सोमवार, 10 सितंबर 2018

इस्लाम और शाकाहार: गाय और कुरान-7

इस्लाम और शाकाहार: गाय और कुरान-7
मुजफ्फर हुसैन
गतांक से आगे...
शेड में स्वचलित परदे लगाए गये हैं। जिधर धूप होती है, परदे उसी दिशा में तन जाते हैं। धूप के न आने से इन गायों को बड़ी राहत मिलती है। इस शेड के बाहर औसतन 46 डिग्री सेल्सियस गरमी होती है। 800 मीटर लंबे शेड में दर्जनों डेजर्ट कूलर लगे हुए हैं। उक्त फार्म सऊदी अरब की राजधानी रियाद से 100 किलोमीटर दूर दक्षिण पूर्व में स्थित है। इस फार्म को अल शफीअ नाम दिया गया है, जिसका साधारण भाषा में अर्थ होता है-मेहरबान, यानी कृपालु। गाय के गुण के अनुसार ही उसका नाम है। वास्तव में यह पशु मानव जाति के लिए कृपावंत है। गाय की सेवा के लिए यहां रात दिन लगभग 1400 आदमी काम करते हैं।
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अल शफीअ फार्म अरबस्तान की शुष्क और बंजर जमीन पर बीस साल पूर्व स्थापित किया गया था। रेगिस्तान में जो भी कठिनाईयां होती हैं, उनका सामना करते हुए यह फार्म तैयार किया गया, जो आज विश्व के अच्छे फार्मों में गिरा जाता है। इस फार्म के मैनेजर जेनुल मजरम का कहना है कि यह क्षेत्र अत्यंत गरम और शुष्क है, इसलिए पानी की उपलब्धता हमारे लिए सबसे बड़ी चुनौती है। हमने इस रेगिस्तान में छह कुएं बनवाए हैं। प्रत्येक कुआं औसतन 1850 मीटर की गहराई तक बोर किया गया है। जमीन से निकलने वाला पानी बहुत गरम होता है। इसे ठंडा और स्वच्छ करने के लिए अलग से संयंत्र लगाये गये हैं। एक गाय प्रतिदिन 120 लीटर पानी पीती है। पूरे फार्म में लगभग एक करोड़ लीटर पानी का उपयोग किया जाता है। मैनेजर जेनुल का कहना है कि पानी के मामले में हम आत्मनिर्भर हैं। हमें बाहर कहीं से पानी लाने की आवश्यकता नही पड़ती है। गायों के चारे के लिए इस फार्म के पास ही दो किलोमीटर का घास उगाने का एक फार्म तैयार किया गया है। मैनेजर जेनुल मजरम का कहना है कि सभी सुविधाओं के गायें गरमी से थक जाती हैं। लेकिन इस पशु में कुदरत ने गजब का धैर्य और संतोष दिया है। वह अपने आपको इस प्रकार के कठोर जलवायु का अभ्यस्त बना लेती है और और अपने मालिक की भरपूर सेवा करती है।
अल शफीअ फार्म में इस समय कुल 36 हजार गायें हैं। इनमें पांच हजार भारतीय नस्ल की हैं। भारतीय गायों का दूध सेवन करने वाला एक विशेष वर्ग है। रियाद स्थित शाही परिवार में 400 लीटर भारतीय गायों का दूध जाता है। शेष मात्रा ऊंट के दूध की होती है। अल शफीअ फार्म की गायों का रंग या तो सफेद होता है या फिर काला। फार्म में जो भी अधिकारी काम करते हैं, उन्हें या कोपेनहेगन अथवा न्यूजीलैंड की किसी डेयरी का पांच साल का अनुभव होना अनिवार्य है। रेगिस्तान में जहां ढेरें कठिनाइयां हैं, वहीं एक सकारात्मक पहलू यह है कि यहां गायों की बीमारियां यूरोप और अमेरिका की तुलना में कम फेेलती हैं। अल शफीअ फार्म ने लोगों के मन में यह विश्वास पैदा कर दिया है कि डेयरी का उद्योग भी एक लाभदायी उद्योग है। इस समय अल शफीअ फार्म की गायों से प्रतिवर्ष 16 करोड़ 50 लाख लीटर दूध निकाला जाता है। यहां दूध निकालने के लिए कमरे बने हुए हैं। हर कमरे में 120 गायों का दूध मशीनों से निकाला जाता है। एक गाय के दूध निकालने में दस मिनट का समय लगता है। हर गाय औसतन 45 लीटर दूध देती है। जो गाय दूध देना बंद कर देती है उसका अलग से विभाग है। उसे सलाटर हाउस में नही बेचा जाता है, बल्कि उसके मूत्र और गोबर का खाद के रूप में उपयोग होता है। मर जाने के बाद उसका चमड़ा निकाल लिया जाता है, लेकिन उसके मांस और अन्य अवयवों को फार्म में दफन कर दिया जाता है। मृत शरीर जल्दी से खाद बन जाए, इसके लिए कुछ रसायनों का उपयोग किया जाता है। उक्त खाद बाजार में मिलने वाले मांस की तुलना में बहुत महंगा होता है। गायों को नहलाने से लेकर चराने तक में फार्म के कर्मचारी इस तरह से तल्लीन हो जाते हैं जैसा कि भारत के गोपाल कभी इन गायों के लिए अपना सब कुछ न्यौछावर कर देते थे।
अरबस्तान के लोग गाय का पालन करते हैं, लेकिन भारत में अधिकांश गायों के क्रय विक्रय से लगाकर उसे सलाटर हाउस तक में पहुंचाने का धंधा होता है। अरबों का गायों से कोई सांस्कृतिक अथवा भावुक संबंध नही है, लेकिन भारतीय मुसलमान इस दिशा में कभी विचार करता है? यहां तो वह उसका रखवाला बनकर जंगल में उसे चराता है, उसके दूध का व्यापार करता है, लेकिन जब वह दूध देना बंद कर देती है, उस समय उसे किसी कसाई के हाथों बेच दिया जाता है। मात्र इसके लिए मुसलिम ही दोषी नही हैं, वे भी जिम्मेदार हैं जो गाय को माता कहकर पुकारते हैं।
क्रमश:



