यज्ञस्वरूपा गाय
भगवान ने विश्व के पालनार्थ यज्ञपुरुष की प्रधान सहायिका के रूप में गोशक्ति का सृजन किया है। इस यज्ञ की प्रक्रिया को सशक्त बनाने वाली रसदात्री गोमाता है। क्योंकि यज्ञ की सम्पूर्ण क्रियाओं में गाय द्वारा प्रदत्त दुग्ध, दही, घृत, पायस आदि द्रव्य अनिवार्य होते हैं। हविष्य को धारण करने की अग्निशक्ति का कारण भी गोघृत ही है। गौओं को साक्षात् यज्ञरूप बतलाया है। इनके बिना यज्ञ किसी भी तरह नहीं हो सकता। देवगण मन्त्रों के अधीन हैं, मन्त्र ब्राह्मणों के अधीन हैं और ब्राह्मणों को भी हव्य-कव्य, पंचगव्यादि गौ के द्वारा ही प्राप्त होती हैं। महर्षि पाराशर के अनुसार ब्रह्माजी ने एक ही कुल के दो भाग कर दिए–एक भाग गाय और एक भाग ब्राह्मण। ब्राह्मणों में मन्त्र प्रतिष्ठित हैं और गायों में हविष्य प्रतिष्ठित है। अत: गायों से ही सारे यज्ञों की प्रतिष्ठा है। स्कन्दपुराण में ब्रह्मा, विष्णु व महेश के द्वारा कामधेनु की स्तुति की गई है–
त्वं माता सर्वदेवानां त्वं च यज्ञस्य कारणम्।
त्वं तीर्थं सर्वतीर्थानां नमस्तेऽस्तु सदानघे।।
अर्थात् हे अनघे ! तुम समस्त देवों की जननी तथा यज्ञ की कारणरूपा हो और समस्त तीर्थों की महातीर्थ हो, तुमको सदैव नमस्कार है।
वेद हमारे ज्ञान के आदिस्त्रोत हैं। वे हमें देवताओं को प्रसन्न करने की विद्या–यज्ञानुष्ठान का पाठ पढ़ाते हैं। संसारचक्र का पालन करने वाले देवताओं की प्रसन्नता ही हमारी सुख-समृद्धि का साधन है। अत: यज्ञ हमारी लौकिक उन्नति और कल्याण दोनों के लिए आवश्यक हैं। यज्ञ से हम जो चाहें प्राप्त कर सकते हैं। इस यज्ञचक्र को चलाने के लिए ही वेद, अग्नि, गौ एवं ब्राह्मणों की सृष्टि हुई। वेदों में यज्ञानुष्ठान की विधि बताई गई है एवं ब्राह्मणों के द्वारा यह विधि सम्पन्न होती है। अग्नि के द्वारा आहुतियां देवताओं को पहुंचाई जाती हैं और गौ से हमें देवताओं को अर्पण करने योग्य हवि प्राप्त होता है। इसलिए हमारे शास्त्रों में गौ को ‘हविर्दुघा’ (हवि देने वाली) कहा गया है। गोघृत देवताओं का परम हवि है और यज्ञ के लिए भूमि को जोतकर तैयार करने एवं गेहूं, चावल, जौ, तिल आदि हविष्यान्न पैदा करने का काम बैलों (गाय के बछड़ों) द्वारा किया जाता है। यही नहीं, यज्ञभूमि को शुद्ध व परिष्कृत करने के लिए उस पर गोमूत्र छिड़का जाता है और गोबर से लीपा जाता है तथा गोबर के कंडों से ही यज्ञाग्नि प्रज्जवलित की जाती है। गोमय से लीपे जाने पर पृथ्वी पवित्र यज्ञभूमि बन जाती है और वहां से सारे भूत-प्रेत और अन्य तामसिक पदार्थ दूर हो जाते हैं। यज्ञानुष्ठान से पूर्व प्रत्येक यजमान की देहशुद्धि के लिए पंचगव्य पीना होता है जो गाय के ही दूध, दही, घी, गोमूत्र व गोमय (गोबर) से तैयार होता है। जो पाप किसी प्रायश्चित से दूर नहीं होते, वे गोमूत्र के साथ अन्य चार गव्य पदार्थ (दूध, दही, घी, गोमय) से युक्त होकर पंचगव्य रूप में हमारे अस्थि, मन, प्राण और आत्मा में स्थित पाप समूहों को नष्ट कर देते हैं।
‘पंचगव्यप्राशनं महापातकनाशनम्।’
देवताओं को आहुति पहुंचाने के लिए हमारे यहां दो ही मार्ग माने गये हैं–अग्नि और ब्राह्मणों का मुख। दूध में पकाये गये चावल जिन्हें आधुनिक भाषा में खीर कहते हैं और संस्कृत में परमान्न (सर्वश्रेष्ठ भोजन)–यही देवताओं और ब्राह्मणों को विशेष प्रिय होती है। घी को सर्वश्रेष्ठ रसायन माना गया है; गोमूत्र सब जलों में श्रेष्ठ है; गोरस सब रसों में श्रेष्ठ है।
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