गौ माता – सर्वदेवमयी हि गौः
श्रीमद् भगद्गीता में भगवान श्री कृष्ण ने अर्जुन को अपने विराट स्वरूप का दर्शन कराया। अर्जुन को इस विराट रूप में सम्पूर्ण विभूतियों सहित चराचर जगत, त्रिभुवन त्रैलोक्य और सारे देवी देवताओं के दर्शन हुए। सनातनधर्म में 33 करोड़ देवता माने गए हैं और इन सभी देवी देवताओं का निवास गौ माता में होने के कारण गावो विश्वस्य मातरः अर्थात गाय चराचर जगत की माता है। यही कारण है कि केवल गौ की पूजा एवं सेवा से सम्पूर्ण देवी देवताओं का आराधन हो जाता है। वेदों, स्मृतियों तथा विभिन्न पुराणों में गौ के विश्वरूप का वर्णन किया गया है तथा गो महिमा और गो सेवा की महिमा भी बताई गई है।
वेदों में गौ तथा बैल को भी विश्वरूपी बताया गया है। प्रसिद्ध पाश्चात्य विद्वान ग्रिफिथ महोदय ने इन वैदिक सूक्तों की अत्यधिक प्रशंसा की है। इन मंत्रों में यह भाव दिखाया गया है कि जनसाधारण अपने हृदय में यह समझे कि हम सब गोमाता के ही अंग हैं। गौ के शरीर को कष्ट होने पर हमको ही कष्ट होगा क्योंकि गौ के साथ हमारा सम्बन्ध शरीर और अंगों के रूप में है। वेदों की यह भी भावना है कि गौ हमारे परिवार की मुखिया है, और हम उसके परिवार के सदस्य हैं। यदि गौ के मनुष्यों के प्रति उपकारों पर चिन्तन किया जाय तो वेदों का यह कथन आसानी से समझ मेें आ जाएगा। साथ ही वेदों के इन सूक्तों से अहिंसा का उत्तम उपदेश दिया है। हिंसक पशु व राक्षस आदि भी अत्यधिक भूख लगने पर भी अपने अंगों को नहीं खा जाते। इसी प्रकार यह सिद्धान्त स्थिर हुआ कि मैं गो के शरीर का एक भाग हूँ इसलिए मुझे वैसे ही गौ की रक्षा करनी चाहिये जैसे मैं अपने शरीर की करता हूँ।
गौ को माता कहने का अर्थ यही है कि वह हमारे लिये पवित्र, पूजनीय, वन्दनीय व पालनीय है। दुराचारी व्यक्ति भी किसी स्त्री को ‘माता’ कहता है तो उसके चित्त में भी तत्काल पवित्रता आ जाती है। अतः गौ को माता कहने को तात्पर्य है कि उसे पवित्र दृष्टि से देखा जाय। इन्द्रादि देवगण गौमाता के देह में स्थित हैं अतः उसका शरीर ही स्वर्ग है। इसी प्रकार वेदों के साथ ही वृहत्पाराशर स्मृति, पद्म पुराण, भविष्य पुराण, ब्रह्माण्ड पुराण, स्कन्द पुराण एवं महाभारत में भी विभिन्न प्रकार से गौ माता के शरीर में विभिन्न देवों की स्थिति का वर्णन विस्तार से उपलब्ध है। उदाहरर्णाथ भविष्य पुराण के उत्तर पर्व 69/25-37 का अवलोकन करें-
शृगमूले गवां नित्यं ब्रह्मा विष्णुश्च संस्थितौ।
शृगाग्रे सर्वतीर्थानि स्थावराणि चराणि च ।।25।।
गौओं के सींग के मूल में सदा ब्रहमा और विष्णु प्रतिष्ठित हैं। अग्रभाग में चराचर समस्त तीर्थ स्थित हैं।
शिवो मध्ये महादेवः सर्वकारणकारणम्।
