'गोसेवा' भारतीय संस्कृति का प्रमुख अंग है, गाय का महत्व 'गौ-सेवा' शब्द से ही प्रकट होता है क्योंकि सेवा के दो प्रधान कारण हैं, एक तो हम बिना उपयोग किसी की सेवा नहीं करते और दूसरा यदि बिना सेवा किए हुए किसी का उपयोग करेंगे तो वह गुनाह होगा। गाय का उपयोग तो स्वतः प्रकट है, जन्म काल से लेकर मृत्यु पर्यन्त किसी न किसी रूप में मनुष्य गाय के प्रति ऋणी रहता ही है और यह ऋण तभी चुकाया जा सकता है जब हम गो-वंश को विकसित करें, गाय की मजबूत बछड़े देने की शक्ति को बढ़ाएं, उसकी दूध देने की शक्ति में वृद्धि करें। हृष्ट-पुष्ट गायों का दूध भी स्वास्थ्यवर्धक होगा। मजबूत बैल ही हमारे खेत भली प्रकार से जोत सकते हैं। हमारी गौ-सेवा का यह अर्थ नहीं है कि जब तक गौ हमें दूध दे तभी तक हम उसका ध्यान रखें और बूढ़ी हो जाने पर उसे मरने के लिए छोड़ दें। यह तो एक निकृष्ट सेवा है। गाय को उचित समय पर उचित मात्रा में चारा-पानी देना, उसके रहने की अच्छी व्यवस्था करना, काम लेने में ज्यादती न करना, उसके सुख-दुख का ध्यान रखना और बूढ़ी हो जाने पर उसको मरने तक खाना देना, इतनी बातें गौ-सेवा में आती हैं इस प्रकार की नीति के द्वारा हम गो वंश की वृद्धि और गो-वध कतई बन्द करना चाहते हैं प्राचीन संस्कृति को कायम रखने के लिए और मनुष्यत्व की रक्षा के लिए जिस गाय ने जीवन भर मनुष्य मात्र की सेवा की उसका बुढ़ापे में वध करना किसी को मंजूर नहीं हो सकता, गाय से हमारा मतलब गाय, बैल, बछड़े, बछड़ी अर्थात् पूरे गो-वंश से है।
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