बुधवार, 23 अक्तूबर 2019

गौ करुणानिधि :भाग 4

हिंसक और रक्षक का परस्पर संवाद

हिंसक – ईश्‍वर ने सब पशु आदि सृष्‍टि मनुष्य के लिये रची है, और मनुष्य अपनी भक्ति के लिये । इसलिये मांस खाने में दोष नहीं हो सकता ।
रक्षक – भाई ! सुनो, तुम्हारे शरीर को जिस ईश्‍वर ने बनाया है, क्या उसी ने पशु आदि के शरीर नहीं बनाये हैं ? जो तुम कहो कि पशु आदि हमारे खाने को बनाये हैं, तो हम कह सकते हैं कि हिंसक पशुओं के लिये तुमको उसने रचा है, क्योंकि जैसे तुम्हारा चित्त उनके मांस पर चलता है, वैसे ही सिंह, गृध्र आदि का चित्त भी तुम्हारे मांस खाने पर चलता है, तो उन के लिये तुम क्यों नहीं ?
हिंसक – देखो, ईश्‍वर ने मनुष्यों के दांत पैने मांसाहारी पशुओं के समान बनाये हैं । इससे हम जानते हैं कि मनुष्यों को मांस खाना उचित है ।
रक्षक – जिन व्याघ्रादि पशुओं के दांत के दृष्‍टान्त से अपना पक्ष सिद्ध किया चाहते हो, क्या तुम भी उनके तुल्य ही हो ? देखो, तुम्हारी मनुष्य जाति उनकी पशु जाति, तुम्हारे दो पग और उनके चार, तुम विद्या पढ़ कर सत्यासत्य का विवेक कर सकते हो, वे नहीं । और यह तुम्हारा दृष्‍टान्त भी युक्त नहीं, क्योंकि जो दांत का दृष्‍टान्त लेते हो तो बंदर के दांतों का दृष्‍टान्त क्यों नहीं लेते ? देखो ! बन्दरों के दांत सिंह और बिल्ली आदि के समान हैं और वे मांस कभी नहीं खाते । मनुष्य और बन्दर की आकृति भी बहुत सी मिलती है, जैसे मनुष्यों के हाथ पग और नख आदि होते हैं, वैसे ही बन्दरों के भी हैं । इसलिये परमेश्‍वर ने मनुष्यों को दृष्‍टान्त से उपदेश दिया है कि जैसे बन्दर मांस कभी नहीं खाते और फलादि खाकर निर्वाह करते हैं, वैसे तुम भी किया करो । जैसा बन्दरों का दृष्‍टान्त सांगोपांग मनुष्यों के साथ घटता है, वैसा अन्य किसी का नहीं । इसलिये मनुष्यों को अति उचित है कि मांस खाना सर्वथा छोड़ देवें ।
हिंसक  देखो ! जो मांसाहारी पशु और मनुष्‍य हैं वे बलवान् और जो मांस नहीं खाते, वे निर्बल होते हैं, इससे मांस खाना चाहिये ।
रक्षक – क्यों अल्प समझ की बातें मानकर कुछ भी विचार नहीं करते । देखो, सिंह मांस खाता और सुअर वा अरणा भैंसा मांस कभी नहीं खाता, परन्तु जो सिंह बहुत मनुष्यों के समुदाय में गिरे तो एक वा दो को मारता और एक दो गोली वा तलवार के प्रहार से मर भी जाता है, और जब वराही सुअर वा अरणा भैंसा जिस प्राणिसमुदाय में गिरता है, तब उन अनेक सवारों और मनुष्यों को मारता और अनेक गोली बरछी तथा तलवार आदि के प्रहारों से भी शीघ्र नहीं गिरता, और सिंह उनसे डरके अलग सटक जाता है, और वह सिंह से नहीं डरता ।
और जो प्रत्यक्ष दृष्‍टान्त देखना चाहो तो एक मांसाहारी का, एक दूध घी और अन्नाहारी मथुरा के मल्ल चौबे से बाहुयुद्ध हो तो अनुमान है कि मांसाहारी को पटक उसकी छाती पर चौबा चढ़ ही बैठेगा । पुनः परीक्षा होगी कि किस किस के खाने से बल न्यून और अधिक होता है । भला, तनिक विचार तो करो कि छिलकों के खाने से अधिक बल होता है अथवा रस और जो सार है उसके खाने से ? मांस छिलके के समान और दूध घी सार रस के तुल्य है, इसको जो युक्तिपूर्वक खावे तो मांस से अधिक गुण और बलकारी होता है, फिर मांस का खाना व्यर्थ और हानिकारक, अन्याय अधर्म और दुष्‍ट कर्म क्यों नहीं ?
