इस्लाम और शाकाहार: गाय और कुरान-4
गतांक से आगे...
पवित्र कुरान कहता है-किसी छोटी चिड़िया को भी सताओगे तो उसका जवाब भी तुम्हें देना होगा। जो कोई छोटे जीव पर दया करेगा, अल्लाह उसका बदला भी तुम्हें दुनिया में और दुनिया के बाद आखिरत में देने वाला है।
इसलाम ने जिन पशुओं के मांस को खाने में हलाल घोषित किया है, उनमें गाय और बैल का भी समावेश है। धर्म में कही गयी बात आदर्श हो सकती है, लेकिन उसका व्यावहारिक पहलू क्या है, इसे भी समझना अनिवार्य है। गाय की विशेषताएं क्या हैं, इसके संबंध में कुरान और इसलामी विद्वानों ने अपना जो मत व्यक्त किया है, इससे एक ही बात सामने उभरकर आती है कि इस उपयोगी पशु को काटकर मनुष्य अपने पांव पर ही कुल्हाड़ी मारेगा। गाय हिंदू धर्म में कितनी पवित्र है और उसमें देवताओं का किस प्रकार वास है, यदि इस पहलू पर कोई धर्मांध होकर अपनी आंखें बंद कर लेना चाहता है तो यह उसका अपना निर्णय हो सकता है, लेकिन विवेक के आधार पर समाज उसे कभी स्वीकार नही कर सकता। जैन दर्शन में प्रथम तीर्थकर आदिनाथ को वृषभ कहा गया है, जिसका अर्थ होता है-बैल। बैल कृषि संस्कृति का प्रतीक है। खेती के लिए वह वरदान है। गाय मां के रूप में हमें जो कुछ देती है उसे यहां दोहराने की आवश्यकता नही है, क्योंकि मां की ममता और महत्ता का वर्णन जितना किया जाए कम है।
कृषि प्रधान देशों में गाय और बैल सुख संपदा के प्रतीक हैं। मनुष्य ने अपना प्रारंभिक जीवन पशुओं के सहारे ही शुरू किया। मध्य एशिया में असंख्य पैगंबरों का व्यवसाय पशु पालन ही रहा। इसलाम के प्रणेता पैगंबर मोहम्मद साहब ने भी पशु पालन से अपनी जीविका जुटाई। पशु उनके यातायात के साधन भी थे और उनके जीवन निर्वाह के साथी भी। इसलिए हरा सभ्यता में पशुओं का अपना महत्व रहा है। विज्ञान के युग में भी विद्युत के नापने का पैमाना हॉर्स पावर ही है।
भारत कृषि प्रधान देश होने के कारण यहां की सभ्यता पशु पक्षियों के माध्यम से ही विकसित हुई। इसलिए चाहे चौपाए जानवर हों या फिर आकाश में उड़ने वाली चिड़ियां, सभी हमारी सभ्यता के प्रतीक रहे हैं। इसलाम जब भारत में आया तो आक्रांताओं ने यहां के किसी पशु को नही छोड़ा। इसलिए गाय बच जाती-यह असंभव था। लेकिन वे अक्रांता जो यहां आकर बस गये और राज करने लगे, उन्होंने महसूस किया कि भारत के लोगों का गाय के प्रति विशेष प्रेम और आदर है। इसलिए उनकी भावनाओं का सम्मान करने के लिए उन्होंने गाय के वध पर प्रतिबंध लगा दिया।
बार ने तुजुक-ए-बाबरी में अपने पुत्र हुमायूं को वसीयत करते हुए कहा कि भारत की जनता बड़ी धर्मालु है। तू उनकी भावनाओं का सम्मान करना। वे गाय के प्रति अत्यंत संवेदनशील हैं। इसलिए मुगल साम्राज्य की सीमा में उसका वध न होने देना। जिस दिन इस फरमान को मुगल बादशाह ठुकरा देंगे, उन्हों यहां की जनता भी ठुकरा देगी। औरंगजेब ने इसे ठुकरा दिया तो मुगल साम्राज्य की धज्जियां उड़ते देर नही लगी।
इसलाम में किसी वस्तु को समझने के लिए चार बातें मुख्य हैं। सर्वप्रथम उस समस्या का समाधान कुरान में ढूंढ़ो, यदि वहां उत्तर नही मिलता है तो फिर पैगंबर साहब के जीवन में उसकी तलाश करो। इसे हदीस का नाम दिया जाता है। पैगंबर साहब ने समय समय पर जो कुछ कहा और जो कुछ किया उसको आदर्श मानकर मार्ग अपनाया जाए।
यदि हदीस में भी कोई स्पष्ट जानकारी नही मिलती है तो फिर कयास यानी विवेक की कसौटी पर कसकर उसके बारे में फेेसला किया जाए। यदि इस बार भी स्पष्ट मार्ग नही सुझाई दे तो फिर इजतिहाद यानी जनमत संग्रह का मार्ग अपनाया जाए। सवाल है जनमत संग्रह कौन करवाए? क्योंकि अनेक पंथ हैं जो दूसरों के निर्णय को स्वीकार नही करेंगे। इसलामी राज में तो वहां का शासक उस मुद्दे पर जनमत संग्रह करवा सकता है, लेकिन जहां मुसलिम अल्पसंख्यक होंगे, वहां क्या होगा? ऐसी स्थिति में फतवा एकमात्र विकल्प रह जाता है। विद्वानों की राय धर्मग्रंथों के आधार पर क्या है, यह फतवे का आधार होता है। फतवा दिया नही जाता है बल्कि मांगा जाता है। कोई भी व्यक्ति दारूल फतवा के सम्मुख अपनी समस्या को लिखित रूप में प्रस्तुत कर सकता है।
मुजफ्फर हुसैन
गतांक से आगे...
