कारतूस पश्चिम का निशाना भारतीय गौ
वेद वाक्य है, ‘गाव उपवताक्तं महीयस्य रसुदा। उमा कर्णा हिरण्यया॥’ ऋ.वे. 8-72-12 अर्थात जहां गौएं पुष्ट होती हैं, वहां की भूमि जलमय यज्ञ भूमि होती है और वहां के लोग स्वर्ण आभूषणो से सुशोभित होते हैं। (वे भुखमरी से आत्महत्या नहीं करते।) अथर्ववेद में आगे वर्णन है ‘इन्द्रेण दत्ता प्रथमा शतौदना’ अर्थात वे गाएं जो सौ मनुष्यों का भरण पोषण करती हैं।
वर्तमान भारत में तो अब शतौदना गायों की स्मृति तक नहीं रही है। लोग भूल चुके हैं कि प्राचीनकाल में भारत की समृद्धि का मूल आधार यहां की गाएं ही थीं। मैकाले की अंग्रेजी शिक्षा पद्धति ने हमारे शिक्षित वर्ग को यह विश्वास दिला दिया है कि हमारे देश के पिछड़ेपन और उसकी दरिद्रता का मूल कारण हमारी प्राचीन परम्परा और उसमें आस्था ही है। यदि देश को उन्नत बनाना है तो पूरी तरह पाश्चात्य ज्ञान और तौर-तरीकों को यहां कार्यान्वित करना होगा, ऐसा उनका दृढ़ विश्वास है। सभी क्षेत्रों में सुधार का ज्ञान पाने के लिए हमारे तथाकथित विद्वान पाश्चात्य देशों में जाने के ‘सुअवसर’ को अपने जीवन का लक्ष्य मानने लगे हैं।
पूरे देश को पाश्चात्य रूप-रंग में ढालने की योजना से भला हमारी गौमाता कैसे वंचित रह सकती थी? हमारे नीति निर्धारकों ने दूध की मात्रा को गौमाता की उपयोगिता का मापदंड बना दिया। भारतीय संस्कृति का इससे बड़ा अपमान क्या हो सकता था। हमने अपनी कमियों को सुधारने की बजाय अपनी गौमाता पर ही कम दूध देने का लांछन लगा दिया। इतिहास गवाह है कि भारत वर्ष में जब तक गौ वास्तव में माता जैसा व्यवहार पाती थी – उसके रख-रखाव, आवास, आहार की उचित व्यवस्था थी, देश में कभी भी दूध का अभाव नहीं रहा।
दूध उत्पादन बढ़ाने के लिए हमने अपनी गौमाता की नस्ल बदलने की ठान ली। और इसके लिए कृत्रिम गर्भाधान का रास्ता अपनाया। पश्चिम की नकल करने के पहले हम यह भूल गए कि वहां गायों को दूध के साथ-साथ मांस के लिए भी पाला जाता है। वहां कम से कम समय में कम से कम खर्चे पर अधिक से अधिक दूध और मांस उत्पादन के लिए कृत्रिम गर्भाधान को सबसे कारगर माना गया। सन 1931 में रूस में सबसे पहले बड़े स्तर पर कृत्रिम गर्भाधान की योजना बनाई गई। आज लगभग सभी पाश्चात्य देशों में कृत्रिम गर्भाधान का रिवाज है।
कृत्रिम गर्भाधान के लिए वृषभ का वीर्य कृत्रिम योनि में स्खलित करवा कर एकत्रित किया जाता है। यह प्रतिदिन दो-तीन बार करते हैं। हर स्खलन में सात आठ मिलीलीटर तरल पदार्थ मिलता है जिसमें पांच सौ करोड़ तक शुक्राणु होने की सम्भावना होती है। हालांकि स्वस्थ शुक्राणुओं की संख्या स्खलन की पुनरावृत्ति के साथ वृषभ के स्वास्थ्य, आहार, आयु आदि पर निर्भर रहती है। कृत्रिम रूप से एकत्रित वीर्य को पैनीसिलीन जैसी रोग नाशक औषधियों के साथ नमक के पानी में मिलाकर सौ-दो सौ गुना विस्तार किया जाता है और इस प्रकार एक स्खलन से लगभग दो सौ तक गर्भाधान टीके बनाए जाते हैं। इन्हीं टीकों का इस्तेमाल कृत्रिम गर्भाधान के लिए किया जाता है।
