सोमवार, 18 मई 2015

गाय दूध से जुड़े मिथक और सच्चाई!

गाय दूध से जुड़े मिथक और सच्चाई!



  • मिथक- पाश्च्युराइज्ड की अपेक्षा कच्चे दूध में ज्यादा पोषक तत्व होते हैं।
  • सच्चाई – पाश्च्युराइज्ड और कच्चे दूध में पोषक पदार्थो का स्तर समान होता है। पाश्च्युरीकरण की प्रक्रिया में दूध को कम समय के लिए उच्च तापमान (70 डिग्री सेल्सियस) पर गर्म किया जाता है जिससे दूध में मौजूद जीवाणु मर जाते है। दूसरे शब्दों में कहें तो पाश्च्युराइज्ड दूध से किसी भी तरह के संक्रमण का खतरा नहीं होता।
     
  • मिथक- दूध में पानी मिलाने से उसमें से वसा तत्व कम हो जाता है।
  • सच्चाई- दूध में पानी मिलाने से उसमें मौजूद सभी पोषक पदार्थो की सांद्रता कम हो जाती है। दूसरे शब्दों में कहें तो सभी पोषक पदार्थो घनत्व कम हो जाता है।
     
  • मिथक- दूध में से वसा बाहर निकाल लेने पर उसका पोषण खत्म हो जाता है।
     
  • सच्चाई- ऐसे दूध को कम कैलोरी के साथ पोषक तत्व मिलने का बेहतर स्रोत माना जाता है।
     
  • मिथक- यदि आपको लेक्टोस (दुग्ध शर्करा) पसंद नहीं है तो दूध से दूर रहना ही बेहतर।
     
  • सच्चाई- यह जरूरी नहीं कि आपको दूध पसंद हो। लेकिन आप अन्य दुग्ध उत्पाद जैसे पनीर, बटरमिल्क, दही या चीज का सेवन आसानी से कर सकते हैं।
     
  • मिथक- जब कैल्शियम की प्रचुरता वाले और भी उत्पाद हैं तो दुग्ध उत्पादों की कोई जरूरत नहीं।
     
  • सच्चाई- दूध प्राकृतिक रूप से मिलने वाले कैल्शियम का प्रमुख स्रोत है। इसके अलावा दूध में प्रोटीन, मैग्नीशियम, फास्फोरस, जिंक और विटामिन बी जैसे कई पोषक उत्पाद पाए जाते हैं। विटामिन बी हड्डियों के निर्माण में मददगार होता है। इसके अलावा अनाज, मूंगफली और पत्तेदार सब्जियों से मिलने वाला कैल्शियम पूर्ण रूप से अवशोषित नहीं होता।
     
  • मिथक- दूध एक संपूर्ण भोजन है।
     
  • सच्चाई- दूध में लोहा, विटामिन सी, डी, ई और के नहीं पाए जाते। अत: स्वस्थ शरीर के लिए सिर्फ दूध पर ही निर्भर नहीं रहा जा सकता।
  • मिथक- नवजात शिशुओं के लिए अन्य फार्मूला दूधों की अपेक्षा गाय का दूध बेहतर होता है।
  • सच्चाई- गाय दूध से संक्रमण होने की आशंका ज्यादा होती है और उसमें मौजूद वसा आसानी से नहीं पचता। इसी के चलते एक साल से कम उम्र के बच्चों के लिए फार्मूला दूध कहीं बेहतर होता है।
     
  • सच्चाई- शरीर में कैल्शियम की पूर्ति करने के लिए हर उम्र वर्ग को दूध की जरूरत होती है। साथ ही दूध हड्डियों में क्षरण (आस्टियोपोरोसिस और आस्टियोपोरोटिक फ्रेक्चर) को रोकने में मददगार होता है।

Cattle in religion (चीन में बहुसंख्यक आज भी गाय का मांस नहीं खाते हैं)

