#दिव्य_धेनु_मानस
1) गौसेवा रस लहै अपारा।
रास रचाईं भाव की धारा।।
2) अकथ अलोकिक सब रस माहिं।
तिभुअन छाड़ि वृंदाबन आहि।।
#अर्थ:-
गौसेवा में बहुत अपार रस मिलता है। इसलिये भगवान ने रास रचाकर भाव की धारा बहाई। सब रसों में अलोकिक रस एवं अकथनीय है, यह रस जो वृंदावन छोड़कर त्रिभुवन में नहीं है।
3) श्रीमुख लट लटके घुंघरारी।
बेला गौधूरि अति पिआरी।।
4) जे पद कमल गाय के पीछे।
छाति परहि सकल दुख खींचे।।
#अर्थ:-
हे प्रभु आपके श्रीमुख पर घुंघरारे केश लटक रहे हैं, गौ धूलि की पवित्र प्यारी बेला है, जो पदकमल गाय माता के पीछे चलते हैं, हमारी छाती पर उन्हे रखे जो सारे दुखों को खींच लेते है।
5) नित भगवंत चरावहि धेनु।
बन बिचरन संग गौधन रेनु।।
6) रिषि मुनि बन बसि साधहिं जोगु।
जीवन सफल न भावय भोगु।।
#अर्थ:-
भगवान सदा गौ चराते है। वन-वन विचरण करते हुये गौ माता की चरण धूरि को प्राप्त करते हैं। ऋषि मुनि लोग वन मे रहकर योग साधना करते है। उन्हे भोग अच्छा नहि लगता है, अपना जीवन सफल बनाते हैं।
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