आज मानव के स्वयं के कल्याण हेतु, विश्व की रक्षा हेतु, पर्यावरण के बचाव के लिये तथा समग्र, अक्षय विकास के लिये गाय के संवर्धन की नितान्त आवश्यकता है ।
गाय को गोमाता के रूप में मानना भी अत्यन्त वैज्ञानिक है । मां के दूध के बाद सबसे पौष्टिक आहार देसी गाय का दूध ही है । इसमें जीव के लिये उपयोगी ऐसे संजीवन तत्व है कि इसका सेवन सभी विकारों को दूर रखता है । जिस प्रकार मां जीवन देती है उसी प्रकार गोमाता पूरे समाज का पोषण करने का सामर्थ्य रखती है ।
इसमें माता के समान ही संस्कार देने की भी क्षमता है । देशज वंशों की गाय स्नेह की प्रतिमूर्ति होती है । गाय जिस प्रकार अपने बछडे अर्थात वत्स को स्नेह देती है वह अनुपमेय है, इसलिये उस भाव को वात्सल्य कहा गया है । वत्स के प्रति जो भाव है वह वत्सलता है । मानव को स्वयं में परिपूर्ण होने के लिये आत्मीयता के इस संस्कार की बडी आवश्यकता है । परिवार, समाज, राष्ट्र व पूरी मानवता को ही धारण करने के लिये यह त्याग का संस्कार अत्यन्त आवश्यक है ।
पूरे विश्व का पोषण करने में सक्षम व्यवस्था के निर्माण के लिये अनिवार्य तत्व का संस्कार गोमाता मानव को देती है । शोषण मानव को दानव बनाता है । गोमाता संस्कार देती है दोहन का । दोहन अर्थात अपनी आवश्यकता के अनुरूप ही संसाधनों का प्रयोग । जिस प्रकार गाय का दूध निकालते समय बछडे की आवश्यकता को संवेदना के साथ देखा जाता है उसी प्रकार जीवन के सभी क्रिया-कलापों में भोग को नियंत्रित करने का संस्कार दोहन देता है ।
आज सारी व्यवस्था ही शोषण पर आधारित हो गई है । इस कारण सम्पन्न व विपन्न के बीच की खाई ब‹ढती जा रही है । गोमाता के मातृत्व को केन्द्र में रखकर बनी व्यवस्था से ही “सर्वे भवन्तु सुखिन:” को साकार करना सम्भव हो सकेगा । इसी आदर्श को प्रस्थापित करने हमारे ज्ञानी ॠषी पूर्वजों ने गाय की पूजा की ।
गौ-विज्ञान को पुन: जागृत कर जन -जन में प्रचारित करने की अनिवार्यता है । गोशालाओं के माध्यम से कटती गायों को बचाने के उपक्रम तो आपात्कालीन उपाय के रूप में करने ही होंगे किन्तु गो आधारित संस्कृति के विकास के लिये गो-केन्द्रित जीवन पद्धति को विकसित करना होगा ।
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