ललाटे संस्थिता गौरी नासावंशे च षण्मुखः।।26।।
सभी कारणों के कारण महादेव शिव सींगों के मध्य में, ललाट में गौरी तथा नासिकास्थि में भगवान कार्तिकेय स्थित हैं।
कम्बलाश्वतरौ नागौ नासापुटसमाश्रितौं।
कर्णयोऽश्विनौ देवौ चक्षुम्र्यां शशिभास्करौ।।27।।
नासिका छिद्रों में कम्बल व अश्वतर नाग, कानों में अश्विनी देव व आँखों में चन्द्र व सूर्य स्थित हैं।
दन्तेषु वसवः सर्वे जिह्वायां वरूणः स्थितः।
सरस्वती च कुहरे यमयक्षौ च गण्डयोः।।28।।
गौ के दांतों में आठों वसु, जीभ में वरूण, कण्ठ में माता सरस्वती व गण्डस्थलों में यमराज व यक्षगण स्थित हैं।
सन्ध्याद्वयं तथोष्ठाभ्यां ग्रीवायां च पुरन्दरः।
रक्षांसि ककुदे द्यौश्च पाष्र्णिकाये व्यवास्थिता।।29।।
दोनां होंठों में दोनों सन्ध्यादेवियाँ ग्रीवा में इन्द्र ककुद में राक्षस, पाष्र्णि भाग में आकाश व्यवस्थित है।
चतुष्पात्सकलो धर्मों नित्यं जंघासु तिष्ठति।
खुरमध्येषु गन्धर्वाः खुराग्रेषु च पलगाः।।30।।
चारों चरणों से युक्त धर्म जंघाओं में, खुरों में गन्धर्वदेवगण, खुरों के अग्रभाग में सर्प निवास करते हैं।
खुराणां पश्चिमे भागे राक्षसाः सम्प्रतिष्ठिताः।
रूद्रा एकादश पृष्ठे वरूणः सर्वसन्धिषु।।31।।
खुरों के पश्चिमी भाग में राक्षसगण, पीठ में ग्यारह रूद्र तथा सभी जोडों में वरूण देव प्रतिष्ठित हैं।
श्रोणीतटस्थाः पितरः कपोलेषु च मानवाः।
श्रीरपाने गवां नित्यं स्वाहालंकार माश्रिताः।।32।।
गौ की कमर में पितरगण, कपोलों में मानव, अपानभाग में स्वाहा देवी के साथ अलंकार रूप में लक्ष्मी जी आश्रित हैं।
आदित्या रश्मयो बालाः पिण्डीभूता व्यवस्थिताः।
साक्षाद्गंगा च गोमूत्रे गोमये यमुना स्थिता।।33।।
सूर्य किरणें केश समूहों में पिण्डीरूप में, गौ के मूत्र मेें साक्षात गंगा व गोबर में यमुना जी व्यवस्थित हैं।
चयस्त्रिंशद् देवकोट्यो रोमकूपे व्यवस्थिताः।
उदरे पृथिवीं सर्वा सशैलवन काननाः।।34।।
सभी रोमकूपों में तैंतीस कोटि देवता, पेट में पर्वतों व वनों से सुशोभित पूरी पृथ्वी व्यवस्थित हैं।
चत्वारः सागराः प्रोक्ता गवां ये तु पयोधराः।
पर्जन्यः क्षीरधारासु मेघा विन्दु व्यवास्थिताः।।35।।
चारों पयोधरों में चार महासागर, दूध की धारा में पर्जन्यदेव तथा दुग्ध बिन्दुओं में मेघ नामक देवता व्यवस्थित हैं।
जठरे गार्हपत्योग्निर्दक्षिणाग्नि हृदि स्थितः।
कण्ठे आहवनीयोऽग्निः सम्योऽग्निस्तालुनि स्थितः।।36।।
गौ की जठराग्नि में गाहिपत्याग्नि, हृदय मेें दक्षिणाग्नि, कष्ठ में आहवनीय अग्नि और तालु मेें सम्याग्नि स्थित हैं।
अस्थिव्यवस्थिताः शैला मज्जासु क्रतवः स्थिताः।
ऋग्वेदोऽथर्ववेदश्च सामवेदो यजुस्तथा।।30।।
