एक बार महर्षि ऋचीक से उनकी पत्नी और सास दोनो ने ही पुत्र प्राप्ति के लिये प्रार्थना की। महर्षि ऋचीक ने उनकी प्रार्थना स्वीकार करके दोनो के लिये अलग अलग मंत्रो से चरु पकाया और स्नान करनेके लिये चले गये ।सत्यवती की मां ने यह समझकर कि ऋषिने अपनी पत्नी के लिये श्रेष्ठ चरु पकाया होगा अतः उसने बेटी से वह चरु मांग लिया । इसपर सत्यवती ने अपना चरु माँ को दे दिया और माँ का चरु वह स्वयं खा गयी ।
जब ऋचीक मुनिको इस बातका पता चला, तब उन्होंने अपनी पत्नी सत्यवती-से कहा कि तुमने बडा अनर्थ कर डाला। अब तुम्हारा पुत्र तो लोगो को दण्ड देनेवाला घोर प्रकृतिका होगा और तुम्हारा भाई होगा एक श्रेष्ठ ब्रह्मवेत्ता । (सत्यवती-ने ऋचीक मुनि को प्रसन्न किया और प्रार्थना की कि स्वामी ! ऐसा नहीं होना चाहिये । तब उन्होंने कहा – अच्छी बात है । पुत्रके बदले तुम्हारा पौत्र वैसा घोर प्रकृतिका होगा । समयपर सत्यवतीके गर्भसै जमदग्निका जन्म हुआ ।(परंतु जमदग्नि की जगह उनके पुत्र परशुराम घोर प्रकृति के हुए) के सत्यवती समस्त लोकों को पवित्र करनेवाली परम पुण्यमयी कौशिकी नदी बन गयी ।
महाभारत्तमें कहा गया है कि त्रेतायुग एवं द्वापरयुग के सन्धिकाल में वैशाख शुक्ल तृतीया ( अक्षय तृतीया) के शुभ दिन उत्तम नक्षत्र और उत्तम मुहूर्त में भृगुकुलोत्पन्न महर्षि जमदग्नि एवं काशिराज सुता भगवती रेणुका के माध्यमसे भगवान् विष्णुका भार्गवराम (परशुराम) के रूपमें पृथ्वीपर अवतार हुआ ।
महर्षि जमदग्नि का आश्रम रेवा-नर्मदानदी के तटपर था । वहांपर भगवान् परशुरामका आविर्भाव हुआ था । उनके पितामह महातपस्वी ऋचीक का विवाह क्षत्रिय गाधिराज की सुपुत्री (ऋषि विश्वामित्रकी बहिन) सत्यवती के साथ हुआ था । उन दिनों विशेष कारणों से कुछ ब्राह्मण ऋषियोंके विवाह क्षत्रिय राजकन्याओ के साथ हुए हैं । ऐसे विवाहोंमें संतति ब्राह्मण ही मानी जाती है । महर्षि जमदग्नि एवं भगवती रेणुका को पाँच पुत्र हुए
१ ) रुमण्वान् २) सुषेण ३ ) वसु ४) विश्वावसु तथा ५) भार्गवराम (परशुराम) । परशुराम सबसे छोटे थे तथापि सबसे वीर एवं वेदज्ञ थे ।
पाँच वर्षकी अवस्था में उनका सविधि यझोपवीत संस्काऱ हुआ, तत्पश्चात् माता पिता की सम्मति लेकर वे शालग्रामक्षेत्रमे जाकर गुरु महर्षि कश्यप के समक्ष उपस्थित हुए और शास्त्र तथा शस्त्रका ज्ञान प्रदान करनेके लिये उनसे प्रार्थना की ।
गुरु महर्षि कश्यपने परशुराम को सविधि दीक्षा दी और शास्त्र एवं शस्त्रविद्या सिखाना प्रारम्भ किया । क्रुशाग्रबुद्धि सम्पन्न एवं अदम्य उत्साही होनेसे परशुराम अल्प समयमें ही चारों वेद और धनुविद्यामें निपुण हो गये । गुरु की आज्ञा तथा आशीर्वाद लेकर परशुराम अपने माता पिताके पास आये और उनका भी आशीर्वाद प्राप्त किया ।
परशुराम अपने घरसे प्रस्थान कर गन्धमादन पर्वत पर गये और उत्कट तपस्याद्वारा उन्होंने भगवान् शंकर को प्रसन्न कर उनसे उच्चकोटिकी धनुर्विद्या प्राप्त की- परशुरामने भगवान् शंकरसे ४१ अस्त्र भी प्राप्त किये, जो भयंकर तथा महाविनाशक थे, जैसे कि ब्रह्मास्त्र, रौद्रास्त्र, आग्नेयास्त्र, वायत्वास्त्र इत्यादि। इन महान् अस्त्रों के प्रताप से परशुराम महाधनुर्धर एवं मन्त्रविशारद हुए ।