इस्लाम और शाकाहार: गाय और कुरान-6

इस्लाम और शाकाहार: गाय और कुरान-6
मुजफ्फर हुसैन
गतांक से आगे...
जिस कृत्य से अपने पड़ोसी का दिल दुखता हो और जिस वस्तु के खाने से अपने साथ रहने वाले के मन में खटास पैदा होती है, उसे इसलाम ने वर्जित किया है। इसलिए आम धारणा यही रही कि सांप्रदायिक सौहार्द बनाए रखने के लिए भारत गौ-वध पर प्रतिबंध अनिवार्य है। भिन्न भिन्न इसलामी विद्वानों ने अब तक 117 बार फतवे जारी करके गाय के न काटने के लिए मुसलिम बंधुओं से अपील की है। जमीअतुल ओलेमा के अध्यक्ष असद मदनी ने एनडीए सरकार के समय में उर्दू समाचार पत्रों में अपना बयान जारी करके मुसलमानों से आग्रह किया था कि वे बकरी ईद के दिन गाय की कुरबानी न करें।
एक सामान्य बात यह है कि जब अन्य हालात पशु भारत में उपलब्ध हैं तो फिर गाय अथवाा बैल का कुरबानी के लिए चयन करना उचित नही है। यदि हजरत इब्राहीम अपने पुत्र इस्माइल की कुरबानी का संकल्प करके ईश्वर को प्रसन्न कर सकते हैं तो यहां के अल्पसंख्यक मुसलिम बंधु भी गाय और बैल की रक्षा करके अपने देशवासियों का दिल जीत सकते हैं। कुरबानी नाम तो त्याग का है। क्या मुसलिम बंधु देश में शांति स्थापित करने के लिए इतना त्याग नही कर सकते? कोई यह कह सकता है कि सरकार यदि गौ-वध पर पाबंदी के लिए कड़े कानून नही बनाती है तो इसमें कुरबानी करने वाले का क्या दोष है? लेकिन क्या सारे काम कानून के भय से ही होने चाहिए? अपनी आत्मा की आवाज पर हम स्वयं किसी वस्तु के वध पर नैतिक दायित्व के रूप में प्रतिबंध क्यों नही लगा सकते? भारत में गाय और बैल का जो उपयोग होता है, उसे देखते हुए स्वयं मुसलिम ऐसा निर्णय लेंगे तो वह अधिक सुखद और स्थायी होगा।
मुसलमान अपने गौ-पालन के लिए मशहूर है। वह कई स्थानों पर गौशाला स्थापित करने में सहयोग देता है। सूफी संतों ने गायों को पाला है और गौभक्त होने का संदेश दिया है। नागपवुर में एक ऐसे ही मुसलिम संत और उनकी पत्नी गऊशाला चलाया करते थे। ताजुद्दीन बाबा प्रसिद्घ गौभक्त थे। अनेक उर्दू कवियों ने गाय के गुणगान करते हुए कविताएं लिखी है। हिंदी में रसखान इसके लिए मशहूर है तो उर्दू में मेरठ के स्व. कवि मोहम्मद इस्माइल साहब प्रख्यात हैं। उनकी सरल और मधुर कविता को याद करके उर्दू कक्षाओं के विद्यार्थी गौ माता का यशोगान करते हैं।
भारतीय उपखंड का मुसलमान हर मामले में सऊदी अरब को अपना आदर्श मानता है। क्या गाय के पालन के संबंध में भी वह ऐसा करना चाहेगा? यदि नही चाहता है तो फिर उसे यह स्वीकार करना पड़ेगा कि उसका मापदंड दोहरा है। वास्तव में देखा जाए तो सऊदी अरब को गाय के प्रति कोई प्रेम नही होना चाहिए, क्योंकि वह उसके देश का प्राणी नही है। भारत में गाय के प्रति एक विशेष प्रेम का कारण यह है कि गाय इस देश की माटी से जुड़ा हुआ प्राणी है। कृषि प्रधान देश में गाय का वही महत्व है जो अरबस्तान के लिए ऊंट का है। इसके बावजूद अरबी लोग गाय को कितना चाहते हैं और उसके लालन पालन से कितना लाभ उठा रहे हैं, यह भारतीय मुसलमानों को जानने की आवश्यकता है। अरबस्थान जैसे रेगिस्तानी देश में गाय के प्रति इतना ममत्व रखना एक आश्चर्य की बात है। इसलिए हम यहां सऊदी अरब के अल शफीअ फार्म नही बल्कि गऊ-सेवा का आंदोलन है। सऊदी अरब का अल शफीअ फार्म-
अरबस्तान के तेलिया राज हमेशा एक कथन दोहराते रहते हैं। मेरा बाप का बाप यानी परदादा ऊंट पर बैठा करता था। समय बदला तो दादा कार में घूमने लगा। पिता ने विमान को अपना लिया। मैं सुपर सॉनिक विमान में घूमतमा हूं। मेरा बेटा अपोलो जैसे किसी यान में बैठकर यात्रा करना पसंद करेगा। लेकिन उसका बेटा फिर से ऊंट पर बैठ जाएगा। दुनिया के चक्र में सब चीजें समाप्त हो जाती हैँ लेकिन कुदरत की पैदा की हुई चीज नष्ट नही होती। उसका महत्व भी समाप्त नही होता। जिस वस्तु को एक विशेष स्थान के लिए पैदा किया, वहां उसकी जरूरत हमेशा बनी रहती है। इसलिए ऊंट कल जितना अरबस्तान के लिए उपयोगी था उतना ही आने वाले समय में भी रहेगा।
सऊदी अरब के अल खिराज नामक नगर से प्राप्त एक रपट को देखिए जो मश्रेकुल वस्ता नाम के दैनिक ने प्रकाशित की है। सऊदी अरब के अल खिराज नामक स्थान पर जब सूर्य उदय होता है तो हजारों गायें एक विशाल शेड की छाया तले आकर शरण लेती है। यहां कंप्यूटर के द्वारा बढ़ते तापक्रम पर नजर रखी जाती है। उसके अनुसार गायों पर पानीकी बौछारें बरसाई जाती हैं।
क्रमश:


