जैसे ऊंट-ऊंटनी से लाभ होते हैं, वैसे ही घोड़े-घोड़ी और हाथी आदि से अधिक कार्य सिद्ध होते हैं । इसी प्रकार सुअर, कुत्ता, मुर्गा, मुर्गी और मोर आदि पक्षियों से भी अनेक उपकार होते हैं । जो मनुष्य हिरण और सिंह आदि पशु और मोर आदि पक्षियों से भी उपकार लेना चाहें तो ले सकते हैं, परन्तु सब की रक्षा उत्तरोत्तर समयानुकूल होवेगी । वर्तमान में परमोपकारक गौ की रक्षा में मुख्य तात्पर्य है। दो ही प्रकार से मनुष्य आदि का प्राणरक्षण, जीवन, सुख, विद्या, बल और पुरुषार्थ आदि की वृद्धि होती है – एक अन्नपान, दूसरा आच्छादन । इनमें से प्रथम के विना मनुष्यादि का सर्वथा प्रलय और दूसरे के विना अनेक प्रकार की पीड़ा प्राप्त होती है ।
देखिये, जो पशु निःसार घास तृण पत्ते फल फूल आदि खावें और सार दूध आदि अमृतरूपी रत्न देवें, हल गाड़ी आदि में चल के अनेक विध अन्न आदि उत्पन्न कर सबके बुद्धि बल पराक्रम को बढ़ा के नीरोगता करें, पुत्र, पुत्री और मित्र आदि के समान मनुष्यों के साथ विश्वास और प्रेम करें, जहाँ बांधें वहाँ बंधे रहें, जिधर चलावें विधर चलें, जहां से हटावें वहां से हट जावें, देखने और बुलाने पर समीप चले आवें, जब कभी व्याघ्रादि पशु वा मारने वाले को देखें अपनी रक्षा के लिये पालन करने वाले के समीप दौड़ कर आवें कि यह हमारी रक्षा करेगा । जिनके मरे पर चमड़ा भी कंटक आदि से रक्षा करे, जंगल में चर के अपने बच्चे और स्वामी के लिये दूध देने को नियत स्थान पर नियत समय चले आवें, अपने स्वामी की रक्षा के लिये तन मन लगावें, जिनका सर्वस्व राजा और प्रजा आदि मनुष्यों के सुख के लिये है, इत्यादि शुभगुणयुक्त, सुखकारक पशुओं के गले छुरों से काट कर जो मनुष्य अपना पेट भर, सब संसार की हानि करते हैं, क्या संसार में उनसे भी अधिक कोई विश्वासघाती, अनुपकारक, दुःख देने वाले और पापी मनुष्य होंगे ?
इसीलिये यजुर्वेद के प्रथम ही मंत्र में परमात्मा की आज्ञा है कि – अघन्याः यजमानस्य पशून् पाहि – हे मनुष्य ! तू इन पशुओं को कभी मत मार, और यजमान अर्थात् सब के सुख देने वाले मनुष्यों के सम्बन्धी पशुओं की रक्षा कर, जिनसे तेरी भी पूरी रक्षा होवे । और इसीलिये ब्रह्मा से लेके आज पर्यन्त आर्य लोग पशुओं की हिंसा में पाप और अधर्म समझते थे, और अब भी समझते हैं । और इनकी रक्षा से अन्न भी महंगा नहीं होता, क्योंकि दूध आदि के अधिक होने से दरिद्र को भी खान पान में मिलने पर न्यून ही अन्न खाया जाता है, और अन्न के कम खाने से मल भी कम होता है । मल के न्यून होने से दुर्गन्ध भी न्यून होता है, दुर्गन्ध के स्वल्प होने से वायु और वृष्टिजल की अशुद्धि भी न्यून होती है । उससे रोगों की न्यूनता होने से सबको सुख बढ़ता है ।
इनसे यह ठीक है कि गो आदि पशुओं के नाश होने से राजा और प्रजा का भी नाश हो जाता है, क्योंकि जब पशु न्यून होते हैं तब दूध आदि पदार्थ और खेती आदि कर्मों की भी घटती होती है। देखो, इसी से जितने मूल्य से जितना दूध और घी आदि पदार्थ तथा बैल आदि पशु सात सौ वर्ष के पूर्व मिलते थे, वितना दूध घी और बैल आदि पशु इस समय दशगुणे मूल्य से भी नहीं मिल सकते । क्योंकि सात सौ वर्ष के पीछे इस देश में गवादि पशुओं को मारने वाले मांसाहारी विदेशी मनुष्य बहुत आ बसे हैं । वे उन सर्वोपकारी पशुओं के हाड मांस तक भी नहीं छोड़ते, तो नष्टे मूले नैव फलं न पुष्पम् जब कारण का नाश कर दे तो कार्य नष्ट क्यों न हो जावे ? हे मांसाहारियो ! तुम लोग जब कुछ काल के पश्चात् पशु न मिलेंगे, तब मनुष्यों का मांस भी छोड़ोगे या नहीं ? हे परमेश्वर ! तू क्यों इन पशुओं पर, जो कि विना अपराध मारे जाते हैं, दया नहीं करता ? क्या उन पर तेरी प्रीति नहीं है ? क्या उनके लिये तेरी न्यायसभा बंद हो गई है ? क्यों उनकी पीड़ा छुड़ाने पर ध्यान नहीं देता, और उनकी पुकार नहीं सुनता । क्यों इन मांसाहारियों के आत्माओं में दया प्रकाश कर निष्टुरता, कठोरता, स्वार्थपन और मूर्खता आदि दोषों को दूर नहीं करता ? जिससे ये इन बुरे कामों से बचें ।