वाल्मीकी रामायण में वर्णन है कि परशुराम महापुरुष, भीमकाय, जटावल्कलधारी, अनाचारी पाण्याचारी राजाओ के विनाशक थे। उनके एक स्कन्धपर बडा भारी अतितीक्ष्य परशु (फरसा) रहता था और दूसरे स्कन्धपर विद्युत् सा अमोघ धनुष रहता था । वे त्रिपुरघ्न त्रिपुरके विध्वंसक महाबली शिवसदृश थे । ये रुरु नामक मृगका चर्म धारण करते।धनुर्वेद की विधिवत् शिक्षा इन्होंने अपने पिता से ही प्राप्त की।पिता के चरणों में परशुराम जी की अनन्य भक्ति थी।अत्यंत तीक्ष्ण धार वाला अमोघ परशु धारण करने के कारण भगवान् राम का परशु सहित नाम परशुराम पड़ा।यह परशु भगवान् शंकर के उसी महातेज से निर्मित हुआ था, जिससे श्रीविष्णु का सुदर्शन चक्र और देवराज इंद्र का वज्र बना था।
हरिवंश (२।३९।२१-२२) में उनके विषयमें वर्णन है कि एक बार जब बलराम और श्रीकृष्णने दक्षिणापथ की यात्रा की तो सह्याचलक्री पर्वतश्रेणियों के समीप वे वेणा नदीके तया पहुँचे, वहाँ एक विशाल बरगद का वृक्ष था, उसी वृक्षके नीचे विराजमान भूगुनन्दन परशुरामजी को उन्होंने देखा, जिनके एक कन्धे पर फरसा था और जो जटा और वल्कल धारण किये हुए थे । उनके शरीरका वर्ण गौर तथा अग्निशिखा के समान प्रकाशमान था । वे सूर्यके समान तेजस्वी दिखायी देते थे । क्षत्रियोंका अन्त करनेवाले परशुराम किसीसे क्षुब्ध होनेवाले नहीं थे । प्रणामनिवेदन एबं कुशलक्षेमके अनन्तर मगधराज ज़रासंध के साथ किस प्रकार युद्ध किया जाय और विजय मिले, इस विषय में श्रीकृष्णने महाबली परशुराम से मार्गदर्शन प्राप्त किया था ।
भगवान् दत्तात्रेय श्री विद्या के परम आचार्य है। इन्हीने परशुराम जी को अधिकारी जानकार श्री विद्या का उपदेश किया था। दत्तात्रेय भगवान् से परशुराम जी ने षोडशी मन्त्र की दीक्षा ग्रहण कर साधना हेतु महेंद्रपर्वत पर जाकर भगवती त्रिपुरसुंदरी की आराधना की और उनसे चिरंजीवी पद प्राप्त किया।भगवती की कृपा से वे सिद्ध पुरुष बन गए।
भीष्मपितामह ने परशुराम जी से अस्त्र विद्या सीखी थी ।
महाभारत में वर्णन है– एक बार भीष्मपिततामह ने अपने भाई विचित्रवीर्य के लिये काशिराज की तीन कन्याओ ( १) अम्बा ( २) अम्बिका और (३) अम्बालिका का स्वयंवर से जाकर हरण किया था । उनमे से अम्बाने कहा कि उसे राजा शाल्व के साथ प्रेम है । ऐसा सुनकर भीषाने उसे मुक्त कर दिया । अम्बा जब शाल्व के यास गयी तो उसने भीष्मद्वारा अपहृत हुई जानकर उसका त्याग कर दिया । इससे वह क्रुद्ध हुई और भीष्म को पाठ सिंखाने के लिये महाबली परशुराम की सहायता प्राप्त करने हेतु जमदग्नि ऋषिके आश्रममें पहुंची । उसने सारा वृत्तान्त परशुरामजी को सुनाया और भीष्म उसे स्वीकार करें, ऐसा करने की विनती को । अम्बा काशिराज की पुत्री थी और परशुराम की माता रेणुका भी काशी से सम्बन्धित थी । इस घनिष्ट सम्बन्ध से परशुराम जी ने अम्बा को सहायता देनेका वचन दिया । फिर परशुरामने दूत भेजकर अपने शिष्य भीष्म को अपने यास बुलवाया और अम्बा को स्वीकार करनेको कहा । आजीवन ब्रह्मचर्यव्रतधारी भीष्मने गुरु परशुरामका प्रस्ताव अमान्य कर दिया । शिष्य की अवज्ञा देखकर परशुराम क्रुद्ध हुए और युद्धके लिये आह्वान किया ।
