श्रीकृष्ण की खिलती हुई नई किशोरावस्था, बड़े व सुडौल कंधे, सबको अभय देने वाले भुजदण्ड, मतवाले हाथी की-सी चाल–व्रज की स्त्रियों को देह की सुधि भी भुलाने वाली है। श्रीकृष्ण के श्रीअंग की शोभा देखकर गोपियां उन्हें नजर से बचाने के लिए तृण तोड़ती हैं। इस प्रकार उस लावण्य, गुण, शील, आनन्द, दया, बल व शोभा की निधि को देख-देख कर पूरा व्रजपुर ही बलिहारी जा रहा है। जो वेदों के लिए भी अवर्णनीय हैं, तब दूसरा कोई उनके वर्णन में समर्थ कैसे हो सकता है? षोडश कलाओं से परिपूर्ण परमानन्द ही गोकुल में अवतरित हुआ है।
एक गोपी दूसरी गोपी से कहती है–ऐसे ‘गोपाल’ को देखकर उन पर तन, मन, धन–सर्वस्व न्यौछावर कर इन नवीन किशोर की मधुर मूर्ति की शोभा हृदय में रख लूँ। इस किशोर के प्रफुल्ल (पूर्ण विकसित) लाल कमल के समान नेत्र हैं, हाथ में मुरली है, उस सुन्दर श्रेष्ठ त्रिभंगयुक्त शरीर पर वनमाला व अत्यन्त सुन्दर कुसुम्भी पगड़ी की उपमा-योग्य कोई पदार्थ नहीं है।
ऐसौ गोपाल निरखि तन मन वारौं।
नव किसोर, मधुर मुरति, सोभा उर धारौं।।
अरुन तरुन कमल नैन, मुरली कर राजै।
ब्रज जन मन हरन वेनु मधुर मधुर बाजै।।
व्रजांगनाएं गोपाल की अंगकान्ति को देखकर अपने-आप को भूल गईं हैं। कोई कुण्डल की कांति पर मोहित हो गई है तो कोई अरुणाभ कपोलों को देखकर स्तब्ध हो गई है। कोई एकाग्रचित्त से उनके ललाट पर लगे चन्दन को देख रही है, तो कोई अपलक नेत्रों से उनके सुन्दर नेत्रों को देख रही है। कोई श्रीकृष्ण के पूरे श्रीअंग का दर्शन न कर पाने से पश्चात्ताप कर रही है, तो कोई गोपी उनकी सुन्दर नाक को ही देखती रह गई। कोई गोपी श्रीकृष्ण के दांतों की चमक पर ही चकित हो गई है, तो दूसरी गोपी तो गोपाल के चंचल नेत्रों के संकेत पर बिना मूल्य के ही बिक गई है–
सखी हौं स्याम रँग रँगी।
देखि बिकाय गई वह मूरति, सूरति माहिं पगी।। (श्रीगदाधरभट्टजी)
उन चित्त के चुरैया श्रीकृष्ण के रूप का गोपांगनाएं आंखों की कोर से अधीर होकर पान कर रही हैं। व्रजांगनाएं जहां-तहां मुग्ध खड़ी हैं। कभी श्रीकृष्ण के पास आने पर हर्षित और कभी दूर जाने पर उदास हो जातीं हैं। जिसने उनके जिस अंग को देखा, वह वहीं अनुरक्त होकर आत्मविस्मृत हो जाती है–’निरखि जो जिहिं अंग राँची, तहीं रही भुलाइ’ (सूरदास)।
तभी शुरु हो जाती है व्रजपुर की गोपसुन्दरियों के कण्ठ से मंगलगीतों की सुमधुर ध्वनि; दुन्दुभि, ढक्का, पटह, मृदंग, मुरज, आनक, वंशी, कांस्य आदि वाद्ययन्त्रों का आकाश को भी गुंजायमान करने वाला नाद और आनन्द में मस्त गोप-गोपियों के नृत्य की झंकार। ‘श्रीकृष्णचन्द्र की जय। रोहिणीनन्दन बलराम की जय।। राम और श्याम चिरं जीव चिरं जीव।’ इस तरह के सामूहिक घोष से चारों दिशाएं निनादित हो उठीं। इस प्रकार नीलमणि श्रीकृष्ण और उनके अग्रज बलराम आज ‘वत्सपाल’ से ‘गोपाल’ बन गए हैं।