देखिये, जो पशु निःसार घास तृण पत्ते फल फूल आदि खावें और सार दूध आदि अमृतरूपी रत्न देवें, हल गाड़ी आदि में चल के अनेक विध अन्न आदि उत्पन्न कर सबके बुद्धि बल पराक्रम को बढ़ा के नीरोगता करें, पुत्र, पुत्री और मित्र आदि के समान मनुष्यों के साथ विश्वास और प्रेम करें, जहाँ बांधें वहाँ बंधे रहें, जिधर चलावें विधर चलें, जहां से हटावें वहां से हट जावें, देखने और बुलाने पर समीप चले आवें, जब कभी व्याघ्रादि पशु वा मारने वाले को देखें अपनी रक्षा के लिये पालन करने वाले के समीप दौड़ कर आवें कि यह हमारी रक्षा करेगा । जिनके मरे पर चमड़ा भी कंटक आदि से रक्षा करे, जंगल में चर के अपने बच्चे और स्वामी के लिये दूध देने को नियत स्थान पर नियत समय चले आवें, अपने स्वामी की रक्षा के लिये तन मन लगावें, जिनका सर्वस्व राजा और प्रजा आदि मनुष्यों के सुख के लिये है, इत्यादि शुभगुणयुक्त, सुखकारक पशुओं के गले छुरों से काट कर जो मनुष्य अपना पेट भर, सब संसार की हानि करते हैं, क्या संसार में उनसे भी अधिक कोई विश्वासघाती, अनुपकारक, दुःख देने वाले और पापी मनुष्य होंगे ?
इसीलिये यजुर्वेद के प्रथम ही मंत्र में परमात्मा की आज्ञा है कि – अघन्याः यजमानस्य पशून् पाहि – हे मनुष्य ! तू इन पशुओं को कभी मत मार, और यजमान अर्थात् सब के सुख देने वाले मनुष्यों के सम्बन्धी पशुओं की रक्षा कर, जिनसे तेरी भी पूरी रक्षा होवे । और इसीलिये ब्रह्मा से लेके आज पर्यन्त आर्य लोग पशुओं की हिंसा में पाप और अधर्म समझते थे, और अब भी समझते हैं । और इनकी रक्षा से अन्न भी महंगा नहीं होता, क्योंकि दूध आदि के अधिक होने से दरिद्र को भी खान पान में मिलने पर न्यून ही अन्न खाया जाता है, और अन्न के कम खाने से मल भी कम होता है । मल के न्यून होने से दुर्गन्ध भी न्यून होता है, दुर्गन्ध के स्वल्प होने से वायु और वृष्टिजल की अशुद्धि भी न्यून होती है । उससे रोगों की न्यूनता होने से सबको सुख बढ़ता है ।
इनसे यह ठीक है कि गो आदि पशुओं के नाश होने से राजा और प्रजा का भी नाश हो जाता है, क्योंकि जब पशु न्यून होते हैं तब दूध आदि पदार्थ और खेती आदि कर्मों की भी घटती होती है। देखो, इसी से जितने मूल्य से जितना दूध और घी आदि पदार्थ तथा बैल आदि पशु सात सौ वर्ष के पूर्व मिलते थे, वितना दूध घी और बैल आदि पशु इस समय दशगुणे मूल्य से भी नहीं मिल सकते । क्योंकि सात सौ वर्ष के पीछे इस देश में गवादि पशुओं को मारने वाले मांसाहारी विदेशी मनुष्य बहुत आ बसे हैं । वे उन सर्वोपकारी पशुओं के हाड मांस तक भी नहीं छोड़ते, तो नष्टे मूले नैव फलं न पुष्पम् जब कारण का नाश कर दे तो कार्य नष्ट क्यों न हो जावे ? हे मांसाहारियो ! तुम लोग जब कुछ काल के पश्चात् पशु न मिलेंगे, तब मनुष्यों का मांस भी छोड़ोगे या नहीं ? हे परमेश्वर ! तू क्यों इन पशुओं पर, जो कि विना अपराध मारे जाते हैं, दया नहीं करता ? क्या उन पर तेरी प्रीति नहीं है ? क्या उनके लिये तेरी न्यायसभा बंद हो गई है ? क्यों उनकी पीड़ा छुड़ाने पर ध्यान नहीं देता, और उनकी पुकार नहीं सुनता । क्यों इन मांसाहारियों के आत्माओं में दया प्रकाश कर निष्टुरता, कठोरता, स्वार्थपन और मूर्खता आदि दोषों को दूर नहीं करता ? जिससे ये इन बुरे कामों से बचें ।
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