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श्रीकृष्ण और उनकी प्रिय गायें.........
बड़ी ही मधुर लीला है जरूर पढ़े
आगे गाय पाछे गाय, इत गाय उत गाय, गोविन्द को गायन में बसवोई भावे।
गायन के संग धाये, गायन में सचु पाये, गायन की खुररेणु अंग लपटावे॥
गायन सो ब्रज छायो बैकुंठ बिसरायो, गायन के हेत कर गिरि ले उठायो।
छीतस्वामी गिरिधारी विट्ठलेश वपुधारी, ग्वारिया को भेष धरे गायन में आवे॥
भगवान श्रीकृष्ण को गाय अत्यन्त प्रिय है।
भगवान ने गोवर्धन पर्वत धारण करके इन्द्र के कोप से गोप, गोपी एवं गायों की रक्षा की।
अभिमान भंग होने पर इन्द्र एवं कामधेनु ने भगवान को ‘गोविन्द’ नाम से विभूषित किया।
गो शब्द के तीन अर्थ हैं:- इन्द्रियाँ, गाय और भूमि, श्रीकृष्ण इन तीनों को आनन्द देते हैं।
गौ, ब्राह्मण तथा धर्म की रक्षा के लिए ही श्रीकृष्ण ने अवतार लिया है।
'नमो ब्रह्मण्यदेवाय गोब्राह्मणहिताय च।
जगद्धिताय कृष्णाय गोविन्दाय नमो नम:॥'
श्रीरामचरितमानस में भी लिखा है:-
'बिप्र धेनु सुर संत हित लीन्ह मनुज अवतार।
निज इच्छा निर्मित तनु माया गुन गो पार॥'
गोमाता मातृशक्ति की साक्षात् प्रतिमा है, वेदों में कहा गया है कि गाय रुद्रों की माता, वसुओं की पुत्री, अदिति-पुत्रों की बहन और घृतरूप अमृत का खजाना है।
भविष्यपुराण में श्रीकृष्ण ने युधिष्ठिर से कहा है:-समुद्रमंथन के समय क्षीरसागर से लोकों की कल्याणकारिणी जो पांच गौएँ उत्पन्न हुयीं थीं उनके नाम थे - नन्दा, सुभद्रा, सुरभि, सुशीला और बहुला, इन्हें कामधेनु कहा गया है।
संसार में पृथ्वी और गौ से अधिक क्षमावान और कोई नहीं है, ब्राह्मणों में मंत्रों का निवास है और गाय में हविष्य स्थित है।
गाय को सर्वतीर्थमयी कहा गया है, गाय को इहलोक में मुक्ति दिलाकर परलोक में शान्ति दिलाने का माध्यम माना गया है।
श्रीकृष्ण की बाललीला का मुख्य पात्र गौएं ही थीं, श्रीकृष्ण का गाय चराने जाना, उनकी मधुर वंशी ध्वनि पर गायों का उनकी ओर भागते चले आना, श्रीकृष्ण का छोटी उम्र में हठ करके गाय का दूध दूहना सीखना एवं प्रसन्न होना, गाय का माखन चुराना आदि।
नंदबाबा के पास नौ लाख गौएँ थीं।
श्रीकृष्ण कुछ बड़े हुए तो उन्होंने गोचारण के लिए माँ यशोदा से आज्ञा माँगी:-
मैया री! मैं गाय चरावन जैंहौं।
तूँ कहि, महरि! नंदबाबा सौं, बड़ौ भयौ, न डरैहौं॥
श्रीदामा लै आदि सखा सब, अरु हलधर सँग लैहौं।
दह्यौ-भात काँवरि भरि लैहौं, भूख लगै तब खैहौं॥
बंसीबट की सीतल छैयाँ खेलत में सुख पैहौं।
परमानंददास सँग खेलौं, जाय जमुनतट न्हैहौं॥
माता यशोदा का हृदय तो धक्-धक् करने लगा कि इतनी दूर वन में मेरा प्राणधन अकेला कैसे जायेगा।
उन्होंने बहुत समझाया कि बेटा अभी तुम छोटे हो पर कृष्ण की जिद के आगे वह हार मान ही गयीं।
कार्तिकमास के शुक्लपक्ष की अष्टमी को गोचारण का मुहूर्त निकला।
माता यशोदा ने प्रात:काल ही सब मंगलकार्य किये और श्रीकृष्ण को नहला कर सुसज्जित किया।
सिर पर मोरमुकुट, गले में माला, तथा पीताम्बर धारण करवाया, हाथ में बेंत तथा नरसिंहा दिया।
फिर पैरों में जूतियाँ पहनाने लगीं तो कृष्ण ने जूते पहनने से मना कर दिया और माँ से कहा:- ‘यदि तू मेरी सारी गौओं को जूती पहना दे तो मैं इनको पहन लूँगा, जब गैया धरती पर नंगे पाँव चलेगी तो मैं भी नँगे पाँव जाऊँगा।’
श्रीकृष्ण जब तक ब्रज में रहे उन्होंने न तो सिले वस्त्र पहने, न जूते पहने और न ही कोई शस्त्र उठाया।
श्रीकृष्ण ने गोमाता की दावानल से रक्षा की, ब्रह्माजी से छुड़ाकर लाए, इन्द्र के कोप से रक्षा की।
गायों को श्रीकृष्ण से कितना सुख मिलता है यह अवर्णनीय है, जैसे ही गायें कृष्ण को देखतीं वे उनके शरीर को चाटने लगतीं हैं।
हर गाय का अपना एक नाम है, कृष्ण हर गाय को उसके नाम से पुकारते हैं तो वह गाय उनके पास दौड़ी चली आती है और उसके थनों से दूध चूने लगता है, समस्त गायें उनसे आत्मतुल्य प्रेम करती थीं।
गौ के बिना जीवन नहीं, गौ के बिना कृष्ण नहीं, कृष्णभक्ति भी नहीं।
जो व्यक्ति अपने को कृष्ण भक्त मानता है और शारीरिक व मानसिक रूप से वृन्दावन में वास करता है उन्हें तो विशेष रूप से कृष्ण की प्रसन्नता के लिए गोपालन, गोरक्षा व गोसंवर्धन पर ध्यान देना चाहिए।
नमो गोभ्य: श्रीमतीभ्य: सौरभेयीभ्य: एव च।
नमो ब्रह्मसुताभ्यश्च पवित्राभ्यो नमो नम:॥
जय श्री राधे कृष्ण
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