शनिवार, 26 दिसंबर 2015

16.पञ्चगव्य -चिकित्सा

................पञ्चगव्य -चिकित्सा................. 

१ - क्षयरोग - में गाय का घी खजूर , मुनक्का , मिश्री ,मधु, तथा पिप्पली इन सबका अवलेह बना कर सेवन करने से स्वरभेद ,कास ,श्वास ,जीर्णज्वर तथा क्षयरोग का नाश होता है । 

२ - मुदुरेचन के लिए - १०-२० नग मुनक्को को साफकर बीज निकालकर ,२०० ग्राम गाय के दूध में भलीभाँति उबालकर ( जब मुनक्के फूल जाएँ ) दूध और मुनक्के दोनों का सेवन करने से प्रात: काल दस्त साफ़ आता है । 

३ - रात्रि में सोने से पहले १०-२० मुनक्को को थोड़े से गाय के घी में भूनकर सेंधानमक चुटकी भर मिलाकर खाये। प्रात: ही पेट साफ़ हो जायेगा । 

४ - सोने से पहले आवश्यकतानुसार १०-३० ग्राम तक किसमिस खाकर गाय का गरम दूध गुड ़ के साथ पीने से पेट खुलकर साफ़ होता है । 

५ - पाण्डूरोग - मुनक्का का कल्क बीज रहित ( पत्थर पर पिसा हुआ ) ५०० ग्राम ,पुराना गाय का घी २ कि०लो० और जल ८ कि० ग्रा० सबको एकेत्र मिला कर पकावें जब केवल घी मात्र शेष रह जाये तो छानकर रख लें ३-१० ग्राम तक प्रात सायं सेवन करने से पाण्डूरोग आदि में विशेष लाभ होता है । 

६ - रक्तार्श- अंगूर के गुच्छो को हांडी में बंद कर भस्म बना लें काले रंग की भस्म प्राप्त होते ही इसको ३-६ ग्राम की मात्रा में बराबर मिश्री मिला ,२५० ग्राम गाय स्त्राव के साथ लेने से रक्तार्श ठीक होता है । 

७ - मूत्रकृच्छ - मे ८-१० मुनक्को एवं १०-२० ग्राम मिश्री को पीसकर ,गाय के दूध की दही के पानी में मिलाकर पीने से लाभ होता है । 

८ - प्रात: मुनक्का २० ग्राम खाकर उपर से २५० ग्राम गाय का दूध पीने से ज्वर के बाद की अशक्ति तथा ज्वर दूर होकर शरीर पुष्ट होता है । 

९ - दाह,प्यास- १० ग्राम किसमिस आधा किलो गाय के दूध में पकाकर ठंडा हो जाने पर रात्रि के समय नित्य सेवन करने से दाह शान्त होती है । 

१० - चेचक के बाद किसमिस ८ भाग ,गिलोय सत्त्व और ज़ीरा १-१ भाग तथा चीनी १ भाग इन सभी के मिश्रण को चिकने तप्तपात्र में भरकर उसमें इतना गाय का घी मिलाये, कि मिश्रण अच्छी तरह भीग जायें ।इसमें से नित्य प्रति ६-७ २० ग्राम तक की मात्रा में नित्य सेवन करने से एक दो सप्ताह में चेचक आदि विस्फोटकरोग होने के बाद जो दाह शरीर में हो जाती है ,वह शाने हो जाती है । 

15.पञ्चगव्य- चिकित्सा

................पञ्चगव्य- चिकित्सा................. 

१ - बवासीर के मस्सों से अधिक रक्त स्त्राव होता हो तो ३-८ ग्राम अावलाचूर्ण का सेवन गाय के दूग्ध सेवन बनी दही की मलाई के साथ दिन मे २-३ बार देनी चाहिए ।लाभ अवश्य होगा । 

२ - रक्तातिसार - रक्तातिसार से अधिक रक्त स्राव हो तो आवॅला के १०-२० ग्राम रस मे १० ग्राम शहद और गाय का घी ५ ग्राम मिलाकर पिलावें और उपर से बकरी का दूध १०० ग्राम तक दिन में तीन बार पिलावें । 

३ - पित्तदोष- आवॅलाे का रस सर्वत्र मधु, गाय के घी इन सब द्रव्यों को सम्भाग लेकर आपसे घोंटकर कि गयी रस क्रिया पित्तदोष तथा रक्तविकार जनित नेत्ररोग का नाश करती है यह तिमिररोग नेत्र पटल में उत्पन्न रोगों को भी दूर करती है । 

४ - मूत्रातिसार- पका हुआ केला एक,आवॅलाे का रस १० ग्राम ,मधु४ ग्राम ,तथा गाय का दूध २५० ग्राम ,इन्हें एकेत्रित करके सेवन करने से सोमरोग नष्ट होता है । 

५ - विसर्प- आँवले के १०-२० ग्राम रस मे १० ग्राम गाय का घी मिलाकर दिन में दो- तीन बार पिलाने से विसर्प रोग मिटता है । 

६ - अनार के ताज़े पत्तों का रस १०० ग्राम ,गौमूत्र ४०० ग्राम ,और तिल तैल १०० ग्राम ,तीनों को धीमी आँच पर पकायें ,तैल मात्र शेष रहने पर छानकर रख लें ।इसकी कुछ बूँदें थोड़ा गर्म कर प्रात: - सायं कान में डालने से कान की पीड़ा , कर्णनाद और वधिरता में लाभ होता है । 

७ - अनार के छाया शुष्क आधा किलो पत्तों में आधा किलो सुखा धनियाँ मिलाकर चूर्ण बना लें ,इसमें एक किलो गेहूँ का आटा मिलाकर ,दो किलो गाय के घी में भून लें ,ठंडा होने पर चार किलो खाण्ड मिला लें ।प्रात: - सायं गाय के गर्म दूध से पचास ग्राम तक मात्रा सेवन करने से सिर दर्द ,सिर चकराना दूर होता है । 

८ - अनार के पत्ते और गुलाब के ताज़े पुष्प १०-१० ग्राम ( ताज़े फुलों के अभाव में सूखे फूल ५ग्राम ) लें ।आधा किलो जल में पकाकर २५० ग्राम शेष रहने पर ,१० ग्राम गाय का घी मिलाकर गर्म ही गर्म सुबह - सायं पिलाने से उन्माद व मिर्गी में लाभ होता है । 

९ - अनार के २० ग्राम पत्तों के क्वाथ मे १०-१० ग्राम गाय का घी और खाण्ड मिलाकर पिलाने से मिर्गी या अपस्मार में लाभ होता है । 

१० - अनार के पत्तों के रस में सम्भाग बेलपत्र स्वरस और गाय का घी मिला घी सिद्ध कर लें ।२० ग्राम घी ( गरम) २५० ग्राम मिश्री मिले दूध के साथ प्रात: - सायं लेने से बहरापन में लाभ होता है । 

14.पञ्चगव्य- चिकित्सा

............. पञ्चगव्य- चिकित्सा.............. 

