(28) गौ- चिकित्सा - मुखरोग ।
१ - गलफर में काँटे हो जाना ( अबाल रोग )
=====================================
कारण व लक्षण :- पशु के गलफर में काटें हो जाते हैं इस रोग को अबाल रोग कहते हैं अनछरा रोग में जीभ पर काँटे होते हैं इस रोग में गालों में होते हैं तथा इस रोग में गलफर में चिप- चिप होती रहती हैं पशु चारा नहीं खा पाता हैं
# - जो दवा अनछरा रोग में लाभ करती हैं वह गलफर में भी काम करती हैं ।
१ - औषधि - हल्दी व नमक पीसकर गालों में चुपड़ते रहना लाभकारी हैं दवा करने से पहले बाँस की खपच्ची से गलफर में उत्पन्न काँटों को धीरे-धीरे छीलकर बाद में दवा को रगड़ कर लगायें ।
२ - जिह्वा कण्टक ( अनछरा रोग या जीभ का काँटा )
========================================
कारण व लक्षण :- पशु की जीभ के ऊपर छोटें- छोटें नोंकदार दानें - इस रोग में निकल आते हैं , जिन्हें आम बोलचाल में काटें कहते हैं । इस रोग से ग्रसित पशु खाने की तो इच्छा करता हैं किन्तु काटें चुभने के कारण खा नहीं पाता हैं ।
१ - औषधि - हल्दी व नमक पीसकर तैयार रखें , इसके बाद बाँस की खपच्ची लेकर जीभ पर रगड़कर काँटों को छील दें फिर दवा को सरसों के तेल में मिलाकर रगड़कर लगायें । इससे आराम आयेगा ।
२ - औषधि - काला ज़ीरा , काली मिर्च और अम्बा हल्दी - इन तीनों को सममात्रा में लेकर महीन कर लें और रोगी पशु की जीभ पर बार- बार लगायें ।
३ - औषधि - धाय के फूल २ तौला , रात्रि में में पानी में भिगोकर रख दें प्रात होने पर सेंधानमक कलमीशोरा , और समुद्रीफेन , प्रत्येक १-१ तौला , और रसवत ६ माशा , लेकर सबको बारीक पीसकर जीभ पर मलते रहना लाभकारी हैं ।
प्रात: काल रोगी पशु को कुछ भी खिलाने से पूर्व अदरक , पान तथा कालीमिर्च खिला देने से मुख के अन्दर उत्पन्न होने वाले तथा सभी जगहों के काँटों में लाभ होता हैं ।
३ - सूतबाम ( सुकभामी ) रोग
===========================
कारण व लक्षण :- इस रोग में तालु अथवा तारू में छेद हो जाता हैं । इस रोग को सूतबाम या सुकभामी के नामों से जानते हैं । इसरोग में पशु की आँखों से पानी बहता हैं , उसे भूख नहीं लगती हैं जिसके कारण दिन- प्रतिदिन पशु दूबला होता जाता हैं पशु पानी पीने से डरता हैं । जब छेद में पानी पड़ता हैं तो दर्द अधिक बढ़ जाता हैं । इस पीड़ा से पशु की आँखों से आँसू निकल पड़ते हैं । इसी पीड़ा के भय के कारण पशु पानी नहीं पीता हैं । रोगी का मुख खोलकर देखने पर तालू का छेद साफ़ दिखाई देता हैं ।
१ - औषधि - लोहे खुब गरम करके छिद्र को दाग देना लाभकारी उपाय हैं । दागने के बाद घाव में देशी सिन्दुर व पीसी हूई हल्दी और गाय का घी मिलाकर मरहम तैयार करके पहले ही रखें दागने के तुरन्त बाद घाव में भर देंना चाहिए यह गुणकारी उपाय हैं ।
४ - मेझुकी ( कठभेलुकी या भेलुकी रोग
=================================
कारण व लक्षण :- इस रोग में पशु की जीभ के ऊपर सूजन हो जाती हैं । इस रोग को मेझुकी, कठभेलुकी , भेलुकी , आदि नामों से लोग जानते हैं । इस रोग में पशु चारा न खा पाने के कारण पशु दुर्बल हो जाता हैं । इस रोग से ग्रस्त पशु चारा कम खाता हैं और पानी पीने में भी कम रूची रखता हैं ।
