गाय हमारी माता है
हिमालय क्षेत्र के गुज्जर व बकरवाल समुदायों के लिए भेड़ की स्थानीय जाति का खत्म हो जाना बड़ा नुकसान है. ऊन व मांस का उत्पादन बढ़ाने के मकसद से ऑस्ट्रेलिया की मैरीनो जैसी आकर्षक नस्लों के आयात के कारण पारंपरिक भेड़ें तेजी से लुप्त हुई हैं. जबकि घरेलू नस्ल पहाड़ी वातावरण के अधिक अनुकूल थीं. विदेशों से पशुधन आयात की शुरुआत के लगभग 40 साल बाद यह बात समझ में आ रही है कि यह कवायद सही नहीं थी.
श्रीनगर स्थित ट्राइबल रिसर्च एंड कल्चरल फाउंडेशन के मुताबिक आकर्षक नजर आने वाली नस्लें अपेक्षित परिणाम देने में नाकाम रहीं क्योंकि बेरहम मौसम की मार और सामाजिक-आर्थिक स्थितियों को झेलने में यह सक्षम नहीं थीं. इसके बावजूद, 12 पारंपरिक नस्लों की भेड़ और बकरियां लुप्तप्राय हो चुकी हैं, और अन्य कगार पर हैं.
एक ऐसे देश में मवेशियों की घरेलू नस्ल के प्रति सम्मान का पूरी तरह खत्म हो जाना समझ से परे और अक्षम्य है, जो इस तथ्य पर गर्व करता रहा हो कि वह दुनिया में सबसे अधिक, 81000 पशु जातियों के साथ तीसरा सबसे बड़ा विशाल-विविधता वाला क्षेत्र है.
हम मानते हैं कि हमारा कोई भी पशु जैनेटिक संसाधन उपजाऊ व असरदार नहीं है और उनकी उपेक्षा करते रहते हैं. हम लगातार आकर्षक नस्लों को आयात करने में लगे रहते हैं, चाहे वह भेड़ हो या बकरी, गाय, खरगोश, घोड़ा, ऊंट और खच्चर तक भी.
हालांकि गाय रूपी संपदा हमारे पास उपलब्ध है जिसे हम पवित्र और मां का दर्जा देते हैं, मगर इस मामले में भी स्थिति शर्मनाक है. सिर्फ पूजा करने के समय ही हमें पवित्र गाय की याद आती है, वर्ना तो हम इसे एक फालतू जानवर ही समझते हैं.
हमारा विश्वास है कि इसकी उत्पादकता इतनी कम है कि यह सिर्फ 250 से 500 ग्राम ही दूध दे सकती है. इसलिए दूध की उत्पादकता बढ़ाने का हमारे लिए श्रेष्ठ तरीका यही है कि विदेशी होल्सटीन फ्रीजियन या जर्सी नस्ल के साथ घरेलू नस्ल का क्रॉस करा दिया जाए. पचास साल से हम ऐसा कर रहे हैं.
हमारे देश में मवेशियों की 27 शानदार नस्लें मौजूद हैं. वह सभी इतनी अनुत्पादक, इतनी अनुपयोगी कैसे बन गईं? दुनिया में सबसे छोटी वाइचूर जैसी नस्ल, जिसे प्रतिदिन सिर्फ दो किलो चारे की जरूरत होती है, हमारी धरती से खासतौर पर गायब हो गई है. विडंबना है कि यह नस्ल इंग्लैंड की रीडिंग यूनिवर्सिटी में मौजूद है.
भारत में मवेशियों की तादाद दुनिया में सर्वाधिक, लगभग तीन करोड़ है. 27 में से हमारी आधी नस्लें लुप्त हो चुकी हैं. क्रॉस-ब्रीडिंग की अधिकता की वजह से हमारी लगभग 80 फीसदी गायें नस्ल की पहचान खो चुकी हैं. दूध के मामले में प्रतिवर्ष आठ करोड़ टन से अधिक उत्पादन के साथ दुनिया में हम अव्वल हैं. अमेरिका का स्थान दूसरा है. आधिकारिक रूप से इसका श्रेय उच्च दूध उत्पादक नस्लों के आयात और घरेलू नस्ल के साथ उनकी क्रॉस-ब्रीडिंग को दिया जाता है.
मगर क्या ये सच है कि हमारी गायों की दूध उत्पादकता बहुत कम है? क्या यह नस्लें पूरी तरह से अनुपयोगी हो चुकी हैं? राजस्थान की थारपारकर नस्ल का उदाहरण लीजिए. इसका नाम ही थार,पार,कर है, अर्थात यह थार को पार कर सकती है. जर्सी या होल्सटीन फ्रीजियन नस्ल की गाय को एक किलोमीटर चलाने की कोशिश कीजिए, आपको हकीकत पता चल जाएगी.
कुछ माह पहले एफएओ के एक अध्ययन में यह चौंकाने वाली बात सामने आई है कि ब्राजील भारतीय नस्लों की गाय के निर्यात में सबसे आगे है. क्या कहीं कुछ गलत नहीं हो रहा है? ब्राजील हमारे यहां की नस्लों के संवर्धन में हमसे भी आगे है. 1960 के दशक की शुरुआत में ब्राजील ने भारत की छह नस्लें मंगाई थीं.
दरअसल भारतीय नस्ल के मवेशी जब ब्राजील पहुंचे तब पता चला कि यह दूध देने में भी आगे हैं. आज छह में से तीन नस्लें- गुजरात की गिर और आंध्रप्रदेश तथा तमिलनाडू की कांकरेज व ओंगोल वहां होल्सटीन फ्रीजियन व जर्सी के बराबर दूध दे रही हैं. अगर कल को ब्राजील से भारत में गायों का आयात होने लगे तो कोई हैरत नहीं होगी.
अगर हम सही ध्यान देते तो हमारी गाय सड़कों पर भटकने वाला आवारा पशु नहीं मानी जाती बल्कि एक उच्च दूध उत्पादक सम्मानीय मवेशी होती. मेरे विचार से साइंस के कारण जो गड़बड़ियां देश में हुई हैं, उनमें यह सबसे बड़ी है. अब वक्त आ चुका है कि पारंपरिक नस्ल वाले अपने पशुधन की कीमत हम पहचानें और न सिर्फ इनके संरक्षण बल्कि आर्थिक प्रगति के संसाधन के रूप में इनके इस्तेमाल के लिए देशव्यापी कार्यक्रम शुरू करें.
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