१ - बलवर्धन- ११.५ ग्राम ताज़ी अमरबेल को कुचलकर स्वच्छ महीन कपड़े में पोटली बाँधकर १/२ किलोग्राम गाय के दूध में डालकर या लटकाकर धीमी आँच में पकाये । जब एक चौथाई दूध जल जाय ,तब ठंडा कर मिश्री मिलाकर सेवन करने से निर्बलता दूर होती है ।विशेष ब्रह्मचर्य में रहना आवश्यक है । 

२ - स्तन्यजनन - स्तन में दूध की वृद्धि गेहूँ की सूजी १ ग्राम ,अखरोट के पत्ते १० ग्राम पीसकर दोनों को मिलाकर , गाय के घी में पूरी बनाकर सात दिन तक खाने से स्तन्य ( स्त्री दूग्ध ) की वृद्धि होती है । 

३ - अखरोट का १० से ४० ग्राम तैल ,२५० ग्राम गोमूत्र में मिलाकर पीने से सर्वंागशोथ में लाभ होता है । 

४ - वात प्रधान फोड़े में अगर जलन और वेदना हो तो तिल और अलसी को भूनकर गाय के दूध में उबालकर ,ठंडा होने पर उसी दूध में उन्हें पीसकर फोड़े पर लेप करने से लाभ होता है । 

५ - अमलतास के ८-१० पत्रों को पीसकर ,गाय के घी में मिलाकर लेप करने से विसर्प में लाभ होता है । 

६ - किक्कसरोग,सद्योव्रण में अमलतास के पत्तों को स्त्री के दूध में या गाय के दूध मे पीसकर लगाना चाहिए । 

७ - अमलतास की १०-१५ ग्राम मूल या मूल त्वक को गाय के दूध में उबालकर पीस लें ,दाह व दाद के स्थान पर लगाने से लाभ होता है । 

८ - शिशु की फुन्सी - अमलतास के पत्तों को गौदूग्ध में पीसकर लेप करने से नवजात शिशु के शरीर पर होने वाली फुंसी या छालें दूर हो जाते है । 

९ - व्रण - अमलतास ,चमेली करंज इनके पत्तों को गोमूत्र के साथ पीसकर लेप करें ,इससे व्रण ( घाव ) दूषित अर्श और नाड़ी व्रण नष्ट होता है । 

१० - अमलतास की जड़ को गोमूत्र में पीसकर लेप लगाने से कुष्ठ रोग से उत्पन्न हुई विकृत त्वचा को हटाकर व्रण स्थान को समतल कर देता है । 

13.पञ्चगव्य- चिकित्सा

..............,,,,पञ्चगव्य- चिकित्सा.................. 

१ - दाद खुजली- अडूसे के दस से बारह पत्र तथा दो से पाँच ग्राम हल्दी को एक साथ गोमूत्र में पीसकर लेप करने से खुजली व शोथ कण्डुरोग शीघ्र नष्ट होता है ।इससे दाद उक्वत में भी लाभ होता है । 

२ - आमदोष- मोथा ,बच,कटुकी, हरड़ ,दूर्वामूल ,इन्हें सम्भाग मिश्रित कर ५-६ ग्राम की मात्रा लेकर १०-२० मि०ली० गोमूत्र के साथ शूल में आमदोष के परिपाक के लिए पिलाना चाहिए । 

३ - अगस्त के पत्तों का चूर्ण और कालीमिर्च का चूर्ण समान भाग लेकर गोमूत्र के साथ बारीक पीसकर मिर्गी के रोगी को सूघाँने से लाभ होता है । 

४ - अगस्त के पत्तों को गाय के घी में भूनकर खाने से और गाय के घी का ही सेवन करने से दृष्टिमांद्य ,धंुध या जाला कटता है । 

५ - बुद्धिवर्नार्थ- अगस्त के बीजों का चूर्ण ३-१० ग्राम तक गाय के २५० ग्राम धारोष्णदूध के साथ प्रात: - सायं कुछ दिन तक खाने से स्मरणशक्ति तीव्र हो जाती है । 

६ - गाय के १ किलो मूत्र में अजवायन लगभग २०० ग्राम को भिगोकर सुखा लें इसको थोड़ी -थोड़ी मात्रा में गौमूत्र के साथ खाने से जलोदर मिटता है । 

७ - स्वच्छ अजवायन के महीन चूर्ण को ३ ग्राम की मात्रा में दिन में दो बार गाय के दूध से बनी छाछ के साथ सेवन करने से पेट के कीड़ों का समूल नाश होता है । 

८ - कफ अधिक गिरता हो , बार-बार खाँसी चलती हो ,ऐसी दशा में अजवायन का सत् १२५ मिलीग्राम , गाय का घी २ ग्राम और शहद ५ ग्राम में मिलाकर दिन मे ३ बार खाने से कफोत्पत्ति कम होकर खाँसी में लाभ होता है । 

९ -शूल,अनाह आदि उदर विकारों पर - अमाशय में रस के कम होने से या अधिक भोजन करने के बाद पेट फूल जाता है तो एसे मे अजवायन १० ग्राम ,छोटी हरड़ ६ ग्राम , गाय के घी में भूनी हुई हींग ३ ग्राम और सेंधानमक ३ ग्राम ,इनका चूर्ण बनाकर हल्के गरम पानी के साथ सेवन करें । 

१० - गर्भाशय की पीड़ा - गर्भाशय की पीड़ा मिटाने के लिए खुरासानी अजवायन गोमूत्र में मिलाकर पीस लें और फिर इस पेस्ट मे रूई भिगोकर बत्ती बना लेवे तथा उस बत्ती को योनि में रखकर सोये तो गर्भाशय की पीड़ा शान्त होगी । 

12. पञ्चगव्य-चिकित्सा

............. पञ्चगव्य-चिकित्सा............... 

