शनिवार, 8 सितंबर 2018

गौ-आधारित कृषि

गौ-आधारित कृषि

भारतीय कृषि भूमि सन 1960 के दशक में लगभग रसायन मुक्त थी। अब यह भूमि रासायनिक खाद के भार से बीमार हो चली हैं, उसकी उर्वरा शक्ति लुप्त होती जा रही है। यही कारण है कि किसानों को खेती से पर्याप्त मात्रा में लाभ नहीं मिल रहा है। यही नहीं तो भारत का किसान आए दिन असमय बारिश, बाढ़ और सूखे जैसी प्राकृतिक आपदा की मार झेलने को विवश है। कृषि उसके लिए घाटे का व्यवसाय बन गया है।

सरकारी आंकड़ों के अनुसार गत दस वर्षों में 98 लाख किसानों ने खेती छोड़ी है। 264 जिलों का जलस्तर एकदम नीचे (Dark Zone) जा चुका है। एक द्दाने से हजारों-लाखों दानों का निर्माण करनेवाले किसान आज कर्ज से ग्रस्त है। राष्ट्रीय अपराध रिकार्ड कार्यालय के अनुसार 1997 से 2013 तक देश में लगभग 3 लाख किसानों ने आत्महत्या की। दूसरों को जीवन देनेवाले किसों में लाचारी और हताशा की भावना फ़ैल रही है। इस प्रकार यह स्पष्ट हो जाता है कि रासायनिक कृषि हर दृष्टि से हानिकारक है।

ऐसी स्थिति में गौ-आधारित प्राकृतिक कृषि ही एकमात्र कारगर उपाय है। गौपालन के बिना प्राकृतिक कृषि और प्राकृतिक कृषि के बिना गौपालन संभव नहीं है। मिट्टी में कभी वे सभी तत्व मौजूद हैं जो पेड़-पौधों को चाहिए, लेकिन वे सख्त और जटिल होते हैं। सूक्ष्म जीव एवं केंचुए आदि मिट्टी के कठिन घटकों को सरल घटकों में विघटित कर देते हैं, जिससे पेड़-पौधे आसानी से खींच सकते हैं। गाय के एक ग्राम गोबर में 300 से 500 करोड़ तक ऐसे ही सूक्ष्म जीवे होते हैं। ये सूक्ष्म जीव जमीन के केंचुओं को सक्रिय करने का भी काम करते हैं। केंचुए मिट्टी में खूब सारे छेद करके उसे कृषि योग्य पोला बना देते हैं। इसलिए कह गया है कि ‘गोबर जीवामृत’ सूक्ष्म जीवों का महासागर है। इससे स्पष्ट होता है कि गौ-आधारित कृषि से भूमि की उर्वरक क्षमता आजीवन बनाया जा सकता है। इससे भूमि में जलस्तर अच्छा बना रहता है। भूमि की उर्वरा क्षमता के कारण फसल की पैदावार उचित मात्रा में होती है। इससे ही निराश किसानों में उत्साह का संचार होगा।

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