प्रागैतिहासिक भूविज्ञान के विद्वान हमें अवगत करा चुके हैं कि हमारी पृथ्वी में जीवनस्वरूपों के उद्भव व विकास क्रम के अंतर्गत गोवंश के आदिकालीन पूर्वज ‘औरक्स’ की जन्मस्थली (18 लाख वर्ष पूर्व) भारत है, जहां उसके प्रथम प्रतिनिधि ‘बास प्लैनिफ्रन्स’ ने 15 लाख वर्ष पूर्व अपना पहला कदम रखा था।
भारत में प्रारंभ हुई अपनी विकास यात्रा के दौरान अफ्रीका व यूरोप में फैल कर स्थापित होने में इसे 2-3 लाख वर्षों का समय लगा। इस लम्बी यात्रा के दौरान, अपने सुरक्षित विकास के लिए, इस जीव को भी प्रकृति द्वारा स्थापित विधान, ”एक विशिष्ट पर्यावरण परिवेश में योग्यतम की उत्तरजीविता और उनका समूल नाश, जो अपने चारों और फैले साधनों का सदुपयोग नहीं कर पाते हैं”, का अनुसरण करना पड़ा था। इस प्राकृतिक नियम के अंतर्गत यह पशु, इस यात्रा-पथ के स्थानीय पर्यावरण (विशिष्ट जलवायु और उपलब्ध खान-पान में भिन्नता) के अनुरूप अपने को ढालते रहने के क्रम में, अफ्रीका व यूरोप पहुंचने तक सर्वथा नवीन भौतिक स्वरूप धारण कर चुका था। अब केवल, उसकी आकृति भारतीय गोधन से मिलती जुलती रह गई थी। हालांकि स्तनपायी जीव होने के कारण यह दूध उत्पादन में सक्षम था।
आकृति की बात करें, तो हम पाते हैं कि भारत में नील गाय नामक पशु पाया जाता है, जो देखने में हमारी गाय के समान है। परंतु वैज्ञानिक विवेचना से ज्ञात होता है कि इसका गोवंश से कोई संबंध नहीं है और उसके पूर्वज हिरण कुल के हैं। यह है प्रकृति की माया, जिसके प्रभाव में विभिन्न-जीव बदलते पर्यावरण के समकक्ष स्वरूप धारण करने के प्रयास में, जटिल रूप धारण करते रहे हैं। आधुनिक मानव के विकास का इतिहास भी ऐसा ही है।
परंतु अफ्रीका व यूरोप में स्थापित होने के काल तक विश्व के अन्य महाद्वीपों (उत्तरी व दक्षिणी अमेरिका, आस्ट्रेलिया) में गोधन का अस्तित्व ही नहीं था। 19वीं सदी में यूरोपवासी अपने अतिक्रमण अभियानों के दौरान अपना गोधन लेकर वहां पहुंचे थे। तभी से गोधन वहां उपलब्ध हो सका।
कालांतर में जलवायु, पर्यावरण एवं पशुपालन विधियों में भिन्नता होने के कारण विभिन्न गौ-प्रजातियों के गुणों में भारी अंतर स्थापित हो चुका है, विशेषकर भारतीय व विदेशी गोधन के मध्य। दूध देने के साथ-साथ भारतीय गौ-प्रजातियों में ऐसे असंख्य गुण हैं जिनकी विदेशी प्रजातियों में कल्पना भी नहीं की जा सकती। वास्तविकता यह है कि आधुनिक जर्सी/आस्ट्रियन/फ्रिजियन/होलस्टीन आदि विदेशी-काऊ प्रजातियां, मानव द्वारा विकसित जिनेटिकली इंजीनियर्ड परिवार की सदस्य हैं, जिन्हे अधिक दूध व मांस उत्पादन के लिए विकसित किया गया है। विश्व के शीतोष्ण प्रदेशों में इनका विकास हुआ है। इसलिए ये गर्मी सहन नहीं कर सकती हैं। उन्हें ठंडा वातावरण ही भाता है। उनका खान-पान व रख-रखाव का तरीका भी भिन्न है। इनमें रोग-निरोधक शक्ति का भी अभाव है। इनका रूप व आदतें सिद्ध करती हैं कि हल व बैलगाड़ी चलाने में इनकी उपयोगिता नहीं है और इनके पंचगव्य में भारतीय गोधन के समान उच्चस्तरीय जैव-प्रजनन व उपचार गुण भी नहीं है।