१- संग्रहणी - ताज़े मीठे आमों के पचास ग्राम ताज़े स्वरस मे २०-२५ग्राम गाय के दूध से बनी मीठा दही तथा एक चम्मच शुंठी चूर्ण बुरक कर दिन मे २-३ बार देने से कुछ ही दिन में पुरानी संग्रहणी अवश्य दूर होती है तथा ( संग्रहणी में आम्रकल्प बहुत लाभदायक है ) 

२ - परिणाम शूल- प्रात: ८ बजे और सांय ४ बजे मीठे पके आमों को इतनी मात्रा में चूस लें कि आधा किलो रस पेट में चला जाय उपर से २५० ग्राम दूध पी लें ,और पानी बिलकुल न पीएँ । एक घंटा बाद उबालकर ठंडा किया हुआ पानी पी सकते है । दाेपहर के भोजन में आम के रस के साथ गेहूँ की रोटी का सेवन करे । इस अवधि में अन्य कोई भोज्य न ले । एक सप्ताह मे आशातीत लाभ होता है । 

३ - आम्रकल्प अच्छे पके हुये मीठे देशी आमों का ताज़ा रस २५० ग्राम से ३५० ग्राम तक , गाय का ताज़ा दूहा हुआ दूध ( धारोष्णदूध ) ५० मि० ली०, अदरक का रस चाय का चम्मच भर ,तीनों । को कासें की थाली में अच्छी तरह फ़ेट लें ,लस्सी जैसा हो जाने पर धीरे - धीरे पी लें । ३ - ४ सप्ताह सेवन करने से मस्तिष्क की दुर्बलता , सिर पीड़ा , सिर का भारी होना ,आँखों के आगे अंधेरा आना , आदि दूर होता है ।यह कल्प यकृत के लिए भी विशेष लाभदायक है । 

४ - कल्मीआम के फुलों को घी में भूनकर सेवन करने से प्रदर में बहुत लाभ होता है । इसकी मात्रा १-४ ग्राम उपयुक्त होती है । 

५ - आम की चाय- आम के ११ पत्र ,जो वृक्ष पर ही पककर पीले रंग के हो गये हो , लेकर एक किलो पानी मे १-२ ग्राम छोटी इलायची डालकर उबालें ,जब पानी आधा शेष रह जाये तो उतार कर शक्कर मिला कर दूध मिलाकर चाय की तरह पीया किया करे । यह चाय शरीर के समस्त अवयवों को शक्ति प्रदान करता है । 

६ - आम के फुलों के चूर्ण ( ५-१० ग्राम ) को गाय के दूध के साथ लेने से स्तम्भन और काम शक्ति की वृद्धि होती है । 

७ - अण्डकोषवृद्धि - आम्रवृक्ष की शाखा पर उत्पन्न गाँठ ( उपर की छाल में गाँठ बन जाती है ) को गोमूत्र में पीसकर लेंप करें । और उपर से सेंक करने पर वेदनायुक्त अण्डकोषशोथ में लाभ होता है । 

८ - भस्मकरोग मीठे आम का रस २५० ग्राम , गाय का घी ४०ग्राम ,खाण्ड १०० ग्राम तीनों को एक साथ मिलाकर सेवन करने से १५ दिन में भस्मकरोग शान्त होता है । 

९ - शरीर पुष्टी के लिए - नित्य प्रात: काले मीठे आम चूसकर ,उपर से सोंठ व छुवारे गाय के दूध में पकाकर पीने से पुरुषार्थ वृद्धि और शरीर पुष्ट होता है । 

१० -अधिक आम खाने के बाद जामुन खाना,कटहल की गुठली खाना,या सूक्ष्म मात्रा में सोंठ ,लवण खाये तो अच्छा रहता है लेकिन यदि गाय का दूध पीएँ तो अति उत्तम रहता है 

११ - पञ्चगव्य चिकित्सा

११ - पञ्चगव्य चिकित्सा 
१ - अर्कमूल की छाल १० ग्राम ,त्रिफला चूर्ण १० ग्राम ,एक साथ आधा किलो जल में अष्टमांस क्वाथ सिद्ध कर प्रतिदिन प्रात: उसमें १ ग्राम मधु और तीन ग्राम मिश्री मिलाकर सेवन कराये,और साथ ही अर्कमूल को गाय के दूध से बनी छाछ में पीसकर श्लीपद पर गाढ़ा लेंप करे ,४० दिन में पूर्ण लाभ आयेगा । 

२ - आक के १०-२० फलो को बिना अग्नि मे तपाये हुये मिट्टी के बर्तन में भरकर ,मुँह बन्द कर गाय के गोबर से बने उपलो की आग में फूँककर ठन्डा होने दें ,और फिर भस्म को निकालकर सरसों के तेल में मिलाकर लगाये ।यह गलित कुष्ठ की प्रथम अवस्था में उपयोगी है । 

३ - पेट में जहाँ तीव्र वेदना हो ,उस स्थान पर आक के २-३ पत्तों पर पुराना घी चुपड़कर गरम करेऔर दर्द के स्थान पर रख दें ,तथा थोड़ी देर के लिए वस्त्र बाँध दें । 

४ - आक का दूध ४ बूँद कच्चे पपीते का रस १० बूँद और चिरायते का रस १५ बूँद मिश्रण को दिन में तीन बार गोमूत्र से सेवन करने पर ३ दिन में ही बिगड़ा हुआ मलेरिया ठीक हो जाता है । 

५ - प्लीहा आदि यकृत रोगों मे - आक का पत्ता एक इंच चकौर महीन क़तर कर ५० ग्राम पानी में पकावें । जब आधा जलशेष रह जाये तब उसमें सेंधानमक १२५मि० ग्राम मिला ,तीनवर्ष तक के बालक को ७ दिन तक पिलावे और खाने में मूँग की दाल की खिचड़ी व गाय के दूध से बनी छाछ ही देने से ठीक होगा । 

६ - तैतया के काटने पर - आक के पत्रों के पीछे जो खार की तरह सफ़ेदी ज़मी होती है ,उसपर मैदा या आटे की लोई घुमाकर सफ़ेदी उतार लें। तथा लोई की कालीमिर्च जैसी गोलियाँ बना लें। प्रात: - सायं १-१ गोली निकलवा कर निहारमुख १५ दिन तक गाय का घी शक्कर में डालकर खिलाये । 

७ - दर्पनाशक- आक या आक के दूध के दुष्प्रभाव से बचाने केलिए रोगी को गाय का दूध तथा गाय का घी का उपयोग लाभकारी होता है । 

८ - यकृत - जिगर की कमज़ोरी मे ( जब पतले दस्त आते हो भूख न लगती हो ) ६ ग्राम आम के छाया में सुखायें हुये पत्तों को २५० ग्राम पानी में पकाये ,१२५ ग्राम जल रह जाने पर छानकर थोड़ा गाय का दूध मिलाकर प्रात: पीने से लाभ होता है । 

९ - आम की ताज़ी छाल को गाय के दूध से बनी दही के पानी के साथ पीसकर पेट के आसपास लेप करने से लाभ होता है । 

१० - रक्तातिसार - आम्रपत्र स्वरस २५ मि० ग्रा० ,शहद और गाय का दूध १२ -१२ ग्राम तथा गाय का घी ६ ग्राम मिलाकर पिलाने से रक्तातिसार में विशेष लाभ होता है । 

24.गौ-चिकित्सा - खूरपका ( मुहँपका ) ( Foot Mouth Dis)