हिंसक  जिस देश में सिवाय मांस के अन्य कुछ भी नहीं मिलता, वहां वा आपत्काल में अथवा रोगनिवृत्ति के लिये मांस खाने में दोष नहीं होता ।
रक्षक – यह आपका कहना व्यर्थ है, क्योंकि जहां मनुष्य रहते हैं वहां पृथिवी अवश्य होती है । जहां पृथ्वी है वहां खेती वा फल फूल आदि होते ही हैं, और जहां कुछ भी नहीं होता, वहां मनुष्य भी नहीं रह सकते । और जहां ऊसर भूमि है, वहां मिष्‍ट जल और फूल फलाहारादि के न होने से मनुष्यों का रहना भी दुर्घट है । और आपत्काल में भी अन्य उपायों से निर्वाह कर सकते हैं, जैसे मांस के न खाने वाले करते हैं । और विना मांस के रोगों का निवारण भी औषधियों से यथावत् होता है, इसलिये मांस खाना अच्छा नहीं ।
हिंसक  जो कोई भी मांस न खावे तो पशु इतने बढ़ जायं कि पृथ्वी पर भी न समावें, और इसीलिये ईश्‍वर ने उनकी उत्पत्ति भी अधिक की है, तो मांस क्यों न खाना चाहिये ?
रक्षक – वाह ! वाह ! वाह ! यह बुद्धि का विपर्यास आपको मांसाहार से ही हुआ होगा । देखो, मनुष्य का मांस कोई भी नहीं खाता, पुनः क्यों न बढ़ गये । और इनकी अधिक उत्पत्ति इसलिये है कि एक मनुष्य के पालन व्यवहार में अनेक पशुओं की अपेक्षा है । इसलिये ईश्‍वर ने उनको अधिक उत्पन्न किया है ।
हिंसक  ये जितने उत्तर किये, वे सब व्यवहार सम्बन्धी हैं, परन्तु पशुओं को मार के मांस खाने में अधर्म तो नहीं होता, और जो होता है तो तुम को होता होगा, क्योंकि तुम्हारे मत में निषेध है । इसलिये तुम मत खाओ और हम खावें, क्योंकि हमारे मत में मांस खाना अधर्म नहीं है ।
रक्षक  हम तुम से पूछते हैं कि धर्म और अधर्म व्यवहार ही में होते हैं वा अन्यत्र ? तुम कभी सिद्ध न कर सकोगे कि व्यवहार से भिन्न धर्माधर्म होते हैं । जिस जिस व्यवहार से दूसरों की हानि हो वह वह ‘अधर्म’ और जिस जिस व्यवहार से उपकार हो, वह वह ‘धर्म’ कहाता है । तो लाखों के सुख लाभकारक पशुओं का नाश करना अधर्म और उनकी रक्षा से लाखों को सुख पहुँचाना धर्म क्यों नहीं मानते ? देखो, चोरी जारी आदि कर्म इसीलिये अधर्म हैं कि इनसे दूसरे की हानि होती है । नहीं तो जो जो कर्म जगत् में हानिकारक हैं वे वे ‘अधर्म’ और जो जो परोपकारक हैं वे वे ‘धर्म’ कहाते हैं ।
जब एक आदमी की हानि करने से चोरी आदि कर्म पाप में गिनते हो, तो गवादि पशुओं को मार के बहुतों की हानि करना महापाप क्यों नहीं ? देखो ! मांसाहारी मनुष्यों में दया आदि उत्तम गुण होते ही नहीं, किन्तु स्वार्थवश होकर दूसरे की हानि करके अपना प्रयोजन सिद्ध करने ही में सदा रहते हैं । जब मांसाहारी किसी पुष्‍ट पशु को देखता है तभी उसको इच्छा होती है कि इसमें मांस अधिक है, मारकर खाऊं तो अच्छा हो । और जब मांस का न खानेवाला उसको देखता है तो प्रसन्न होता है कि यह पशु आनन्द में है । जैसे सिंह आदि मांसाहारी पशु किसी का उपकार तो नहीं करते, किन्तु अपने स्वार्थ के लिये दूसरे का प्राण भी ले मांस खाकर अति प्रसन्न होते हैं, वैसे ही मांसाहारी मनुष्य भी होते हैं । इसलिये मांस का खाना किसी मनुष्य को उचित नहीं ।
हिंसक  अच्छा जो यही बात है तो जब तक पशु काम में आवें तब तक उनका मांस न खाना चाहिये, जब बूढ़े हो जावें वा मर जावें तब खाने में कुछ भी दोष नहीं ।
रक्षक  जैसे दोष उपकार करनेवाले माता पिता आदि के वृद्धावस्था में मारने और उनके मांस खाने में है, वैसे उन पशुओं की सेवा न कर मार के मांस खाने में है । और जो मरे पश्‍चात् उनका मांस खावे तो उसका स्वभाव मांसाहारी होने से अवश्य हिंसक होके हिंसारूपी पाप से कभी न बच सकेगा। इस वास्ते किसी अवस्था में मांस न खाना चाहिये ।
हिंसक  जिन पशुओं और पक्षियों अर्थात् जंगल में रहने वालों से उपकार किसी का नहीं होता और हानि होती है, उनका मांस खाना चाहिये वा नहीं ?
