बुधवार, 23 अक्तूबर 2019

गौभक्त स्वामी प्रभुदत्त ब्रह्मचारी

 जन्म तथा शिक्षा

प्रभुदत्त ब्रह्मचारी का जन्म संवत 1942 (1885 ई.) में जनपद अलीगढ़, उत्तर प्रदेश के ग्राम अहिवासी नगला में एक निर्धन परिवार में हुआ था। इनके पिता का नाम पण्डित मेवाराम था। विदुषी माता अयुध्यादेवी से संत सुलभ संस्कार प्राप्त कर उन्होंने आजीवन ब्रह्मचर्य व्रत धारण किया था। बल्देव, बरसाना, खुर्जा, नरवर एवं वाराणसी में उन्होंने संस्कृत का अध्ययन किया। स्वामी करपात्री जी एवं साहित्यकार कन्हैयालाल मिश्र प्रभाकर उनके सहपाठी थे। वे ‘श्रीकृष्ण गोविंद हरे मुरारी, हे नाथ नारायण वासुदेव’ मंत्र के द्रष्टा थे। प्रभुदत्त ब्रह्मचारी जी का व्यक्तित्व विलक्षण और विराट था। छोटी अवस्था में ही वे गृह त्यागकर गुरुकुल में रहे, जहाँ शिक्षा-दीक्षा ग्रहण की। बचपन से ही सांसारिकता से विरक्त रहे ब्रह्मचारी जी ने तप को ही जीवन का लक्ष्य बना लिया था। वे संस्कृत साहित्य का गहरा अध्ययन करते रहे।

स्वतंत्रता संग्राम में योगदान

महात्मा गाँधी का आह्वान सुनकर पढ़ाई छोड़कर प्रभुदत्त ब्रह्मचारी स्वतंत्रता संग्राम में कूद पड़े। अंग्रेज़ों के विरुद्ध आन्दोलनों में सक्रिय भाग लिया, जिसके फलस्वरूप उन्हें कठोर कारावास का दण्ड भोगना पड़ा। भारत के स्वतंत्र होने पर राजनेताओं की विचारधारा से दु:खी होकर वे सदा के लिए राजनीति से अलग हो गए और झूसी में ‘हंसस्कूल’ नामक स्थान पर वट वृक्ष के नीचे तप करने लगे। ‘गायत्री महामंत्र’ का जप किया। वैराग्य भाव से हिमालय की ओर भी गए और फिर मथुरा आकर वृन्दावन में बस गए।

ब्रजभाषा के कवि

संत प्रभुदत्त ब्रह्मचारी ब्रजभाषा के सिद्धहस्त कवि थे। उन्होंने सम्पूर्ण भागवत को महाकाव्य के रूप में छन्दों में लिखा था। ‘भागवत चरित कोश’ ब्रजभाषा में लिखने का एकमात्र श्रेय इन्हीं को प्राप्त है।

‘गौहत्या निरोध समिति’ का गठन

भारत में गायों की हत्या होते देखकर प्रभुदत्त ब्रह्मचारी को बहुत दु:ख हुआ। उन्होंने ‘गौहत्या निरोध समिति’ बनाई और उसके अध्यक्ष बने। सन 1960-1961 में कश्मीर से कन्याकुमारी तक उन्होंने कई बार भ्रमण किया। अक्‍तूबर – नवम्बर १९६६ ई० में अखिल भारतीय स्तर पर गोरक्षा-आन्दोलन चला। भारत साधु-समाज, आर्यसमाज, सनातन धर्म, जैन धर्म आदि सभी भारतीय धार्मिक समुदायों ने इसमें बढ़-चढ़कर भाग लिया। ७ नवम्बर १९६६ को संसद पर हुये ऐतिहासिक प्रदर्शन में देशभर के लाखों लोगों ने भाग लिया। इस प्रदर्शन में गोली चली और अनेक व्यक्ति शहीद हुये। इस आन्दोलन में चारों शंकराचार्य तथा स्वामी करपात्री जी भी जुटे थे। जैन मुनि सुशीलकुमार जी तथा सार्वदेशिक सभा के प्रधान लाला रामगोपाल शालवाले और हिन्दू महासभा के प्रधान प्रो॰ रामसिंह जी भी बहुत सक्रिय थे। श्री प्रभुदत्त ब्रह्मचारी तथा पुरी के जगद्‍गुरु शंकराचार्य श्री स्वामी निरंजनदेव तीर्थ तथा महात्मा रामचन्द्र वीर के आमरण अनशन ने आन्दोलन में प्राण फूंक दिये थे
सन्‌ १९६७ में गो-हत्या के प्रश्न को लेकर प्रभुदत्त ब्रह्मचारी जी ने ८० दिन तक व्रत किया और सरकार के विशेष आग्रह पर अपना व्रत भंग किया। वे रा. स्व. संघ के द्वितीय सरसंघचालक श्री गुरुजी के भी निकट रहे।

हरिनाम संकीर्तन

उनका संकीर्तन में अटूट लगाव था। वृन्दावन में यमुना के तट पर वंशीवट के निकट संकीर्तन भवन की स्थापना की तो प्रयाग राज प्रतिष्ठानपुर झूसीमें अनेकानेक प्रकल्पों के साथ संकीर्तन भवन प्रतिष्ठित किया। वसंत विहार दिल्ली में संकीर्तन भवन में हनुमान जी की विशालकाय मूर्ति पधारने की योजना का संकल्प लिया, क्रियान्वित किया। झूसीप्रवास में वर्षो उपवास के साथ गंगा मैया के जल में प्रविष्ट हो समाधिस्थ स्थिति में गायत्री महामंत्र का पारायण किया था। वृंदावन में वस्त्र के स्थान पर टाट का प्रयोग कर यमुना पार सहस्त्रों गायों को साथ लेकर गोचारण किया। पूज्य ब्रह्मचारी जी सिद्धांतों को आचरण में लाकर प्रस्तुत करने वाले प्रेरक व्यक्तित्व के धनी थे

साहित्य रचना

प्रभुदत्त ब्रह्मचारी भारतीय संस्कृति के स्तम्भ रहे थे। उन्होंने निम्न साहित्यिक रचनाएँ की थीं-
‘भारतीय संस्कृति व शुद्धि’
‘श्री श्री चैतन्य चरितावली’
‘महाभारत के प्राण महात्मा कर्ण’
‘गोपालन’
‘शिक्षा’
‘बद्रीनाथ दर्शन’
‘मुक्तिनाथ दर्शन’
‘महावीर हनुमान’

निधन

संत प्रभुदत्त ब्रह्मचारी ने संवत 2047 (1990 ई.) के चैत्र माह में कृष्ण पक्ष की प्रतिपदा तिथि को भौतिक देह का त्याग  वृन्दावन धाम में किया।

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