सोमवार, 4 जुलाई 2016

गोपाल संग कजरी गाय ,,,,,1,,,,,,

गोपाल संग कजरी गाय...!! (1)

दूर वन में कदम्ब के नीचे नंदकिशोर खड़े बांसुरी बजा रहे हैं, सुबह से वो बालसखाओं के साथ गईयाँ चराने आए हैं।

ऐसा सम्मोहन है श्यामसुंदर में कि हर एक बालसखा उन्हें अपने संग पाता है।
हर एक को यही प्रतीत होता है कि कन्हैया उस संग वन में उसी की गईयाँ चराने आया है।

सभी सखागण विशेष योग में हैं और कान्हा को अपने अपने भाव से बतियाते खेलते हुए उसे रिझा रहे हैं।

कन्हैया भी यही मानते हैं कि वे हैं सबसे छोटे व सबके लाडले, तो कभी किसी से तो कभी किसी से रूठ बैठते हैं और फिर खुद ही मान भी जाते हैं।

समग्र विश्व के कर्ताधर्ता बालपन में मित्रों संग कई नादानियां, अठकेलियां करते नाचते-गाते फिरते हैं और नाना प्रकार के प्रलोभनों से रीझ भी जाते हैं।

छोटे से नंदनंदन सभी के लाडले जो ठहरे, हरेक पर जैसे कोई जादू टोना ही कर रखा हो।

वो वंशी की धुन पर या अपने सौंदर्य के बल पर या सम्मोहन विद्या से या नंदबाबा के सुपुत्र होने के कारण या यशोदा मईया के इकलौते लाल होने से या दाऊ भैया के लाड़ से ना जाने कैसे अपना प्रभुत्व जमाए रखते हैं।

लाख ताने मिलने और यशोदा मईया से लाख शिकायतें करने के बावजूद भी सारी की सारी गोपियों को भी कन्हैया ने अपने इशारों पर नचा रखा है।

गोपियों के शिकवे शिकायत सुन लेने के बाद जैसा जादू मईया पर उनका चलता है ऐसा ही कुछ गोपियों पर भी चल ही जाता है।

जिस भी गोपी के घर कान्हा माखन चुराने नहीं जाते उसी गोपी के घर में व मन में सन्नाटा सा रहता है और कभी किवाड़ पर तो कभी द्वार पर खड़ी इंतजार करती रहती है कि आज तो लल्ला उसकी कुटिया में पधारेंगे।

यही सोच वो अपनी माखन की मटकियों को छींकों से उतारती नहीं और श्यामसुंदर को रंगे हाथ पकड़ उसे निहारते हुए खुद को भूल जाना चाहती हैं।

अब ये कोई जादू नहीं तो क्या है...

जहाँ देखो वहीं हर कोई इस नंदकिशोर के स्नेह-नेह को पाने के लिए तन्मयता से उसकी राह तकता रहता है।

गोकुल के गोपगण भी कन्हैया का ही पक्ष लेते हैं, यही नहीं आस पास के गाँव की सखियों पर तो ऐसा जादू छाया है इनका कि बिन देखे ही सब इन पर अपना सर्वस्व न्यौच्छावर कर बैठी हैं।

किसी ने इन्हें अपना पति ही मान लिया है और कई इनका संग पाने के लिए अपना घरबार छोड़ देने को तैयार बैठी हैं।

अरे बिन देखे भी ऐसा असर....

यही नहीं इनके जादू का असर तो वन्य जीवों पर भी गहरा है।
आते तो हैं गईयां चराने पर वंशी की धुन से समस्त वन्य जीवों व पक्षियों को भी नाच नचा देते हैं।

नंगे पांव चलते मोहन के कदमों तले धरा तो जैसे पुष्प ही बिछा देती है और यमुना जी अपनी शीतलता से सूर्य की किरणों को भी शीतल कर देती हैं।

पुरवाई भी पूरे वातावरण को महका देती है, मयूर, कोकिल आदि पक्षी नाच-नाच कर व गा कर मोहन के आगमन का समाचार चहुं दिशाओं में फैला देते हैं।

वंशी की धुन पर सभी वन्यजीव झूम-झूम कर कान्हा का स्वागत करते हैं।

सभी पेड़ पौधे इनके आगमन पर नतमस्तक हो जाते हैं।

अहा ऐसा अद्भुत सम्मोहन....