आगे गाय पाछे गाय इत गाय उत गाय।
गोविन्द कूँ गायन में बसिबौ ही भावे।।
गायन के संग धावै गायन में सचु पावै।
गायन की खुर रेनु अंग लिपटावै।।
गायन सों व्रज छायौ, वैकुंठ विसरायौ।
गायन के हित गिरि कर लै उठावै।।
‘छीतस्वामी’ गिरिधारी, विट्ठलेस वपु-धारी।
ग्वारिया कौ भेषु धरैं गायन में आवै।।
श्रीकृष्ण अनेक सखाओं के साथ गोचारण करते हुए वृन्दाकानन की ओर जा रहे हैं। आगे-आगे गौएं, उनके पीछे-पीछे बांसुरी बजाते हुए श्यामसुन्दर, फिर बलराम और उनके पीछे श्रीकृष्ण के यश का गान करते हुए ग्वालबाल–इस अप्रतिम दृश्य की शोभा को व्यक्त करने में वाणी भी समर्थ नहीं है।
ग्वाल मंडली मध्य स्याम घन,
पीत बसन दामिनी लजाएें।
गोप सखा आवत गुन गावत,
मध्य स्याम हलधर छवि छाएें।। (सूरदास)
गोपबालकों की मंडली के बीच मेघ के समान श्यामसुन्दर का पीताम्बर बिजली को भी लज्जित कर रहा है। गोप-सखा उनका गुणगान कर रहे हैं और बीच में कृष्ण-बलराम सुशोभित हो रहे हैं।
सुंदर स्याम, सखा सब सुंदर, सुंदर वेष धरैं गोपाल।
सुंदर पथ, सुंदर गति आवन, सुंदर मुरली सब्द रसाल।।
सुंदर लोग, सकल ब्रज सुंदर, सुंदर हलधर, सुंदर चाल।
सुंदर वचन, विलोकनि सुंदर, सुंदर गुन, सुंदर वनमाल।।
सुंदर गोप, गाइ अति सुंदर, सुंदरि गन सब करति विचार।
सूर स्याम सँग सब सुख सुंदर, सुंदर भक्त हेत अवतार।।
सूरदासजी कहते हैं–श्यामसुन्दर तो सुंदर हैं ही, उनके सभी सखा भी सुंदर हैं और इतने सौंदर्य पर भी उन्होंने गोपाल (ग्वालिए) का वेष धारण कर रखा है। सुंदर मार्ग, सुंदर गति से गोपाल का आना, सुंदर मुरली जिसके शब्द भी रसमय हैं। व्रज के सभी लोग सुंदर हैं, पूरा व्रज सुंदर है, श्रीबलराम और उनकी चाल भी सुंदर है। वाणी सुंदर, चितवन सुंदर और सूत में गुंथी वनमाला भी सुंदर है। गोप सुंदर और गाएं तो अति सुंदर हैं और सुंदर व्रजांगनाएं भी श्रीकृष्ण की सुन्दरता का ही विचार किया करती हैं। श्रीकृष्ण के साथ सभी सुख सुंदर हैं और सुंदर भक्तों के लिए उनका यह सुंदर अवतार हुआ है।
इस प्रकार परस्पर हंसते-खेलते, गौओं को भगाते-कुदाते सभी ने पास ही के वन में प्रवेश किया। कन्हैया अपने कोमल हाथों से हरी-हरी दूब तोड़ते और गायों को अपने हाथों से खिलाते। भगवान श्रीकृष्ण के हाथों का मधुर स्पर्श पाने को कामधेनु भी व्रज की गाय बनने की अभिलाषा करती है–
कामधेनु तरसत रही मैं न भई व्रज गाय।
राधा लाती दोहनी मोहन दुहते आय।।
ऐसे ही अनेक कौतुकों से गायों और गोपसखाओं को सुखी कर सबने यशोदामाता द्वारा दी गयी छाक का भोजन किया।