खूरपका ( मुहँपका ) ( Foot Mouth Disease ) 
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यह रोग भारत में ही नही , ब्लकी विश्व के अन्य देशों में भी एक अत्यन्त संक्रामक रोग माना जाता हैं । यह रोग फटे खुर वाले पशुओं में प्राय: पाया जाता हैं । यद्यपि यह रोग संाघातिक नहीं हैं । भारतवर्ष में शायद ही कोई पशु इस रोग से मरता हो किन्तु यह छूत का रोग होने के कारण यह वर्षभर चलता रहता हैं और हर देश में होता हैं इस रोग की छूत हवा के साथ सभी पशुओं तक तथा सभी उम्र के पशुओं तक पहुँच जाती हैं । इस रोग के रोगी के फफोलें ठीक होने के बाद भी विषाणु पशु के खरोंट ( खुरन्ड ) मे ३० दिनों तक जीवित रहते हैं जब खरोंट उतरकर घास आदि में गिर जाते हैं तो घास में भी विषाणु लगभग १५ दिनों तक जीवित रहते हैं । भूसी व चोकर में तो विषाणु ४ महीने तक जीवित रहते हैं । किन्तु गर्मी व धूप से ये आसानी से मर जाते है । १% सोडियम हाइड्रोक्साइड , ४% सोडियम काबोर्नेट और १%,सोडियम फार्मोंलिन जैसे क्षार इनको मारने में सर्वाधिक सफल सिद्ध हुए हैं । इस रोग के शिकार पशुओं में दूधारू पशुओं का दूध कम हो जाता हैं और मैहनती पशुओं की कार्यक्षमता घट जाती हैं । 

लक्षण - खूरपका बिमारी से पीड़ित पशु सुस्त व शिथिल पड़ जाता हैं।समस्त शरीर में कँपकँपी होने लगती हैं साधारण बुखार हो जाता हैं , पशु के मुँह,सींग व पैरों का तापमान बढ़ जाता हैं । कान ठन्डे पड़ जाते हैं और साँसों की गति बढ़ जाती हैं , पशु के मुँह में लार व झाग दिखाई देने लगते हैं । पशु के मुँह से चप- चप की आवाज़ आने लगती हैं वह अपना मुँह बार- बार खोलता है और बन्द करता हैं यह दशा २-३ दिनों तक रहती हैं । दो दिन के बाद पैरों में छालें पड़ जाते हैं ,पैर मवाद से भर जाते है बुखार कम हो जाता हैं । ज्यों - ज्यों बिमारी बढ़ती जाती है , जबड़ों , मुँह ,जीभ में छालें बढ़ते जाते हैं इसी प्रकार खुरों के बीच में घाव बढ़ते है और उनमें कीड़े पड़ जीते है । खूरपका रोग व चेचक रोग को पहचानने में समस्या हो जाती हैं।चेचक में केवल मुँह में छालें पड़ जाते हैं और दस्त आरम्भ हो जाते हैं किन्तु खूरपका में ऐसा नहीं होता हैं । इसमें सिर्फ़ मुँह में और खुर में ही छालें पड़ते हैं । इस रोग के छालें हमेशा पीली - सी झिल्ली से ढके रहते हैं अन्य बिमारी के छालें लाल रहते हैं यह इस रोग की विशेष पहचान हैं । इस रोग के विषाणु मुँह , जीभ , आंत अथवा खुरों के बीच की खुली जगह में होते हैं और इसी प्रकार किसी अंग की चोट के रास्ते शरीर में घुस जाते हैं । यदि किसी स्वस्थ पशु को कोई छूत की बिमारी लगी हैं तो उसके लक्षण दिखने मे २ से ५ दिन तक का समय लग जाता हैं । शुरूआत में पशु अत्यधिक सुस्त रहता हैं उसे भूख नहीं लगती हैं तथा बुखार आ जाता हैं जिससे उसके शरीर का तापमान १०२ डिग्री से १०५ डिग्री तक हो जाता हैं किन्तु इन लक्षणों से प्राय: इस रोग का पता नहीं चलता हैं । कुछ समय के बाद पशु अचानक ही लड़खड़ाने लगता हैं , उसके होंठ लटक जाते हैं और मुँह से लार टपकने लगती हैं । ये लक्षण एक साथ समूह के अनेक पशुओं में प्रकट होते हैं । खुरों के साथ जुड़ी हुई पैरों की खाल में फफोलें पड़ जाते हैं , पशु बार- बार पैरों को झटका मारता हैं और कभी- कभी जीीभ से चाटता हैं । फिर उसके मुँह व जबड़ों तथा जीभ पर भी छालें पड़ जाते हैं । यह छालें १८ से २४ घन्टे के अन्दर फूट जाते है , छालें फुटने पर उनमें से जो पानी निकलता हैं , उसमें इस रोग के विषाणु भरे होते हैं । छालों के स्थान पर लाल- लाल घाव बन जाते हैं रोगी पशु की हालत दिन- प्रतिदिन बिगड़ती जाती हैं । क्योंकि वह ठीक प्रकार से खा- पी नहीं पाता हैं । दूधारू पशु का दूध घट जाता हैं और रोग बढ़ने पर पशु के नथुनों में भी छालें पड़ जाते हैं । 

विशेष -- वैसे तो यह रोग वर्षभर चलता रहता हैं पर मार्च , अप्रैल ,अक्तुबर,दिसम्बर में विशेष कर हो जाता हैं । इस रोग में हमारे देश में पशु कम मरते है , वैसे तो अपनी शुद्ध देशी गाय में यह रोग होता नहीं हैं यह नश्ल बदलकर जो दौगली गाय है या उनमें जर्सी आदि का असर है तो यह रोग हो जाता हैं । लेकिन जो रोगी हो जाता है तो उसकी दूध उत्पादन क्षमता घट जाती हैं व सन्तानोत्पत्ति के लिए अयोग्य हो जाता हैं । भैंस के १ साल से छोटे बच्चों को यह रोग कम होता हैं और डेढ़ साल से तीन साल के पशुओं को यह रोग बहुत जल्दी लगता हैं तथा इस आयु में यह रोग बार- बार हो जाता हैं तथा बजे पशुओं या बूढे पशुओ में कम होता हैं तथा उन पर दूबारा रोग हमला नहीं करता है यह सभी प्रकार के पशु दूधारू या अन्य सभी को होता है लेकिन भैंसों का दूध तेज़ी से घटता है और गाय पर कम असर होता हैं । यह रोग ८ दिन से लेकर २८ दिन तक चलता रहता हैं जबकि यह रोग कमज़ोर पशुओं में कम होता हैं अच्छे मज़बूत पशुओं में ज़्यादा होता हैं । 

रोग के बचाव - 
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१ - रोगी पशु को स्वस्थ पशुओं से तुरन्त अलग कर देना चाहिए । 

२ - रोगी पशु को बाँधने के स्थान चूना व फिनाइल डालकर रोगाणमुक्त कर देना चाहिए । 

३ - रोगी पशुओं को गन्दगी व सीलनयुक्त स्थान पर नहीं रखना चाहिए । 

४ - रोग फैलने के मौसम में सभी पशुओं के घावों व खुरों पर कपूरादि तेल लगाते रहना चाहिए । 

