेय पथमेड़ा महाराजजी की कृपामयी प्रार्थना

हे मेरे नाथ, आप अपनी सुधामयी, सर्वसमर्थ, पतितपावनी, अहैतुकी कृपा से दुःखी प्राणियों के हृदय में त्याग का बल एवं सुखी प्राणियों के हृदय में गोसेवा का बल प्रदान करें। जिससे वे सुख-दुख के बन्धन से मुक्त हो आपके पवित्र प्रेम का आस्वादन कर कृत-कृत्य हो जायें, कृत-कृत्य हो जायें,
कृत-कृत्य हो जायें। धर्म की जय हो, अधर्म का नाश हो, प्राणियों में सद्भावना हो, विष्व का कल्याण हो, गोमाता की जय हो ! हर हर हर महादेव !

गौ माता की कृपा / गोसेवा के चमत्कार (सच्ची घटनाएँ)

घटना हमारे यहाँ श्रीरामपूर मील की है | पांच साल पूर्व हमने श्रीरामपूर (अहमदनगर) में श्रीलक्ष्मी इंडसट्रीज के नाम से श्रीरघुनाथदास धूतकम्पनी की भागीदारी में आयल मील शुरू की | प्रारम्भ में दो सालतक कभी मशीनिरी टूट गयी, कभी कुछ नुकसान हो गया – बड़ी तकलीफ रही | लाख कोशिश करने पर भी हम सम्भाल नहीं सके |


एक दिन देखा गया – मिल के दरवाजे के सामने एक गाय पड़ी हुई है | कसाई उसे ले जाने के लिए बहुत प्रयत्न कर रहा है – मारपीट कर रहा है, तब भी गाय जरा भी नहीं हिलती | देखने वालों की आँखों में आसूँ आ गए | मिल के मजदूरों ने उपर्युक्त घटना देखकर मेनेजर को सूचना दी | 
मेनेजर ने आकर कसाई के द्वारा छ्तीश (३६) रूपये में लायी हुई हष्ट-पुष्ट गौ को पांच रूपये मुनाफा – (कूल इकतालीस रूपये) देकर छुड़ा लिया | जो गौ कसाई के प्रयत्न करने पर भी जरा भी नहीं हिलती थी | कसाई के छोडते ही सीधे मील में चली गयी |

तबसे वह गाय मील में ही पाली-पोसी जाने लगी | उस गौ के मील में आने के बाद से ही मील की हालत दिनों दिन सुधरती गयी |

जिस मील के चलने में बराबर अड़चन आ रही थी, आज वह मील गौ-माता की कृपा से बहुत अच्छी चल रही है | वह तीन अच्छी नस्ल के बछड़े दे चुकी है और प्रतिदिन पांच लीटर दूध देती है | छोटा बच्चा भी उसके पास चला जाता है तो वह उसे जरा भी नहीं छूती | पर किसी दुसरे जानवर को कभी पास नहीं आने देती | भगवान ऐसी कल्याणमयी गोमाता को मिल के दरवाजे पर पहुचायां, इसके लिए हम उनके बड़े कृतज्ञ हैं |

गोसेवा के चमत्कार (सच्ची घटनाएँ), संपादक -श्री हनुमानप्रसाद पोद्दार, पुस्तक कोड ६५१, गीताप्रेस गोरखपुर,

