"सन्त वाणी"
"राजेन्द्रदासजी महाराज के मुख से"
एक बात है जो बड़े विनोद की है, पर है अनुभव की। हमने तो साधुओं में यह देखा है कि जिसने गाय का गोबर उठाया, वह महन्त बन गया। कई उदहारण हमने ऐसे देखे हैं। अब महन्तों का नाम लेंगे तो उनको बुरा लगेगा कि देखो, महाराज मंच से हमको गोबर उठानेवाला कह रहे हैं, यद्यपि इसको सुनकर उनको अपने-आप में गौरव का अनुभव करना चाहिए।हमारे सामने के १०- २० उदाहरण ऐसे हैं, जो गौ का गोबर उठाते थे, अब बड़े-बड़े स्थानों के महन्त बन गये हैं। यद्यपि महन्त बनना कोई बड़ी उपलब्धि नहीं है तथापि गोसेवा की महिमा की दृष्टि से यहाँ एक सामान्य दृष्टान्त प्रस्तुत है।
श्रीअयोध्याजी में बड़ी छावनी एक स्थान है, यहाँ एक महन्त ऐसे हुए श्रीकौशलकिशोरदासजी महाराज, जो बहुत प्रतापी सन्त थे। उनके जमाने में ढाई हजार गायें थीं, बहुत लम्बी-चौड़ी खेती थी।उनके समय में गौसेवा, सन्तसेवा बहुत अद्भुत हुई।
उनके जो गुरुदेव थे, वे शिष्य को महन्त बनाना चाह रहे थे। जिनको महन्त बनाना था, उस दिन वे उबटन लगाकर बढ़िया से स्नान कर रहे थे।बढ़ियासे स्नान करके तिलक लगाकर अँचला पहनकर आनेकी तैयारी में ही लगे थे। जब समय अधिक हो गया तो गुरुजी ने कहा, भाई ! क्या बात है, देर हो रही है, मुहूर्त निकला जा रहा है, पूजन भी होना है। सब लोग आ गये। महन्त जिसको बनना है वह कहाँ है ? बुलाओ उसको, किसी ने कहा-वे तो तैयार हो रहे हैं। अरे ! राम-राम-राम ! अभी तो महन्त बना नहीं, अभी से सजावट में लग गया तो फिर महन्त बनने पर तो अपनी ही सजावट करेगा ; गोसेवा, ठाकुरसेवा और सन्तसेवा तो करेगा नहीं, तो फिर ठीक है उसको सजावट करने दो, उसको बुलाने मत जाना और खुद उठे वहाँ से और उठकर घुमने लगे तो उन्होंने देखा कि बाजे बज रहे थे, महन्त बननेके लिये बड़ा उत्सव का माहौल था, पर एक बालक, जिसकी आयु १०-१२ वर्ष की रही होगी, गोशाला में गोबर उठा रहा था, उसे उत्सव से कोई मतलब ही नहीं था,वह गोसेवा में लगा था। हाथ गोबर से सने हुए थे। उसे देखकर गुरुजी बड़े खुश हो गये और बोले- 'गोसेवा करता है, गोबर उठाता है, महन्त बनने लायक तो यही है।' विप्र बालक था ही, तुरन्त उसका हाथ पकड़ा बोले- चल-चल। बोला- कहाँ गुरुजी ? कहाँ- चल तुझे गद्दीपर बिठाना है। वह बोला- गुरुजी ! हम तो बालक हैं। बोले- बालक नहीं, तुम गोसेवक हो।तुमको गद्दीपर बिठायेंगे, चलो, उसने कहा- हाथ-पैर धो आयें।तो बोले- नहीं, हाथ-पैर धो लोगे तो पवित्रता नष्ट हो जायगी। अभी तुम्हारे पैर में गोबर लगा है, हाथ में गोबर लगा है। इस समय महन्त बनोगे तो खूब गोसेवा करोगे, फिर मुहूर्त निकल जायगा, गोबर से सने हाथों से ही तुरन्त ले जाकर स्वस्तिवाचन करके उसे महन्त बना दिया। ये बालक ही कौशलकिशोरदासजी के रूप में विख्यात हुए। तो जिनके हाथ गोबर से सने हुए थे, वे कौशलकिशोरजी जब गद्दीपर बैठे तो इतनी गोसेवा और सन्तसेवा का विस्तार हुआ कि सर्वत्र आनन्द छा गया। वे महान, उदार, दानी और परोपकारी थे, गोसेवा के प्रभाव से अपार समृद्धि और सम्पत्ति उनके पास थी तो गाय अपनी सेवा करनेवाले की दरिद्रता को दूर कर देती है। इसलिये निवेदन है कि जिसे महान बनने की इच्छा हो, धनाढय बननेकी इच्छा हो, सच्चे अर्थमें श्रीमान् बननेकी इच्छा हो तो उसे गौका गोबर उठाना चाहिये।
