शुक्रवार, 10 नवंबर 2017

गौ_माता_बिना_जीवन_नहि

गौ_माता_बिना_जीवन_नहि         

प्राचीन भारतीय गुरूकुल शिक्षा-व्यवस्था में गुरू की सेवा के साथ-साथ गाय की सेवा भी आवश्यक थी। मुगल सम्राट बाबर ने तो राज्य को स्थायी रखने का मुख्य साधन गोवंश की रक्षा जानते हुए अपने पुत्र हुमायूँ को गोरक्षा की विशेष आज्ञा भी दी थी।

गोसेवा के महात्म्य की चर्चा करते हुए कहा गया है- ‘जो पुण्य तीर्थों के स्नान में है, जो पुण्य ब्राह्मणों को भोजन कराने में है, जो पुण्य व्रतोपवास तथा तपस्या द्वारा प्राप्त होता है,

जो पुण्य श्रेष्ठ दान देने में है और जो पुण्य देवताओं की अर्चना में है, वह पुण्य तो केवल गाय की सेवा से ही तुरन्त प्राप्त हो जाता है।’

गाय के महात्म्य की चर्चा करते हुए कहा गया है कि ‘जिस गाय की पीठ में ब्रह्मा, गले में विष्णु, मुख में रुद्र, मध्य में समस्त देवगण, रोमकूपों में महर्षिगण, पूँछ में नाग, खुराग्रों में आठों कुलपर्वत, मूत्र में गंगा आदि नदियाँ, दोनों नेत्रों में सूर्य और चन्द्रमा तथा स्तनों में वेद निवास करते हैं, वह गाय मुझे वर देने वाली हो।’

जीवनीशक्ति गोदुग्ध की महिमा में बताया गया है कि यदि पृथ्वी तल पर गाय का दूध न होता तो ईश्वर की संतानों का पालन-पोषण एवं वृद्धि नहीं हो पाती। दैवयोग से किसी का जीवन रह भी जाता तो वह रूखा, वीर्यहीन, शक्तिहीन, अतिकृश और कुरूप होता।

महाभारत के अनुशासन पर्व में महर्षि च्यवन ने राजा नहुष से कहा- हे राजन्! मैं इस संसार में गौओं के समान कोई दूसरा धन नहीं देखता हूँ। पौराणिक मत है कि जगत में सर्वप्रथम वेद, अग्नि, गाय तथा ब्राह्मण की रचना हुई। वेदोक्ति है कि गाय सम्पूर्ण ब्राह्मण का स्वरूप है।

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