इस संसार में ‘गौ’ एक अमूल्य और कल्याणप्रद पशु है। सूर्य भगवान के उदय होने पर उनकी ‘ज्योति’, ‘आयु’ और ‘गो’–ये तीन किरणें स्थावर-जंगम (चराचर) सभी प्राणियों में कम या अधिक मात्रा में प्रविष्ट होती हैं; परन्तु ‘गो’ नाम की किरण गौ-पशु में ही अधिक मात्रा में समाविष्ट होती है इसीलिए इनको ‘गौ’ नाम से पुकारते हैं। ‘गो’ नामक सूर्य किरण की पृथ्वी स्थावरमूर्ति (अचलरूप) और गौ-पशु जंगममूर्ति (चलायमानरूप) है। गौ और पृथ्वी दोनों ही परस्पर एक-दूसरे की सहायिका और सहचरी हैं। मृत्युलोक की आधारशक्ति ‘पृथ्वी’ है और देवलोक की आधारशक्ति ‘गौ’ है। पृथ्वी को ‘भूलोक’ कहते हैं और गौ को ‘गोलोक’ कहते हैं। भूलोक नीचे है और गोलोक ऊपर है। जिस प्रकार मनुष्यों के मल-मूत्रादि कुत्सित आचरणों को पृथ्वीमाता सप्रेम सहन करती है, उसी प्रकार गौमाता भी मनुष्यों के जीवन का आधार होते हुए उनके वाहन, ताड़न आदि कुत्सित आचरणों को सहन करती है। इसीलिए वेदों में पृथ्वी और गौ के लिए ‘मही’ (क्षमाशील) शब्द का प्रयोग किया गया है। मनुष्यों में भी जो सहनशील होते हैं, वे महान माने जाते हैं। संसार में पृथ्वी व गौ से अधिक क्षमावान और कोई नहीं है। शास्त्रों में गौ को सर्वदेवमयी और सर्वतीर्थमयी कहा गया है। इसलिए गौ के दर्शन से समस्त देवताओं के दर्शन और समस्त तीर्थों की यात्रा करने का पुण्य प्राप्त हो जाता है।
समस्त प्राणियों को धारण करने के लिए पृथ्वी गोरूप ही धारण करती है। जब-जब पृथ्वी पर असुरों का भार बढ़ता है, तब-तब वह देवताओं के साथ भगवान विष्णु की शरण में गोरूपधारण करके जाती है। गौ, विप्र, वेद, सती, सत्यवादी, निर्लोभी और दानी–इन सात महाशक्तियों के बल पर ही पृथ्वी टिकी है पर इनमें गौ का ही प्रथम स्थान है।
गो शब्द स्त्रीलिंग और पुल्लिंग दोनों में प्रयुक्त होता है। गाय रूप से विष्णुपत्नी भूदेवी का रूप होने से माता है और गो वृषभ
रूप से धर्म का रूप होने से सबका पिता है। गौ धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष इन चारो पुरुषार्थों की धात्री होने के कारण कामधेनु है, इसका अनिष्ट चिन्तन ही पराभव (विनाश) का कारण है। शास्त्रों में गाय को प्रत्यक्ष देवी माना है। उनके रोम-रोम में देवताओं का वास है। गोमूत्र में गंगाजी का व गोबर में लक्ष्मीजी का निवास है। भवसागर से पार लगाने वाली गोमाता की सेवा करने से व इनकी कृपा से ही गोलोक की प्राप्ति होती है।
अथर्ववेद, उपनिषदों, महाभारत, रामायण, पुराण व स्मृतियां गोमहिमा से भरे पड़े हैं। गाय को ‘सुरभि’, ‘कामधेनु’, ‘अर्च्या’, ‘यज्ञपदी’, ‘कल्याणी’, ‘इज्या’, ‘बहुला’, ‘कामदुघा’, ‘विश्व की आयु’, ‘रुद्रों की माता’ व ‘वसुओं की पुत्री’ कहा गया है। सर्वदेवमयी गोमाता को वेदों में ‘अघ्न्या’ (अवध्या) बतलाया है। श्रुति का वचन है–‘मा गामनागामदितिं वधिष्ट।’ (ऋक्संहिता ८।१०१।१५)।इसका अर्थ है कि गाय निरपराधिनी है, निर्दोष है तथा पीड़ा पहुंचाने योग्य नहीं है और अखण्डनीय है। अत: इसकी किसी भी प्रकार हिंसा न करो, तनिक भी कष्ट न पहुंचाओ। गाय सदा पूजनीय है।
गौ को त्यागमूर्ति कहा गया है; क्योंकि उसके सभी अंग-प्रत्यंग दूसरे के उपयोग में आते हैं। इस महागुण से गौ ‘सर्वोत्तम माता’ कही गयी है। तृणों के आहार पर जीवन धारणकर गाय मानव के लिए अलौकिक अमृतमय दूध प्रदान करती है। गोमाता हमें प्रतिधुक् (ताजा दुग्ध), श्रृत (गरम दुग्ध), शर (मक्खन निकाला हुआ दुग्ध), दही, मट्ठा, घृत, खीस (इन्नर, पनीर, छैना), खीस का पानी (वाजिन, whey water), नवनीत और मक्खन–ये दस प्रकार के अमृतमय भोज्य पदार्थ देती है जिन्हें खाकर हम आरोग्य, बल, बुद्धि, ओज और शारीरिक बल प्राप्त करते हैं। अपने दूध से, पुत्र से और मरने पर अपने चमड़े-हड्डियों से भी सेवा करने वाली और पवित्रता की मूर्ति–गोबर से घर को और गोमूत्र द्वारा शरीर को पवित्र करती है। जगद्गुरु वीरभद्र शिवाचार्यजी महाराज के शब्दों में–
हैं गोमय-गोमूत्र शुद्धतम इनके पावन और पवित्र।
जिनके सेवन से होते हैं दूर भूरि भव-रोग विचित्र।।
अभागा है वह देश व समाज जहां आज उस गोविन्द की गाय को उचित सम्मान व रक्षण नहीं मिल रहा। श्रीरामनारायनदत्तजी शास्त्री के शब्दों में–
गौओं की महिमा कौन भला बतलाये,
जिनके गुण-गौरव वेदों ने भी गाये।।
जिनकी सेवा के हेतु अरे इस जग में,
भगवान स्वयं मानव बनकर थे आए।।
इनके भीतर धन-धान हमारे सोये।
इनके भीतर अरमान हमारे सोये।।
ये कामधेनु हैं क्षीरसमुद्र धरा का,
इनके भीतर भगवान हमारे सोये।।
इस प्रकार वेदों से लेकर समस्त धार्मिक-ग्रन्थों में और प्राचीन ऋषि-मुनियों और विद्वानों से लेकर आधुनिक विद्वानों तक सभी की सम्मति में गोमाता का स्थान सर्वश्रेष्ठ है। भूमण्डल पर मातृशक्ति का प्रत्यक्ष रूप गोमाता है। महाभारत के अनुशासनपर्व में भीष्मपितामह युधिष्ठिर को ‘गौ की महिमा’ बताते हुए कहते हैं–’गौ सभी सुखों को देने वाली है और वह सभी प्राणियों की माता है।
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