सोमवार, 4 जुलाई 2016

गोपाल संग कजरी गाय .....2

गोपाल संग कजरी गाय.....!! (2)

गौरवर्ण नन्ही सी एक गइया जिसे मोहन सब गइयों के साथ ही चराने वन ले जाते हैं।

यूँ तो सब कन्हैया की मदमस्त चाल पर आसक्त गइयां उन्हें करूणामयी निगाहों से निहारती जाती हैं, पर ना जाने कजरी में ऐसा क्या खास है जो वो तो कान्हा की मधुर वंशी ध्वनि और टेढ़ी चाल पर प्रेमनिमलित अश्रुपात ही कर देती है।

घर से निकलने से लेकर वन विहार तक और वन विहार से लौटने तक वो तो एकटक श्यामसुंदर को निहारती ही जाती है।

ना वो रम्भाती है कि कहीं वंशी की धुन उसकी कर्कश ध्वनि से खराब ना हो जाए, और उसकी सुनने की लय भी ना टूट जाए और ना ही दृष्टि ही हटाती है कि कहीं श्यामसुंदर जब उसकी ओर देखें तो वो खुद उनकी नजरों में देखने से चुक जाए।

ऐसा विचित्र स्नेह एक गइया का कन्हैया से...

या यूँ कहूँ कि ये भी एक तरह का सम्मोहन ही है, मनमोहक, मोहिनी मोहन की सब मोह को हर लेने वाली छवि का।

कजरी सुबह ही संग-संग चल देती है श्याम जु के।

ऐसा नहीं है कि श्यामसुंदर जानते नहीं हैं इस नन्ही गईया के हृदयद्गार को।

पर उन्हें तो सबका ध्यान है ना, तब भी वे कजरी को बार-बार चरने के लिए ना कहें तो ये भूखी ही लौट आए।

जो जैसा भजे कन्हैया भी वैसे ही तो उसे भजते हैं।

अब वे जानते हैं कि कजरी का पूरा मन उनमें ही लगा है तो वे भी कजरी पर सबसे अधिक ध्यान देते हैं।

ये पास हो या दूर कजरी की निगाह इन पर ही अटकी रहती है, दूर खड़ी श्यामसुंदर को कदम्ब तले खड़े देखती है नख से शिख तक।

कन्हैया का पीताम्बर पवन के साथ उड़ता झिलमिलाता कजरी की नयनों की पुतलियों को नचाता रहता है।

वनमाल और कानों के कुण्डल हिलते-डुलते कजरी की नासिका को महक व आँखों को चमक प्रदान करते हैं।

कन्हैया के पैरों की पायल व नूपुर की रूनझुन-रूनझुन धरा में कम्पन पैदा करती उसके कानों को पल-पल सचेत करती है कि अब वे कजरी की तरफ बढ़ चलेंगे।

उनके कटि के कमरबंध की रूनक-झुनक कजरी के भावों को हवा देते हैं।

यूँ ही मूक बनी कजरी गौधुली के समय तक श्यामसुंदर को एक टक्कर देखती और ज़रा सी हलचल पर ही सतर्क हो जाती।

शाम को गईयों के संग लौटते समय उसे कन्हैया का मुख व देह धुंधले से प्रतीत होते, वो कान्हा के उस समय के रूप का भी मधुर पान करती रहती।

नंद भवन आ जाने पर वो जानती कि मोहन अब भोजन कर विश्राम करेंगे इसलिए वह भी कान्हा संग बिताए पलों को स्मरण करती रहती।

मोहन जब बालसखाओं के साथ लुक्का-छिप्पी खेलते तो वे इसके पीछे छुप जाते और पकड़न पकड़ाई में भी कृष्ण को कोई ना पकड़ पाए तो ढाल बन खड़ी रहती।

कभी-कभी कृष्ण मस्ती में खूब दौड़ाते कजरी को।

मईया जब खाना परोसती तो चुपके से आकर कजरी को ही खिला जाते जब खुद खाने की इच्छा ना होती।

इस तरह से कजरी बालकृष्ण की अठकेलियों को भीतर बचपन से ही सहेजे हुए थी और अपने हृदय मंदिर में सदा उन्हें पूजती रहती।

कान्हा के अधिकतर मधुर पलों में उसने खुद को साथ ही पाया और खुद को बड़ा भाग्यशाली भी मानती।

कई बार तो जब कुछ क्षण कान्हा को ना देखकर व्याकुल होती तो रम्भाकर उन्हें पुकारती और वे भी कजरी की बोली को भलीभाँति जान जाते दौड़कर आते और फिर ओझल हो जाते, यही दिनचर्या और रात्रिशयन हुआ करता सदा।

कुछ यूँ कजरी और मोहन दोनों ही बड़े हुए और समय के साथ साथ भावों में भी बड़प्पन आने लगा।

कजरी को स्मरण रहते कि मोहन उसे चराते समय अक्सर कहते कि:- एक दिन जब तू बड़ी होगी ना अपनी मईया जैसी, तब मैं भी तेरा दूध पीकर तुमसे भी बड़ा हो जाऊँगा, इसलिए तुम अच्छे से भरपेट भोजन किया करो।

कजरी में अब कान्हा के प्रति वात्सल्य भाव उमड़ने लगा था।

वन में अब कजरी श्यामसुंदर के साथ श्यामा जु को भी निहारने लगी।
दोनों जब विचरते वहाँ तो कजरी उन पलो को भी संजोने लगी अपने भीतर।

कृष्ण ने उसे कई बार छुआ है, वन में घूमते-फिरते, बालसखाओं संग खेलते समय कन्हैया ने अक्सर ही कजरी के दूध की धार से खेल खेला है।

कभी मुख से लगाकर तो कभी सखाओं के मुख को भिगोकर।

अब कजरी राधे जु के स्पर्श से भी वंचित नहीं रहना चाहती।

अपने लड़कपन में तो मोहन राधे के ऐसे भोले से दीवाने हैं कि उन्हें राधे की सखियों से भी चिड़ रहती कि क्यों ना मैं ही ये सब सखियां ही होता।

वो कजरी से राधे के बारे में बातें तो करते लेकिन कभी उसे भी मिलवाते नहीं।

अपने बालसखाओं के साथ राधे की सखियों को उलझा कर खुद राधे के साथ कहीं छिपकर समय बिताने की ताक में रहते।

क्रमशः

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