परशुराम जी के पास रथ नहीं था । तब भीष्म ने कहा ब्रह्मन्! मैं रथपर बैठा हूँ और आप धरती पर खड़े है इस कारण मैं आपसे युद्ध नहीं करूँगा । मुझसे युद्ध करने के लिये आप कवच पहनकर रथारूढ़ हो जायँ । तब युद्धभूमि में मुस्कराते हुए परशुराम जी ने भीष्म से कहा- कुरुनन्दन भीष्म मेंरे लिये पृथ्वी ही रथ है, चारों वेद ही उत्तम अश्नोंके समान मेरे वहन हैं, वायुदेव ही सारथि हैं और वेदमाताएं (गायत्री, सावित्री और सरस्वती) ही कवच हैं । इन सबसे आवृत एवं सुरक्षित होकर मैं रणक्षेत्रमे युद्ध करूँगा ।
इतना कहकर पराक्रमी परशुरामजी ने भीष्म को अपने वीक्ष्य शरोंसे घेर लिया । उस समय भीष्म ने देखा -परशुरामजी एक नगरतुल्य विस्तृत, अद्भुत एवं दिव्य विमानमें बैठे हैं । उसमें दिव्य अश्व जुते थे । वह स्वर्णनिर्मित रथ प्रत्येक रीतिसे सजा हुआ था । उसमें सम्पूर्ण श्रेष्ठ आयुध रखे हुए थे । परशुराम जी ने सूर्य-चन्द्र-खचित कवच शरण कर रखा था और उनके प्रिय सखा वेदवेत्ता अकृतव्रण उनके सारथिका कार्यं कर रहे थे। परम पराक्रमी, परम तेजस्वी, परम तपस्वी, परम पितृभक्त भगवान् परशुराम जी के साथ भीष्म का भयानक संग्राम हुआ ।गुरु शिष्यका भीषण युद्ध तेईस दिनपर्यन्त चला । सुहृदोंके समझाने पर युद्ध बंद हुआ तो भीष्म ने परमर्षि परशुराम जी के समीप जाकर उनके चरणोंमें प्रणाम किया । परशुरामजीने मुस्कराकर भीष्म से कहा –
भीष्म ! इस जगत में भूतलपर विचरने वाला कोई भी क्षत्रिय तुम्हरे समान नहीं है । जाओ, इस युद्धमें तुमने मुझे बहुत संतुष्ट किया है ।
उन दिनों हैहयवंश का अधिपति था अर्जुन ( सहस्त्रबाहु नाम से भी जाने जाते है)। वह एक श्रेष्ठ क्षत्रिय था । उसने अनेकों प्रकार की सेवा शुश्रुषा करके भगवान् दत्तात्रेय जी को प्रसन्न कर लिया और उनसे एक हजार भुजाएँ तथा कोई भी शत्रु युद्धमें पराजित न कर सके ,यह वरदान प्राप्त कर लिया । साथ ही इंद्रियों का अबाध बल, अतुल सम्पत्ति, तेजस्विता, वीरता, कीर्ति और शारीरिक बल भी उसने उनके, कृपासे प्राप्त कर लिये थे । वह योगेश्वर हो गया था । उसमें ऐसा ऐश्वर्य था किं वह सूक्ष्म से सूक्ष्म, स्थूल से स्थूल रूप धारण कर लेता । सभी सिद्धियां उसे प्राप्त थीं । वह संसारमें वायु की तरह सब जगह बेरोक टोक विचरा करता । एक बार गले में वैजयन्ती माला पहने सहस्त्रबाहु अर्जुन बहुत भी सुन्दरी स्त्रियो के साथ नर्मदा नदीमें जल विहार कर रहा था । उस समय मदोन्मत्त सहस्त्रबाहु ने अपनी बांहो से नदीका प्रवाह रोक दिया । दशमुख रावणका शिविर भी वहीं कहीं पासमें ही था । नदीकी धारा उलटी बहने लगी, जिससे उसका शिविर डूबने लगा । रावण अपनेको बहुत बडा वीर तो मानता ही था, इसलिये सहस्त्रार्जुन का यह पराक्रम उससे सहन नहीं हुआ ।जब रावण सहस्त्रबाहु अर्जुनके पास जाकर बुरा भला कहने लगा, तब उसने स्त्रियो के सामने ही खेल खेलमें रावण को पकड़ लिया और अपनी राजधानी माहिष्मती ले जाकर बंदरके समान केद कर लिया । पीछे पुलस्त्य जी के कहने पर सहस्त्रबाहु ने रावण को छोड़ दिया ।
एक दिन सहस्त्रबाहु अर्जुन शिकार खेलने के लिये बड़े घोर जंगल मे निकल गया था । दैववश वह जमदग्नि मुनिके आश्रमपर जा पहुंचा । परम तपस्वी जमदग्नि मुनिके आश्रममें कामधेनु गाय रहती थी । उसके प्रताप से उन्होंने सेना,मंत्री और वाहनों के साथ हैहयाधिपति का खूब स्वागत सत्कार किया । वीर हैहयाधिपति ने देखा कि जमदग्नि मुनिका ऐश्वर्य तो मुझसे भी बढा चढा है । इसलिये उसने उनके स्वागत सत्कार को कुछ भी आदर न देकर कामधेनु को ही ले लेना चाहा ,परंतु महर्षि जमदग्नि ने कहा – राजन!