५ - रोगी पशु की टहल करने वाले व्यक्ति को दूसरे पशुओं के पास नहीं जाना चाहिए । 

६ - टहल करने वाले को अपने कपड़े ऊबाले पानी में धोकर रोगाणु मुक्त होना चाहिए । 

७ - इस रोग के टीके लगाने चाहिए । 

८ - पशुओं को पैरडुब्बी द्वारा बचा जा सकता है और बीच- बीच में कराते रहना चाहिए । 

९ - रोगी पशु का झूठा पानी- खाना अन्य पशु को नहीं देना चाहिए । 

# - खूरपका रोग मे पशुपालकों को यह ध्यान रखना चाहिए । चूँकि यह रोग हवा के माध्यम से भी फैलता हैं , जिधर से हवा चल रही हो उधरबिमार पशुओं को न बाँधे नहीं तो स्वस्थ पशु बिमार हो जायेंगे स्वस्थ पंशु को बिमार पशु की छुई हूई हवा न लगे । पशु उन्हें जौं या चने का सत्तु पिलाना चाहिए । अलसी की लई खिलाने से पशु की शक्ति कम नहीं होती हैं । चावल का माण्ड देने से भी आराम मिलता हैं । लाल दवा मिला पानी पिलाना भी गुणकारी हैं । 

# - खूरपका में बुखार की तीन अवस्थाएँ होती है तो उसका इलाज की भी तीन अवस्थाओं में होना चाहिए , बुखार के साथ- साथ इस रोग की प्रथम अवस्था चालू हो जाती हैं जिसकी दवा इस प्रकार हैं - 

१ -औषंधि - कालीमिर्च पावडर २ तौला , गाय का घी २५० ग्राम ,गुनगुना करके दोनो को आपस में मिलाकर पशु को सुबह- सायं दिन में दो बार ३-४ दिन तक देने से लाभ होता हैं । 

२ - औषधि - पीपल के पेड़ के ऊपर जो नीम का का पेड़ उगा हो उसकी पत्तियाँ २५० ग्राम , पानी में पीसकर उसमें गाय का घी २५० ग्राम गुनगुना करके मिलाकर पशु को पिलाने से लाभ होता हैं । 

३ - औषधि - पुराना गुड १ किलो , सौँफ २५० ग्राम , गरमपानी २ लीटर मिलाकर पिलाने से लाभँ होता हैं । 

४ - औषधि - घुँघुची लाल ( गुञ्जाफल )की २५० पत्तियाँ पानी में पीसकर देने से बुखार उतर जाता हैं ।

५ - औषधि - चावल का माण्ड २ किलो , पुराना गुड १ किलो मिलाकर पिलाने से बु खार उतर जाता हैं ।

६ - सफ़ेद तिल को पानी में पीसकर पिलाने से पशु का बुखार उतर जाता हैं । 

७ - चिरायता पावडर ३ तौला , साँभरनमक पावडर ३ तौला , कलमीशोरा १५ माशा और डेढ़ छटांक गुड़ मिलाकर पानी मे मिलाकर पिलाने से लाभ होता हैं । 

८ - पैरों के घावों पर ५ भाग कोलतार और १ भाग नीला थोथा मिलाकर तैयार की गई मलहम लगाई जाती हैं , जोकि किटाणुनाशक , विषमारक तथा घावपूरक होती हैं । 

९ - बोरिकएसिड पावडर गरम पानी में मिलाकर उससे पशु का मुँह , थन तथा खुरों को धोवें और उसी से सेकें । गि्लसरीन में थोड़ा-सा पावडर मिलाकर मुँह के छालों में लगाने से गुणकारी होता हैं । 

खूरपका की द्वितीय अवस्था - 
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# - बुखार उतर जाने के बाद घाव धोने की आवश्यकता पड़ती हैं । पशु उस अवस्था में चलने- फिरने में असमर्थ हो जाता हैं । घावों को धोने के लिए इन दवाओं का प्रयोग करना चाहिए -- 

१ - फिटकरी को गरम पानी में डालकर पशु का मुँह व खुर धोने चाहिए । 

२ - बबूलछाल , ढाकछाल , जामुनछाल, आँवलाछाल ,और नीम की छाल सममात्रा में लेकर काढ़ा बनायें ।इन दवाओं के काढें से पशु के पैरों को धुलवायें काढ़ा बनाने कि विधी इस प्रकार हैं - सभी दवाओं को पानी में डालें जितने पानी में डूब जायें उससे डबल पानी में पकायें । जब तीन हिस्सा पानी जलकर एक हिस्सा पानी रह जाये तब धुलाई का कार्य किया जायें और मुँह व पैर में ज़ख़्म यदि अधिक हो गये हो तो उन्हें काढ़े से भलीप्रकार से धोना चाहिए । शहद या शीरा हो तो अच्छा है नहीं तो तिल या नारियल तेल या गाय का घी २५० ग्राम में फिटकरी पावडर , कत्था , सुहागाफूला, खाने का सोडा आधा- आधा टीस्पुन ( चम्मच ) मिलाकर दवा का लेप करना चाहिए । दवा लगाकर कपड़े की पट्टी बाँधकर उसपर मिट्टी लगा देनी चाहिए जिससे उसमें गोबर न घुसे और पशु मुँह से खोल न दें । 

# - घाव पर मरहम भी लगा सकते है , मरहम इस प्रकार बनायें - - 

१ - औषधि - अलसी का तेल २५० ग्राम , कपूर १ छटांक , डेढ़ तौला तारपीन का तेल , तीनों को आपस में मिलाकर घाव पर लगाने से आराम आता हैं । 

२ - औषधि - तुतिया १ भाग , अलकतरा १० भाग , दोनों को मिलाकर घाव पर लगाकर पट्टी बाँधने से आराम आता हैं । 

३ - औषधि - नीम की पत्तियों को पानी में पीसकर घाव पर लगाने से आराम आता है । 

४ - औषधि - बर्रे का डढुआ ( बर्रे के दानों को मिट्टी के बर्तन में बन्द कर आग में पकाकर तेल निकाले ) इसके बाद पशु के घाव पर लगायें तो आराम आता हैं । 

५ - आयुर्वेद में डुब्बी प्रणाली ( Foot Bath ) सर्वोत्तम मानी गई हैं । इसकी विधी इस प्रकार हैं - - 
गौशाला या डेयरी या पशुओ के बँधने के स्थान पर या आसपास में एक ऐसा स्थान बनाना चाहिए जो १२ फूट लम्बा व १ फ़िट गहरा रपटा बनाना चाहिए यानि गड्ढा लम्बाई की दिशा में जिधर से शुरूआत होती है वहाँ हर फ़ुट पर डेढ़ - डेढ़ इंच गहरा करते चले और बीच तक गहरा करें और अन्तिम तक बीच से डेढ़- डेढ़ इन्च गहराई कम करते चले आये और साईड में दिवार दो-दो फ़िट उँचा कर दें और गड्ढे के अन्दर सिमेन्ट कर देना चाहिए जब-जब पशुओं में खूरपका रोग आये इस गड्ढे में पानी भर कर उसमें फिनाइल या लाल दवा पौटेशियम परमैग्नेट डालकर पशुओं को इस पानी में से निकालना चाहिए इससे रोग की रोकथाम होगी । 