१ - औषधि -पशु की जीभ पर हल्के गरम लोहे से दाग लगाकर ऊपर की जली हुई खाल को खींचकर उतार दें इसके बाद गाय का घी , हल्दीपावडर , देशी सिन्दुर मिलाकर मरहम की तरह बनाकर जीभ पर लगायें इस योग को ठीक होने तक लगाना चाहिए ।
२ - औषधि - एक पक्षी होता है मैली बुगली उसको मारकर, पकाकर शोरबा बनाकर खिलाने से भी लाभ होता हैं । साथ-साथ उसके शरीर से निकली हूई हड्डियों को पीसकर पशु की जीप पर लगायें तो जल्दी आराम आता हैं ।
५ - बहता रोग
=============
कारण व लक्षण :- इस रोग में पशु की जीभ बहुत अधिक फूल जाती हैं , जिसके कारण उसके मुख से हर समय लार टपकती रहती हैं । रोगी पशु के नेत्रों से पानी बहने लगता हैं जिसके कारण रोगी पशु बहुत विकल्प रहता हैं , आँख से हर समय पानी बहता रहता हैं इसिलिए किसान इस रोग को बहता रोग कहते हैं ।
१ - औषधि - पशु की जीभ के नीचे वाले हिस्से के चारों रंगों में चार फस्दया फश्त खोल देना ही इस रोग का मुख्य इलाज हैं । नश्तर के घाव में - हल्दी पावडर , देशी सिन्दुर , गाय का घी मलना लाभकारी रहता है ।
६ - जिह्वा व्रण ( जीभ के घाव )
==========================
कारण व लक्षण - पशु की जीभ पर घाव हो जाते हैं । जिसके कारण पशु ठीक प्रकार से खाना- पीना ठीक से नहीं कर पाता है और वह बहुत परेशान रहता हैं । यह रोग गायों को बहुत अधिक होता हैं ।
१ - औषधि - पशु की जीभ पर घाव होतों - पीपल की छाल जलाकर उसकी महीन राख जीप्रणाम रगड़कर कुछ देर के के लिए रोगी पशु के मुँह को बाँध देना चाहिए । दबाकर न बाँधे इतना बाँधे की पशु जबड़ा न चला पाये लेकिन नाक से साँस बन्द न हो । कभी इतना टाईट बाँध दें कि वह साँस भी न लें सकें ध्यान रहें ।
७ - गरदब्बा
===============
कारण व लक्षण :- इस रोग में जीभ की जड़ में अधिक सूजन आ जाती हैं जिसके कारण रोगी पशु का मुख काफ़ी गरम प्रतित होता हैं । यह भयंकर रोग हैं इसे भी जहरबाद की तरह असाध्य समझा जाता हैं । अत: इस रोग के लक्षण प्रकट होते ही तुरन्त इलाज करना चाहिए । पशु के मुँह में हाथ डालकर देखने पर मुँह अन्दर से काफ़ी ठण्डा रहता हैं ,जबकि गलाघोटू रोग में पशु का मुख अन्दर से काफ़ी गरम रहता हैं ।
१ - औषधि - मेंथी आधा पाँव प्याज़ ३ छटांक , पानी १ किलो में पकाकर पशु को नाल द्वारा पिलाने से लाभ होता हैं ।
२ - औषधि - सरसों का तेल १० ग्राम , अफ़ीम ५ ग्राम , मिलाकर पशु के नाक में डालने से आराम आता हैं ।
३ - औषधि - बंडार, कालीजीरी और मकोय तीनों को थोड़ा पानी डालकर पीस लें फिर गरम करके , महुए पुत्री बनाकर पुन: पतरी को रूई में रखकर हलक के ऊपर बाँधना भी लाभदायक हैं ।
४ - औषधि - धतुरे का पत्ता , मेउड़ का पत्ता , बकायन के पत्ते , आकाश बंवर का पत्ता और अरूस का पत्ता - इन सबको उबालकर सूजन के ऊपर बफारा ( भाँप देना ) देने से लाभ होता हैं ।
