एक बार भगवान शंकर से ऋषियों का कुछ अपराध हो गया। ऋषियों ने उन्हें घोर शाप दे डाला। महेश्वर गोलोक में सुरभी की शरण में गए और उन्होंने स्तुति करते हुए कहा–’मां सुरभी ! तुम सृष्टि, स्थिति, विनाश करने वाली, रस से भूतल को आप्यायित करने वाली, विश्व-हेतु और सबको बल-पोषण प्रदान करने वाली, रुद्रों की मां, आदित्यों की बहन, वसुओं की पुत्री और घृतरूप अमृत का खजाना हो। यज्ञभाग वहन करने वाली शक्ति ‘स्वाहा’ और पितरों के लिए पिण्डोदक वहन करने वाली ‘स्वधा’ भी तुम्ही हो। ब्राह्मणों के शाप से मेरा शरीर दग्ध (जला) हुआ जा रहा है, तुम उसे शीतल करो।’
इस प्रकार स्तुति करके शंकरजी सुरभी की देह में प्रवेश कर गए और सुरभी ने उन्हें अपने गर्भ में धारण कर लिया। शिवजी के न होने से त्रिलोकी में हाहाकार मच गया। सभी देवता उन्हें ढूंढ़ते हुए गोलोक पहुंचे वहां उन्हें परम तेजस्वी ‘नीलवृषभ’ दिखाई दिया। भगवान शंकर ही इस वृषभ के रूप में सुरभी से अवतीर्ण हुए थे। तब सभी ऋषियों व देवताओं ने नीलवृषभरुपी शंकरजी की स्तुति करते हुए वर दिया कि मृत प्राणी के एकादशाह के दिन नीलवृषभ को गायों के समूह में छोड़ दिया जाएगा तो वह जगत का कल्याण करता रहेगा। भगवान प्रजापति ने महादेवजी को एक वृषभ प्रदान किया जिसे शंकरजी ने अपना वाहन बनाया और अपनी ध्वजा को उसी वृषभ के चिह्न से सुशोभित किया। इसीलिए उनका नाम वृषभध्वज पड़ा। फिर देवताओं ने महादेवजी को पशुओं का स्वामी (पशुपति) बना दिया। गौओं के बीच में उनका नाम वृषभांक रखा गया।
धर्म का जन्म गाय से है; क्योंकि धर्म वृषभरूप है और गाय के पुत्र को ही वृषभ कहा जाता है। नीलवृषभ के रूप में स्वयं धर्म प्रकट हुए हैं।
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