इस्लाम और शाकाहार: गाय और कुरान-5

इस्लाम और शाकाहार: गाय और कुरान-5
मुजफ्फर हुसैन
गतांक से आगे...
गाय के वध के मामले में इस प्रकार के अनेक फतवे समय समय पर आए हैं, जिनमें गाय के मांस को वर्जित घोषित किया है। परिस्थितिवश न तो उसे काटा जाए और न ही उसके मांस का भक्षण किया जाए। भारत में देवबंद, बरेलवी, फुलेरी शरीफ, लखनऊ और हैदराबाद जैसे अनेक दारूल फतवा में गाय को लेकर बहस उठती रही है, जिसमें जो परिणाम सामने आए हैं वे गाय को नही काटने के ही पक्ष में आए हैं। बकरा ईद के अवसर पर भी समझदार मुसलमानों ने यही रूख अपनाया है। उनका कहना है कि जब अन्य हलालन पशु उपलब्ध हैं तो फिर गाय या बैल को नही काटना कोई अधार्मिक कार्य नही होगा। लेकिन हम देखते हैं कि मुट्ठी भर सांप्रदायिक तत्व अपने धर्म जुनून में इस प्रकार की आज्ञा को नकार देते हैं। गाय की सुरक्षा का पक्षधर जब इसलाम है तो फिर भारतीय मुसलमानों को यह सवाल उठाना ही क्यों चाहिए? मुसलमान स्वयं किसान हैं और गौपालन का व्यवसाय करते हैं, इसलिए समझदारी का तकाजा यह है कि इस विवादास्पद मुद्दे को हमेशा हमेशा के लिए समाप्त कर दें। भारत सरकार यदि संपूर्ण देश में गौ-वध पर पाबंदी लगा देगी तो मुसलमान निश्चित ही उसका स्वागत करेगा। देश के कानून की अवहेलना करने की सीख इसलाम नही देता है।
चूंकि भारत में गऊ वंश का धार्मिक, सामाजिक और वैज्ञानिक महत्व है, इसलिए यहां की जनता का टकराव हमेशा उन लोगों से रहा है जिन्होंने गौ वंश को समाप्त करने के लिए धर्म जुनून और कठमुल्लापन का सहारा लिया है। इसलाम के नाम पर जब गऊ की हत्या का षडयंत्र रचा जाता है, उस समय धार्मिक भावना को ठेस पहुंचती है। जब मुट्ठी भर लोग अधर्म के नाम पर गाय के कत्ल को जायज ठहराते हैं तो फिर देश का बहुसंख्यक यदि उसे बचाने के लिए आंदोलन करता है तो यह उसका मानवीय अधिकार है। मारने के स्थान पर बचाना ईश्वरीय कार्य है। इसलिए गऊ की रक्षा के लिए कोई आगे आता है तो वह स्वागत करने योग्य है। लेकिन इस अहिंसक काम में हिंसा न हो जाए, यह भी आंदोलन के सूत्रधारों को समझने की आवश्यकता है। गऊ की रक्षा के मामले में जितना दोषी मुसलमान है, उससे भी अधिक दोषी भारत सरकार है, क्योंकि उसके लूले लंगड़े कानून और वोट बैंक की खुशामद इस मार्ग में सबसे बड़ा रोड़ा है।
भारत में यदि सांप्रदायिक दंगों के कारणों का इतिहास खोजा जाए तो पता चलेगा कि हर गांव दंगों में से दो दंगों में गऊ हत्या कारण रहा है। अंग्रेजों ने इसे भुनाने में कोई कसर नही रखी। लेकिन 1857 के स्वतंत्रता संग्राम आंदोलन में मुसलिम बादशाहों और उलेमाओं द्वारा फरमान जारी कर इस विवादास्पद मुद्दे को समाप्त करने का भरसक प्रयत्न किया गया।
सम्राट बहादुरशाह जफर का आदेश-
सन 1857 में दिल्ली केवल चार मोह आजाद रही। भारत के वीर सपूतों ने अंग्रेज सरकार को पदभ्रष्टï कर मुगल साम्राज्य के अंतिम बादशाह बहादुरशाह जफर को दिल्ली का पुन: सम्राट घोषित कर दिया। ऐसा लगने लगा कि ब्रिटिश सत्ता भारत से विदा हो जाएगी। लेकिन आजादी की यह प्रथम लड़ाई निश्चित किये गये यम से पहले ही प्रारंभ हो गयी। इसलिए उसे सफलता नही मिल सकी। मंगल पांडे जैसे अनेक राष्टï्रभक्तों को फांसी पर चढ़ जाना पड़ा। लेकिन इस बीच हिंदू मुसलिम एकता के लिए बहादुरवशाह जफर ने जो काम किया, वह इतिहास में अमर हो गया। गऊ माता का सम्मान करने के लिए अंतिम मुगल सम्राट ने जो आदेश प्रसारित किया, वह इतिहास का एक महत्वपूर्ण दस्तावेज बन गया। 28 जुलाई 1857 को गौ-वध पर प्रतिबंध लगाकर जो शाही फरमान जारी किया था, वह इस प्रकार था-
खल्क खुदा का मुल्म बादशाह का हुक्म फौज के बड़े सरदार का जो कोई इस मौसम बकरी ईद में या उसके आगे पीछे गाय बैल या बछड़ा जुकाकर या छिपाकर अपने घर में जबह हलाल या कुरबान करेगा, वह आदमी हुजूर जहांपनाह का दुश्मन समझा जाएगा और उसे सजाए मौत दी जाएगी। और इतिहास साक्षी है कि 1 अगस्त 1857 को संपन्न बकरी ईद पर एक भी गाय बैल अथवा बछड़े की हत्या नही हुई। न केवल मुगल साम्राज्य बल्कि भारत की हर छोटी बड़ी मुसलित रियासत में गाय संबंधी आदेश जारी होते रहे हैं। तत्कालीन राजा और नवाब इस दूषण से बचने के लिए समय समय पर सरकारी फरमान भी जारी करते रहे हैं और जहां कहीं आवश्यकता पड़ी वहां पर फतवे भी जारी करवाते रहे।
क्रमश:

इस्लाम और शाकाहार: गाय और कुरान-4

इस्लाम और शाकाहार: गाय और कुरान-4
मुजफ्फर हुसैन

गतांक से आगे...
पवित्र कुरान कहता है-किसी छोटी चिड़िया को भी सताओगे तो उसका जवाब भी तुम्हें देना होगा। जो कोई छोटे जीव पर दया करेगा, अल्लाह उसका बदला भी तुम्हें दुनिया में और दुनिया के बाद आखिरत में देने वाला है।
इसलाम ने जिन पशुओं के मांस को खाने में हलाल घोषित किया है, उनमें गाय और बैल का भी समावेश है। धर्म में कही गयी बात आदर्श हो सकती है, लेकिन उसका व्यावहारिक पहलू क्या है, इसे भी समझना अनिवार्य है। गाय की विशेषताएं क्या हैं, इसके संबंध में कुरान और इसलामी विद्वानों ने अपना जो मत व्यक्त किया है, इससे एक ही बात सामने उभरकर आती है कि इस उपयोगी पशु को काटकर मनुष्य अपने पांव पर ही कुल्हाड़ी मारेगा। गाय हिंदू धर्म में कितनी पवित्र है और उसमें देवताओं का किस प्रकार वास है, यदि इस पहलू पर कोई धर्मांध होकर अपनी आंखें बंद कर लेना चाहता है तो यह उसका अपना निर्णय हो सकता है, लेकिन विवेक के आधार पर समाज उसे कभी स्वीकार नही कर सकता। जैन दर्शन में प्रथम तीर्थकर आदिनाथ को वृषभ कहा गया है, जिसका अर्थ होता है-बैल। बैल कृषि संस्कृति का प्रतीक है। खेती के लिए वह वरदान है। गाय मां के रूप में हमें जो कुछ देती है उसे यहां दोहराने की आवश्यकता नही है, क्योंकि मां की ममता और महत्ता का वर्णन जितना किया जाए कम है।
कृषि प्रधान देशों में गाय और बैल सुख संपदा के प्रतीक हैं। मनुष्य ने अपना प्रारंभिक जीवन पशुओं के सहारे ही शुरू किया। मध्य एशिया में असंख्य पैगंबरों का व्यवसाय पशु पालन ही रहा। इसलाम के प्रणेता पैगंबर मोहम्मद साहब ने भी पशु पालन से अपनी जीविका जुटाई। पशु उनके यातायात के साधन भी थे और उनके जीवन निर्वाह के साथी भी। इसलिए हरा सभ्यता में पशुओं का अपना महत्व रहा है। विज्ञान के युग में भी विद्युत के नापने का पैमाना हॉर्स पावर ही है।
भारत कृषि प्रधान देश होने के कारण यहां की सभ्यता पशु पक्षियों के माध्यम से ही विकसित हुई। इसलिए चाहे चौपाए जानवर हों या फिर आकाश में उड़ने वाली चिड़ियां, सभी हमारी सभ्यता के प्रतीक रहे हैं। इसलाम जब भारत में आया तो आक्रांताओं ने यहां के किसी पशु को नही छोड़ा। इसलिए गाय बच जाती-यह असंभव था। लेकिन वे अक्रांता जो यहां आकर बस गये और राज करने लगे, उन्होंने महसूस किया कि भारत के लोगों का गाय के प्रति विशेष प्रेम और आदर है। इसलिए उनकी भावनाओं का सम्मान करने के लिए उन्होंने गाय के वध पर प्रतिबंध लगा दिया।
बार ने तुजुक-ए-बाबरी में अपने पुत्र हुमायूं को वसीयत करते हुए कहा कि भारत की जनता बड़ी धर्मालु है। तू उनकी भावनाओं का सम्मान करना। वे गाय के प्रति अत्यंत संवेदनशील हैं। इसलिए मुगल साम्राज्य की सीमा में उसका वध न होने देना। जिस दिन इस फरमान को मुगल बादशाह ठुकरा देंगे, उन्हों यहां की जनता भी ठुकरा देगी। औरंगजेब ने इसे ठुकरा दिया तो मुगल साम्राज्य की धज्जियां उड़ते देर नही लगी।
इसलाम में किसी वस्तु को समझने के लिए चार बातें मुख्य हैं। सर्वप्रथम उस समस्या का समाधान कुरान में ढूंढ़ो, यदि वहां उत्तर नही मिलता है तो फिर पैगंबर साहब के जीवन में उसकी तलाश करो। इसे हदीस का नाम दिया जाता है। पैगंबर साहब ने समय समय पर जो कुछ कहा और जो कुछ किया उसको आदर्श मानकर मार्ग अपनाया जाए।
यदि हदीस में भी कोई स्पष्ट जानकारी नही मिलती है तो फिर कयास यानी विवेक की कसौटी पर कसकर उसके बारे में फेेसला किया जाए। यदि इस बार भी स्पष्ट मार्ग नही सुझाई दे तो फिर इजतिहाद यानी जनमत संग्रह का मार्ग अपनाया जाए। सवाल है जनमत संग्रह कौन करवाए? क्योंकि अनेक पंथ हैं जो दूसरों के निर्णय को स्वीकार नही करेंगे। इसलामी राज में तो वहां का शासक उस मुद्दे पर जनमत संग्रह करवा सकता है, लेकिन जहां मुसलिम अल्पसंख्यक होंगे, वहां क्या होगा? ऐसी स्थिति में फतवा एकमात्र विकल्प रह जाता है। विद्वानों की राय धर्मग्रंथों के आधार पर क्या है, यह फतवे का आधार होता है। फतवा दिया नही जाता है बल्कि मांगा जाता है। कोई भी व्यक्ति दारूल फतवा के सम्मुख अपनी समस्या को लिखित रूप में प्रस्तुत कर सकता है।