५ - औषधि - इस रोग में उपयुक्त दवाओं के प्रयोग से लाभ होता हैं । यदि इनके प्रयोग से कोई लाभ न हो तो रोगग्रस्त स्थान को लोहा छड़ को गरम करके दाग लगाना चाहिए ।
८ - दाँत हिलना
================
१ - औषधि - पशुओं के हिलते हुए दाँत की जड़ में पीसी हुई हल्दी रखकर उपर से शुद्ध सरसों का तेल डाल देने से पशु का हिलता हुआ दाँत जम जाता है ।
२ - फिटकरी पावडर में पानी की बूँदें डालकर दाँत की जड़ पर लगाने से दाँत हिलने बन्द हो जाते हैं ।
९ - परिहुल ( मसूड़े फूलना )
=====================
कारण व लक्षण :- इस बिमारी में पशुओं के दाँतों की जड़े ( मसूड़े ) फूलकर मोटे हो जाते हैं । जिसके फलस्वरूप पशु का मुख बड़ा गरम हो जाता हैं । शुरूआत में फूले हुए मसूड़े काफ़ी कठोर रहते हैं किन्तु कुछ दिनों के बाद वे पक जाते हैं और उनसे मवाद निकलने लगता हैं । इस रोग से ग्रस्त पशु न तो चारा ही चर सकता है और न ही दाना खा पाता हैं ।
१ - औषधि - शुरूआत में तो ३-४ बार साँभरनमक तथा हल्दी बारीक पीसकर व कपडछान करके मलते रहना चाहिए । यदि कुछ दिन तक मलने से सूजन नरम पड़ जाये तो नश्तर से चीरा देकर मवाद निकाल देनी चाहिए । उसके बाद पान के पत्ते पर बुरककर कालीमिर्च व सोंठ पावडर सूजन पर लगाना चाहिए ।
२ - औषधि - मेंथी , सांभर नमक और अलसी - प्रत्येक को समान मात्रा में लेकर पुलटीश बनाकर लेंप करना चाहिए यह उपयोगी होता है ।
३ - औषधि - यदि रोग की तीव्रता के कारण पशु को बुखार हो जाये और वह बुखार से परेशान होकर चक्कर काट रहा हो तो - गुड़ और चिरायता ५००-५०० ग्राम , लेकर लगभग १ लीटर पानी में औटायें । जब आधा पानी रह जाये तब छानकर रोगी पशु को गुनगुना ही पिला देना लाभप्रद होता हैं ।
# - मुलायम घास व अलसी या चावल का माण्ड में नमक मिलाकर पशु को पिलाना चाहिए ।
१० - दाँतों मे पायरिया
=================
कारण व लक्षण :- इस रोग को पिंग रोग के नाम से भी जानते हैं । तथा कहीं- कहीं इस रोग को "गहन " रोग से भी पुकारते हैं । यह दाँतों का भयंकर रोग है । इसमें दाँतों की जड़ों का माँस गल- गलकर क्षीण होने लगता हैं । दाँतों की जड़े खोखली हो जाती हैं और वे हिलने लगते हैं । पायरिया रोग में रोगी पशु को चारा दाना खाने का कष्ट रहता हैं ।
१ - औषधि - सरसों के तेल में रूई को भिगोकर दाँत की जड़ में रखे । साधारण गर्म लोहे को रूई के ऊपर रखें , ताकि तेल गर्म होकर दाँतों की जड़ों में चला जायें । इसके बाद बरगद का दूध रूई में भिगोकर दाँतों की जड़ों में रखने से दाँतों की जड़े मज़बूत हो जाती हैं ।
११ - दाँतों का अनियमित बढ़ना
==========================
कारण व लक्षण :- आमतौर पर यह रोग बूढ़े पशुओं को होता हैं । उनके दाँत ऊँचे - नीचें हो जाते हैं । तथा दाढें बढ़ जाती हैं , जिसके कारण उन्हें चारा - दाना खाने में कष्ट होता हैं । इस रोग से ग्रस्त पशु चारे को दाँतों से भलीप्रकार चबा नहीं पाता हैं और उसे चबाने में कष्ट होता हैं ।
१ - औषधि - इस रोग के इलाज हेतु पशु को किसी सुयोग्य डाक्टर के पास जाकर दाँतों को रितवा देना चाहिए अथवा अनियमित रूप से बढ़े दाँतों को निकलवा देना चाहिए ।