चीन में बहुसंख्यक आज भी गाय का मांस नहीं खाते हैं 
और यदि किसी बैल को काटने के समय उसकी आँख में आंसूं आ जाते हैं तो अक्सर उसे नज़दीक के मंदिर के पास छोड़ दिया जाता है। http://en.wikipedia.org/wiki/Cattle_in_religion
मैं कुछ असमंजस में पड़ गया जब मैंने पढ़ा कि वर्ष 1994 में भारत ने हॉलैंड से गोबर का आयात किया था। बात सिर्फ गोबर के आयत पर ख़त्म नहीं होती है, अभी चार दिन पहले 6 मई 2015 को भारत के विभिन्न बन्दरगाहों पर 851100 किलो रासायनिक खाद जिसका कुल मूल्य 2 अरब 83 करोड़ 62 लाख 4 हज़ार सात सौ इकसठ रुपये होता है विभिन्न देशोशों से आयात की गयी। साल भर में कितनी खाद आयात की जाती है, इसकी गणना आप चाहें तो महिनो से लगा लें , चाहें हफ़्तों से या दिनों से, यदि इतना आयात महीने के हिसाब से भी लगाया जाये तब भी 30 अरब की खाद का आयत भारत करता ही है। 
कहने को तो भारत विश्व के डेयरी उत्पादों में 17% का योगदान रखते हुए दूसरे नंबर पर आता है। परन्तु क्या यह जायज़ वजह हो सकती हैं, विश्व में दूध देने वाले चौपाया जानवरों का मांस निर्यात करने में ब्राज़ील के बाद दूसरी पायदान पर खड़े होने के लिए ???? नहीं , क्योंकि - 2011 में 30000 टन दूध पाउडर और 15000 टन बटर आयल तथा माह अप्रैल 2015 में ही 32 करोड़ 89 लाख 90 हज़ार रुपये का दूध का पाउडर भारत द्वारा आयात किया गया,  http://www.infodriveindia.com/india-import-data/milk-powder-import-data.aspx 

और उसके बाद भी यूरिया और तेल से बनाये गए दूध के और त्यौहारों में मिलावटी खोये से बनी मिठाईयों के बिकने की ख़बरें हर साल पढ़ने को मिलती हैं। 
आप भी सोच रहे होंगे की रासायनिक खाद के आयात से मैं दूध पाउडर के आयात पर, फिर मिलावटी दूध की बात पर आ गया , कहीं कोई तारतम्य नहीं नज़र आ रहा। शर्तिया मैं आपको यह नहीं बताना चाहता कि कानून का उपहास उड़ाते हुए जितने शेर शिकारियों ने अब हमारे जंगलों में छोड़े हैं उससे ज्यादा शेर चिड़ियाघरों में बंद हैं। आईये उपरोक्त तथ्यों को मद्देनज़र रखते हुए मुद्दे की बात करते हैं। 

पिछले दिनों महाराष्ट्र में गौहत्या पर प्रतिबन्ध लगने के समय देश की अर्थव्यवस्था की पूरी जानकारी रखने वालों ने मांस उद्योग का देश की अर्थव्यवस्था में बहुत बड़ा योगदान माना था। लेकिन मुझे लगता है की उन्हें इजराइल की अर्थव्यवस्था पर निगाह डालनी चाहिए जिसके मांस के उत्पादों पर यूरोपीय देशों ने प्रतिबन्ध लगा रखा है लेकिन उसकी सेहत पर कोई असर नहीं पड़ा या सिंगापुर की अर्थव्यवस्था पर भी निगाह डाल लेनी चाहिए जो की मांस का बिलकुल निर्यात नहीं करता बल्कि अपनी ज़रुरत / खपत का पूरा का पूरा मांस आयात करता है।