इसके विपरीत भारतीय गोधन अपनी जन्मस्थली के जैव-समृद्ध प्रदेशों में लाखों वर्षों से जीवन-यापन करते हुए विकासरत रहा है। गर्मी के मौसम में कितनी भी कड़कती धूप क्यों न हो, वह मुंह नीचा कर छोटे पेड़ों-झाड़ियों की छांव में भी शान्त खड़ा व बैठा रहता है। कारण-उसमें भारतीय जलवायु अनुरूप व्यवहार प्राकृतिक रूप से उसमें समाहित हो चुके हैं। भारतीय गोधन, एक जैव-समृद्ध देश में विकासरत रहने के दौरान, आरंभ से ही जंगलों व चट्टानी इलाकों में नाना प्रकार की जड़ी-बूटियां व काष्ठीय वनस्पतियां खाता आया है। फलस्वरूप उसके भौतिक स्वरूप व पंचगव्य में उच्चस्तरीय गुण प्राकृतिक रूप में स्थापित हैं।
आधुनिक विज्ञान भी इस निष्कर्ष पर पहुंचने लगा है कि स्थानीय जलवायु, मृदा रसायन व आहार इस प्रकार के अंतर स्थापित कर सकते हैं। उदाहरण के लिए डीएनए परीक्षणों द्वारा कार्बन और नाइट्रोजन अनुपात निर्धारण कर वैज्ञानिक बताने लगे हैं कि सफेद गैंडा घास-पात और काला भारतीय गैंडा जड़ी-बूटी व काष्ठीय वनस्पति खाता आया है।
हमारे विद्वान पूर्वजों ने इस पृथ्वी में व्याप्त पारिस्थितिकीय-विधान का वैज्ञानिक अंतररहस्य ज्ञात कर सामाजिक व्यवस्था को निरंतर गतिशील बनाए रखने के लिए कई सरल-व्यवहार योग्य परंपराएं स्थापित की थीं। उद्देश्य था कि आगे आने वाली मानव पीढ़ियां भी उनके वैज्ञानिक ज्ञान का लाभ उठाते हुए स्वविकास की ओर कदम बढ़ाती रहें। इस प्रकार की वैज्ञानिक सोच के अंतर्गत, उन्हें यह समझने में देर नहीं लगी होगी कि इस पृथ्वी में सकुशल जीवन यापन के लिए स्वच्छ हवा व पानी के साथ-साथ भोजन ग्रहण कर ऊर्जा प्राप्त करते रहना सभी जीवनस्वरूपों की नियति है। इसलिए उन्होंने, इन भौतिक अनिवार्यताओं को प्राकृतिक रूप में यथावत बनाए रखने को सर्वोच्च प्राथमिकता प्रदान की थी। उनके द्वारा प्रतिपादित सभी आचरण, नियम-परंपराओं में यह वैज्ञानिक झलक स्पष्ट रूप से दिखाई पड़ती है।
इस प्रकार के शोध कर्म के अंतर्गत जब उन्हें भारतीय गोवंश में प्राकृतिक रूप से समाए चमत्कारिक जैव-प्रजनन/उपचारिक गुणों का ज्ञान हुआ, तब उन्होंने इस जीव को ‘गोधन’ की संज्ञा प्रदान करते हुए उसे ‘गोमाता’ का प्रतिष्ठित आसन प्रदान कर, उसे ‘अघन्या’ (न मारने योग्य जीव) मानने की परंपरा स्थापित कर उसके स्थायी संरक्षण की सामाजिक व्यवस्था विकसित की।
इसके ऐतिहासिक दस्तावेज मिलते हैं कि भारत में मुगल शासन के दौरान गोहत्या निषेध एक सशक्त कानून के रूप में लागू था। इसका कारण है कि मुसलमान लोग मांसाहारी थे व उन्हें गोमांस खाने में भी कोई दुविधा नहीं थी। भारत में आकर बसने पर मुसलमानों को भारतीय कृषि समृद्धता में हमारे पूर्वजों द्वारा स्थापित गोधन आधारित प्रौद्योगिकी (जैव कृषि व औषध) का ज्ञान होने लगा और वे अपने आर्थिक विकास के लिए उसे गम्भीरता से अपनाने भी लगे। सभी मुगल शासक जान चुके थे कि भारतीय जलवायु के अंतर्गत गोवंश, आर्थिक समृद्धता प्रदान करने वाला सबसे सशक्त, स्वदेशी जैव-ऊर्जा स्रोत है, चाहे वह नागरिकों के स्वास्थ्य संरक्षण का प्रश्न हो, या भोजन के लिए अनिवार्य अन्न/फल/सब्जी उत्पादन वृध्दि की बात हो, अथवा नागरिकों की आर्थिक समृध्दता गतिमान रहने पर सरकार को नियमित राजस्व मिलते रहने का प्रश्न ही क्यों न हो।