भारतीय संदर्भ में गायों का कृत्रिम गर्भाधान न केवल अनैतिक है बल्कि यह अव्यावहारिक भी है। सरकारी संस्थानों में चारा घोटाला, कार्र्यकत्ताओं की लापरवाही एक सामान्य बात है। इसलिए सरकारी संस्थानों में उत्पादित गर्भाधान टीके प्राय: शुक्राणु शून्य नमकीन पानी का घोल मात्र ही रहते हैं। आंकड़ों के खेल में हर सरकारी संस्थान निर्धारित टीकों का उत्पादन जरूर दिखाता है, भले ही वे टीके बेकार हों। इन टीकों को तरल नाइट्रोजन और रेफ्रीजरेटर में 40-50 डिग्री हिमांक से नीचे ठंडा रखा जाता है। टीका बनाने से लेकर गर्भाधान केन्द्र तक कब, कहां, कितनी बिजली, तरल नाइट्रोजन की उपलब्धता रही और इस कारण कितने शुक्राणु जीवित रह पाए, यह हमेशा एक संदिग्ध विषय रहता है। शासन तंत्र की मिलीभगत के चलते सरकारी संस्थानों में प्राय: मृतप्राय: शुक्राणुओं के टीके ही पाए जाते हैं। कृत्रिम गर्भाधान करने के लिए कुशल व संवेदनशील कर्मचारी भी चाहिए। सरकारी तंत्र में यह भी एक जटिल समस्या है। सुदूर ग्रामीण क्षेत्रों में कृत्रिम गर्भाधान योजना की यह कठिनाइयां हैं।
एक गौ का ऋतुकाल उसकी नस्ल, स्वास्थ्य, आहार व रख-रखाव पर निर्भर रहता है। देसी गाय एक दो दिन तक गर्म रहती है। अधिक दूध देने वाली संकर गायों का ऋतुकाल कुछ घंटों तक सिमित होता है। गाय कब गर्म है, इसका निर्णय करना प्राकृतिक नियमानुसार एक वृषभ का काम है। मनुष्य गोपालक गाय के ऋतुकाल का अनुमान ही लगा पाते हैं। देसी गाय में एक दो दिन के समय के कारण इतनी कठिनाई नहीं आती, जितनी अधिक दूध देने वाली संकर नस्ल की गायों में, जो केवल कुछ घंटों तक ही गर्म रहती हैं। इतने सीमित समय में कृत्रिम गर्भाधान व्यवस्था उपलब्ध कराना सामान्यत: कठिन होता है।
पाश्चात्य देशों में औसतन पचास प्रतिशत तक कृत्रिम गर्भाधान सफल माने जाते हैं। लेकिन यह देखा जा रहा है कि जिन गायों का कृत्रिम गर्भाधान किया गया उन में हर ब्यांत के बाद कृत्रिम गर्भाधान की सफलता कम होती जाती है। इसलिए प्राय: दो-तीन ब्यांत के बाद वहां गायों को मांस के लिए मार दिया जाता है।
भारत वर्ष में गौ के ऋतुमति होने के समय की ठीक पहचान की कमी, टीमों की प्रामाणिकता का अभाव, बिजली इत्यादि की अव्यवस्था, कुशल गर्भाधानरकत्ताओं की कमी इत्यादि के चलते, राष्ट्रीय योजना आयोग के आंकड़ों के अनुसार मात्र 30 प्रतिशत कृत्रिम गर्भाधान सफल होते हैं। परंतु वास्तविकता यह है कि भारत में कृत्रिम गर्भाधान की सफलता 20 प्रतिशत से अधिक नहीं है। कृत्रिम गर्भाधान की जितनी अधिक कोशिश की जाती है, गायों में बांझपन की संभावना उतनी ही बढ़ जाती है।
बिना दूध की गौ का सूखा काल बढ़ने से किसान के लिए गौ आहार देना एक आर्थिक बोझ बन जाता है। सरकारी संस्थानों में उत्पादित गर्भाधान टीकों की प्रामाणिकता कम पाए जाने पर विदेशों से टीके आयात करने का रास्ता ढूंढा गया है। जबकि इससे विदेशों के पशुओं की आनुवांशिक भयानक बीमारियों के यहां फैलने का खतरा बढ़ जाता है। अनुचित लाभ कमाने के लालच से प्रेरित होकर यह भी देखा गया है कि कई बार अधिकारियों की मिलीभगत से विदेशों में बेकार घोषित किए जा चुके टीकों का भी आयात कर लिया जाता है। यह सब देखते हुए अब कृत्रिम गर्भाधान का दायित्व निजी क्षेत्र को दिए जाने की बात हो रही है। लेकिन ऐसा हुआ तो भी स्थिति में कोई विशेष परिवर्तन नहीं होने वाला है।