ऐसी ठकुराई है इनकी ब्रज गोकुल की गलियों में कि हर कोई यहाँ निर्भय होकर विचरता है।
टेढ़ी चाल ढाल व टेढ़ी चितवन वाले की टेढ़ी ही नगरिया।

ठाकुर के नाम बल पर तो कोई भी किसी से सीधे मुँह बात ही ना करता है, सब पर इनकी संगत का गहरा प्रभाव जो पड़ा है।

और तो और टेढ़े ठाकुर की टेढ़ी मुस्कन का तो हर कोई पक्षधर हो लेता है।

अब इनकी टेढ़ी ठकुराई की सरकार भी टेढ़ी.. सर्वगुणसम्पन्न।

और नहीं तो क्या? मान करने में भी।

एक यही तो हैं जहाँ ये टेढ़ी चितवन के धनी श्यामसुंदर सीधे नतमस्तक हो जाते हैं।

सबको अपनी उंगलियों पर नचाने वाले इनके इश्क में ऐसे फंसे हैं कि सारी ठकुराई भूल कर इनके इशारों पर नाचते हैं।

बहरूपिया बन सखियों को ठगने वाले इनकी रूपराशि पर खुद ही ठगे से रह जाते हैं।

लाख वेश बदलें पर अपनी सरकार के समक्ष आते ही बेनकाब हो जाते हैं, यहाँ इनका नहीं इन पर ही जैसे कोई जादू हो जाता है।

टेढ़े ठाकुर की सिरमौर ठकुराईन जादूगरनी।

अहा... सब पर जादू होना मतलब सब पर।

देखो मैं भी कहां बच पाई, उतरी तो थी कजरी की भाव दशा में लेकिन चतुर के संग संगिनी हो गई।

इनकी बात करने बैठो तो बात कहाँ की कहाँ पहुँच जाती है।

ठगी सी रह जाती हूँ और मन शरारत पर उतर आता है इनकी निर्ल्लज आँखों में आँखें डालने से और इनकी मधुर मुस्कन चित्त और लफ्ज़ दोनों को ही चुरा लेती है।

अब देखो एक दिन बोले मुझसे, सखी एक दिन आऊंगा पलम्बर का वेश धरकर तेरे घर, मिलकर नल ठीक करेंगे।

अब कैसे धीर धरूं भला, क्या तुम्हारे इस जग में अकेली ही रहती हूँ मैं?
किसी ने आते देख लिया अगर, कहीं अगर मैं ही बुद्धिहीन तुम्हें पहचान ना पाई तो...!

और इस पर भी क्या आकर लौट पाओगे तुम मुझे छोड़, क्या यूँ ही जाने दूँगी क्या मैं तुम्हें?

तुम तो लौट ही जाओगे क्या फिर मैं जी पाऊंगी कभी?

अरे सच कहूँ तो संग ही चल दूँगी सब हार कर, फिर क्या करोगे।

भेजा ही क्यों इस जग में, अपराधिन ही सही क्या कमी थी तुम्हारे पास जो थोड़ी सी जगह दे देते अपने चरणों में।

हे राम.. क्या-क्या कह जाती हूँ मैं भी, पर सच ही तो कहती हूँ।

मिलन की तड़प, तड़प कर मिलना, ये प्रेम और फिर विरह, तुम्हारी पूरी और मेरी तुम बिन अधूरी सी प्रीत, अंतर्मन के गीत संगीत, मेरी रूह के नृत्य मेरे मनमीत सब तुम ही तुम ही तुम ही हो मेरे।

मधुर पुष्प सुगन्धित विटप प्रेम पंखुड़ी हो तुम,
घोर तिमिर में जो चमका करें पूनम चांदनी हो तुम....

कुंचित कुंतल, विपलित अधर प्रेमांगनि हो तुम,
विचलित कर दे जो हिम शिखर को वो दावानल हो तुम....

रिक्त मन में जो आशा भर दे, वो स्वप्न सुंदरतम हो तुम........!!"

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