यह कामधेनु तो मेरे समस्त धर्म-कर्मो की जननी है।यज्ञीय सामग्री,देवता,ऋषि,पितर और अतिथियों का सत्कार ही नहीं,इसी गौके द्वारा मेरे सारे इहलौकिक तथा पारलौकिक कर्म संपन्न होते है।मैं इसे देनेका विचार भी कैसे कर सकता हूँ। उसने अभिमानवश जमदग्नि मुनिसे माँगा भी नहीं, अपने सेवकों को आज्ञा दी कि कामधेनु को छीन ले चलो । उसकी आज्ञासे उसके सेवक बछड़े के साथ बां बां डकराती हुई कामधेनुको बलपूर्वक महिषातीपुरी ले गये ।
जब वे सब चले गये, तब परशुरा जी आश्रमपर आये और उसकी दुष्टता का वृत्तान्त सुनकर चोट खाये हुए साँप की तरह क्रोधसे तिलमिला उठे । उन्हीने राजा कार्तवीर (सहस्त्रबाहु) करने की भीषण प्रतिज्ञा कर ली।तब महर्षि जमदग्नि ने कहा की तुम ब्रह्मदेव के पास जाकर उनसे आज्ञा ले आओ। ब्रह्मदेव के पास जाने पर ब्रह्मदेव ने परशुराम को भगवान् शिव की आज्ञा लेने को कहा। परशुराम वहासे कैलाश पर्वतपर पहुचे और शिव जी को सारा वृत्तांत सुनाया ।शिव जी ने प्रसन्न होकर पापाचारी राजा कार्तवीर्य का वध करने की आज्ञा दी। परशराम जी अपना भयंकर फरसा, तरकस, ढाल एवं धनुष लेकर बड़े बेगसे उसके पीछे दौड़े जिसे कोई किसीसे न दबने वाला सिंह हाथीपर टूट पड़े।
सहस्त्रबाहु अर्जुन अभी अपने नगर में प्रवेश कर की रहा था कि उसने देखा परशुरामजी महाराज बड़े वेगसे उसीकी ओर झपटे आ रहे हैं । उनकी बडी विलक्षण झाँकी थी । वे हाथमें धनुष बाण और फरसा लिये हुए थे, शरीरपर काला मृगचर्म धारण किये हुए थे और उनकी जटाएँ सूर्य की किरणों के समान चमक रही थी ।
उन्हें देखते ही उसने गदा, खड्ग,बाण, ऋष्टि, शतघ्नी और शक्ति आदि आयुधो सेे सुसज्जित एवं हाथी, घोड़े, रथ तथा पदातियों से युक्त अत्यन्त भयंकर सत्रह अक्षोहिणी रोना भेजी । भगवान परशुराम ने बात ही बात में अकेले ही उस भारी सेना को नष्ट कर दिया ।भगवान् परशुरामजी की गति मन और वायुके समान थी । बस, वे शत्रु की सेना काटते ही जा रहे थे । जहाँ-जहाँ वे अपने फरसे का प्रहार करते, वहाँ वहाँ सारथि और वाहनोंके साथ बडे बडे वीरो की बाँहें, जाँघे और कंधे कट-कटकर पृथ्वीपर गिरते जति थे ।हैहयाधिपति अर्जुनने देखा कि मेरी सेनाके सैनिक, उनके धनुष, ध्वजाएँ और ढाल भगवान् परशुराम के फरसे और बाणोंसे कट-कटकर खूनसे लथपथ रणभूमि में गिर गये हैं, तब उसे बडा क्रोध आया और वह स्वयं भिड़नेके लिये आ धमका।
उसने एक साथ ही अपनी हजार भुजाओ से पाँच धनुष्यो पर बाण चढाये और परशुराम जी पर छोड़े । परंतु परशुरामजी तो समस्त शस्त्र धारियों के शिरोमणि ठहरे । उन्होंने अपने एक धनुष पर छोड़े हुए बानो से ही एक साथ सबको काट डाला ।अब हैहयाधिपति अपने हाथों से पहाड़ और पेड़ उखाड़कर बड़े वेगसे युद्धधुतिमें परशुरामजी की ओर झपटा।
महाबली परशुराम भगवान् ने अपने सामर्थ्य के विषय में दुष्ट राजा कार्तवीर्य से गर्जना करते हुए कहा था-
मेरे अग्रभाग में चारो वेदों का दिव्या महातेज है और मेरे पृष्ठभाग में मंत्रयुक्त शिवधनुष है,मई वेदमंत्रों के शाप से भी और अमोघ बाण से भी पृथ्वी को ध्वंस कर सकता हूं।
परशुरामजी ने अपनी तीखी धारवाले फरसे से बडी फुर्तीके साथ उसकी सांपो के समान भुजाओं को काट डाला ।जब उसकी बाहे कट गयी, तब उन्होंने पहाड़ की चोटीकी तरह उसका ऊँचा सिर धड़से अलग कर दिया । पिताके मर जानेपर उसके दस हजार लड़के डरकर भग गये ।