६ - औषधि - बबूल छाल ( कीकर छाल ) २५० ग्राम , जवासे का हरा पौधा १ छटांक , फिटकरी ११ छटांक , हराकसीस आधा छटांक , कत्था आधा छटांक , सबको लोहे के बर्तन मे ४ लीटर पानी में उबालें । जब तीन चौथाई पानी रह जाये तो कपड़े से छानकर थोड़ा - सा कपड़े धोने का सोडा मिला दें । यदि उक्त दवाओं में एक - आध दवा न मिले तो कोई हर्ज नहीं हैं परन्तु कीकर छाल ज़रूरी हैं । काढ़े से मुँह व खुरों को प्रतिदिन पिचकारी या प्रेशर से धोए तो अच्छा रहेगा । 

कीटाणु नाशक औषधियाँ -- 
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पशु के खुरों में कोई लेप या मरहम आदि लगाने से पहले यह देख लेना चाहिए कि घाव व खुरों में कीड़े तो नहीं पड़ गये हैं यदि ऐसा है तो कीटाणु नाशक दवा लगाकर दवा लगाकर उनके मर जाने पर दवा- मरहम लगाकर पट्टी बाँधनी चाहिए - 

१ - औषधि - फिनाइल का फोहा बाँधे या फिनायल से पानी में मिलाकर उससे पैर धोये । 

२ - औषधि -मैथिलेटिड स्प्रिट भी उत्तम कीटाणु नाशक है साथ ही घावों को भी भरती हैं । दवा को खुरों के बीच तक पहुचानी चाहिए । 

३ - औषधि - मुँह तथा थन आदि में उपर्युक्त दवा का प्रयोग नहीं किया जाता हैं इसके स्थान पर लाल दवा के घोल से धोना चाहिए । 

४ - औषधि - जामुन तथा अनार की छाल १-१ पाँव तथा एक पाँव कीकर के पत्ते या छाल ४ लीटर पानी में डालकर पकायें । जब एक चौथाई पानी शेष रहने पर छानकर ठन्डा होने पर उससे पशु के मुँह , थन एवं खुरों को धोयें । यह दवा भी उत्तम कीटाणु नाशक हैं । 


५ - औषधि - यदि खुरों के पास पैरों में माँस बढ़ जायें तो उस पर तुतिया रगड़ना सर्वोत्तम एवं लाभकारी हैं । 

६ - औषधि - यदि सुम गिर जाय तो तुतिया १ भाग , फिटकरी २ भाग और कोयला ४ भाग - सभी को बारीक पावडर करके कपडछान कर मिलाकर घाव पर बुरक देना चाहिए । और पट्टी बाँध देनी चाहिए । यह । अत्यन्त लाभकारी उपाय हैं । 

# - खूरपका ( ज्वरनाशक ) औषधियाँ - 
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खूरपका बुखार को झाड़ने का मन्त्र व विधी इस प्रकार हैं -- 

गंग जमुन दो बहे सरस्वती , गऊ चरावै गोरखयती ।। 
गोरखयती की बाचा फुरी , नामहुँ फूटे न आव खुरी ।। 
जारा मारा माँद विसहरी, बडुका वौडी डिमरारूज जारी ।। 
भस्म खुरखुट दोहाई नोना चमारी की आन ।। 
मेरी भक्ति - गुरू की शक्ति , फुरो मन्त्र ईश्वरवरो वाचा ।। 

नीम की हरी पत्तियों वाली टहनी से ५ बार मन्त्र पढ़कर पशु को झाड़ना चाहिए पशु का बुखार ठीक होता हैं । 

# - इस खूरपका रोग में पशु को तेज़ बुखार हो जाता हैं और बुखार के कारण उसके घाव भी जल्दी नहीं भरते हैं । और नहीं पशु कुछ खा - पी सकता हैं इसलिए सबसे पहले बुखार उतारने की कोशिश करनी चाहिए । कुछ ज्वरनाशक योग इस प्रकार है -- 

१ - औषधि - कपूर ९ माशा , कलमीशोरा १ तौला , देशीशराब ढाई तौला और पानी सवा लीटर लें । पहले कपूर को शराब में अच्छी तरह मिला लें और शीरे को पानी में घोल लें । फिर इन दोनों घोलों को परस्पर मिलाकर थोड़ी - थोड़ी मात्रा में पशु को पिलायें । 

२ - औषधि - बबूल व सिरस की छाल ५-५ तौला , हराकसीस ३ माशा , नीम के फूल और चिरायता ५-५ तौला , पीले - फूलों वाली कटेरी ५ तौला और पानी ५ लीटर लें । हराकसीस उसमें घोल दें । इनका काढ़ा थोड़ा- थोड़ा करके गुनगुना - गुनगुना ही पशु को पिलायें । यह काढ़ा बुखार की तेज़ी को कम करता हैं । इस काढ़े से पशु के थन व मुँह को धोना भी लाभकारी होता हैं । 

शुक्रवार, 18 दिसंबर 2015

भारत के गो भक्तों से प्रश्न है ?????

भारत के गो भक्तों से प्रश्न है ?????

यदि कोई प्रतििष्ठत व्यक्ति है।  उसके सामने दो विकल्प  है एक तरफ है अपमान दूसरी तरफ है मौत वो क्या चुनेगा ?? 
आपका उत्तर होगा मौत। 
    इस भूमण्डल पर गो माता सबसे ज्यादा प्रतिष्ठित है , वेद पुराण ,उपनिषद, गीता, भागवत ,रामायण , भगवान ने भी जिसकी महिमा गायी है ,
ऐसी प्रतिष्ठित गो माता का अपमान हम हिन्दुओं के द्वारा हुआ है इसलिए गो माता ने मौत को चुना है। गो माता में अपार शक्ति है उसमें तैंतीस 
करोड देवता है वो चाहे तो एक देवता खडा करके अपनी रक्षा कर सकती है लेकिन हमारे द्वारा गो का अपमान होने पर गो माता जीना नही चाहती
 और वह मौत को स्वीकार कर रही है 

गो माता को राष्ट्र माता बनाओ गो को भगवान की तरह अपने ईष्ट की तरह घर घर में पूजो और सेवा व सम्मान करो गो रक्षा हो जायेगी 