१२ - मुँह पका रोग
=================
१ - मूहँ पकारोग - जूवाॅसा - १५० ग्राम , अजमोदा - १५० ग्राम , चीता ( चित्रक सफ़ेद ) -१०० ग्राम , बड़ी इलायची - ५० ग्राम , इलायची को कूटकर बाक़ी सभी दवाओं को साढ़े तीन किलो पानी में उबालकर ,छानकर पानी की एक-एक नाल सुबह-सायं देने सेल लाभ होता है ।
१३ - जीभ पर छालें पड़ जाना
=======================
कारण व लक्षण - कभी - कभी गरम चीज़ें खा लेने के कारण शरीर का ताप बढ़ जाता है , या बदहजमी के कारण यह रोग हो जाता है , यह रोग फेफड़ों में भी हो सकता है । पशु की जीभ में छालें पड़ जाते है । मुँह से दुर्गन्ध आती है । लार टपकती है ।खाना - पीना तथा जूगाली करना कम हो जाता है । पश सुस्त रहता है और दिनोंदिन कमज़ोर होता जाता है ।
१ - बछाँग की जड़ ( जलजमनी ) ६० ग्राम , गाय का घी २४० ग्राम , जड़ को महीन कूटकर उसे घी में गुनगुना गरम करके , बिना छाने , रोगी पशु को एक समय , चार - पाँच दिन तक , दी जाय । उससे अवश्य आराम होगा ।
२ - औषधि - मुर्ग़ी का अण्डा १ नग , गाय का दूध ९६० ग्राम , अण्डे को फोड़कर और गूद्दे को दूध में मिलाकर ख़ूब फेंट लिया जाय । फिर रोगी पशु को दोनो समय ,तीन दिन तक , पिलाया जाय ।
आलोक -:- रोगी पशु को पहले जूलाब दिया जाय । उसके बाद जलजमनी की पत्तियाँ खिलाने से वह अच्छा हो जाता है । यदि वह न खाये , तो उसे बारीक पीसकर पानी के साथ मिलाकर पिलाये ।
३ -औषधि - फिटकरी ६० ग्राम , पानी २४० ग्राम , फिटकरी को पानी में मिलाकर रोगी पशु का सिर धोना चाहिए तथा उसे पिलाना भी चाहिए ।
४ - औषधि - इलायची १२ ग्राम , शीतल चीनी २४ ग्राम , पानी २४० ग्राम , इलायची और शीतल चीनी को पीसकर , पानी में मिलाकर गुनगुना करके , रोगी पशु को आठ दिन तक , देना चाहिए ।
------------------- @ --------------------
१४ - पान कोशी
=======================
कारण व लक्षण - मुहँपका रोग में या माता की बिमारी में पशु के भूखे रहने से यह बिमारी हो जाती है । इस रोग में पशु अधिक गर्मी नहीं सहन कर सकता । रोगी पशु अधिक हाँफता हैं । उसे दम चलती है । वह हमेशा छाया में या पानी में रहने की कोशिश करता है । उसके रोयें बढ़ जाते है और काले पड़ जाते हैं । अगर रोगी मादा पशु हो तो गाभिन नहीं होता और हुआ भी तो दूध नहीं देता है ,उसका दूध प्रतिदिन सूखता जाता है।
१ - औषधि - बत्तख का अण्डा १ नग ,गाय का दूध ९६० ग्राम , प्रतिदिन अण्डे को फोड़कर और दूध के साथ ख़ूब फेंटकर रोगी पशु को ८ दिन तक पिलाया जाय। अगर इसके बीच रोगी पशु अच्छा हो जाय तो फिर एक समय यह दवा पिलानी चाहिए ।
२ - औषधि - मुर्ग़ी का अण्डा २ नग , गाय का दूध १ लीटर , अण्डों को तोड़कर , दूध में मिलाकर , रोगी पशु को दोनों समय ८ दिन तक देना चाहिए ।
टोटका -:-
३ - औषधि - गाय के दूध की छाछ १४४० ग्राम , कालीमिर्च ३० ग्राम , कालीमिर्च को महीन पीसकर उसे छाछ में मिला लिया जाय । फिर लोहे के टुकड़े को या पत्थर को लाल गरम करके उसे छाछ में एक दम डालकर तुरन्त ढँक दिया जाय । १५ मिनट बाद उस लोहे के टुकड़े को निकालकर , गुनगुनी छाछ रोगी पशु को दोनों समय , एक माह तक ,इसी मात्रा में पिलायी जाय ।
