बुधवार, 13 जुलाई 2016

गोपाल संग कजरी गाय (5)

गोपाल संग कजरी गाय...... (5)

आज तो कजरी की सोती आँखों में भी युगल की छवि ही है वही जो उसने वन में देखी, कजरी का चित्त अभी भी वहीं अटका है।

सुबह तक वो इसी आवेश में है कि वन में फिर से श्याम के साथ श्यामा जु के दर्शन होंगे।

सुबह ही श्यामसुंदर उठकर आते हैं पर ये क्या, कजरी को तो कन्हैया में भी किशोरी जु दिख रहीं हैं।
वो भाव में यही महसूस कर रही है कि मईया नहीं श्यामा जु ही आज दूध दुहने आईं हैं।

कजरी को जैसे ही मईया स्पर्श करतीं हैं तो वो आज पहली बार सिहर जाती है क्योंकि उसे आज मईया की उंगलियों के स्पर्श में श्यामा जु के स्पर्श का एहसास हो रहा है।

राधे जु की कोमल व मखमली हाथों का स्पर्श पाते ही कजरी कुछ समय के लिए शांत तो हो ही जाती है और साथ ही कोमलांगी की कोमल छुअन के लिए स्थिर भी ताकि श्यामा जु को उसे दुहने में कोई परेशानी ना हो।

पर नटखट श्यामसुंदर सब समझ पा रहे हैं और स्थिति का फायदा उठा कजरी की पीठ पर चढ़ बैठते हैं और उसे गुदगुदाना आरम्भ कर देते हैं।

अब कजरी क्या करे? वो जरा सा हिलती है और फिर से स्थिर हो जाती है।

फिर कन्हैया नीचे उतरकर कजरी की पूंछ से खेलने लगते हैं पर अब कजरी नहीं हिलती पर मईया कान्हा को वहाँ से यह कहकर भगा देती हैं कि:-

"काहे तंग करे है लल्ला तू कजरी को, वाको कोई दूजो कार्य ना है पर मोकू बहुत हैं, देर मत करवा अब और।
यापे दूध धरयो है और याके बाबा को भी ग्वालों संग मथुरा जानो है, चल जा तू।"

कान्हा वहाँ से चले जाते हैं और कजरी अभी भी मईया को राधा ही समझ रही है।

वन विहार के लिए जाती कजरी को हर कहीं प्रिया जु ही नज़र आ रहीं हैं।

उस पर प्रिया-प्रियतम के दिव्य दर्शन का गहरा असर हुआ है और वो इस भावावेश में डूबती ही जा रही है।

श्यामसुंदर कजरी के नेत्रों से बहती अश्रुधार को रोक ही नहीं पा रहे हैं और उसके लिए चिंतित भी हैं।

वे जानते हैं कि इसका निवारण अब राधे ही कर सकतीं हैं।

वे राह चलते-चलते ही कजरी से बतियाने का प्रयास करते हैं पर आज कजरी को कान्हा की भी सुधि ना है, वो तो उनमें भी राधे को ही देख रही है।

कान्हा वंशी बजाते हैं तब भी उसे श्यामा जु के ही अधर पर वंशी लगी दिख रही है।

श्यामसुंदर अब शांत कजरी के भावदशा को भलिभाँति जानते हुए चुपचाप वन की और बढ़ रहे हैं और मन ही मन श्यामा जु से कजरी की हालत का बखान करते हैं और उन्हें आज वन आने में विलम्ब नहीं करने का आग्रह करते हैं।

श्यामा जु से भी कजरी की हालत छुपी ना है और वो कन्हैया को आश्वस्त करतीं हुईं वन समय पर पहुँचने की स्वीकृति देतीं हैं।

समस्त गईयों को सखाओं संग वन विहार के लिए भेज कर श्यामसुंदर कजरी को उसी पेड़ के नीचे ले जाते हैं और वंशी बजाते हैं और श्यामा जु भी वहाँ पहुँच जाती हैं।

श्यामा जु के हाथों में कजरी को खिलाने का चारा है और वो श्यामसुंदर को बिना देखे ही सीधे कजरी के पास ही आ बैठतीं हैं।

करूणामयी राधे भला कैसे करूणामयी कजरी के नयनों में अश्रु देख सकतीं हैं।
वो पास बैठ कजरी को अपने स्नेहिल स्पर्श से अपना लाड-दुलार देने लगतीं हैं और साथ ही उसे सहलाती हैं।

कजरी अब श्यामा जु का स्पर्श पाकर धीरे-धीरे अपने भावावेश से बाहर आने लगती है।

प्रिया जु उसे अपने हाथों से चारा खिलातीं हैं और कुछ देर उस संग बतियाती रहतीं हैं।

श्यामसुंदर बैठे प्रिया जु को निहार रहे हैं, उनका वश चले तो कजरी को हटा खुद ही राधे के सस्नेह स्पर्श का आनंद लें पर नहीं अभी वो ऐसा नहीं कर सकते, बस चुपचाप बैठे निहार ही रहे हैं प्रिय श्याम।

प्रिया जु जानतीं हैं श्याम जु को पर वो भी मजे ले ले कर कजरी पर अपना प्यार लुटा रहीं हैं।

पर अब कजरी पूर्णतः अपने दिव्य भावावेश से बाहर आ चुकी है और वो जा मिलती है सब गईयों में।

भीतर मन में वो अब श्यामाश्याम को ही भजती है और उसके करूणा भरे विशाल नेत्रों में उनकी दिव्य छवि हमेशा के लिए अंकित हो चुकी है।

वो कन्हैया के साथ वन से लौट आती है......

आज श्यामसुंदर कजरी से खूब हंसी-ठिठोली कर रहे हैं।

कहते हैं:- "वाह री कजरी तू तो बड़े भाग वाली है, इतना स्नेह पा लिया राधे से।
मेरा तो ख्याल ही ना रहा तूझे और ना ही राधे को, तू तो बड़ी चतुर है री कजरी।

अब मुझे भी तेरे से किशोरी का प्रेम पाने के लिए कुछ सीखना चाहिए।

कल मैं भी निकुंज में भावभावित होकर तेरी तरह अश्रु बहाऊंगा और मुख फुलाके बैठ जाऊँगा।
हमेशा श्यामा जु के नाज नखरे उठाता हूँ और कल देखना प्रिया जु आज जैसे तुम्हें सहला रहीं थीं मुझे भी सहलाऐंगी।"

ये सुन कजरी रंभाती है और श्यामसुंदर के कानों में राधे की मधुर खिलखिलाने वाली हंसी सुनाई देती है।

जिसे सुन कन्हैया इधर-उधर देखते हैं और राधे को वहाँ ना पाकर मन ही मन कहते हैं:- "हाँ-हाँ हसो तुम भी मुझ पर, स्नेह तो सारा कजरी पर लुटा दिया और अब हंसी मेरी उड़ालो तुम दोनों।"

इतना कहकर श्यामसुंदर कजरी को पुचकारते दुलराते वंशी बजाते नंद भवन पहुँच जाते हैं।

क्रमशः

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