इस्लाम और शाकाहार: गाय और कुरान - 3

इस्लाम और शाकाहार: गाय और कुरान - 3
 मुजफ्फर हुसैन

गतांक से आगे...
28 वर्ष की आयु में बगदाद की विख्यात इसलामी अकादमी अलगजाली के नेतृत्व में स्थापित की गयी। उनकी प्रसिद्घ पुस्तक 'अहयाउल दीन' (रिवाइवल ऑफ रिलीजियस साइंस) अत्यंत सम्मानित और विश्वसनीय पुस्तक मानी जाती है। उक्त पुस्तक के दूसरे भाग के पृष्ठ 23 पर 17 से 19 पंक्ति के बीच अपने ऐतिहासिक कथन में लिखता है-गाय का मांस मर्ज यानी बीमारी है, उसका दूध सफा शिफा यानी स्वास्थ्य के लिए लाभप्रद है और उसका घी दवा है।

गाय का संरक्षण केवल उसके दूध और घी के लिए ही करना पर्याप्त नही है, बल्कि गाय तो मनुष्य जाति की मां है। क्योंकि उसकी दी हुई हर चीज इनसानों के लिए वरदान है। एक मां अपने स्तन से जिस प्रकार अपने बच्चे को दूध पिलाती है उसी प्रकार गाय अपने आंचल से समस्त मानव जाति को दूध पिलाती है। वैज्ञानिक दृष्टिï से यह बात सिद्घ हो चुकी है कि गाय का दूध पीने से मस्तिष्क बलवान बनता है, जिससे उसकी स्मरणशक्ति अधिक मजबूत बनती है। जिससे मन और मस्तिष्क मजबूत बनेगा वह हमेशा अल्लाह को याद करेगा। इसलिए मनुष्य समाज के विकास के लिए गाय का दूध एक बुनियादी जरूरत है। ऐसे लाभदायी पशु को जो साक्षात माता है, उसे मारना दुनिया का सबसे बड़ा पाप है। जिन्हें मांस का ही भक्षण करना है तो वे किसी अन्य पशु को काटने की स्वतंत्रता रखते हैं। लेकिन इनसानियत की खातिर वे गाय जैसे उपयोगी पशु को काटने के बारे में अपना विचार त्याग दें। गाय का संरक्षण मनुष्य जाति का पवित्र कर्म ही नही बल्कि उसका धर्म भी है।
लंदन स्थित शाहजहां मसजिद के इमाम अल हाफिजत बीएस मसरी कहते हैं कि कुरान पशुओं के साथ क्रू रता की घोर विरोधी है। कुरान में कई जगह स्पष्ट रूप से कहा गया है कि दुनिया में पशु और जीव जंतुओं के प्रति दया दिखाओ। उन्हें कष्ट पहुंचाने से दूर रहो। दुनिया की आबादी में एक तिहाई मुसलमान हैं, इसलिए यह उनका दायित्व है कि वे प्राणियों के प्रति दया दिखाएं और उन्हें बचाने के लिए विश्वव्यापी आंदोलन चलाएं। अब समय आ गया है कि जब दुनिया के मुसलमान कुरान में लिखित उन आदेशों का प्रचार प्रसार करें जो प्राणियों की रक्षा के लिए उन पर दायित्व समान हैं। इसलिए मसरी का कहना है कि उनकी इच्छा है कि वे दुनिया में प्राणियों की रक्षा हेतु इसलामी नियमों पर आधारित संगठन बनाएं और उसे आंदोलन के रूप में सारी दुनिया में प्रचारित करें। पशुओं के कल्याण की पहली शर्त यह है कि दुनिया में शाकाहार का प्रचार हो। इसलामी दुनिया में प्राणियों की रक्षा नामक पुस्तक में हल अफीज मसरी लिखते हैं कि धर्म के नाम पर मुसलमान जिस तरह से पशुओं का कत्लेआम करते हैं, यह धर्म के नाम पर बड़ा कलंक है। कुरान एवं अन्य इसलामी विद्वानों की अनेक पुस्तकों को उद्धृत करते हुए वे लिखते हैं कि न केवल जानवर को जान से मारना बल्कि उसे अन्य प्रकार की यातनाएं देना भी घोर पाप है। किसी पक्षी के पर काटना, उसे पिंजरे में बंद करना और सर्कस आदि खेल के लिए उन पशु पक्षियों का शोषण करना भी अमानवीय है। इसलाम ने इन सभी बातों से घृणा की है। उसके पैगंबर और खलीफाओं ने ऐसा करने से बार बार इनकार किया है। यहां तक कि वृक्षों को काटना भी महापाप है। कुदरत के कारखाने में जो है वह उसका है तुम कौन होते हैं जो उसका दुरूपयोग करके उसकी सृष्टिï को चुनौती देते हो?