यदि मांस के निर्यात से अर्थव्यवस्था सुधरती तो 1960 में एक करोड़ रुपये का मांस भारत से निर्यात हुआ, 1990 तक आते आते यह 450 करोड़ का हो गया और 2014 में 28500 करोड़ का हो गया,और फरवरी 2015 तक 1591581 MT हो गया as per Agricultural and processed food Export development authority (APEDA) under Ministry of Commerce,( यहाँ पर यह बात स्पष्ट कर दूँ कि, यह विभाग सिर्फ बड़े चौपाया जानवरों के मांस के निर्यात का ही नियंत्रण करता है , इसमें मुर्गे और बकरियां शामिल नहीं हैं) जो की आने वाले वर्ष में 25% बढ़ने की सम्भावना है। लेकिन फिर भी भारत का विदेशी क़र्ज़ बढ़ता ही जा रहा है, कहीं से देश की अर्थव्यवस्था सुधरती हुई नज़र नहीं आ रही ,कहीं से गरीबों की संख्या कम नहीं हो रही। 
http://www.business-standard.com/article/economy-policy/despite-modi-s-aversion-buffalo-meat-exporters-remain-bullish-114041500137_1.html 

http://timesofindia.indiatimes.com/india/Beef-exports-up-44-in-4-years-India-is-top-seller/articleshow/19314449.cms
तर्क देने वाले तर्क देते हैं ,कि रेड मीट के नाम पर तो बैल या भैंस का मॉस बेचा जाता है। लेकिन 1591581 मीट्रिक टन मांस निर्यात करने के लिए इतने बैल और भैंसें आती कहाँ से हैं ??? क्या कहीं खेती हो रही है इन जानवरों की ??? यदि मांस के निर्यात की यही गति रही तो कब तक यह बैलों और भैंसों की फसल चलेगी ?? या जैसा की मेरे एक मित्र ने बताया कि ,मांस खाने वाला, भेड़ और बकरी के मांस के स्वाद में फ़र्क़ कर सकता है, देसी मुर्गी और ब्रायलर के स्वाद में फ़र्क़ कर सकता है , तो क्या गाय का मांस खाने वाले विदेशी गाय और भैंस के मांस में फ़र्क़ नहीं कर पाते ??? या भैंस का मांस किसी गलफहमी में खा जाते हैं ??? 

कहाँ चले गए गाय और भैंस, इस प्रश्न का अपने आने वाली पीढ़ियों को उत्तर देने के लिए हम तो न होंगे लेकिन मुझे कष्ट होता है इन जीवों को मौत से पहले दी जाने वाली यंत्रणा से जो कि निजी मशीनी कत्लखानों में चमड़ी से दमड़ी निकालने के लिय दी जाती है। भारत में 3600 वैध लाइसेंस शुदा कत्लखाने हैं और 30000 से ज्यादा अवैध कत्लखाने हैं। एक मध्यम आकार के कत्लखाने की साफ़ सफाई रखने के लिए प्रतिदिन सोलह लाख लीटर पानी इस्तेमाल होता है जो की चार लाख लोगों के पीने के काम आ सकता है। आदमी तो अपने पीने के पानी के लिए लाइन लगा लेता है , चिल्ला लेता है लेकिन कई कई दिनों के भूखे प्यासे ट्रकों में भूसे की तरह भर कर लए गए जानवरों को इस सोलह लाख लीटर में से दो बूँद पानी मयस्सर नहीं होता।