रक्षक  न खाना चाहिये, क्योंकि वे भी उपकार में आ सकते हैं । देखो, सौ भंगी जितनी शुद्धि करते हैं, उनसे अधिक पवित्रता एक सुअर वा मुर्गा अथवा मोर आदि पक्षी सर्प आदि की निवृत्ति करने आदि अनेक उत्तम उपकार करते हैं । और जैसे मनुष्यों का खान पान दूसरे के खाने पीने से उनका जितना अनुपकार होता है, वैसे जंगली मांसाहारी का अन्न जंगली पशु और पक्षी हैं और जो विद्या वा विचार से सिंह आदि वनस्थ पशु और पक्षियों से उपकार लेवें तो अनेक प्रकार का लाभ उनसे भी हो सकता है । इस कारण माँसाहार का सर्वथा निषेध होना चाहिये ।
भला, जिनके दूध आदि खाने पीने में आते हैं, वे माता पिता के समान माननीय क्यों न होने चाहियें ? ईश्‍वर की सृष्‍टि से भी विदित होता है कि मनुष्यों से पशु और पक्षी आदि अधिक रहने से कल्याण है । क्योंकि ईश्‍वर ने मनुष्यों के खाने पीने के पदार्थों से भी पशु और पक्षियों के खाने पीने के पदार्थ घास, वृक्ष, फूल, फलादि अधिक रचे हैं, और वे विना जोते, बोए, सींचे के पृथ्वी पर स्वयं उत्पन्न होते हैं । और वहां वृष्‍टि भी करता है, इसलिये समझ लीजिये कि ईश्‍वर का अभिप्राय उनके मारने में नहीं किन्तु रक्षा ही करने में है ।
हिंसक  जो मनुष्य पशु को मार के मांस खावें उन को पाप होता है, और जो बिकता मांस मूल्य से ले वा भैरव, चामुण्डा, दुर्गा, जखैया अथवा वाममार्ग और यज्ञ आदि की रीति से चढ़ा समर्पण कर खावें तो उनको पाप नहीं होना चाहिये, क्योंकि वे विधि करके खाते हैं ।
रक्षक  जो कोई मांस न खावे, न उपदेश और न अनुमति आदि देवे, तो पशु आदि कभी न मारे जावें । क्योंकि इस व्यवहार में बहकावट लाभ और बिक्री न हो, तो प्राणियों को मारना बन्द ही हो जावे । इस में प्रमाण भी है –
अनुमन्ता विशसिता निहन्ता क्रयविक्रयी ।
संस्कर्त्ता चोपहर्ता च खादकश्‍चेत्ति घातकाः ॥
– मनु० अ. ५ । श्‍लो० ५१ ॥
अर्थ – अनुमति = मारने की आज्ञा देने, मांस के काटने, पशु आदि के मारने, उनको मारने के लिये लेने और बेचने, मांस के पकाने, परसने और खानेवाले आठ मनुष्य घातक हिंसक अर्थात् ये सब पापकारी हैं ।
और भैरव आदि के निमित्त से भी मांस खाना मारना व मरवाना महापापकर्म है । इसलिये दयालु परमेश्‍वर ने वेदों में मांस खाने वा पशु आदि के मारने की विधि नहीं लिखी ।

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