कोई कहता है गो राष्ट्रीय पशु हो 
कोई कहता है गो राष्ट्रीय प्राणी हो 
अंग्रेजों ने इस देश मे आकर हमारी गो माता को पशु बताकर बकरे और मुर्गे की तरह कटवा दिया। भारत के ऋिषयों ने पूरी दुिनया के लोगों को बताया है 
गावो विश्वस्य मातर: 
गो माता जानवर नही भारत के लोगों की जान है 
गो माता प्राणी नही इस देश के लोगों का प्राण है 
इस देश में गो माता को राष्ट्र माता के पद पर बिठाओ 
भारत के ऋिषयों ने पूरे देश और दुनिया को एक परिवार या घर के रूप में देखा है। घर बनता ही माँ से है। इस देश में राष्ट्र गीत भी है राष्ट्र गान भी है राष्ट्र पक्षी भी है राष्ट्र पशु भी है राष्ट्रपिता भी हैै। लेकिन हमारे राष्ट्र रूपी घर में राष्ट्र माता नही है 
इसलिए गो माता को राष्ट्र माता बनाओ। और दूसरी बात जिस  देश में शिलाओं की प्राण प्रतिष्ठा करने पर पत्थर भी भगवान बन जाता है तो विचार करिए जिस गो माता की प्रतिष्ठा स्वयं भगवान ने की हो वह गो माता कितनी बडी भगवान होगी। इसलिए वेदों में लिखा है 
गोस्तु मात्रा न विद्यते 
गाय की बराबरी कोई नही कर सकता।  उस गो माता के लिए हमे किसी मंदिर बनाने की जरूरत नही है गो माता के घर पहुंचते ही वह घर मंदिर बन जाता है 
गो माता को वो सम्मान दो जो हम भगवान को देते हैं 

आप एक दिन आकर 
28 फरवरी 2016 
को दिल्ली रामलीला मैदान गो रक्षा के लिए खडे हो जाओ 
उठो भारत के नर-नारियों हुंकार भरो,
गौमाता को राष्ट्रमाता स्वीकार करो।।

जो गाय की पूछ पकड लेता है उसे गो माता सींग पर उठाकर उच्च शिखर पर पहुंचा देती है। 

निवेदक 
आपका मित्र 
गोवत्स राधेश्याम रावोरिया 
9042322241 

गुरुवार, 19 नवंबर 2015

गौपाष्टमी पर्व की सभी गौ भक्तों (गोपालको) को गोक्रांति मंच की और से कोटि कोटि बधाईयाँ....

गौपाष्टमी पर्व की सभी गौ भक्तों (गोपालको) को गोक्रांति मंच की और से कोटि कोटि बधाईयाँ....

आज ही के दिन से भगवान श्रीकृष्ण गौवंश को गोवर्धन पर्वत पर.... संवर्धन हेतू विचरण के लिए ले गए थे....
   आज के पावन दिन मैया यशोदा ने  भगवान् श्रीकृष्ण का श्रृंगार करके उन्हें गौ चारण के लिए प्रथम बार भेजा था। जिस ब्रह्म की चरण रज के लिए ब्रह्मा-शंकर तक तरसते हैं वो चरण गौ माता की सेवा के लिए कंकड़ पत्थर और कुंज-निकुंजों में विचरण करते हैं।
        गाय भगवान् श्री कृष्ण को सबसे ज्यादा प्रिय हैं। गाय की सेवा सीधी श्रीकृष्ण तक पहुँचती है। गौ माता की सेवा के कारण ही प्रभु का नाम गोपाल पड़ा। गाय हमारे आराध्य की भी आराध्या है। गौ माता में समस्त देवी-देवता निवास करते हैं।
        आज के इस युग में भगवान् श्री कृष्ण को तो बड़े बड़े भोग लगाये जाते हैं पर उनकी प्राण प्यारी गाय भूखी-प्यासी इधर उधर भटकती रहती है। अपने घर पर गाय की सेवा नहीं कर सकते तो किसी गौशाला में गौ माता को दत्तक (गोद) जरुर ले लेना। आज से पवित्र दिन और कौन सा होगा ?

    गौ सेवा एंव गौ रक्षा का संकल्प लें।

जय गौमाता जय गोपाल

निवेदक आपका मित्र
गोवत्स राधेश्याम रावोरिया

बुधवार, 11 नवंबर 2015

दीपावली की हार्दिक शुभकामनाये

आप सभी अति प्रिय स्नेहीजनो को दीपावली की हार्दिक शुभकामना । आज गौपूजन जरूर करे । क्योकि शास्त्रो में कहा गया है "गोमय वसते लक्ष्मी" गोबर में ही लक्ष्मी जी बिराजति है। गौमाता लक्ष्मी जी की बड़ी बहेन है समुन्द्र मंथन में लक्ष्मी माता से पहले गौमाता प्रकट हुई।
दीपोत्सव के ज्योतिर्मय पर्व पर पूज्या गोमाता आपके जीवन में नवीन सात्विक ऊर्जा, सकारात्मक समझ, निर्मल मन, विवेकवती बुद्धि, हृदय अनुरागी तथा उज्जवल भविष्य के साथ सरलता, विनम्रता, दया, करुणा, संस्कार, स्वास्थ्य, दीर्घायु, समृद्धि, दानशीलता, धैर्य, शौर्य, वीरता एवं पूज्या गोमाता के प्रति पूर्ण समर्पण व सेवा का भाव प्रदान करें यही मंगल कामना करता हूँ।
आपका मित्र
गोवत्स राधेश्याम रावोरिया

रविवार, 8 नवंबर 2015

गोवत्स द्वादशी

गोवत्स द्वादशी

सत्त्वगुणी, अपने सान्निध्यसे दूसरोंको पावन करनेवाली, अपने दूधसे समाजको पुष्ट करनेवाली, अपना अंग-प्रत्यंग समाजके लिए अर्पित करनेवाली, खेतोंमें अपने गोबरकी खादद्वारा उर्वराशक्ति बढानेवाली, ऐसी गौ सर्वत्र पूजनीय है । हिंदू  कृतज्ञतापूर्वक गौको माता कहते हैं । जहां गोमाताका संरक्षण-संवर्धन होता है, भक्तिभावसे उसका पूजन किया जाता है, वहां व्यक्ति, समाज एवं राष्ट्रका उत्कर्ष हुए बिना नहीं रहता। भारतीय संस्कृतिमें गौको अत्यंत महत्त्व दिया गया है । वसुबारस अर्थात गोवत्स द्वादशी दीपावलीके आरंभमें आती है । यह गोमाताका सवत्स अर्थात उसके बछडेके साथ पूजन करनेका दिन है ।

१. गोमाता काे सम्पूर्ण विश्‍वकी माता क्याें कहते हैं ?