इस प्रकार के ऐतिहासिक परिदृश्य में यह मानना न्याय-संगत प्रतीत होता है कि औरंगजेब के शासनकाल तक (मृत्यु 1707) भारत में गोमांस खाना बहुत सीमित था। इसके पश्चात भारत में मुगल बादशाहों की पकड़ कमजोर होती चली गई और इसका लाभ उठाते हुए यूरोप से व्यापार करने आए अंग्रेजों ने धीरे-धीरे कर हमारे देश में अपना शासन स्थापित कर लिया। भारत में अपनी पकड़ मजबूत करने के लिए अंग्रेजों ने बड़ी चतुराई से हिन्दुओं व मुसलमानों के मध्य स्थायी वैमनस्य निर्माण के लिए ‘भारतीय-गोधन’ को ब्रह्मास्त्र के रूप में उपयोग किया। उनके दुष्प्रचार के कारण गाय को मात्र हिन्दुओं का प्रतीक माना जाने लगा और वह राजनीति का मोहरा बन गई।
इतना ही नहीं, वर्ष 1835 में लार्ड मैकाले ने भारतीय शिक्षा क्षेत्र में अंग्रेजी भाषा को आगे बढ़ाया। इसके प्रभाव में हम भारतवासी अपनी संस्कृत-भाषा से विमुख होते चले गए, जो हमारे महान प्राचीन ग्रंथों की भाषा है। इस शिक्षा प्रणाली के अंतर्गत हम भारतीवासी यह जानते ही नहीं कि हमारे स्वर्णिम प्राचीन इतिहास के पीछे हमारे पूर्वजों द्वारा उच्चस्तरीय वैज्ञानिक सिद्धान्तों के अनुरूप विकसित जैव-प्रौद्योगिकी का हाथ रहा है। ये सभी अनुभवजन्य व भारतीय जलवायु में कारगर व प्रमाणित विधियां हैं। जागृत विज्ञान आधारित होने के कारण हम इन्हें वर्तमान में भी अपनाकर विश्व में उभरते जैव-प्रौद्योगिकी युग में असाधारण आर्थिक लाभ कमा सकते हैं।
इसलिए हम भारतवासियों को यह समझना आवश्यक है कि हमारे देश में गोहत्या निषेध की परंपरा प्रकृति के आशीर्वाद से भारत में उपलब्ध, एक पर्यावरण संगत व आधारभूत जैव ऊर्जा स्रोत को सरंक्षण प्रदान करने के सामाजिक आचरण से उभरी आर्थिक व्यवस्था का आदर्श स्वरूप है। इसी विशिष्ट जीव के भौतिक स्वरूप और पंचगव्य (गोबर, गोमूत्र, दूध, दही, घी) में समाए जैव-समृद्ध गुणों की वैज्ञानिक व्याख्या व उस पर आधारित प्रौद्योगिकी विकास कर हमारे पूर्वजों ने भारत को ‘सोने की चिड़िया’ जैसी प्रतिष्ठा दिलवाई थी।
परंतु भारत में शासन करने के लिए अंग्रेजों द्वारा अपनाई गई कूटनीति से प्रभावित होकर भारतीय आचार-व्यवहार शनै: शनै: परिवर्तित होता चला गया। एक ओर भारतीय मुसलमानों ने निर्भय हो कर गोमांस सेवन करना आरंभ कर दिया, तो दूसरी ओर हम भारतवासियों ने गोवंश के रख-रखाव की ओर समुचित ध्यान देना छोड़ दिया। वर्तमान स्थिति यह है कि विदेशी काऊ के मुकाबले हमारी भारतीय गाय की दूध उत्पादन क्षमता बहुत कम हो गई है; इतनी कम कि आज भारत में स्वदेशी गोधन के पालन-पोषण को घाटे का सौदा समझा जाता है। इस सोच के प्रभाव में भारतीय योजनाविदों ने भारतीय नस्ल के गोधन को एक समस्या के रूप में ही पहचाना है व उसके सदुपयोग के विषय में सोचा ही नहीं, योजना बनाने का तो प्रश्न ही नहीं उठता।