गौवत्स द्वादशी पर गौ पूजन के साथ शुरू हो जाता है लक्ष्मी पर्व

कार्तिक माह के कृष्ण पक्ष की द्वादशी को गोवत्स द्वादशी मनाई जाती है। हिन्दू मान्यताओं और धर्म ग्रंथों के अनुसार ये महत्त्वपूर्ण व्रत और त्योहारों में एक माना गया है। इस दिन गाय तथा उनके बछड़ों की सेवा की जाती है। महिलाओं द्वारा ये व्रत अपने परिवार की समृद्धि और अच्छे स्वास्थ्य की कामना से किया जाता है।
गाय को लक्ष्मी स्वरूप माना जाता है। गाय की पूजा से लक्ष्मी जी प्रसन्न होती हैं। इसलिए कई जगहों पर इस दिन गाय की पूजा के साथ ही लक्ष्मी पर्व की शुरूआत हो जाती है। इस बार ये व्रत 25 अक्टूबर, शुक्रवार को किया जाएगा। कई जगहों पर ये व्रत भाद्रपद महीने के कृष्णपक्ष की द्वादशी तिथि पर भी किया जाता है।
*कैसे करें इस व्रत को*
इस दिन अगर कहीं गाय और बछड़ा नहीं मिल पाए तो चांदी या मिट्टी से बने बछड़े की पूजा भी की जा सकती है। इस दिन महिलाएं सूर्योदय से पहले उठकर नित्यकर्म कर लेती हैं। इसके बाद दिनभर में किसी शुभ मुहूर्त में गाय और उसके बछड़े की पूजा करती हैं। इसके साथ ही गाय को हरा चारा और रोटी सहित अन्य चीजें खिलाकर तृप्त किया जाता है। कई जगहों पर गाय और बछड़े को सजाया जाता है। इस दिन गाय का दूध और उससे बनी चीजें नहीं खाई जाती है। इस दिन घरों में खासतौर से बाजरे की रोटी‍ और अंकुरित अनाज की सब्जी बनाई जाती है। इस दिन गाय की दूध की जगह भैंस के दूध का उपयोग किया जाता है।
*भविष्य पुराण में गौ महिमा*
भविष्य पुराण के अनुसार गाय को माता यानी लक्ष्मी का स्वरूप माना गया है। गौमाता के पृष्ठदेश में ब्रह्म का वास है, गले में विष्णु का, मुख में रुद्र का, मध्य में समस्त देवताओं और रोमकूपों में महर्षिगण, पूंछ में अनंत नाग, खूरों में समस्त पर्वत, गौमूत्र में गंगादि नदियां, गौमय में लक्ष्मी और नेत्रों में सूर्य-चन्द्र विराजित हैं।
*गोवत्स द्वादशी का महत्व*
महिलाओं द्वारा ये व्रत और पूजा की जाती है। द्वादशी तिथि पर गाय और बछड़े की पूजा करने से महिलाओं को संतान सुख प्राप्त होता है। ये पूजा संतान की अच्छी सेहत और लंबी उम्र के लिए किया जाता है। पुराणों में इस व्रत का माहात्म्य बताते हुए कहा गया है कि बछ बारस के दिन जिस घर की महिलाएं गौमाता का पूजन-अर्चन करती हैं। उसे रोटी और हरा चारा खिलाकर उसे तृप्त करती है, उस घर में मां लक्ष्मी की कृपा सदैव बनी रहती है और उस परिवार में कभी भ‍ी अकाल मृत्यु नहीं होती है। इसीलिए महिलाएं गोवत्स द्वादशी पर्व मनाती है।

👉🏻आचार्य नन्द किशोर मिश्र
ज्योतिषमार्ग जनकल्याण कार्यालय, कुरावली (मैनपुरी)
मो. 9719588498

दूध न देने वाली गायों को बेकार न समझें, इनसे भी कर सकते हैं अच्छी कमाई

बहुत से किसान उन गायों को छुट्टा छोड़ देते हैं जो गायें दूध देना बंद कर देती हैं। लेकिन शायद उनको ये पता नहीं है कि वो उन गायों से भी अच्छी कमाई कर सकते हैं जो गायें दूध नहीं देती।

आपने अक्सर सड़कों पर, खेतों में गायों को आवारा घूमते हुए देखा है, जिनकी वजह से ट्रैफिक भी प्रभावित होता है और कई बार इन जानवरों की वजह से एक्सीडेंट भी हो जाते हैं जिसमें लोगों की जान भी चली जाती हैं।

अब आप सोच रहे होंगे ये सब तो सही है लेकिन बिना दूध देने वाली गाय से कैसे लाखों कमा सकते हैं, तो आइये हम आपको एक ऐसे किसान से मिलवाते हैं जिनके पास 14 गायें हैं और वो उन गायों का सिर्फ दूध ही इस्तेमाल मे नहीं लेते बल्कि उनके गोबर और मूत्र को भी इस्तेमाल में ले रहे हैं और अच्छा खासा लाभ कमा रहे हैं।

जिला और ब्लॉक सागर के राजीवनगर तिली सागर गाँव के आकाश चौरसिया जो करीब सात वर्षों से पूरी तरह से जैविक खेती करते हैं, किसी भी रासायनिक खाद का इस्तेमाल नहीं करते हैं उसकी जगह पर गाय के गोबर से जैविक खाद बनाकर खेत में डालते हैं।

आकाश बताते हैं, ''हम गाय का दूध तो लेते ही हैं उसके अलावा गाय के गोबर से हम बायो गैस बनाते है, जिसका इस्तेमाल खाना पकाने में किया जाता है जिससे गैस के पैसे बचते हैं और उसके बाद उसकी स्येलरी से हम जैविक खाद बनाकर खेत में डालते हैं, जिससे हमे बाहर से खाद नहीं खरीदनी पड़ती है।''

वो आगे बताते है, ''इसे बाद गाय का जो मूत्र होता है उससे कीटनाशक तैयार करते हैं, उसका इस्तेमाल भी हम अपनी फसल में करते हैं, जिससे हमे बाज़ार से कुछ भी खरीदना नहीं पड़ता है और पैसे खर्च नहीं करने पड़ते हैं।''

