एक बार भगवान् शिव अत्यंत मनोहारी स्वरुप धारण करके भ्रमण कर रहे थे।यद्यपि दिगंबर वेश है ,शरीर पर भस्म रमाये है सुंदर जटाएं है परंतु ऐसा सुंदर भगवान् का रूप करोडो कामदेवों को लज्जित कर रहा है।
ऋषि यज्ञ कर रहे थे और शंकर जी वहा से अपनी मस्ती में रामनाम अमृत का पान करते करते जा रहे थे। भगवान् शिव के अद्भुत रूप पर मोहित होकर ऋषि पत्नियां उनके पीछे पीछे चली गयी। ऋषियो को समझ नहीं आया की यह हमारे धर्म का लोप करने वाला अवधूत कौन है जिसके पीछे हमारी पत्नियां चली गयी। पत्नियो नहीं रहेंगी तो हमारे यज्ञ कैसे पूर्ण होंगे?
ऋषियो ने ध्यान लगाया तो पता लगा यह तो साक्षात् भगवान् शिव है। ऋषियो को क्रोध आ गया, ऋषियो ने श्राप दे दिया और श्राप से भगवान् शिव के शरीर में दाह(जलन) उत्पन्न हो गया। शंकर जी वहां से अंतर्धान हो गए। हिमालय की बर्फ में चले गए, क्षीरसागर में गए, चन्द्रमा एवं गंगा जी के पास भी गए परंतु दाह शांत नहीं हुआ। भगवान् शिव अपने आराध्य गोलोकविहरि श्रीकृष्ण के पास गए,उन्होंने गौ माता की शरण जाने को कहा। अतः भगवान् शिव गोलोक में श्री सुरभि गाय का स्तवन करने लगे। उन्होंने कहा –
सृष्टि, स्थिति और विनाश करनेवाली हे मां तुम्हें बार बार नमस्कार है । तुम रसमय भावो से समस्त पृथ्वीतल, देवता और पितरोंको तृप्त करती हो । सब प्रकारके रसतत्वोंके मर्मज्ञो ने बहुत विचार करनेपर यही निर्णय किया कि मधुर रसका आस्वादन प्रदान करनेवाली एकमात्र तुम्ही हो । सम्पूर्ण चराचर विश्व को तुम्हीने बल और स्नेहका दान दिया है । है देवि! तुम रुद्रों की मां, वसुओकी पुत्री, आदित्योंकी स्वसा हो और संतुष्ट होकर वांच्छित सिद्धि प्रदान करनेवाली हो । तुम्ही धृति, तुष्टि, स्वाहा, स्वधा, ऋद्धि, सिद्धि, लक्ष्मी, धृति ( धारणा), कीर्ति, मति, कान्ति, लज्जा, महामाया, श्रद्धा और सर्वार्थसाधिनी हो ।
तुम्हारे अतिरिक्त त्रिभुवनमें कुछ भी नहीं है । तुम अग्नि और देवताओ को तृप्त करनेवाली हो और इस स्थावर जंगम-सम्पूर्ण जगत्में व्याप्त हो । देवि ! तुम सर्वदेवमयी, सर्वभूत समृद्धिदायिनी और सर्वलोकहितैषिणी हो, अतएव मेरे शरीरका भी हित करो । अनघे ! मैं प्रणत होकर तुम्हारी पूजा करता है । तुम विश्व दु:खहारिणी हो, मेरे प्रति प्रसन्न हो । है अमृतसम्भवे ! ब्राहाणों के शापानलसे मेरा शरीर दग्ध हुआ जा रहा है, तुम उसे शीतल करो ।
गौ माता ने कहा- मेरे भीतर प्रवेश करो तुम्हे कोई ताप नहीं तापा पायेगा।
भगवान् शिव ने सुरभि माताकी प्रदक्षिणा की और जैसे ही गाय ने ‘ॐ मा ‘ उच्चारण किया शिव जी गौ माता के पेट में चले गए। शिव जी को परम आनंद प्राप्त हुआ।
भगवान् शिव ने सुरभि माताकी प्रदक्षिणा की और जैसे ही गाय ने ‘ॐ मा ‘ उच्चारण किया शिव जी गौ माता के पेट में चले गए। शिव जी को परम आनंद प्राप्त हुआ।
इधर शिवजीके न होनेसे सरे ज़गत् में हाहाकार मच गया ।शिव के न हिने से सारी सृष्टि शव के सामान प्रतीत होने लगी। शिव जी के न होने से रूद्र अभिषेक एवं यज्ञ कैसे हो? तब देवताओ ने स्तवन करके ब्राह्मणों को प्रसन्न किया और उससे पता लगाकर वे उस गोलोकमें पहुंचे, जहाँ पायसका पङ्क, घीकी नदी, मधुके सरोवर विद्यमान हैं । वहाँके सिद्ध और सनातन देवता हाथोंमें दही और पीयूष लिये रहते हैं ।
गोलोकमें उन्होंने सूर्यके समान तेजस्वी ‘नील’ नामक सुरभि सुतको गौ माता के पेट में देखा । देवता एवं ब्राह्मणों की स्तुति विनती सुनने पर भगवान् शंकर ही इस वृषभके रूपमें अवतीर्ण हुए थे । देवता और गुनियोंने देखा गोलोक की नन्दा, उक्ति, स्वरूपा, सुशीलका, कामिनी, नन्दिनी, मेध्या, हिरण्यदा, धनदा, धर्मदा, नर्मदा, सकलप्रिया, वामनलम्बिका, कृपा, दीर्घशृंगा, सुपिच्छिका, तारा, तोयिका, शांता, दुर्विषह्या, मनोरमा, सुनासा, गौरा, गौरमुखी, हरिद्रावर्णा, नीला, शंखीनी, पञ्चवर्णिका, विनता, अभिनटा, भिन्नवर्णा, सुपत्रिका, जया, अरुणा, कुण्डोध्नी, सुदती और चारुचम्पका- इन गौओके बीचमें नील वृषभ स्वच्छन्द क्रीडा कर रहा है ।