गौ भक्त परशुराम जी ने जैसे ही गौ माता को देखा तो जैसे महापाषाण द्रवित हो गया हो ,परशुराम जी के नेत्रो से अश्रु निकल पड़े। उन्होंने गौ माता के गले में अपनी लंबी बाहे दाल दी ।विपक्षी विरोंके नाशक परशुरामजी ने बछड़ेके साथ कामधेनु लौटा ली । वह बहुत ही दुखी हो रही थी। उन्होंने उसे अपने आश्रमपर लाकर पिताजी को सौंप दिया और महिष्मतीमें सहस्त्रबाहु ने तथा उन्होंने जो कुछ किया था, सब अपने पिताजी तथा भाइयों को कह सुनाया ।यद्यपि शिव जी ने आज्ञा दी थी राज के वध की परंतु फिर भी महर्षि जमदग्नि का मन परशुराम जी द्वारा किये भीषण हिंसा से अशांत हो गया। सब कुछ सुनकर जमदग्नि मुनिने कहा -हाय, हाय, परशुराम ! तुमने बड़ा पाप किया । राम, राम ! तुम बडे वीर हो, परंतु सर्वदेवमय नरदेवका तुमने व्यर्थ ही वध किया ।बेटा ! हमलोग ब्राह्मण हैं । क्षमाके प्रभाव सेे ही इम संसारमें पूजनीय हुए हैं । और तो क्या, सबके दादा ब्रह्माजी भी क्षमाके बलसे ही ब्रह्मपदक्रो प्राप्त हुए हैं । ब्राह्मणोंकी शोभा क्षमाके द्वारा ही सूर्यंकी प्रभाके समान चमक उठती है । सर्वशक्तिमान् भगवान् श्रीहरि भी क्षमावानोंपर ही शीघ्र प्रसन्न होते हैं । बस ! सार्वभौम राजाका वध ब्राह्मणक्री हत्यासे भी बढकर है । जाओ, भगवान् का स्मरण करते हुए तीर्थो का सेवन करके अपने पापों को धो डालो ।तुम्हारे लिए प्रायश्चित्त आवश्यक है।
परशुराम जी ने कहा – पिताजी, प्रेमपूर्वक स्वागत करनेवाले तपस्वी ब्राह्मण की गाय बलपूर्वक छीन लेने वाले नराधम और परम पातकी का वध पाप नहीं।परशुराम जी ने सर झुकाकर शांतिपूर्वक उत्तर दिया।पर आपके आदेश अनुसार मई प्रायश्चित्त अवश्य करूँगा।आपकी प्रत्येक आज्ञा मुझे शिरोधार्य है।
इसके बाद वे एक वर्षतक तीर्थयात्रा करके अपने आश्रमपर लौट आये । एक दिन की बात है ,परशुराम जी की माता रेणुका गंगातट पर गयी हुई थीं । वहां उन्होंने देखा कि गन्धर्वराज चित्ररथ कमलों की माला पहने अप्सराओ के साथ विहार कर रहा है । वे जल लानेके लिये नदीतट पर गयी थी, परंतु वहाँ जलक्रीडा करते हुए गन्धर्व को देखने लगों अंतर पतिदेव के हवनका समय हो गया है इस बातको भूल गयी । उनका मन कुछ कुछ चित्ररथ की ओर खिंच भी गया था । हवनका समय बीत गया, यह जानकर वे महर्षि जमदग्नि के शापसे भयभीत हो गयीं और तुरंत वहासे आश्रमपर चली आयी । वहां जलका कलश महर्षिके सामने रखकर हाथ छोड़ खडी हो गयीं । जमदग्नि मुनिने अपनी पत्नी का मानसिक व्यभिचार जान लिया और क्रोध करके कहा – मेरे पुत्रो ! इस पापिनी को मार डालो। परंतु चारो में से किसी भी पुत्र ने उनकी यह मातृवध की आज्ञा स्वीकार नहीं की । इसके बाद पिता की आज्ञासे परशुराम जी ने माताके साथ साथ चारो भाइयो का मस्तक काट दिया। अपने पिता जी के योग और तपस्याका प्रभाव वे भलीभांति जानते थे ।पशुरामजी के इस कार्य पर महर्षि जमदग्नि बहुत प्रसन्न हुए और उन्होंने कहा- बेटा ! तुम्हारी जो इच्छा हो, वा मांग लो ।
परशुरामजीने कहा -पिताश्री ! मेरी माता और सब भाई जीवित हो जायँ तथा उन्हें इस बात की याद न रहे कि मैंने उन्हें मारा था है । युद्ध में मेरा कोई सामना कर सके और मैं दीर्घायु प्राप्त करू। यही होगा इस प्रकार महर्षि बोले ,आगे उन्हीने कहा इन सब के सिर इनके धड़ से जिद दो। जैसे कोई सोकर उठे, सब के सब अनायास ही सकुशल उठ बैठे । उन्हीने समझा ,हमें गाढ़ निद्रा आ गयी थी। परशुराम जी ने अपने पिताजी का तपोबल जानकर ही तो अपने सुहृदों का वध किया था।