यद्यपि अधिकतर भारतीय गायों का दूध उत्पादन तुलनात्मक रूप से कम है, लेकिन उनके गोबर-गोमूत्र में आज भी उच्चस्तरीय जैव-प्रजनन/उपचारिक गुण प्राकृतिक रूप में समाए हुए हैं। अमेरिका जैसा समृद्ध देश भी अब भारतीय गोवंश के पंचगव्य में विद्यमान उत्कृष्ट जैविक-गुणों का महत्व समझते हुए, भारत से जैव-वर्मीकम्पोस्ट/ पेस्टिसाइड निर्यात के विषय में गंभीरता से सोचने लगा है।
पिछले दो दशकों से कई भारतीय स्वयंसेवी संस्थाओं ने जैव-कृषि क्षेत्र में प्राचीन भारतीय पद्धतियों को व्यावहारिक रूप में अपनाकर, सफल आर्थिक प्रदर्शन आरंभ कर दिया है। इन प्रयासों से एक व्यावहारिक मान्यता उभरी है कि भारतीय जलवायु के अंतर्गत एक स्वदेशी गोधन का गोबर-गोमूत्र एक हेक्टेयर भूमि में कृषि के लिए पर्याप्त है। दूसरी ओर यह मान्यता पुन: स्थापित हुई है कि एक बंजर-भूमि को गोपालन द्वारा 2/3 वर्षों में उपजाऊ बनाया जा सकता है। इस प्रकार विवेचना से ज्ञात होता है कि भारत में कुल कृषि योग्य भूमि 14.2 करोड़ हेक्टेयर है और गोधन की संख्या 19.8 करोड़ है अर्थात भारतीय कृषि भूमि की जैव-खाद/कीटनाशक आवश्यकता से कहीं अधिक गोधन हमारे पास है। इस क्षमता का सदुपयोग कर, भारत न केवल अपने यहां कृषि को एक नई ऊंचाई दे सकता है बल्कि निर्यात द्वारा विश्व में उभरते जैव-प्रौद्योगिकी व्यापार में प्रमुख भूमिका भी निभा सकता है।
इसके अलावा, अब तो भारत में पंचगव्य के उपयोग से फिनायल, अन्न सुरक्षा टिकिया, मच्छर निरोधक क्वायल, बर्तन मांजने का पाउडर, डिस्टेम्पर, फेस पैक (उबटन), साबुन, सैम्पू, तेल, धूप बत्ती, दंत मंजन आदि कई चीजों का निर्माण व्यावसायिक स्तर पर किया जा रहा है। जैव उत्पाद होने के कारण, इनकी मांग विदेशों में भी बढ़ने लगी है। इतना ही नहीं, स्वदेशी गोधन में विद्यमान भार-वहन क्षमता का उपयोग कर बैल-चालित ट्रैक्टर/सिंचाई व पंपिंग मशीन/बैट्री चार्जर जैसे उपयोगी यंत्रों का विकास भी भारत में हो चुका है और इन्हें व्यावहारिक रूप में सफलतापूर्वक उपयोग भी किया जा रहा है।
परंतु दुर्भाग्यवश हम आज भी अंग्रेजी सोच से ग्रसित हैं। इस मानसिकता के कारण, हमारे गोवंश में विद्यमान जनोपयोगी गुणों का प्रचार-प्रसार भारत में नहीं हो पाया है। इसलिए इस विषय के जानकार भारतीयों को राष्ट्र-धर्म के रूप में गोमाता के सदगुणों का प्रचार-प्रसार करना होगा, वह भी अपनी-अपनी मातृभाषा में, जैसाकि हमारे पूर्वजों ने किया था। इस विषय को प्रचार-प्रसार मिलने पर, भारत में सर्वत्र कुटीर उद्योग का जाल फैल जाएगा, क्योंकि भारत में 70 प्रतिशत गोधन के मालिक गरीब किसान हैं। भारतीय किसानों के मध्य इस प्रकार का ज्ञान, एक ऐसी हरित-क्रांति को जन्म देगा, जो सार्थक एवं टिकाऊ होगी।
-शिवेन्द्र कुमार पाण्डे
(लेखक एक भूवैज्ञानिक एवं कोल इंडिया लि. के सेवानिवृत्त मुख्य महाप्रबंधक (गवेषणा) हैं।)
(लेखक एक भूवैज्ञानिक एवं कोल इंडिया लि. के सेवानिवृत्त मुख्य महाप्रबंधक (गवेषणा) हैं।)
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