इन मूक प्राणियों की जान इतने पर निकल जाये ऐसा नहीं है। सब जानते हैं कि भारत के क़ानून बहुत कठोर हैं और उनका पालन करवाने वाले तो राजा हरिश्चन्द्र की औलादें है। जानवर को काटे जाने से पहले एक पशुचिकित्सक का प्रमाणपत्र चाहिए होता है कि यह जानवर किसी उपयोग का नहीं है , अतः इसे काटा जा सकता है। तो जानवर को पशुचिकित्सक की निगाह में बेकार सिद्ध करने के लिए पहले उसकी टाँगे तोड़ दी जाती हैं, फिर उसकी आँखें फोड़ दी जाती हैं जिससे की पशुचिकित्सक का काम आसान हो जाता है अच्छा खासा जानवर चंद रुपये के टुकड़ों के लिए बेकार कर दिया जाता है। क्या सोच रहे हैं, कि इसके बाद बस जानवर को मशीन पर चढ़ाया और काट दिया, जी नहीं ,इस जानवर का मीट इस्लामी देशों को निर्यात होना है इसलिए इसे अभी हलाल भी किया जायेगा। इस स्थिति से हलाल करने के बीच अभी भीषण दर्द दे कर पाई पाई की वसूली करने के दो कदम और हैं। 

चूँकि मरे हुए जानवर की खाल कड़ी हो जाती है इसलिए उपरोक्त प्रकार से अपंग किये गए जानवर के ऊपर खौलता हुआ पानी डाला जाता है जिससे उसकी चमड़ी नरम और ढीली पड़ जाये। इसके बाद जीव को एक टांग से चेन और पुल्ली के सहारे उल्टा लटका कर उसकी गर्दन में चीरा लगा दिया जाता है (हलाल) जिससे की उसके शरीर से खून धीरे धीरे निकल जाये जैसा की हलाल में होता है । यहाँ तक जानवर मरा नहीं होता,लेकिन इस समय उस बेहोश प्राणी के खाल में छेद करके हवा भरी जाती है जिससे की खाल मांस से अलग हो जाये और जानवर के मरने से पहले ही उसकी खाल उसके शरीर से अलग कर दी जाती है। बाकि का कटाई छटाई का काम मशीने करतीं है।

एक मिनट के लिए मान लेते हैं कि इनमे गाय नहीं होतीं, नीचे लगी हुई फोटो गलत बोल रहीं हैं, लेकिन वाकई लानत है हम हिन्दुओं पर कि 49 मुस्लिम देशों में सूअर को घृणा की नज़र से देखा जाता है तो भी वो सूअर को छूते तक नहीं हैं और हिन्दुस्तान जहाँ गौवंश को पूजा जाता है वहां के हिन्दू गौवंश को हलाल कर रहे हैं। हिन्दुओ को दोष इस लिए दे रहा हूँ क्योंकि भारत के अधिकतर बड़े बड़े मीट निर्यातक हिन्दू ही हैं, और जो 28500 करोड़ का व्यापर वर्ष 2013-14 में इन व्यापारियों ने किया उससे देश और देशवासियों को क्या लाभ हुआ ????पैसा तो इन्ही चंद घरानों ने ही कमाया। और जब अभी गौहत्या पर महाराष्ट्र में प्रतिबन्ध लगा था तो सबसे ज्यादा पेट में दर्द हिन्दुओं के ही हुआ था। 

बात शुरू हुई थी गोबर खाद, रासायनिक खाद और दूध पाउडर के आयात से, तो भारत की एक बन्दरदरगाह तूतीकोरिन ऐसी भी है जहाँ से गोबर खाद का निर्यात किया जाता है , यहाँ तक कि पूजा के लिए उपले भी निर्यात किये गए। बेशक यह अभी बहुत छोटे पैमाने पर निजी संस्थाओं द्वारा किया जा रहा है , लेकिन आज जब हम ऑर्गेनिक सब्ज़ियों के लिए अधिक दाम देते हैं तो हमें क्या ज़रूरत है इतनी मात्रा में रासायनिक खाद आयात करने की ??? 
http://www.seair.co.in/cow-dung-export-data.aspx