गौ की अस्थियों में पर्वत, मज्जओं में यज्ञ देव तथा चारों वेद (क, यजु, अथर्व व साम) भी गौओं में ही प्रतिष्ठित हैं।
पौराणिक प्रार्थना-
या लक्ष्मीः सर्व भूतानां या च देवेषु संस्थिता।
धेनुरूपेण सा देवी मम शान्तिं प्रयच्छतु।।1।।
देहस्था या च रूद्राणी शंकरस्य सदा प्रिया।
धेनुरूपेण सा देवी मम पापं व्यपोहतु।।2।।
विष्णोर्वक्षसि या लक्ष्मीः स्वाहा या च विभावसोः।
चन्द्रार्कशक्रशक्तिर्या धेनुरूपास्तु सा श्रिये।।3।।
चतुर्मखस्य या लक्ष्मीर्या लक्ष्मी र्धनदस्य च।
लक्ष्मीर्या लोकपालानां सा धेनुर्वरदास्तु मे।।4।।
स्वधा या पितृमुख्याना स्वाहा यज्ञभुजा च या।
सर्वपापहरा धेनुस्तस्माच्छान्तिं प्रयच्छ में।।5।।
जो गौ सभी प्राणियों की वास्तविक लक्ष्मी हैं, देवताओं में छवि रूप से स्थित हैं, शंकरप्रिया रूद्राणि जिसके शरीर में स्थित हैं, भगवान विष्णु के वक्ष में स्थित लक्ष्मी हैं, जो अग्नि की स्वाहा रूपी शक्ति हैं, जो चन्द्र सूर्य व इन्द्र की इष्टशक्ति हैं, जो ब्राहमा जी की आत्मशक्तिरूपा विद्याधिष्ठात्री सरस्वती हैं, जो कुबेर की लक्ष्मी रूपा शक्ति हैं, जो लोकपालों की ऐश्वर्यरूपी लक्ष्मी हैं, जो पितरों की स्वधा रूपी शक्ति व देवों के लिये स्वाहा रूपी शक्ति हैं, वह गौ माता देवी मुझे शान्ति, अपाप, कल्याण, वर तथा परम् शान्ति प्रदान करें।
श्रीमद् भगद्गीता में भगवान श्री कृष्ण ने अर्जुन को अपने विराट स्वरूप का दर्शन कराया। अर्जुन को इस विराट रूप में सम्पूर्ण विभूतियों सहित चराचर जगत, त्रिभुवन त्रैलोक्य और सारे देवी देवताओं के दर्शन हुए। सनातनधर्म में 33 करोड़ देवता माने गए हैं और इन सभी देवी देवताओं का निवास गौ माता में होने के कारण गावो विश्वस्य मातरः अर्थात गाय चराचर जगत की माता है। यही कारण है कि केवल गौ की पूजा एवं सेवा से सम्पूर्ण देवी देवताओं का आराधन हो जाता है। वेदों, स्मृतियों तथा विभिन्न पुराणों में गौ के विश्वरूप का वर्णन किया गया है तथा गो महिमा और गो सेवा की महिमा भी बताई गई है।
वेदों में गौ तथा बैल को भी विश्वरूपी बताया गया है। प्रसिद्ध पाश्चात्य विद्वान ग्रिफिथ महोदय ने इन वैदिक सूक्तों की अत्यधिक प्रशंसा की है। इन मंत्रों में यह भाव दिखाया गया है कि जनसाधारण अपने हृदय में यह समझे कि हम सब गोमाता के ही अंग हैं। गौ के शरीर को कष्ट होने पर हमको ही कष्ट होगा क्योंकि गौ के साथ हमारा सम्बन्ध शरीर और अंगों के रूप में है। वेदों की यह भी भावना है कि गौ हमारे परिवार की मुखिया है, और हम उसके परिवार के सदस्य हैं। यदि गौ के मनुष्यों के प्रति उपकारों पर चिन्तन किया जाय तो वेदों का यह कथन आसानी से समझ मेें आ जाएगा। साथ ही वेदों के इन सूक्तों से अहिंसा का उत्तम उपदेश दिया है। हिंसक पशु व राक्षस आदि भी अत्यधिक भूख लगने पर भी अपने अंगों को नहीं खा जाते। इसी प्रकार यह सिद्धान्त स्थिर हुआ कि मैं गो के शरीर का एक भाग हूँ इसलिए मुझे वैसे ही गौ की रक्षा करनी चाहिये जैसे मैं अपने शरीर की करता हूँ।