श्रद्धापूर्वक सेवा करनेवालेको गाय अपरिमित सम्पत्ति प्रदान करती है और गायकी यदि कृपा भरी दृष्टि जीवको प्राप्त हो जाय तो वह निश्चित ही उत्तम गतिको प्राप्त होता है।स्मृतियों में लिखा है- गायकी समता करने वाला धन इस ब्रह्माण्ड में दूसरा कोई नहीं है। गोधश सर्वश्रेष्ठ धन है, इससे बढ़कर धन कोई नहीं है. सम्पूर्ण देवता इसमें निवास करते हैं। आप विचार कीजिये, जिसके गोबर में लक्ष्मी हो, जिसके मूत्र में साक्षात् भगवती गंगा हो, उसकी महिमा का क्या कहना ! उसकी तो अनन्त परिमित महिमा है।गाय सर्वदेवमयी है और सर्ववेदमयी है- यह वाराहपुराण में लिखा है। इसलिये विद्या की प्राप्ति भी गायकी सेवासे और देवताओं की कृपा भी गायकी सेवासे प्राप्त हो जायगी। भगवान् वाराह कह रहे हैं- हे पृथ्वीदेवि ! अमृतको धारण करने वाली यह गाय तीनों लोकों का मंगल करती हुई विचरण कर रही है। तीर्थों में भी यह महान तीर्थ है, इससे बड़ा कोई दूसरा तीर्थ नहीं है। पवित्रों में भी यह पवित्र है, पुष्टियों में भी यह श्रेष्ठ पुष्टि है।
-सन्त राजेन्द्रदासजी महाराज
पुस्तक:- गोरक्षा एवं गोसंवर्धन
(गीता प्रेस गोरखपुर)
"राजेन्द्रदासजी महाराज के मुख से"
एक बात है जो बड़े विनोद की है, पर है अनुभव की। हमने तो साधुओं में यह देखा है कि जिसने गाय का गोबर उठाया, वह महन्त बन गया। कई उदहारण हमने ऐसे देखे हैं। अब महन्तों का नाम लेंगे तो उनको बुरा लगेगा कि देखो, महाराज मंच से हमको गोबर उठानेवाला कह रहे हैं, यद्यपि इसको सुनकर उनको अपने-आप में गौरव का अनुभव करना चाहिए।हमारे सामने के १०- २० उदाहरण ऐसे हैं, जो गौ का गोबर उठाते थे, अब बड़े-बड़े स्थानों के महन्त बन गये हैं। यद्यपि महन्त बनना कोई बड़ी उपलब्धि नहीं है तथापि गोसेवा की महिमा की दृष्टि से यहाँ एक सामान्य दृष्टान्त प्रस्तुत है।
श्रीअयोध्याजी में बड़ी छावनी एक स्थान है, यहाँ एक महन्त ऐसे हुए श्रीकौशलकिशोरदासजी महाराज, जो बहुत प्रतापी सन्त थे। उनके जमाने में ढाई हजार गायें थीं, बहुत लम्बी-चौड़ी खेती थी।उनके समय में गौसेवा, सन्तसेवा बहुत अद्भुत हुई।
उनके जो गुरुदेव थे, वे शिष्य को महन्त बनाना चाह रहे थे। जिनको महन्त बनाना था, उस दिन वे उबटन लगाकर बढ़िया से स्नान कर रहे थे।