यदि Central Institute of Agricultural Engineering की 1990 की रिपोर्ट का संज्ञान लें तो इन जानवरों को खेत में जोतने से 57000 करोड़ का डीजल बचाया जा सकता है। 
हम उन लोगों में से हैं जो दूध के फट जाने पर रोना जानते हैं पर उसे रसगुल्ले तब तक नहीं बनाते जब तक कोई विदेशी हमें रसगुल्ले बनाना नहीं सिखाता। इतने चौपायों के गोबर से हम गोबर खाद नहीं बना सकते,या हम इन्ही बैलों को भारत के पहाड़ी क्षेत्रों में हल जुताई के काम के लिए नहीं भेज सकते ??? प्रकृति की चमड़ी से दमड़ी निकालने के फेर में हम इन पशुओं को वापिस प्रकृति को सौंप कर नेचुरल फ़ूड चेन को स्थापित नहीं कर सकते, पर कम से कम इतना तो कर सकते हैं की मरने वाले जानवर मौत कम से कम दर्दनाक हो। 

मुझे नहीं पता कि आज की तारीख में मेरी सोच वैज्ञानिक ,आर्थिक या व्यवाहरिक भी है नहीं ,लेकिन जिस तरह से जनसँख्या विस्फोट हो रहा है और विदेशों में भारतीय "रेड मीट" की मांग प्रतिदिन बढ़ रही है तो आज से दस साल बाद नहीं तो पचास साल बाद, एक स्थिति ऐसी आएगी जब आने वाली पीढ़ियां हँसेगी जब आप लोग उन्हें बताओगे कि आप सुबह औए शाम भारत में पैदा हुआ दूध बहुत नखरों के साथ पीते थे, जो उस समय उनके लिए विलासिता से कम नहीं होगा। 

घूम फिर कर बात वहीँ अटकती है कि नेहरू की सरकार ने 20 दिसम्बर 1950 को राज्यों को एक पत्र लिखा जिसका सार यह था कि --" गौहत्या पर पूर्ण प्रतिबन्ध न लगाया जाये "क्योंकि काटे गए जानवरों की चमड़ी अपने आप मरे हुए जानवरों की चमड़ी से गुणवत्ता में उत्कृष्ट होती है तथा बाजार में इसका अच्छा दाम मिलता है। जानवरों के न काटे जाने की स्थिति में अच्छी किस्म का चमड़ा जिसके निर्यात द्वारा ज्यादा दाम मिलते हैं नहीं मिलेगा जो कि देश के चमड़े के निर्यात तथा चमड़ा उद्योग पर प्रतिकूल प्रभाव डालेगा।" 

शुक्रवार, 15 मई 2015

100% गौ रक्षा नही होने के कारण

हम सभी किसी न किसी रूप में गौमाता के संरक्षण, संवर्धन, गऊ हत्या प्रतिबन्ध और गौ माता को राष्ट्रमाता के पद पर सुशोभित करने के लिए तन-मन-धन से पूर्ण मनोयोग से प्रयासरत है।

परंतु सफलता प्राप्त न होने के कुछ प्रमख कारण-

गौरक्षा व गौसेवा में कार्यरत सगठनो का आपस में समन्वय न होना।

धर्म ध्वजा लेकर चलने वाले साधू संतो का एक मत और एक मंच पर एकत्र न होना।

गौशाला संचालको की गऊ के पूर्ण पक्ष की उपयोगिता व जानकारी लोगो तक न पहुचाना।

सशक्त सूचना तंत्र का साधन न होना।

जन संपर्क व प्रचार-प्रसार की पूर्ण कमी।

देश के मीडिया का सहयोग न मिलना।

शासन-प्रसाशन में गौभक्तो व गौ विचारको की कमी होना और जो है उनसे हमारा संपर्क व समन्वय न होना।

हिन्दू समाज का प्रत्येक परिवार गऊ के लिए कुछ करना चाहता है परंतु उन तक अपना संपर्क नहीं बना पाते।

अपने कार्य का अवलोकन व सिंघालोकन न करना एवं समय के साथ चलकर कार्य को समय के अनुरूप न करना।