४ - औषधि - नीम की पत्ती १०० ग्राम , २५० ग्राम पानी में पीसकर पिलानी चाहिए । बाद मे २५० ग्राम , गाय का घी भी दोनों समय देना चाहिए ।
---------------------- @ ---------------------
१५ - फाँसी या छड़ रोग, जीभ के नीचे नसों में काला ख़ून इक्कठा होना ।
========================================================
कारण व लक्षण - यह रोग गाय व भैंस और मादा पशुओं की जीभ के नीचे यह प्राय: होता है । यह रोग अन्य पशुओं को नहीं होते देखा गया है । यह रोग गर्मियों में अधिक होता है । पशुओं को सूखी घास खाने तथा ठीक समय पर पानी न मिलने के कारण यह रोग होता है । जीभ के नीचे के भाग की नसों में काला ख़ून भर जाता है । पशु का शरीर अकड़ जाता है। उसकी कमर को ऊपर से दबाने से वह एकदम नीचे झुक जाता है । यह रोग अधिकतर दूधारू भैंसों को होता है । दूधारू पशु दूध देने तथा खाने में कमी करते हैं।
१ - औषधि - पहले रोगी पशु को धीरे से ज़मीन पर लिटा देना चाहिए । फिर उसकी जीभ बाहर निकालकर उसकी बड़ी - बड़ी दो नसों को ( जिनमें काला ख़ून भरा हो ) , जोकि कई छोटी -छोटी नसों को मिलाती है । उसे सुई से तोड़कर काला ख़ून बाहर निकाल देना चाहिए ।और बाद में २४ ग्राम हल्दी, गाय का घी २४ ग्राम , दोनों को मिलाकर जीभ पर नसों के पास लगा दें । इससे ज़ख़्म नर्म और ठीक हो जायगा ।
# - रोगी पशु की पूँछ के नीचे के भाग में थोड़ा - सा चीरा ( नश्तर) लगाकर ख़ून निकाल दिया जाना चाहिए । उसे ऊपर से नीचें की ओर लौटाना चाहिए , जिससे काला रक्त निकल जायेगा । अच्छी तरह दबाकर काला ख़ून निकाल देना चाहिए । काला ख़ून निकल जाने के बाद ज़ख़्म में अफ़ीम चार रत्ती पानी में मिलाकर नरम करकें , भर देनी चाहिए । इससे रोगी को यह रोग दूसरी बार नहीं होगा ।
---------------------- @ -------------------------
१६ - मुँह मे आँवल या मुँह में काँटों का बढ़ना
======================================
कारण व लक्षण - यह रोग गौ वर्ग को होता है कभी - कभी गाय को नमक क्षारयुक्त पदार्थ न मिलने पर भी यह रोग हो जाता है । जिस गाय बैल को सदैव कब्जियत रहती है । उसे यह रोग अधिक होता है । इस रोग में रोगी के मुँह के आँवल बढ़ जाते है । ये आँवल गाय व बैल के जबड़े के अन्दर अग़ल - बग़ल दोनों ओर रहते है । ये काँटे लम्बाई, चौड़ाई और ऊँचाई में बढ़ जाते है । जिससे पशु घास ठीक प्रकार नहीं खा सकता है । वह दिनोंदिन कमज़ोर होने लगता है । दाना भी कम खाता है ।दूधारू गाय दूध देना कम कर देती है ।
१ - औषधि - रोगी पशु को सबसे पहले जूलाब देकर उसका पेट साफ़ कर देना चाहिए ।
२ - औषधि - रोगी पशु को प्रतिदिन २४ ग्राम , पिसानमक उन काँटों पर हाथ से मलना चाहिए ।
३ - औषधि - नारियल के रेशे , कत्थे की रस्सी को या भाभड़ के बाण को इन काँटों पर रगड़ें तथा ख़ूब मलना चाहिए ।