गौ को माता कहने का अर्थ यही है कि वह हमारे लिये पवित्र, पूजनीय, वन्दनीय व पालनीय है। दुराचारी व्यक्ति भी किसी स्त्री को ‘माता’ कहता है तो उसके चित्त में भी तत्काल पवित्रता आ जाती है। अतः गौ को माता कहने को तात्पर्य है कि उसे पवित्र दृष्टि से देखा जाय। इन्द्रादि देवगण गौमाता के देह में स्थित हैं अतः उसका शरीर ही स्वर्ग है। इसी प्रकार वेदों के साथ ही वृहत्पाराशर स्मृति, पद्म पुराण, भविष्य पुराण, ब्रह्माण्ड पुराण, स्कन्द पुराण एवं महाभारत में भी विभिन्न प्रकार से गौ माता के शरीर में विभिन्न देवों की स्थिति का वर्णन विस्तार से उपलब्ध है। उदाहरर्णाथ भविष्य पुराण के उत्तर पर्व 69/25-37 का अवलोकन करें-
शृगमूले गवां नित्यं ब्रह्मा विष्णुश्च संस्थितौ।
शृगाग्रे सर्वतीर्थानि स्थावराणि चराणि च ।।25।।
गौओं के सींग के मूल में सदा ब्रहमा और विष्णु प्रतिष्ठित हैं। अग्रभाग में चराचर समस्त तीर्थ स्थित हैं।
शिवो मध्ये महादेवः सर्वकारणकारणम्।
ललाटे संस्थिता गौरी नासावंशे च षण्मुखः।।26।।
सभी कारणों के कारण महादेव शिव सींगों के मध्य में, ललाट में गौरी तथा नासिकास्थि में भगवान कार्तिकेय स्थित हैं।
कम्बलाश्वतरौ नागौ नासापुटसमाश्रितौं।
कर्णयोऽश्विनौ देवौ चक्षुम्र्यां शशिभास्करौ।।27।।
नासिका छिद्रों में कम्बल व अश्वतर नाग, कानों में अश्विनी देव व आँखों में चन्द्र व सूर्य स्थित हैं।
दन्तेषु वसवः सर्वे जिह्वायां वरूणः स्थितः।
सरस्वती च कुहरे यमयक्षौ च गण्डयोः।।28।।
गौ के दांतों में आठों वसु, जीभ में वरूण, कण्ठ में माता सरस्वती व गण्डस्थलों में यमराज व यक्षगण स्थित हैं।
सन्ध्याद्वयं तथोष्ठाभ्यां ग्रीवायां च पुरन्दरः।
रक्षांसि ककुदे द्यौश्च पाष्र्णिकाये व्यवास्थिता।।29।।
दोनां होंठों में दोनों सन्ध्यादेवियाँ ग्रीवा में इन्द्र ककुद में राक्षस, पाष्र्णि भाग में आकाश व्यवस्थित है।
चतुष्पात्सकलो धर्मों नित्यं जंघासु तिष्ठति।
खुरमध्येषु गन्धर्वाः खुराग्रेषु च पलगाः।।30।।
चारों चरणों से युक्त धर्म जंघाओं में, खुरों में गन्धर्वदेवगण, खुरों के अग्रभाग में सर्प निवास करते हैं।
खुराणां पश्चिमे भागे राक्षसाः सम्प्रतिष्ठिताः।
रूद्रा एकादश पृष्ठे वरूणः सर्वसन्धिषु।।31।।
खुरों के पश्चिमी भाग में राक्षसगण, पीठ में ग्यारह रूद्र तथा सभी जोडों में वरूण देव प्रतिष्ठित हैं।
श्रोणीतटस्थाः पितरः कपोलेषु च मानवाः।
