।।पशुशाला और गौशाला में भेद।।
भगवान् शिव ने लक्षणा-शब्द शक्ति के रूप में गौशाला की परिभाषा को परिभाषित करते हुए कहते हैं:-
स्वगां भोजित्वा तु यत्फलं लभेत नर:।
द्विगुणं तस्य लभते परगां भोजयेद् यदि।
गुरोर्गां भोजयित्वा तु चतुर्गुणफलं लभेत्।।
संदर्भ:-श्री गौ तंत्र २.१४-१५
भावार्थ:- स्वयं की गौ की सेवा करने से उसके ग्रास देने से जो पुण्य प्राप्त होता हैं, उससे दुगुना पुण्य दूसरे द्वारा छोड़ी हुई गौ की सेवा करने से होता है। अगर गुरु द्वारा स्थापित गौशाला में गौओं की सेवा की जाए तो उसका चारगुणा ज्यादा पुण्य प्राप्त होता हैं। ऐसा क्यों? क्योंकि गुरु द्वारा संचालित गौशाला में जो गौएं हैं उनकी महिमा का नित गान होता हैं, वे सब गौएं सबला हैं, प्रसन्न रहती हैं, वहां आने वाले भक्त गौ महिमा से परिचित होते हैं और वहां गाय पशु नहीं 'माता' कहलाती हैं इसलिए चारगुणा अधिक पुण्य है। जबकि अन्य जगह पे जो गौएं घूम रही हैं,उनको घर में लाकर पूजने से अधिक पुण्य है। अर्थात् जहां गौ महिमा नहीं हैं यदि गोग्रास देने वाला गौ महिमा से परिचित नहीं हैं तो गौ भी अवला रूप में रहती है और सेवा का उतना ही पुण्य प्राप्त होता हैं जितना किसी पशु पर दया करने का पुण्य है।
ॐ जगदम्बायै च विद्महे पशुरूपायै धीमहि सा नो धेनु: प्रचोदयात्।।
गाय पशु रूप में होते हुए भी जगदम्बा हैं और यह देवी हमें मोक्ष की राह पर ले जाएगी किन्तु यह तभी सम्भव है जब सेवक स्वयं को गोपुत्र मानकर और गौ को माता मानकर सेवा करें और गौ महिमा से परिचित हो!
।।मां।।
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