बढ़ियासे स्नान करके तिलक लगाकर अँचला पहनकर आनेकी तैयारी में ही लगे थे। जब समय अधिक हो गया तो गुरुजी ने कहा, भाई ! क्या बात है, देर हो रही है, मुहूर्त निकला जा रहा है, पूजन भी होना है। सब लोग आ गये। महन्त जिसको बनना है वह कहाँ है ? बुलाओ उसको, किसी ने कहा-वे तो तैयार हो रहे हैं। अरे ! राम-राम-राम ! अभी तो महन्त बना नहीं, अभी से सजावट में लग गया तो फिर महन्त बनने पर तो अपनी ही सजावट करेगा ; गोसेवा, ठाकुरसेवा और सन्तसेवा तो करेगा नहीं, तो फिर ठीक है उसको सजावट करने दो, उसको बुलाने मत जाना और खुद उठे वहाँ से और उठकर घुमने लगे तो उन्होंने देखा कि बाजे बज रहे थे, महन्त बननेके लिये बड़ा उत्सव का माहौल था, पर एक बालक, जिसकी आयु १०-१२ वर्ष की रही होगी, गोशाला में गोबर उठा रहा था, उसे उत्सव से कोई मतलब ही नहीं था,वह गोसेवा में लगा था। हाथ गोबर से सने हुए थे। उसे देखकर गुरुजी बड़े खुश हो गये और बोले- 'गोसेवा करता है, गोबर उठाता है, महन्त बनने लायक तो यही है।' विप्र बालक था ही, तुरन्त उसका हाथ पकड़ा बोले- चल-चल। बोला- कहाँ गुरुजी ? कहाँ- चल तुझे गद्दीपर बिठाना है। वह बोला- गुरुजी ! हम तो बालक हैं। बोले- बालक नहीं, तुम गोसेवक हो।तुमको गद्दीपर बिठायेंगे, चलो, उसने कहा- हाथ-पैर धो आयें।तो बोले- नहीं, हाथ-पैर धो लोगे तो पवित्रता नष्ट हो जायगी। अभी तुम्हारे पैर में गोबर लगा है, हाथ में गोबर लगा है। इस समय महन्त बनोगे तो खूब गोसेवा करोगे, फिर मुहूर्त निकल जायगा, गोबर से सने हाथों से ही तुरन्त ले जाकर स्वस्तिवाचन करके उसे महन्त बना दिया। ये बालक ही कौशलकिशोरदासजी के रूप में विख्यात हुए। तो जिनके हाथ गोबर से सने हुए थे, वे कौशलकिशोरजी जब गद्दीपर बैठे तो इतनी गोसेवा और सन्तसेवा का विस्तार हुआ कि सर्वत्र आनन्द छा गया। वे महान, उदार, दानी और परोपकारी थे, गोसेवा के प्रभाव से अपार समृद्धि और सम्पत्ति उनके पास थी तो गाय अपनी सेवा करनेवाले की दरिद्रता को दूर कर देती है। इसलिये निवेदन है कि जिसे महान बनने की इच्छा हो, धनाढय बननेकी इच्छा हो, सच्चे अर्थमें श्रीमान् बननेकी इच्छा हो तो उसे गौका गोबर उठाना चाहिये।
श्रद्धापूर्वक सेवा करनेवालेको गाय अपरिमित सम्पत्ति प्रदान करती है और गायकी यदि कृपा भरी दृष्टि जीवको प्राप्त हो जाय तो वह निश्चित ही उत्तम गतिको प्राप्त होता है।स्मृतियों में लिखा है- गायकी समता करने वाला धन इस ब्रह्माण्ड में दूसरा कोई नहीं है। गोधश सर्वश्रेष्ठ धन है, इससे बढ़कर धन कोई नहीं है. सम्पूर्ण देवता इसमें निवास करते हैं। आप विचार कीजिये, जिसके गोबर में लक्ष्मी हो, जिसके मूत्र में साक्षात् भगवती गंगा हो, उसकी महिमा का क्या कहना ! उसकी तो अनन्त परिमित महिमा है।गाय सर्वदेवमयी है और सर्ववेदमयी है- यह वाराहपुराण में लिखा है। इसलिये विद्या की प्राप्ति भी गायकी सेवासे और देवताओं की कृपा भी गायकी सेवासे प्राप्त हो जायगी। भगवान् वाराह कह रहे हैं- हे पृथ्वीदेवि ! अमृतको धारण करने वाली यह गाय तीनों लोकों का मंगल करती हुई विचरण कर रही है। तीर्थों में भी यह महान तीर्थ है, इससे बड़ा कोई दूसरा तीर्थ नहीं है। पवित्रों में भी यह पवित्र है, पुष्टियों में भी यह श्रेष्ठ पुष्टि है।
-सन्त राजेन्द्रदासजी महाराज
पुस्तक:- गोरक्षा एवं गोसंवर्धन
(गीता प्रेस गोरखपुर)
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