सहस्त्रबाहु के जो लड़के परशुराम जी सेे हारकर भाग आये थे, उन्हें अपने पिताके वध की याद निरन्तर बनी रहती थी । कही एक क्षणके लिये भी उन्हें चैन नहीं मिलता था । एक दिन की बात है, परशुरामजी अपने भाइयों के साथ आश्रम से बाहर वन में दूर चले गये हुए हैे। यह अवसर पाकर वैर साधने के लिये सहस्त्रबाहुके लड़के वहाँ आ पहुँचे ।उस समय महर्षि जमदग्नि अग्निशालामें बैठे हुए थे और अपनी समस्त वृत्तियों से पवित्रकीर्ति भगवान् के ही चिन्तनमें मग्न हो रहे थे । उन्हें बाहर की कोई सुध न थी । उसी समय उन पापियोंने जमदग्नि ऋषि को मार डाला। उन्होंने पहले से ही ऐसा पापपूर्ण निश्चय कर रखा था। परशुराम जी की माता रेणुका बड़ी दीनता से उनसे प्रार्थना कर रही थी परंतु उन सबो ने उनकी एक न सुनी। वे पापी महर्षि जमदग्नि का मस्तक काट कर अपने साथ ले गए।
सती रेणुका दुःख और शोक से आतुर हो गयी और सिर पीट पीटकर जोर जोर से रोने लगी- परशुराम ! बेटा परशुराम शीघ्र आओ । परशुरामजीने बहुत दूरसे माता का ‘हा राम ! हा राम!यह करुण क्रन्दन सुन लिया । वे बडी शीघ्रतासे आश्रमपर आये और वहां जाकर देखा कि पिताजी मार डाले गये हैं ।उस समय परशुरामजी को बडा दुख हुआ । साथ ही क्रोध, असहिष्णुता, मानसिक पीडा और शोकके वेगसे वे अत्यन्त मोहित हो गये । ‘हाय पिताजी ! आप तो बड़े महात्मा थे । पिताजी ! आप तो धर्मके सच्चे पुजारी थे । आप हमलोगों को छोड़कर स्वर्ग चले गये है । परशुराम जी ने अपने मृत पिता के शरीर पर इक्कीस घाव देखे। इस प्रकार विलापकर उन्होंने पिताका शरीर तो भाइयों को सौंप दिया और स्वयं हाथमे फरसा उठाकर क्षत्रियोंका संहार कर डालनेका निश्चय किया । परशुरामजीने माहिषाती नगरीमें जाकर सहस्त्रबाहु अर्जुनके पुत्रोंके सिरों से नगरके बीचो-बीच एक बड़ा भारी पर्वत खडा कर दिया । उस नगरक्री शोभा तो उन ब्रह्मधाती नीच क्षत्रियोंके कारण ही नष्ट हो चुकी थी ।उनके रक्त से एक बडी भयंकर नदी बह निकली, जिसे देखकर ब्राह्मणद्रोहियोंका ह्रदय भयसे कांप उठता था । भगवान् ने देखा कि वर्तमान क्षत्रिय अत्याचारी हो गये हैं । इसलिये उन्होंने अपने पिताके वध का निमित्त बनाकर इक्वदीस बार मृथ्वीको क्षत्रिय हीन कर दिया और कुरुक्षेत्रके समन्तपंचक में ऐसे पांच तालाब बना दिये, जो रक्तके जलसे भरे हुए थे ।
*विविध ग्रंथो में कल्प भेद के अनुसार विविध कथाये प्राप्त होती है।
रेणुका माहात्म्य नामक ग्रन्थ में लिखा है – परशुराम जी ने एक पलड़े में महर्षि जमदग्नि का धड़ रखा तथा दूसरे पलड़ेमे विधवा माता रेणुका को बैठाया, फिर कांवड़ को अपने कंधेपर उठाकर तीर्थाटन को चल पड़े और सह्याद्रिपर्वत पर माहुरगढ़ नामक तीर्थक्षेत्रमें पहुंचे । उस समय आकाशवाणी सुनायी पडी कि इस पवित्र क्षेत्रमें तुम अपने पिता महर्षि जमदग्नि के धड़का अग्नि संस्कार करो । तब परशुरामने वैसा ही किया । वहांपर रेणुका स्वपति के देहके साथ अग्नि में प्रविष्ट होकर सती हुई ।
