गोस्वामीतुलसीदासजी की दृष्टि
मे गोसेवा और उसका महत्व-
गोस्वामीजी ने अपने सम्पूर्ण साहित्य मे गौ की निरंतर चर्चा की है। वे काशी को भी गाय का रूप मानते हुए
बड़ी सुन्दर पद रचना करते हुए विनय पत्रिका से
लिखते है -
सेइअ सहित सनेह देह भरि,
कामधेनु कलि कासी।
समनि सोक संताप पाप रूज
सकल सुमंगल रासी।।
(और भी रचना है-)
इस पद में गंगा के अनुकूल गाय को उत्तर की और
मुख करके खड़ा किया गया है,उसका गलकम्बल
और मुख वरूणा नदी के पास और पूँछ अस्सी के
पास माना गया है।
मुख्य काशी वरूणा और अस्सी के बीच मानी जाती है
इसलिए इसका दूसरा नाम वाराणसी भी है।
इस पद का एक एक अक्षर बहूमूल्य तथा
निरन्तर माननीय है।
यद्यपि इसमें सभी काशी के मुख्य देवताओ और
पवित्र तीर्थो का वर्णन संनिविष्ट है,परन्तु उसका
मुख्य तत्व है गौ- दुग्ध जिसे ज्ञानियो के समान
सामान्य प्राणी भी समान रूप से परमसुख दायक
निर्णय के रूप मे प्राप्त कर लेता है-
लहत परमपद पय पावन
जेहि चहत प्रपंच उदासी।।
मानस मे ज्ञानदीपक का मुख्य आधार
श्रद्धारूप गौ ही है।
उस प्रकरण मे गोस्वामीजी के वेदांत ज्ञान सम्बन्धी
श्रम का अनुमान होता है। वे वहाँ लिखते है-
सात्तिवक श्रद्धा धेनु सुहाई
जौं हरि कृपा ह्रदय बस आई।।
रा.च.मा.7/117/9
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