इस्लाम और शाकाहार: गाय और कुरान - 2


इस्लाम और शाकाहार: गाय और कुरान - 2
मुजफ्फर हुसैन

गतांक से आगे....
उन्होंने कहा कि आप ईश्वर से हमारे लिए प्रार्थना करो कि वह कैसी हो? सामान्य गाय जैसी हो। हमें मालुम पड़ जाने पर हम सही गाय को ढूंढ सकेंगे? गाय ऐसी हो जो हल चलाने के काम न आ सके, खेत में काम नही कर रही हो, वह पूर्ण हो यानी समस्त अंग सही सलामत हों और बिना किसी धब्बे की हो।।
मूसा ने उत्तर दिया कि वह बिना चिन्ह के होनी चाहिए।
उन्होंने कहा अब आपने हमें ठीक बतला दिया है। हम उसका बलिदान करेंगे, लेकिन वह दुर्लभ है, इसलिए कठिनाई से ही मिल सकेगी। उपर्युक्त कथा यहूदी परंपरा में स्वीकार की गयी है, जो कि ओल्ड टेस्टामेंट के निर्देशों पर आधारित है। गाय की यह यहूदी कथा जिसमें मोजेज और एरोन ने यहूदियों को आदेश दिया कि वे एक लाल गाय, जिसके शरीर पर कोई धब्बा न हो, उसका बलिदान करें। मोजेज ने उस गाय के बलिदान के लिए कहा तब यहूदी एक के बाद एक ऐसे बहाने करने लगे और प्रश्नों की झड़ी लगाने लगे मानो वे मोजेज के आदेशों का पालन कर रहे हों। उनके प्रश्नों की झड़ी लगाने लगे मानो वे मोजेज के आदेशों का पालन कर रहे हों। उनके प्रश्नों में आलोचना अधिक थी, उन्हें जानने की कोई इच्छा नही थी। उनमें मार्गदर्शन प्राप्त करने के लिए कोई उत्सुकता अथवा कामना नही थी। अंत में वे वैसा करने के लिए तैयार हो गये। उन्होंने बलिदान तो किया, लेकिन पूरी आस्था के साथ नही। यदि किया होता तो उनके समस्त पापों को क्षमा कर दिया जाता। गाय के शरीर को जला दिया गया और हड्डियों की भस्म को पापों से मुक्ति प्राप्ति के लिए सुरक्षित रख लिया। उपयुक्त कथा से हमें यह शिक्षा मिलती है कि गाय को मारना अत्यंत खतरनाक था और यह उपदेश का कोई भाग नही था। जहां तक लोगों का प्रश्न था, वे यह काम करने में बड़ी हिचकिचाहट महसूस कर रहे थे। यद्यपि उनको यह आदेश महान पैगंबर हजरत मूसा से मिला था। इसलिए गाय का यह बलिदान कोई जल्दबाजी या सनक में लिया गया निर्णय नही था, बल्कि बहुत सारी बातों को ध्यान में रखकर लिया गया था। गाय के बलिदान की बात उसके मांस को खाने के लिए नही कही गयी थी, बल्कि गाय के शरीर को जलाने के लिए कहा गया था। उसकी भस्म पापों से मुक्त और पवित्र आदर्श के लिए उपयोग करने के लिए कहा गया था।
यह बात बड़ी महत्वपूर्ण है कि वर्तमान समय में भी गाय का बलिदान प्रतिबंधित है। क्योंकि आज की दुनिया में कोई भी ऐसा विद्वान व्यक्ति मौजूद नही है, जो इस प्रकार के बलिदान की क्रिया पूरी कर सके और लोगों को सही परिप्रेक्ष्य में समझा सके। इस आधार पर यह कहा जा सकता है कि कुरान में गाय को मारने की कहीं भी स्वीकृति प्रदान नही की गयी है।
जिस गाय के बलिदान का वर्णन है, वह कोई मांस खाने के संबंध में नही है, बल्कि अपने पापों से प्रायश्चित करके शुद्घि प्राप्ति के हेतु से है। प्रसिद्घ ईरानी विद्वान अलगजाली जो इसलाम के दार्शनिक के रूप में विख्यात हैं, उनका कहना है कि रोटी के टुकड़े के अतिरिक्त जो भी हम खाते हैं, वह केवल अपनी इच्छाओं की पूर्ति के लिए है।
क्रमश:

इसलाम और शाकाहार: गाय और कुरान - 1

इसलाम और शाकाहार: गाय और कुरान - 1

मुजफ्फर हुसैन
पवित्र कुरान में एक भी ऐसा अध्याय (सूरा) नही है, जिसमें गाय अथवा बैल को मारने के संबंध में आदेश दिये गये हों। बल्कि ऐसे आदेश और ऐसा परामर्श अनेक स्थानों पर दिया गया है कि इनसानों को क्या खाना चाहिए। उनके खान पान में किन वस्तुओं का समावेश होना चाहिए। हमारी खाने पीने की आदतें किस प्रकार की होनी चाहिए, इसकी भी चर्चा की गयी है।
अल्लाह ने आदम को आदेश देते हुए कहा, तुम और तुम्हारी पत्नी जब स्वर्ग में थे, उस समय हमने तुम्हें फल खाने के लिए दिये। और तुम अब जहां भी रहोगे वहां भी तुम्हें फल खाने के लिए देंगे। (2.35)
ओ मोहम्मद उन्हें यह शुभ समाचार दे दो कि जो मुझमें विश्वास करते हैं और अच्छे काम करते हैं, उनके लिए नीचे (धरती पर) भी बगीचे होंगे, जहां नदियां बह रही होंगी और हर समय वहां खाने के लिए फल होंगे, लेकिन उस वृक्ष के निकट न जाना नही तो गुनहगार बन जाओगे। (2.25)
अल्लाह, जिसने स्वर्ग और धरती बनाई है और जिनके लिए आकाश से पानी बरसाया है, वह सब इसके लिए कि तुम्हारे खाने हेतु फल प्राप्त हों। (14.32)
जिसने तुम्हारे रहने के लिए यह धरती बनाई है, और सिर पर आकाश रूपी छत तैयार की है तथा आकाश से पानी बरसाया है, इसलिए कि तुम्हारे खाने के लिए फल पैदा हो सकें। (2.22)
कुरान की उपर्युक्त चार आयतों से यह जानकारी प्राप्त होती है कि जब अल्लाह ने आदम और हव्वा ईव को बनाया तो उन्हें खाने के लिए फल दिये। जब वे पुन: स्वर्ग को लौटेंगे, उस समय भी उनके खाने के लिए स्वर्ग में फल दिये जाएंगे। इसलिए जब ईश्वर ने धरती बनाई तो फल मनुष्य जाति के खाने के लिए बनाए। उक्त बात हजरत मोहम्मद पैगंबर साहब के जीवन चरित्र से भी भी जानी जा सकती है। हम देख सकते हैं कि आपके प्रतिदिन के भोजन में रोटी, दूध और खजूर का समावेश होता था। कभी कभी वे भेड़ और ऊंट के मांस का भी सेवन करते थे, किंतु आपने बैल अथवा गाय के मांस का सेवन कभी नही किया।
पवित्र कुरान में केवल एक स्थान पर गाय के बलिदान के संबंध में एक कथा पढ़ने को मिलती है।
जब मोजेज (मूसा) ने अपने लोगों से कहा कि अल्लाह का आदेश है कि तुम एक गाय का बलिदान करो।
तब लोगों ने मूसा से पूछा कि आप हमसे मजाक तो नही कर रहे हो? मूसा ने कहा कि ईश्वर इस प्रकार का मजाक करने के लिए नही कहता। तब उन्होंने कहा कि आप हमारे लिए प्रार्थना कर यह स्पष्ट रूप से बताइए कि वह गाय किस प्रकार की हो?
मूसा ने उत्तर दिया-वह गाय न तो अधिक बूढ़ी हो और न ही जवान। वह बीच की आयु की हो। अब तुम वह करो, जिसका तुम्हें आदेश दिया गया है। उन्होंने कहा-आप ईश्वर से प्रार्थना करो कि वह हमें यह बताए कि उक्त गाय किस रंग की हो? मूसा ने उत्तर दिया कि वह पीले रंग की हो औ उसका रंग चमकदार हो। जिसे पाने वाला खुश हो जाए।
क्रमश:

 

शनिवार, 8 सितंबर 2018

गौ-आधारित कृषि

गौ-आधारित कृषि

भारतीय कृषि भूमि सन 1960 के दशक में लगभग रसायन मुक्त थी। अब यह भूमि रासायनिक खाद के भार से बीमार हो चली हैं, उसकी उर्वरा शक्ति लुप्त होती जा रही है। यही कारण है कि किसानों को खेती से पर्याप्त मात्रा में लाभ नहीं मिल रहा है। यही नहीं तो भारत का किसान आए दिन असमय बारिश, बाढ़ और सूखे जैसी प्राकृतिक आपदा की मार झेलने को विवश है। कृषि उसके लिए घाटे का व्यवसाय बन गया है।