इत्यादि अन्य कई कारण हमारी विफलता के है।

संकल्प ले हम जिस स्थान पर रहते है कार्य करते है वहा के प्रत्येक हिन्दू परिवार को किसी न किसी रूप व प्रकार से गौसेवा या गौकार्य में जोड़ उन परिवारो को गौभक्त की श्रेणी जोड़ेगे।

जन संपर्क व प्रचार-प्रसार हेतु अपने ग्राम, नगर व मोहल्ले में गौ भजन संध्या, छोटी छोटी गऊ कथाएं, गौ प्रभात फेरी, गौ भिक्षा, गौ दान, गौ पूजन, गौ जागरण, गौ विषय पर प्रतियोगिता इत्यादि कार्य संचालित करे।

पंचगव्य चिकित्सा, पंचगव्य सामग्री निर्माण, गौ आधारित कृषि, पंचगव्य उत्पाद इत्यादि विषयो पर प्रशिक्षण शिविर लगाये।

धन्येवाद
निवेदक आपका मित्र
गोवत्स राधेश्याम रावोरिया

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बुधवार, 13 मई 2015

क्या है गौरक्षा परिवार?

क्या है गौरक्षा परिवार?

निरीह  पशुओं की हत्या से राष्ट्र की अस्मिता और संस्कृति  खतरे में है.
राष्ट्र की अस्मिता,संस्कृति  और अस्तित्व को बचाने के लिया कार्यरत संस्थाओं के महा-संगठन ’अहिंसासंघ’ के अधीन कार्यरत संस्था  ”अखिल भारतीय कत्लखाना  एवं  हिंसा विरोध समिति” ने मुनिश्री विरागसागर  जी एवं विनाम्रसागर जी महाराज के मार्गदर्शन  व सान्निध्य  में गौसेवा -गौरक्षा की संस्कृति को जाग्रत करने के लिय “गौ-रक्षक-परिवार” की स्थापना की है . मुनिद्वय  ने भारतीय संस्कृति की दया व करुणा की मूल विशेषताओं को जीवंत  तथा फलीभूत करने के लिए आम जन को प्रेरित किया है.

समिति ने  गणतंत्र दिवस के पावन अवसर को ही संस्कृति रक्षा तथा संवर्धन  की पहल की  शुरुआत के लिए उपयुक्त दिन माना.गौ-रक्षा परिवार की स्थापना का यह कार्यक्रम  वाशी जैन मंदिर प्रांगण में उपस्थित परिवारों में गणतंत्र दिवस के उत्साह को कई गुना कर रहा था.सभी नागरिकों  ने अपने परिवारों के साथ २७ गायों को आहार  देकर उनकी १०८ दीपकों से मंगल आरती की  तथा गौरक्षा तथा  गौ सेवा का संकल्प लिया  .

क्या आवश्यकता है गौरक्षा परिवार की?

हम इस गौरक्षा परिवार के माध्यम से सभी लोगो को गौरक्षा एवं गौसेवा के रूप में भारत की प्राचीनतम संस्कृति एवं  पर्यावरण के प्रति आम जनता को जागरूक बनाना चाहते हैं.गौमूत्र, दूध व घी के उपयोग से मानव समाज का कल्याण होगा तथा पशुरक्षा का कार्य देश के लिए वरदान सिद्ध होगा.

मुनिश्री  विन्रम सागरजी ने गौरक्षा के संकल्प को पारिवारिक जीवन में सुखशांति का मंत्र बताते हुए ’पञ्च सूत्रों‘ का पालन करने को कहा है. (जो लोग गौरक्षा परिवार से जुड़ेंगे उन्हें इन ‘पञ्च सूत्रों‘ का पालन करना होगा, जो कि बहुत ही आसान और लाभकारी हैं).

पहला सूत्र . उन्होंने कहा दुनिया में प्रार्थना  से बढ़कर  कोई दूसरी शक्ति नहीं है, अत: आप सभी लोग प्रतिदिन मूक प्राणियों की निर्मम हत्या  से रक्षा के लिय प्रार्थना करे.