पवित्र कुरान कहता है-किसी छोटी चिड़िया को भी सताओगे तो उसका जवाब भी तुम्हें देना होगा। जो कोई छोटे जीव पर दया करेगा, अल्लाह उसका बदला भी तुम्हें दुनिया में और दुनिया के बाद आखिरत में देने वाला है।
इसलाम ने जिन पशुओं के मांस को खाने में हलाल घोषित किया है, उनमें गाय और बैल का भी समावेश है। धर्म में कही गयी बात आदर्श हो सकती है, लेकिन उसका व्यावहारिक पहलू क्या है, इसे भी समझना अनिवार्य है। गाय की विशेषताएं क्या हैं, इसके संबंध में कुरान और इसलामी विद्वानों ने अपना जो मत व्यक्त किया है, इससे एक ही बात सामने उभरकर आती है कि इस उपयोगी पशु को काटकर मनुष्य अपने पांव पर ही कुल्हाड़ी मारेगा। गाय हिंदू धर्म में कितनी पवित्र है और उसमें देवताओं का किस प्रकार वास है, यदि इस पहलू पर कोई धर्मांध होकर अपनी आंखें बंद कर लेना चाहता है तो यह उसका अपना निर्णय हो सकता है, लेकिन विवेक के आधार पर समाज उसे कभी स्वीकार नही कर सकता। जैन दर्शन में प्रथम तीर्थकर आदिनाथ को वृषभ कहा गया है, जिसका अर्थ होता है-बैल। बैल कृषि संस्कृति का प्रतीक है। खेती के लिए वह वरदान है। गाय मां के रूप में हमें जो कुछ देती है उसे यहां दोहराने की आवश्यकता नही है, क्योंकि मां की ममता और महत्ता का वर्णन जितना किया जाए कम है।
कृषि प्रधान देशों में गाय और बैल सुख संपदा के प्रतीक हैं। मनुष्य ने अपना प्रारंभिक जीवन पशुओं के सहारे ही शुरू किया। मध्य एशिया में असंख्य पैगंबरों का व्यवसाय पशु पालन ही रहा। इसलाम के प्रणेता पैगंबर मोहम्मद साहब ने भी पशु पालन से अपनी जीविका जुटाई। पशु उनके यातायात के साधन भी थे और उनके जीवन निर्वाह के साथी भी। इसलिए हरा सभ्यता में पशुओं का अपना महत्व रहा है। विज्ञान के युग में भी विद्युत के नापने का पैमाना हॉर्स पावर ही है।
भारत कृषि प्रधान देश होने के कारण यहां की सभ्यता पशु पक्षियों के माध्यम से ही विकसित हुई। इसलिए चाहे चौपाए जानवर हों या फिर आकाश में उड़ने वाली चिड़ियां, सभी हमारी सभ्यता के प्रतीक रहे हैं। इसलाम जब भारत में आया तो आक्रांताओं ने यहां के किसी पशु को नही छोड़ा। इसलिए गाय बच जाती-यह असंभव था। लेकिन वे अक्रांता जो यहां आकर बस गये और राज करने लगे, उन्होंने महसूस किया कि भारत के लोगों का गाय के प्रति विशेष प्रेम और आदर है। इसलिए उनकी भावनाओं का सम्मान करने के लिए उन्होंने गाय के वध पर प्रतिबंध लगा दिया।
बार ने तुजुक-ए-बाबरी में अपने पुत्र हुमायूं को वसीयत करते हुए कहा कि भारत की जनता बड़ी धर्मालु है। तू उनकी भावनाओं का सम्मान करना। वे गाय के प्रति अत्यंत संवेदनशील हैं। इसलिए मुगल साम्राज्य की सीमा में उसका वध न होने देना। जिस दिन इस फरमान को मुगल बादशाह ठुकरा देंगे, उन्हों यहां की जनता भी ठुकरा देगी। औरंगजेब ने इसे ठुकरा दिया तो मुगल साम्राज्य की धज्जियां उड़ते देर नही लगी।
इसलाम में किसी वस्तु को समझने के लिए चार बातें मुख्य हैं। सर्वप्रथम उस समस्या का समाधान कुरान में ढूंढ़ो, यदि वहां उत्तर नही मिलता है तो फिर पैगंबर साहब के जीवन में उसकी तलाश करो। इसे हदीस का नाम दिया जाता है। पैगंबर साहब ने समय समय पर जो कुछ कहा और जो कुछ किया उसको आदर्श मानकर मार्ग अपनाया जाए।
यदि हदीस में भी कोई स्पष्ट जानकारी नही मिलती है तो फिर कयास यानी विवेक की कसौटी पर कसकर उसके बारे में फेेसला किया जाए। यदि इस बार भी स्पष्ट मार्ग नही सुझाई दे तो फिर इजतिहाद यानी जनमत संग्रह का मार्ग अपनाया जाए। सवाल है जनमत संग्रह कौन करवाए? क्योंकि अनेक पंथ हैं जो दूसरों के निर्णय को स्वीकार नही करेंगे। इसलामी राज में तो वहां का शासक उस मुद्दे पर जनमत संग्रह करवा सकता है, लेकिन जहां मुसलिम अल्पसंख्यक होंगे, वहां क्या होगा? ऐसी स्थिति में फतवा एकमात्र विकल्प रह जाता है। विद्वानों की राय धर्मग्रंथों के आधार पर क्या है, यह फतवे का आधार होता है। फतवा दिया नही जाता है बल्कि मांगा जाता है। कोई भी व्यक्ति दारूल फतवा के सम्मुख अपनी समस्या को लिखित रूप में प्रस्तुत कर सकता है।
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