उसके सारे अङ्ग लाल वर्णके थे । मुख और मूंछ पीले तथा खुर और सींग सफेद थे । बाएं पुट्ठे पर त्रिशूल का चिन्ह और दाहिने पुट्ठे पर सुदर्शन का चिन्ह था । वही चतुष्पाद धर्म थे और वही पच्चमुख हर थे । उनके दर्शनमात्रसे वाजपेय यज्ञका फ़ल मिलता है । नीलकी उसे सारे जगत की पूजा होती है ।
नीलको चिकना ग्रास दैने से जगत् तृप्त होता है। देवता और ऋषियोने विविध प्रकारसे नीलकी स्तुति करते हुए कहा –
देव !तुम वृषरूपी भगवान् हो ।जो मनुष्य तुम्हारे साथ पापका व्यवहार करता है, वह निश्चय ही वृषल होता है और उसे रौरवादि नरकोंकी यन्त्रणा भोगनी पडती है । जो मनुष्य तुम्हें पैरोंसे छूता है, वह गाढ़े बंधनो मे बंधकर, भूख-प्याससे पीडित होकर नरक-यातना भोगता है और जो निर्दय होकर तुम्हें पीडा पहुँचाता है, वह शाश्वती गति-मुक्तिको नहीं पा सकता । ऋषियोद्वारा स्तवन करनेपर नीलने प्रसन्न होकर उनको प्रणाम किया ।अतः वृषभ भगवान् का वाहन ही नै अपितु भगवान् शिव का अंश भी है।
श्रीशिवजी वृषभध्वज और पशुपति कैसे बने ?
समुद्र मंथन से श्री सुरभि गाय का प्राकट्य हुआ। गौ माता के शारीर में समस्त देवी देवता एवं तीर्थो में निवास किया। देवताओ ने गौ माता का अभिषेक किया और श्री सुरभि गाय के रोम रोम से असंख्य बछड़े एवं गौए उत्पन्न हुये ।उनका वर्ण श्वेत(सफ़ेद) था। वे गौ माताए एवं बछड़े विविध दिशाओ में विचरण करने लगे।
एक समय सुरभीका बछड़ा मांका दूध पी रहा था ।गौ एवं बछड़ा उस समय कैलाश पर्वत के ऊपर आकाश में थे।भगवान् शिव ने उस समय समुद्र मंथन से उत्पन्न हलाहल विष पान किया था अतः उनके शरीर का ताप बढ़ने से भगवान् शिव श्री राम नाम के जाप में लीन थे। गौ के बछड़े के मुखसे दूधकां झाग उड़कर श्रीशंकरजीके मस्तकपर जा गिरा । इससे शिवजीक्रो क्रोध हो गया,यद्यपि शिवजी गौमाता की महिमा को जानते है परंतु गायो का माहात्म्य प्रकट करने के लिए उन्होंने कुछ लीला करने हेतु क्रोध किया। शंकर जी ने कहा कि यह कौन पशु है जिन्होंने हमें अपवित्र किया? शंकर जी ने अपना तीसरा नेत्र खोला ,परंतु गौ माताओ को कुछ नहीं हुआ। शंकर जी की दृष्टि अमोघ है अतः कुछ परिणाम तो अवश्य होगा। इसलिए गौ माता शिवजी की दृष्टि से अलग अलग रंगो में परिवर्तित हो गयी। तब प्रजापतिने ब्रह्मा ने उनसे कहा-
प्रभो ! आपके मस्तकपर यह अमृतका छींटा पडा है । बछडोंके पीनेसे गायका दूध जूठा नहीं होता । जैसे अमृतका संग्रह करके चन्द्रमा उसे बरसा देता है, वैसे ही रोहिणी गौएं भी अमृत सेे उत्पन्न दूध को बरसाती हैं । जैसे वायु, अग्नि, सुवर्ण, समुद्र और देवताओंका पिया हुआ अमृत कोई जूठे नहीं होते, बैसे ही बछडों को दूध पिलाती हुई गौ दूषित नहीं होती । ये गौएँ अपने दूध और घीसे समस्त जगत् का पोषण करेंगी । सभी लोग इन गौओ के अमृतमय पवित्र दूधरूपी ऐश्वर्यकी इच्छा करते हैं ।
इतना कहकर सुरभि एवं प्रजापतिने श्रीमहादेवजी को कईं गौएँ और एक वृषभ दिया । तब शिवजीने भी प्रपत्र होकर वृषभ को अपना वहन बनाया और अपनी ध्वजा को उसी बृषभके चिह्नसे सुशोभित किया । इसीसे उनका नाम ‘ वृषभध्वज पड़ा । फिर देबताओ ने महादेवजीको पशुओ-का स्वामी (पशुपति ) बना दिया और गौओके बीचमें उनका नाम बृषभांक है रखा गया । गौएं संसार सर्वश्रेष्ठ वस्तु हैं । वे सारे जगत् को जीवन देनेवाली हैं । भगवान् शंकर सदा उनके साथ रहते हैं । वे चन्द्रमा से निकले हुए अमृत्तसे उत्पन्न शान्त, पवित्र, समस्त कामनाओ को पूर्ण करनेवाली और समस्त प्राणियोंके प्राणों की रक्षा करनेवाली हैं ।
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