सरकारी आंकड़ों के अनुसार गत दस वर्षों में 98 लाख किसानों ने खेती छोड़ी है। 264 जिलों का जलस्तर एकदम नीचे (Dark Zone) जा चुका है। एक द्दाने से हजारों-लाखों दानों का निर्माण करनेवाले किसान आज कर्ज से ग्रस्त है। राष्ट्रीय अपराध रिकार्ड कार्यालय के अनुसार 1997 से 2013 तक देश में लगभग 3 लाख किसानों ने आत्महत्या की। दूसरों को जीवन देनेवाले किसों में लाचारी और हताशा की भावना फ़ैल रही है। इस प्रकार यह स्पष्ट हो जाता है कि रासायनिक कृषि हर दृष्टि से हानिकारक है।

ऐसी स्थिति में गौ-आधारित प्राकृतिक कृषि ही एकमात्र कारगर उपाय है। गौपालन के बिना प्राकृतिक कृषि और प्राकृतिक कृषि के बिना गौपालन संभव नहीं है। मिट्टी में कभी वे सभी तत्व मौजूद हैं जो पेड़-पौधों को चाहिए, लेकिन वे सख्त और जटिल होते हैं। सूक्ष्म जीव एवं केंचुए आदि मिट्टी के कठिन घटकों को सरल घटकों में विघटित कर देते हैं, जिससे पेड़-पौधे आसानी से खींच सकते हैं। गाय के एक ग्राम गोबर में 300 से 500 करोड़ तक ऐसे ही सूक्ष्म जीवे होते हैं। ये सूक्ष्म जीव जमीन के केंचुओं को सक्रिय करने का भी काम करते हैं। केंचुए मिट्टी में खूब सारे छेद करके उसे कृषि योग्य पोला बना देते हैं। इसलिए कह गया है कि ‘गोबर जीवामृत’ सूक्ष्म जीवों का महासागर है। इससे स्पष्ट होता है कि गौ-आधारित कृषि से भूमि की उर्वरक क्षमता आजीवन बनाया जा सकता है। इससे भूमि में जलस्तर अच्छा बना रहता है। भूमि की उर्वरा क्षमता के कारण फसल की पैदावार उचित मात्रा में होती है। इससे ही निराश किसानों में उत्साह का संचार होगा।

अभी नहीं तो कभी नहीं गौ तस्करी, गौ-हत्या और गौ-मांस के निर्यात को देखते हुए गौ-रक्षा के लिए “अभी नहीं तो कभी नहीं” वाली चुनौती हमारे सम्मुख है। इसके लिए व्यापक जनजागरण की आवश्यकता है। गौ-पालन के लाभ को अधिकाधिक लोगों तक पहुंचाना होगा। घाटे में चल रही कृषि व्यवसाय, जिनसे करोड़ों किसान जुड़े हैं; उन्हें गौ-पालन से अधिकाधिक लाभ कैसे प्राप्त किया जा सकता है, इस सम्बन्ध में जानकारी और प्रशिक्षण देने की आवश्यकता है। गौ-रक्षा का कार्य गोशालाओं के द्वारा संभव है। गोशालाओं में गायें उम्र भर सुरक्षित ढंग से रखी जा सकती हैं। वहां अनेक उत्पादक कार्यों में गोवंश का प्रभावी ढंग से उपयोग हो सकता है और कई गोशालाओं में यह हो भी रहा है। इसलिए उत्तम सुविधाओं से युक्त गोशालाओं के निर्माण पर जोर देना होगा। प्रत्येक ग्राम में कम से कम एक गोशाला हो और प्रत्येक घर में गाय हो, इस दृष्टि से व्यापक अभियान चलाना होगा। प्रत्येक गांव में पर्याप्त मात्र में गोचर भूमि हो। इसके लिए शासन और ग्रामवासियों को मिलकर योजना बनानी होगी।

अभी नहीं तो कभी नहीं

गौ तस्करी, गौ-हत्या और गौ-मांस के निर्यात को देखते हुए गौ-रक्षा के लिए “अभी नहीं तो कभी नहीं” वाली चुनौती हमारे सम्मुख है। इसके लिए व्यापक जनजागरण की आवश्यकता है। गौ-पालन के लाभ को अधिकाधिक लोगों तक पहुंचाना होगा। घाटे में चल रही कृषि व्यवसाय, जिनसे करोड़ों किसान जुड़े हैं; उन्हें गौ-पालन से अधिकाधिक लाभ कैसे प्राप्त किया जा सकता है, इस सम्बन्ध में जानकारी और प्रशिक्षण देने की आवश्यकता है।

गौ-रक्षा का कार्य गोशालाओं के द्वारा संभव है। गोशालाओं में गायें उम्र भर सुरक्षित ढंग से रखी जा सकती हैं। वहां अनेक उत्पादक कार्यों में गोवंश का प्रभावी ढंग से उपयोग हो सकता है और कई गोशालाओं में यह हो भी रहा है। इसलिए उत्तम सुविधाओं से युक्त गोशालाओं के निर्माण पर जोर देना होगा। प्रत्येक ग्राम में कम से कम एक गोशाला हो और प्रत्येक घर में गाय हो, इस दृष्टि से व्यापक अभियान चलाना होगा। प्रत्येक गांव में पर्याप्त मात्र में गोचर भूमि हो। इसके लिए शासन और ग्रामवासियों को मिलकर योजना बनानी होगी।