श्रीरपाने गवां नित्यं स्वाहालंकार माश्रिताः।।32।।
गौ की कमर में पितरगण, कपोलों में मानव, अपानभाग में स्वाहा देवी के साथ अलंकार रूप में लक्ष्मी जी आश्रित हैं।
आदित्या रश्मयो बालाः पिण्डीभूता व्यवस्थिताः।
साक्षाद्गंगा च गोमूत्रे गोमये यमुना स्थिता।।33।।
सूर्य किरणें केश समूहों में पिण्डीरूप में, गौ के मूत्र मेें साक्षात गंगा व गोबर में यमुना जी व्यवस्थित हैं।
चयस्त्रिंशद् देवकोट्यो रोमकूपे व्यवस्थिताः।
उदरे पृथिवीं सर्वा सशैलवन काननाः।।34।।
सभी रोमकूपों में तैंतीस कोटि देवता, पेट में पर्वतों व वनों से सुशोभित पूरी पृथ्वी व्यवस्थित हैं।
चत्वारः सागराः प्रोक्ता गवां ये तु पयोधराः।
पर्जन्यः क्षीरधारासु मेघा विन्दु व्यवास्थिताः।।35।।
चारों पयोधरों में चार महासागर, दूध की धारा में पर्जन्यदेव तथा दुग्ध बिन्दुओं में मेघ नामक देवता व्यवस्थित हैं।
जठरे गार्हपत्योग्निर्दक्षिणाग्नि हृदि स्थितः।
कण्ठे आहवनीयोऽग्निः सम्योऽग्निस्तालुनि स्थितः।।36।।
गौ की जठराग्नि में गाहिपत्याग्नि, हृदय मेें दक्षिणाग्नि, कष्ठ में आहवनीय अग्नि और तालु मेें सम्याग्नि स्थित हैं।
अस्थिव्यवस्थिताः शैला मज्जासु क्रतवः स्थिताः।
ऋग्वेदोऽथर्ववेदश्च सामवेदो यजुस्तथा।।30।।
गौ की अस्थियों में पर्वत, मज्जओं में यज्ञ देव तथा चारों वेद (क, यजु, अथर्व व साम) भी गौओं में ही प्रतिष्ठित हैं।
पौराणिक प्रार्थना-
या लक्ष्मीः सर्व भूतानां या च देवेषु संस्थिता।
धेनुरूपेण सा देवी मम शान्तिं प्रयच्छतु।।1।।
देहस्था या च रूद्राणी शंकरस्य सदा प्रिया।
धेनुरूपेण सा देवी मम पापं व्यपोहतु।।2।।
विष्णोर्वक्षसि या लक्ष्मीः स्वाहा या च विभावसोः।
चन्द्रार्कशक्रशक्तिर्या धेनुरूपास्तु सा श्रिये।।3।।
चतुर्मखस्य या लक्ष्मीर्या लक्ष्मी र्धनदस्य च।
लक्ष्मीर्या लोकपालानां सा धेनुर्वरदास्तु मे।।4।।
स्वधा या पितृमुख्याना स्वाहा यज्ञभुजा च या।
सर्वपापहरा धेनुस्तस्माच्छान्तिं प्रयच्छ में।।5।।
जो गौ सभी प्राणियों की वास्तविक लक्ष्मी हैं, देवताओं में छवि रूप से स्थित हैं, शंकरप्रिया रूद्राणि जिसके शरीर में स्थित हैं, भगवान विष्णु के वक्ष में स्थित लक्ष्मी हैं, जो अग्नि की स्वाहा रूपी शक्ति हैं, जो चन्द्र सूर्य व इन्द्र की इष्टशक्ति हैं, जो ब्राहमा जी की आत्मशक्तिरूपा विद्याधिष्ठात्री सरस्वती हैं, जो कुबेर की लक्ष्मी रूपा शक्ति हैं, जो लोकपालों की ऐश्वर्यरूपी लक्ष्मी हैं, जो पितरों की स्वधा रूपी शक्ति व देवों के लिये स्वाहा रूपी शक्ति हैं, वह गौ माता देवी मुझे शान्ति, अपाप, कल्याण, वर तथा परम् शान्ति प्रदान करें।
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