दूसरा सूत्र. अपने आराध्य की भक्ति में केवल गौ से प्राप्त गोबर, गौमूत्र  आदि पंचगव्य  से बनी हुई सुगन्धित धूप,  अगरबत्तियों  ही उपयोग करे.

तीसरा सूत्र. गौमूत्र के उपयोग को उन्होंने घर की पवित्रता बनाए रखने के लिए सर्वोत्तम पदार्थ बताया इसलिए सबको अपने घर में प्रतिदिन गौमूत्र का छिड़काव करना चाहिए.  समिति द्वारा गौमूत्र निशुल्क प्रदान किया जाएगा.

चौथा सूत्र.  उन्होंने पशुरक्षा के दयामयी  कार्य को त्याग भावना से जोड़ते हुए कहा कि प्रत्येक परिवार को एक नियमित राशि इस कार्य के लिय दान देनी चाहिए ताकि गौशालाएं तथा पशुरक्षा में लगी संस्थाएं सुचारू और निर्बाध रूप से चल सकें. समिति ने अभी हर परिवार के लिए प्रति सदस्य दैनिक एक रुपये की राशि सुनिश्चित की है, जो कि हर भारतीय परिवार बहुत ही आसानी से दे सकता है.  

पाँचवाँ सूत्र. उन्होंने कहा गौरक्षा-गौसेवा-पशुरक्षा के लिय आगे आ रहे सभी परिवारों को आपस में मिलजुल कर सामाजिक एकता और वात्सल्य भाव को आगे बढ़ाने के लिए प्रति तीन महीने में एक बार सामूहिक कार्यक्रम या मिलन समारोह आयोजित करना चाहिए.

हम आह्वान करते हैं उन सभी भारतीय परिवारों का जो हमारे गौरक्षक परिवार से जुड़ना चाहते हैं तथा देश, समाज और पर्यावरण की रक्षा करने के लिए गौसेवा में तन, मन या  धन से सहयोग देना चाहते हैं

सोमवार, 4 मई 2015

महात्मा बुद्ध और गाय

महात्मा बुद्ध के गौ संरक्षण पर निम्न उपदेश है :-
उन्होंने गो हत्या का विरोध किया और गो पालन को अत्यंत महत्व दिया ।
यथा माता सिता भ्राता अज्ञे वापि च ज्ञातका ।
गावो मे परमा मित्ता यातु जजायंति औषधा ॥
अन्नदा बलदा चेता वण्णदा सुखदा तथा ।
एतवत्थवसं ज्ञत्वा नास्सुगावो हनिं सुते ॥
माता, पिता, परिजनों और समाज की तरह गाय हमें प्रिय है । यह अत्यंत सहायक है । इसके दूध से हम औषधियाँ बनाते हैं । गाय हमें भोजन, शक्ति, सौंदर्य और आनंद देती है । इसी प्रकार बैल घर के पुरुषों की सहायता करता है । हमें गाय और बैल को अपने माता-पिता तुल्य समझना चाहिए । (गौतम बुद्ध)
गोहाणि सख्य गिहीनं पोसका भोगरायका ।
तस्मा हि माता पिता व मानये सक्करेय्य च् ॥ १४ ॥
ये च् खादंति गोमांसं मातुमासं व खादये ॥ १५ ॥
गाय और बैल सब परिवारों को आवश्यक और यथोचित पदार्थ देते हैं । अतः हमें उनसे सावधानी पूर्वक और माता पिता योग्य व्यवहार करना चाहिए । गोमांस भक्षण अपनी माता के मांस भक्षण समान है । (लोकनीति ७)
गाय की समृद्धि से ही राष्ट्र की समृद्धि होगी । (सम्राट अशोक)
संकलन करता
गोवत्स राधेश्याम रावोरिया

www.facebook.com/Govats.radhe