गोमाताकी रीढमें सींगसे पूंछतक ‘सूर्यकेतु’ नामक एक विशेष नाडी होती है । गोमाता अपने सींगोंके माध्यमसे सूर्यकी ऊर्जा अवशोषित करती है तथा ‘सूर्यकेतु’ नाडीमें वाहित करती है । सूर्यसे मिलनेवाली ऊर्जा दो प्रकारकी होती है । क्रिया ऊर्जा एवं ज्ञा ऊर्जा । क्रिया ऊर्जा गति तथा ज्ञा ऊर्जा विचारशक्ति दान करती है । जुगालीकी क्रियाके समय सूर्यसे प्राप्त दोनों ऊर्जाआेंको चबाकर वह अन्नमें मिला देती है । औषधीय वनस्पतियोंके रस, क्रिया ऊर्जा एवं ज्ञा ऊर्जा का संयोग होकर एक अमृत गोमाताके उदरमें पहुंचता है । वहां सर्व पाचन पूर्ण होनेके पश्‍चात यह अमृत तीन भागोंमें बंटता है – पृथ्वीके पोषण हेतु गोमय, वायुमण्डलके पोषण हेतु गोमूत्र तथा प्राणिजगत, विशेषतः मानवके पोषणके लिए दूध । इस कार गोमाताके कारण सम्पूर्ण सृष्टिका पोषण होता है । इसलिए विष्णुधर्मोत्तर पुराणमें कहा गया है कि ‘गावो विश्‍वस्य मातरः ।’ अर्थात गाय सम्पूर्ण विश्‍वकी माता है ।

२. गौमें सभी देवताओंके तत्त्व आकर्षित होते हैं

गौ भगवान श्रीकृष्णको प्रिय हैं । दत्तात्रेय देवताके साथ भी गौ है । उनके साथ विद्यमान गौ पृथ्वीका प्रतीक है । प्रत्येक सात्त्विक वस्तुमें कोई-ना-कोई देवताका तत्त्व आकर्षितहोता है । परंतु गौकी  यह विशेषता है, कि उसमें सभी देवताओंके तत्त्व आकृष्ट होते हैं । इसीलिए कहते हैं, कि गौमें सर्व देवी-देवता वास करते हैं । गौसे प्राप्त सभी घटकोंमें, जैसे दूध, घी, गोबर अथवा गोमूत्रमें सभी देवताओंके तत्त्व संग्रहित रहते हैं ।

३. गोवत्स द्वादशी का अध्यात्मशास्त्रीय महत्त्व

ऐसी कथा है कि समुद्रमंथनसे पांच कामधेनु उत्पन्न हुर्इं । उनमेंसे नंदा नामक धेनुको उद्देशित कर यह व्रत मनाया जाता है । वर्तमान एवं भविष्यके अनेक जन्मोंकी कामनाएं पूर्ण हों एवं पूजित गौके शरीरपर जितने केश हैं, उतने वर्षोंका स्वर्गमें वास हो ।

शक संवत अनुसार आश्विन कृष्ण द्वादशी तथा विक्रम संवत अनुसार कार्तिक कृष्ण द्वादशी गोवत्स द्वादशीके नामसे जानी जाती है । यह दिन एक व्रतके रूपमें मनाया जाता है । गोवत्स द्वादशी के दिन श्री विष्णुकी आपतत्त्वात्मक तरंगें सक्रिय होकर ब्रह्मांडमें आती हैं । इन तरंगोंका विष्णुलोकसे ब्रह्मांडतकका  वहन विष्णुलोककी एक कामधेनु अविरत करती हैं । उसके प्रति कृतज्ञता व्यक्त करनेके लिए कामधेनुके प्रतीकात्मक रूपमें इस दिन गौका पूजन किया जाता है ।

४. गोवत्स द्वादशी व्रतके अंतर्गत उपवास

इस दिन सौभाग्यवती स्त्रियां उपवास एक समय भोजन कर रखाती है । परंतु भोजनमें गायका दूध अथवा उससे बने पदार्थ, जैसे दही, घी, छाछ एवं खीर तथा तेलमें पके पदार्थ, जैसे भुजिया, पकौडी इत्यादि ग्रहण नहीं करते, साथ ही इस दिन तवेपर पकाया हुआ भोजन भी नहीं करते । प्रातः अथवा सायंकालमें सवत्स गौकी पूजा की जाती हैं ।

५. गोवत्स द्वादशी को गौपूजन प्रात अथवा सायंकालमें करनेका शास्त्रीय आधार

प्रातः अथवा सायंकालमें श्री विष्णुके प्रकट रूपकी तरंगें  गौमें अधिक मात्रामें आकर्षित होती हैं । ये तरंगें श्री विष्णुके अप्रकट रूपकी तरंगोंको १० प्रतिशत अधिक मात्रामें गतिमान करती है । इसलिए गोवत्स द्वादशीको गौपूजन सामान्यतः प्रातः अथवा सायंकालमें करनेके लिए कहा गया है ।

उपरांत ‘इस गौके शरीरपर जितने केश हैं, उतने वर्षोंतक मुझे स्वर्गसमान सुख की प्राप्ति हो, इसलिए मैं गौपूजन करता हूं ।  इस प्रकार संकल्प किया जाता है । प्रथम गौ पूजनका संकल्प किया जाता है । तत्पश्चात पाद्य, अर्घ्य, स्नान इत्यादि उपचार अर्पित किए जाते हैं। वस्त्र अर्पित किए जाते हैं । उपरांत गोमाताको चंदन, हलदी एवं कुमकुम अर्पित किया जाता है । उपरांत अलंकार अर्पित किए जाते हैं । पुष्पमाला अर्पित की जाती है ।

तदुपरांत गौके प्रत्येक अंगको स्पर्श कर न्यास किया जाता है । गौ पूजनके उपरांत बछडेको चंदन, हलदी, कुमकुम एवं पुष्पमाला अर्पित की जाती है । उपरांत गौ तथा उसके बछडेको धूपके रूपमें दो अगरबत्तियां दिखाई जाती हैं । उपरांत दीप दिखाया जाता है । दोनोंको नैवेद्य अर्पित किया जाता है । उपरांत गौकी परिक्रमा की जाती है ।

पूजनके उपरांत पुनः गोमाताको  भक्तिपूर्वक प्रणाम करना चाहिए । गौ प्राणी है । भयके कारण वह यदि पूजन करने न दें अथवा अन्य किसी कारणवश गौका षोडशोपचार पूजन करना संभव न हों, तो पंचोपचार पूजन भी कर सकते हैं । इस पूजनके लिए पुरोहितकी आवश्यकता नहीं होती ।

६. गोवत्सद्वादशीसे मिलनेवाले लाभ

गोवत्सद्वादशीको गौपूजनका कृत्य कर उसके प्रति कृतज्ञता व्यक्त की जाती है । इससे व्यक्तिमें लीनता बढती है । फलस्वरूप कुछ क्षण उसका आध्यात्मिक स्तर बढता है । गौपूजन व्यक्तिको चराचरमें ईश्वरीय तत्त्वका दर्शन करनेकी सीख देता है । व्रती सभी सुखोंको प्राप्त करता है ।