वृंदावन वन में स्याम चरावत गैया।
वृंदावन में वंशी बजाई बैठे कदंब की छैया।।
भांति भांति के भोजन कीने पठये यशोमति मैया।
सूरदास प्रभु तुम चिरजीयो मेरो कुंवर कन्हैया।।
वृन्दावन के कोने-कोने पर इस गोपाल का ही साम्राज्य है क्योकि यह गोलोक की ही विभूति है। इसलिए यह वृन्दाभूमि उनके चरणचिह्नों–ध्वजा, पद्म, वज्र, अंकुश, जौ आदि–से पूर्व की अपेक्षा और भी अधिक अलंकृत और धन्य होने जा रही है।श्रीकृष्ण, दाऊदादा और ग्बालवालों के साथ वन में चारों ओर विचरण करने लगे। वे कभी सखाओं के साथ भंवरों के स्वर-में-स्वर मिलाकर गावें, कभी कलहंसों के साथ कूजन करें, कभी मोर के साथ नाचें। दोनों में नृत्य की होड़ लगने पर जब मोर हार जाए तो ग्वालबाल ताली पीट-पीट कर अपने सखा की पीठ ठोंकें। कभी कन्हैया मोर, चकवा आदि पक्षियों की बोली बोलते तो कभी बाघ, सिंह आदि की गर्जना से डरे हुए जीवों के समान स्वयं भी भयभीत होने की-सी लीला करते। जब कभी दाऊदादा किसी सखा की गोद में सिर रखकर सो जाएं तब कन्हैया स्वयं उनके चरण दबाएं मानो कह रहे हों कि पहले जब तुम लक्ष्मण थे, तब तुम हमारे पाँव दबाया करते थे। पर अब जब तुम बड़े भाई बने हो तो तुम्हें हमसे पाँव दबवाने पड़ेंगे। कभी कन्हैया स्वयं ग्वालबालों के साथ कुश्ती लड़ते-लड़ते थक जाते तो किसी पेड़ के नीचे पत्तों की शय्या पर सो जायें। तब सखा उनकी सेवा करें, पांव दबावें, तालवृन्त के पत्तों का पंखा झलें और उनके मन को प्रिय लगने वाले गीत गावें। इस प्रकार भगवान श्रीकृष्ण अपनी योगमाया से अपने ऐश्वर्यमय स्वरूप को छिपाकर ग्वालबालों के समान लीला करते हैं।
श्रीकृष्ण बलरामजी से कहते हैं–दादा! यह वृन्दावन के वृक्ष भी अपनी डालियों में सुन्दर फूल एवं फलों को लेकर आपके चरणकमलों में झुक रहे हैं। ये वृक्ष सिर झुकाकर आपको नमस्कार कर रहे हैं। ये पूर्वजन्मों में बड़े भक्त व संत थे। अब अपनी इच्छा से वृक्ष हो गए हैं। इन्होंने वृन्दावन का वृक्ष बनना इसलिए चाहा, ताकि व्रजरज में ही ये गड़े रहें, अपनी जगह से टस-से-मस न हों और कृष्णावतार में जब श्रीकृष्ण गोचारण के लिए आवें, तो उस झांकी का दर्शन कर अपने अनेक जन्मों की श्रीकृष्ण दर्शन की इच्छा पूरी कर सकें। उद्धवजी, ब्रह्माजी भी यही चाहते थे कि वे व्रज के वृक्ष, लता हो जावें।
श्रीकृष्ण बलरामजी से कहते हैं कि ये भंवरें, हरिणियां, कोकिला आदि भी संत हैं। अतिथि का स्वागत करना संत का स्वभाव होता है। वे अपनी प्रिय-से-प्रिय वस्तु अतिथि को भेंट कर देते हैं। इसीलिए आपके स्वागत के लिए मोर नाच रहे हैं, हरिणियां प्रेम से देख रही हैं और कोकिला कुहु-कुहु की मधुर आवाज से आपका स्वागत कर रहीं हैं। ये भंवरे भी गुंजार करते हुए आपके पावन यश का गान कर रहे हैं। धन्य है वृन्दावन की धरती, धन्य है वृन्दावन की द्रुमलता, नदी, पर्वत, खग-मृग।
