पूज्यश्री महाराजजी ने बड़ी सुन्दर बात कही। एक सूत्र में ही सब कुछ कह दिया। एक तो यह कहा कि गाय के प्रति जिसकी भक्ति नहीं, श्रद्धा नहीं है, निष्ठा नहीं है, वह कभी भी गोविन्द का भक्त नहीं हो सकता। जो सच्चे अर्थ में गोविन्द का भक्त होगा वह गोभक्त अवश्य होगा। क्योंकि गोविन्द तो इष्ट है और गाय अति इष्ट है। इष्ट की इष्ट है ना गाय, इसलिये। इष्ट श्रीगोविन्द और गोविन्द की भी इष्ट श्रीगोमाता है। भगवान अनुचर है गाय के। भगवान भी गाय के आगे नहीं चलते पीछे-पीछे चलते हैं। गायें चर करके तृप्त होकर के पवित्र श्रीयमुनाजी के जल को पीकरके जब बैठ जाती हैं तब ठाकुरजी बैठते हैं। तब तक बैठते नहीं, खड़े रहते हैं और इसके बाद ठाकुरजी छाछ आरोगते हैं, प्रसाद पाते हैं और पुनः जब गोचारण करके लौटते हैं तो फिर गोवंश के पीछे-पीछे चलकर आते हैं।
ऐसे, श्रीकृष्ण का भक्त यदि उसकी गाय में श्रद्धा नहीं है, गव्य पदार्थों में श्रद्धा नहीं है, कैसे स्वीकार किया जाय की वह भगवत् भक्त है, संत है अथवा वैष्णव है या आस्तिक है। इतना ही नहीं गाय में श्रद्धा नहीं है तो उसे भारतीय कहलाने का अधिकार नहीं है। हमारे वृन्दावन में एक परम तपस्वी ज्ञानवृद वयोवृद ऋषिकल्प महापुरुष विराजमान थे। जिनके चरणों में बैठकर दास को यत्किन्चित
स्वाध्याय करने का अवसर प्राप्त हुआ। अनन्तश्री सम्पन्न पूज्य पंडित श्रीराजवंशी द्विवेदीजी धर्मसंघ वाले गुरुजी। एक बार दास ने सहज ही गुरुजी से पूछा! गुरुजी अत्यन्त सरल कोई परिभाषा बतायें सनातनधर्मी हिन्दू की। तो गुरुजी हंसने लगे। तो गाय के प्रति श्रद्धा की बात गुरुजी ने नहीं की। गुरुजी ने कहा गोमय और गोमूत्र में जिसकी श्रद्धा हो, गोमय में जिसे दिव्य सुगन्ध का अनुभव होता हो, गोमूत्र में जिसको दिव्य सुगन्धका अनुभव होता हो उसको उसका दर्शन करके चित्त में घृणा
उत्पन्न नहीं होती हो, वही हिन्दू है, वही सनातनधर्मी है। अगर गोबर, गोमूत्र को देखकर श्रद्धा उत्पन्न नहीं होती, मन सात्विक नहीं होता तो गुरुजी कहते थे कहीं न कहीं से मलेच्छत्व उसमें आ गया है, वर्णसंकरी उसमे आ गया है।
ऐसे, श्रीकृष्ण का भक्त यदि उसकी गाय में श्रद्धा नहीं है, गव्य पदार्थों में श्रद्धा नहीं है, कैसे स्वीकार किया जाय की वह भगवत् भक्त है, संत है अथवा वैष्णव है या आस्तिक है। इतना ही नहीं गाय में श्रद्धा नहीं है तो उसे भारतीय कहलाने का अधिकार नहीं है। हमारे वृन्दावन में एक परम तपस्वी ज्ञानवृद वयोवृद ऋषिकल्प महापुरुष विराजमान थे। जिनके चरणों में बैठकर दास को यत्किन्चित
स्वाध्याय करने का अवसर प्राप्त हुआ। अनन्तश्री सम्पन्न पूज्य पंडित श्रीराजवंशी द्विवेदीजी धर्मसंघ वाले गुरुजी। एक बार दास ने सहज ही गुरुजी से पूछा! गुरुजी अत्यन्त सरल कोई परिभाषा बतायें सनातनधर्मी हिन्दू की। तो गुरुजी हंसने लगे। तो गाय के प्रति श्रद्धा की बात गुरुजी ने नहीं की। गुरुजी ने कहा गोमय और गोमूत्र में जिसकी श्रद्धा हो, गोमय में जिसे दिव्य सुगन्ध का अनुभव होता हो, गोमूत्र में जिसको दिव्य सुगन्धका अनुभव होता हो उसको उसका दर्शन करके चित्त में घृणा
उत्पन्न नहीं होती हो, वही हिन्दू है, वही सनातनधर्मी है। अगर गोबर, गोमूत्र को देखकर श्रद्धा उत्पन्न नहीं होती, मन सात्विक नहीं होता तो गुरुजी कहते थे कहीं न कहीं से मलेच्छत्व उसमें आ गया है, वर्णसंकरी उसमे आ गया है।
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