कृत्रिम गर्भाधान न केवल अप्रभावी एवं नुकसानदेह है बल्कि यह अत्यधिक खर्चीला भी है। सरकारी नीति के अनुसार ग्रामीण क्षेत्रों में जहां 1000 तक गायें हो, वहां एक कृत्रिम गर्भाधान केन्द्र स्थापित करने की योजना है। प्रत्येक केन्द्र पर एक प्रशिक्षित कर्मचारी को आवास, यातायात के लिए मोटर साईकल, गर्भाधान टीके के भंडारण हेतु रेफ्रिजरेटर, टीका लगाने के यंत्र और अन्य कई चीजों के लिए प्राय: एक वर्ष में दो लाख रूपए का खर्च आता है। निजी संस्थाओं या व्यक्तियों द्वारा परिचालित केन्द्रों को यह पैसा सरकार द्वारा दिए जाने की व्यवस्था की जा रही है।
एक केंद्र का कर्मचारी मोटर साईकल पर तरल नाइट्रोजन के बर्तन में गर्भाधान टीके ग्रामवासियों के घर में उनकी गायों को उपलब्ध कराता है। साल में लगभग 250 दिन काम करके वह पांच सौ गायों का कृत्रिम गर्भाधान करने का प्रयास करता है। 30 प्रतिशत गर्भाधान की सफलता संतोषजनक मानी जाती है। यानी 500 में से मात्र 150 गाएं ही गर्भवती हो पाती हैं। बात यहीं खत्म नहीं होती। कृत्रिम गर्भाधान से जन्म लेने वाले लगभग 15-20 प्रतिशत बच्चे जल्दी ही मर जाते हैं। इस प्रकार दो लाख रूपए प्रति वर्ष खर्चे से सौ सवा सौ बच्चे ही मिल पाते हैं। 30 प्रतिशत सफलता के परिणाम स्वरूप हर गाय का सूखा काल दो-तीन महीने बढ़ जाता है। गरीब ग्राम वासी पर यह भी एक बोझ बनता है। फिर जो गाय हर बार, हर ब्यांत के लिए चार-पांच बार कृत्रिम गर्भाधान कराती है, उसका शरीर शिथिल हो जाता है और वह तीन-चार से अधिक बच्चे देने में असमर्थ हो जाती है। इसके बाद अधिकतर गायों को या तो कसाइयों को बेच दिया जाता है या उन्हें सड़कों पर छोड़ दिया जाता है, जहां वे असमय मर जाती हैं।
कृत्रिम गर्भाधान की इस अव्यावहारिक एवं अनैतिक व्यवस्था को छोड़ यदि सरकार प्राकृतिक गर्भाधान की व्यवस्था करे तो स्थिति में व्यापक सुधार हो सकता है। एक वृषभ से वर्ष में पचास से सत्तर बच्चे उत्पन्न हो सकते हैं। एक वृषभ के रखरखाव की अच्छी व्यवस्था करने में तीस-चालीस हजार रुपए का खर्चा आता है। दो लाख रूपए के खर्च पर पांच-छ: वृषभ 350 से 400 तक स्वस्थ बच्चे प्रदान कर सकते हैं। गाएं असमय बांझ नहीं होंगी। ठीक रख रखाव होने पर हर गाय आठ-दस बच्चे आसानी से देगी।
देश में स्वतन्त्रता से पूर्व हर 1000 भारतीयों पर 700 गायें थीं जो आज घटकर 100 रह गई हैं। अगर हम ऐसे ही चलते रहे तो हमें चाय पीने तक के लिए विदेशों से दूध आयात करना पड़ेगा, जैसा बांग्लादेश कर रहा है और पाकिस्तान भी उसी राह पर है। यह सब पाश्चात्य डेयरी उद्योग की सुनियोजित योजना के चलते हो रहा है। इसके लिए हमारे शासक वर्ग की अदूरदर्शिता और हमारे धर्माचार्यों की उदासीनता को जिम्मेदार ठहराया जा सकता है।
आज आवश्यकता है कि देश की प्रत्येक गौशाला देश के कोने-कोने में भारतीय नस्ल के स्वस्थ वृषभ किसानों एवं सरकारी एजेंसियों को उपलब्ध कराए। हर ग्रामीण क्षेत्र में, हर मंदिर-देवालय में एक अच्छे वृषभ को रखने का अपना दायित्व निभाना हमारे धर्माचार्यों और गौशाला चलाने वालों का ध्येय बनाना चाहिए। तरफणों के लिए उन्नत पशुपालन एवं जैविक कृषि की शिक्षा का प्रबंध अनिवार्य रूप से होना चाहिए। अगर ऐसा किया गया तो किसानों को आत्महत्या नहीं करनी पड़ेगी। गौ ग्राम नहीं बचा तो ‘शाइनिंग इंडिया’ भी नहीं बचेगी और एक बार फिर हमें गुलामी का दंश भोगने के लिए मजबूर होना होगा।
-सुबोध कुमार
(लेखक मूलत: इलेक्ट्रिकल इंजीनियर हैं और महर्षि दयानंद गोसंवर्धन केन्द्र, पटपड़गंज, दिल्ली के प्रबंधन में सक्रिय रूप से जुड़े हैं)
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