दिन ढलने पर गाय व बछड़ों को एकत्र कर सब व्रज लौटे। उस समय श्रीकृष्ण की घुंघराली अलकों पर गौओं के खुरों से उड़-उड़कर धूलि पड़ी हुई थी, वे मधुर-मधुर मुरली बजा रहे थे और ग्वालबाल उनकी कीर्ति का गान करते हुए उनके पीछे-पीछे चल रहे थे। मुरली की ध्वनि सुनकर गोपियाँ व्रज से बाहर आईं। गोपियों ने अपने नेत्ररूप भ्रमरों से श्रीकृष्ण के मुखारविन्द का मकरन्द-रसपान करके दिन भर के विरह की जलन शान्त की। (अनेक जन्मों की साधना के पश्चात् साधक के हृदय में कृष्ण-तत्त्व पर पड़ा माया का पर्दा जब हट जाता है, तभी वह यह समझ सकता है कि गौओं को चराकर वन से जब श्रीकृष्ण लौटते हैं, उस समय गोपियां गोरज से रंगे कृष्ण के मुख को देखकर किस सुख का अनुभव करती हैं।)
श्रीकृष्ण आज पहली बार गोप-बालकों के संग गोचारण को गए थे। वहां से वापस आने पर नन्दबाबा और यशोदामाता उन्हें दौड़कर अपने अंक में भर लेते हैं। माता अपने पुत्र के चन्द्रमुख की बलैयां लेती हैं। कृष्ण अपनी मां को वन में गौ चराते वक्त भी नहीं भूले, सो मां के लिए कुछ जंगली फल लेकर आए हैं। माता उन्हें पाकर निहाल हैं। वे कहती हैं कि उसे कुछ नहीं चाहिए, वह तो सिर्फ कृष्ण को पाकर ही परम सुखी हैं।
जसुमति दौरि लिए हरि कनियाँ।
आजु गयौ मेरौ गाइ चरावन, हौं बलि जाउँ निछनियाँ।।
मो कारन कछु आन्यौ है बलि, बन-फल तोरि नन्हैया।
तुमहिं मिलैं मैं अति सुख पायौ, मेरे कुँवर कन्हैया।।
स्वयं परमब्रह्म परमात्मा श्रीकृष्ण ने गोचारण करके गायों के प्रति अपनी निष्ठा व प्रेम दर्शाया है और गोसेवा के महत्व का प्रतिपादन कर अपने ‘गोपाल’ नाम को सार्थक किया–’गावो मे हृदये सन्तु गवां मध्ये वसाम्यहम्।’
परमात्मा ने मानव को बुद्धि व आत्मिक गुणों से सम्पन्नकर धरती पर इसलिए भेजा है कि वह उसकी सृष्टि को और अधिक सौन्दर्य प्रदान करके उसकी कल्पना को साकार करेगा। परन्तु ये कैसी बिडम्बना है कि मनुष्य अपनी हठ-बुद्धि के कारण न केवल परमात्मा की रचना को कुरुप बना रहा है वरन् अपने को अमानवीय घोषित कर ’मानव-मात्र की धाय–गाय’ को भी आदर देने में कमी कर दी है।
महर्षि वशिष्ठ के शब्दों में–‘नदियां जिस प्रकार समुद्र में जा मिलती हैं, उसी प्रकार सुनहरी श्रृंगोंवाली (सींगों वाली) और दूध देने वाली गौएं मुझे प्राप्त हों। ऐसा हो कि मैं नित्य गौओं को देखूं और गौएं मेरी ओर देखें। कारण, गौएं हमारी हैं और हम गौओं के हैं। गौएं हैं इसीसे हमलोग भी हैं।’