महाभारत्तमें आया है कि भगत्रान् परशुरामने इस पृथ्वीको इक्सीस बार क्षत्रियो से सूनी करके उनके रक्तसे समन्तपंचक में पांच रुधिर कुण्ड भर दिये और रक्ताञ्जलिके द्वारा उन कुंडो में पितरोंका तर्पण किया तर्पण के समय उन्होंने अपने पितामहका साक्षात् दर्शन किया । ऋचीक आदि पितृगण परशुराम जी के पास आकर बोले – राम ! तुम्हारी पितृभक्ति और पराक्रमसे हम बहुत प्रसन्न हैं, तुम्हें जिस वरकी अभिलाषा हो, माँग लो । इसपर परशुरामजीने कहा -पितृगणो ! मैंने जो क्रोधवश क्षत्रियवंश का विध्वंस किया है, इस पापसे मैं मुक्त हो जाऊँ और मेरे बनाये ये सरोवर पृथ्वी में प्रसिद्ध तीर्थ हो जायँ । ऐसा ही होगा-‘ एवं भविष्यति ( महाभारत) यह कहकर पितरोंने उन्हें वरदान दिया और कहा- अब शेष क्षत्रिय वंश का संहार मत करना ,उन्हें क्षमा कर देना ।
स्कंदपुराण में वर्णन है-यद्यपि परशुराम जी के पाप पितरों के आशीर्वाद से ही भस्म हो गए थे परंतु भगवान् शिव का माहात्म्य प्रकट करने हेतु भगवान् ने एक लीला रची।
परशुराम जी को क्षत्रियों के वध करने का जो पाप लगा । उस पाप के प्रयाश्चित्त के लिये उन्होंने अश्वमेध यज्ञ किया । उस यज्ञ में सारी पृथ्वी उन्होंने कश्यप ऋषि को दान में दे डाली और असंख्य ब्राह्मणों को हाथी, घोडा, रथ, पालकी, सोना, चांदी अदि दिये । यह सब करनेपर भी परशुराम जी को अनेक प्राणियों के वधज़नित पाप से मुक्ति नहीं मिली । इससे वे रैवतक पर्वत पर गये और वहां बहुत समय तक उग्र तप करते रहे । कठिन तप करनेपर भी हत्या से छुटकारा न मिलनेपर परशुराम ने महेन्द्र, मलय, सह्य, हिमालय आदि पवित्र पर्वतो की यात्रा की । तत्पमृचात् नर्मदा, यमुना, चन्द्रभागा, गंगा, इरावती, वितस्ता, चर्मण्वती, गोमती, गोदावरी आदि पुण्यसलिला नदियों में श्रद्धापूर्वक स्नान किया ।
इसीके साथ साथ गया, कुरुक्षेत्र, नैमिशारण्य, पुष्कर, प्रभास आदी सभी तीर्थो का सेवन किया, पर हत्याजनित पापसे मुक्ति नहीं मिली । अपने इस कठिन परिश्रम को निष्फल देखकर परशुराम जी अपने मनमें सोचने लगे कि मैने तीर्थो का सेवन क्रिया, पवित्र नदियो के जलसे अपने पापो को धोने का प्रयत्न किया, घोर तपस्या भी की, परंतु मुझे हत्या के पाप से छुटकारा नहीं मिला । इससे ज्ञात होता है कि आजकल ये लिब निसत्त्व हो गये है । अतएव इनका सेवन करना व्यर्थ है । मैने अपने शरीर को व्यर्थ ही कष्ट दिया । वे इस प्रकार दुखित हो ही रहे थे कि इतने में देवर्षि नारद वहाँ आ पहुंचे । उन्हें सादर अभिवादन कर परशुरामजी कहने लगे कि देवर्षे! पिताकी आज्ञासे मैंने अपनी माता का वध किया और पिताके वध करनेवालों से बदला लेनेके लिये भुमण्डल के समस्त क्षत्रियो का विनाश कर डाला । यह सब करनेपर मुझे हत्याजनित पाप का भय हुआ, उसके निवारण के लिये मैंने अनेक तप और तीर्थ किये, पर. अब तक किसीसे प्रायश्चित्त नहीं हुआ ।
नारदजी बोले कि महाकाल वन(उजैन अवंतिका) में ब्रह्महत्या-जनित पाप का निवारण करनेवाला सर्व सिद्धि दायक ज़टेश्वर नामक शिवजी का एक महालिङ्ग है । परशुराम ! तुम वहां शीघ्र जाओ और उनकी आराधना करो । उनके प्रसाद से तुम समस्त पापोंसे मुक्त हो जाओगे । नारदजी के उपदेशानुसार परशुराम जी उसी समय उनको