आमतौर पर जब किसान रासायनिक खादों और कीटनाशकों का इस्तेमाल करते हैं तो एक एकड़ में में करीब 7000 रुपए का खर्च आता है, लेकिन जब उसकी जगह पर गाय के गोबर और उसके मूत्र से बनी खाद का इस्तेमाल करते हैं तो इसकी बचत हो जाती है और खेती की लागत काफी कम हो जाती है।

इन सब चीजों के साथ-साथ आकाश अब गोबर गैस से लाइट बनाने की तैयारी भी कर रहे हैं।
इसके साथ ही सागर जिले से करीब 130 किमी दूर उत्तर दिशा में स्थित नरसिंहपुर जिले के करताज गाँव के किसान राकेश दुबे के पास तीन गायें हैं जिसके दम पर 40 एकड़ में जैविक खेती करते हैं। वो एक रुपए का भी रासायनिक खाद या कीटनाशक बाजार से खरीद कर नहीं लाते हैं। उसकी जगह पर गाय के गोबर और मूत्र का इस्तेमाल करते हैं।


राकेश बताते हैं, "बहुत से लोग उन गायों को बेकार समझ कर छोड़ देते हैं जो दूध नहीं देती, लेकिन किसान उन गायों के गोबर और मूत्र या इस्तेमाल करके हजारों रुपए की बचत कर सकते हैं।" वो बताते हैं कि इसका एक फायदा ये भी है कि आप जो भी अनाज पैदा करेंगे वो पूरी तरह से जैविक होगा और इससे बिमारियों का खतरा नहीं होता है। इसलिये जो किसान गायों को छोड़ देते हैं उनको चाहिए कि वे उन गायों को छोड़ने के बजाय उनके गोबर और मूत्र का इस्तेमाल करें और हजारों रुपए बचायें।


बुधवार, 16 अक्तूबर 2019

एक मात्र उपाय वेदलक्षणा देशी गाय

"प्रिये गौ माता प्रिये गोपाल"
आज जिस तरह से बीमारियों ने हर व्यक्ति को जकड़ लिया है, उसमें एक मात्र उपाय गाय हैं। गाय एक मात्र प्राणी है जिसके शरीर से निकलने वाली हर वस्तु उपयोगी है। वैज्ञानिक परीक्षण के आधार पर बताया गया है कि गाय के गोबर में 23 प्रतिशत ऑक्सीजन होता है और जब इसके कण्डे बन जाते है तो आक्सीजन की मात्रा 27 प्रतिशत हो जाती है। वैज्ञानिकों को आश्चर्य तो तब हुआ जब कंडे की राख की जांच की गई तो 47 प्रतिशत ऑक्सीजन नापा गया। उन्होंने कहा कि मैं यह नहीं कहती कि आप गोबर खाए, लेकिन जिस प्रकार हम दूध और मूत्र का उपयोग कर रहे है तो उसी प्रकार गोबर का भी उपयोग करें। गोबर की राख के दो चम्मच पानी के मटके में घोल दें और फिर उस पानी को पिएं। राख के पानी को पीने से शरीर में कोई रोग नहीं होगा। डॉ शर्मा ने कहा कि हमारी देशी नस्ल की गाय के महत्व को देखते हुए ही एक षडय़ंत्र के तहत भारत में वर्णशंकर अथवा जर्सी गाय का चलन बढ़ा दिया गया। जर्सी गाय का दूध पीने का मतलब है कि सूअर का दूध पीना। देशी गाय के दूध में जो ताकत होती है, वैसी जर्सी गाय के दूध में नहीं होती। 1935 में अंग्रेजों ने एक फरमान जारी कर हमारे नंदी का वध करने का आदेश दे दिए थे। उन्होंने कहा कि गाय एक मात्र पशु है जो श्वास में भी ऑक्सीजन छोड़ता है। आज जो कैंसर जैसे रोग हो रहे हैं उसका कारण है कि हमारे शरीर में कार्बन की मात्रा बढऩा है, लेकिन जो लोग गायों के बीच रहते हैं उन्हें कभी भी रोग नहीं होता। डॉ. शर्मा ने कहाकि देशवासी भगवान कृष्ण को तो मानते हैं, लेकिन जिस कृष्ण ने गाय को माता मानकर जंगलों में चराया, उस गाय से प्रेम नहीं करते हैं। भगवान कृष्ण गाय का मक्खन चुराकर नहीं खाते थे, बल्कि इसके पीछे उन्होंने यह संदेश दिया कि गाय के दूध से बनने वाले उत्पाद को खाना कितना जरूरी है। जो लोग वास्तुशास्त्र जानते हैं, उनका भी कहना है कि जिस स्थान पर गाय रहती है और जहां गोबर और उसका मूत्र गिरता है, उस स्थान पर वास्तु दोष हो ही नहीं सकता। गाय के एक किलो दूध में 60प्रतिशत तो सोना होता है, इसलिए गाय के दूध में पीपालन होता है। इस दूध का घी भी पीला ही नजर आता है।