प्रणाम कर सर्वकामना परिपूरक पवित्र महाकालवन को चल दिये । वहां पहुंचकर चिरकाल तक श्री जटेश्वर महादेवजी की आराधना की। उनकी एकनिष्ठ आराधना से प्रसन्न होकर भगवान् शिव ने लिङ्गसे प्रकट होकर उन्हें दर्शन दिये । उनके परमानन्दप्रद दर्शन पाकर परशुराम जी मुग्ध हो गये और स्तुति करने लगे कि ‘प्रभो ! आप शरणागतवत्सल हैं दीनजनोंके हित करने के लिये आप अनेक रूप धारण करते है । हे करुणावरुणालय ! मैं इस समय हत्याजनित पापसे दबा जा रहा हूं । इससे मेरा उद्धार कीजिये । यदि जाप मुझपर प्रसन्न है तो मुझे यही वर दीजिये कि आपके चरण कमलों में मेरा अविचल एवं प्रगाढ़ प्रेम बना रहे । उनकी स्तुति से भगवान् शंकर प्रसन्न होकर उन्हें हत्या के पाप-से मुक्त कर दिया और कहा कि आजसे इस लिङ्गका नाम तुम्हारे ही नामसे विख्यात होगा । इसे लोग अब ‘रामेश्वर’ कहेंगे (यह रामेश्वर शिवलिंग श्रीराम द्वारा स्थापित लिंग से पृथक है)। जो लोग भक्ति पूर्वक रामेश्वर की पूजा करेंगे, उनके जन्म भरके पाप जल जायेंगे । हजारों ब्रह्म हत्याओ के भी पाप श्रीरामेश्वरजी के दर्शन करने से विनष्ट हो जायेगे । स्कन्दपुराण के अवन्तिखंड (लिङ्गमाहाल्य २९ । ४७ ५० ) में इस शिवलिंग का बड़ा माहात्म्य लिखा है ।
श्रीमद्भागवत में लिखा है-परशुराम जी ने अपने पिताजीका सिर लाकर उनके धड़ से जोड़ा दिया और यज्ञोंद्वारा सर्वदेवमय आत्मस्वरुप भगवान का यजन किया ।
यज्ञोंमें उन्होंने पूर्व दिशा होता को, दक्षिण दिशा ब्रह्माक्रो, पश्चिम दिशा अध्वर्यु को और उत्तर दिशा सामगान करनेवाले उद् गाता को दे दी । इसी प्रकार अग्निकोण आदि दिशाएँ ऋत्विजो को दीं, कश्यपजी को मध्यधुति दी, उपद्रष्टा को आर्यावर्त दिया तथा दूसरे सदस्यों को अन्यान्य दिशाएं प्रदान कर दीं । इसके बाद अज्ञात स्नान करके वे समस्त पापोंसे मुक्त हो गये और ब्रह्मनदी सरस्वती के तटपर मेघरहित सूर्य के समान शोभायमान हुए । महर्षि जमदग्नि को स्मृतिरूप संकल्पमय शरीर की प्राप्ति हो गयी । परशुराम जी से सम्मानित होकर वे सप्तर्षियोंके मण्डलमें सातवें ऋषि हो गये । कमललोचन जमदग्नि नन्दन भगवान् परशुराम आगामी मन्वन्तरमें सप्तर्षिर्योक्रे मण्डलमें रहकर वेदों का विस्तार करेंगे । वे आज भी किसीको किसी प्रकारका दण्ड न देते हुए शान्त चित्तसे महेन्द्र पर्वतपर निवास करते हैं । वहां सिद्ध, गन्धर्व और चारण उनके चरित्रका मधुर गान करते रहते हैं ।
समस्त पृथ्वी का दान कर भगवान् परशुराम महेंद्र पर्वत पर निवास करने लगे तब एक समय महर्षि भरद्वाज के यशस्वी पुत्र द्रोण धनुर्वेद, दिव्यास्त्रों एवं नीतिशास्त्र के ज्ञान के लिए भगवान् परशुराम के पास पहुँचे। मैं आंगिरस कुलोत्पन्न महर्षि भरद्वाज का अयोनिज पुत्र द्रोण हूं।अपना परिचय देते हुए द्रोण ने परशुराम जी के चरणों में प्रणाम् किया और कहा- मै धन की इच्छासे आपके पास आया हूं, आप मुझपर दया करे।
अब तो मैंने केवल अपने शारीर को ही बचा रखा है अन्य सब कुछ दान कर दिया। किसी एक को मांग लो । प्रभो! आप मुझे सम्पूर्ण अस्त्र उनके प्रयोग तथा उपसंहार विधि प्रदान करे । द्रोणने निवेदन किया । तब रेणुकानन्दन ने अपने सब अस्त्र द्रोण को दे दिये । आचार्य द्रोण परशुराम।जी से दुर्लभ ब्रह्मास्त्र का भी ज्ञान प्राप्तकर धरतीपर अत्यधिक शक्तिशाली हो गये ।
श्री परशुराम जी कल्पांत स्थायी है।अधिकारी व्यक्ति को आज भी भगवान् परशुराम के दर्शन होते है। ऐसे महान शिव भक्त, पितृभक्त, गौ भक्त ,महाबली ,गौ-ब्राह्मण रक्षक भगवान् परशुराम को कोटिशः वंदन है।