४ - औषधि - रोगी पशु के ज़मीन पर लेटाकर फिर उसके बढ़े हुए काँटे तेज़ कैची द्वारा काट दिये जायँ फिर बाद में हल्दी २४ ग्राम , गाय का घी या मक्खन २४ ग्राम , दोनों को मिलाकर काटो के स्थान पर हाथ से मला जायें । यह क्रिया केवल एक ही दिन करनी होती है । इससे पशु को आराम होगा । तथा ध्यान रहे की रोगी पशु को मुलायम घास , हल्की पतली ,पोषक घास देनी चाहिए । और पशु को हर चौथे नमक देना पड़ता है ।
१ - गलफर में काँटे हो जाना ( अबाल रोग )
=====================================
कारण व लक्षण :- पशु के गलफर में काटें हो जाते हैं इस रोग को अबाल रोग कहते हैं अनछरा रोग में जीभ पर काँटे होते हैं इस रोग में गालों में होते हैं तथा इस रोग में गलफर में चिप- चिप होती रहती हैं पशु चारा नहीं खा पाता हैं
# - जो दवा अनछरा रोग में लाभ करती हैं वह गलफर में भी काम करती हैं ।
१ - औषधि - हल्दी व नमक पीसकर गालों में चुपड़ते रहना लाभकारी हैं दवा करने से पहले बाँस की खपच्ची से गलफर में उत्पन्न काँटों को धीरे-धीरे छीलकर बाद में दवा को रगड़ कर लगायें ।
२ - जिह्वा कण्टक ( अनछरा रोग या जीभ का काँटा )
========================================
कारण व लक्षण :- पशु की जीभ के ऊपर छोटें- छोटें नोंकदार दानें - इस रोग में निकल आते हैं , जिन्हें आम बोलचाल में काटें कहते हैं । इस रोग से ग्रसित पशु खाने की तो इच्छा करता हैं किन्तु काटें चुभने के कारण खा नहीं पाता हैं ।
१ - औषधि - हल्दी व नमक पीसकर तैयार रखें , इसके बाद बाँस की खपच्ची लेकर जीभ पर रगड़कर काँटों को छील दें फिर दवा को सरसों के तेल में मिलाकर रगड़कर लगायें । इससे आराम आयेगा ।
२ - औषधि - काला ज़ीरा , काली मिर्च और अम्बा हल्दी - इन तीनों को सममात्रा में लेकर महीन कर लें और रोगी पशु की जीभ पर बार- बार लगायें ।
३ - औषधि - धाय के फूल २ तौला , रात्रि में में पानी में भिगोकर रख दें प्रात होने पर सेंधानमक कलमीशोरा , और समुद्रीफेन , प्रत्येक १-१ तौला , और रसवत ६ माशा , लेकर सबको बारीक पीसकर जीभ पर मलते रहना लाभकारी हैं ।
प्रात: काल रोगी पशु को कुछ भी खिलाने से पूर्व अदरक , पान तथा कालीमिर्च खिला देने से मुख के अन्दर उत्पन्न होने वाले तथा सभी जगहों के काँटों में लाभ होता हैं ।
३ - सूतबाम ( सुकभामी ) रोग
===========================
कारण व लक्षण :- इस रोग में तालु अथवा तारू में छेद हो जाता हैं । इस रोग को सूतबाम या सुकभामी के नामों से जानते हैं । इसरोग में पशु की आँखों से पानी बहता हैं , उसे भूख नहीं लगती हैं जिसके कारण दिन- प्रतिदिन पशु दूबला होता जाता हैं पशु पानी पीने से डरता हैं । जब छेद में पानी पड़ता हैं तो दर्द अधिक बढ़ जाता हैं । इस पीड़ा से पशु की आँखों से आँसू निकल पड़ते हैं । इसी पीड़ा के भय के कारण पशु पानी नहीं पीता हैं । रोगी का मुख खोलकर देखने पर तालू का छेद साफ़ दिखाई देता हैं ।
१ - औषधि - लोहे खुब गरम करके छिद्र को दाग देना लाभकारी उपाय हैं । दागने के बाद घाव में देशी सिन्दुर व पीसी हूई हल्दी और गाय का घी मिलाकर मरहम तैयार करके पहले ही रखें दागने के तुरन्त बाद घाव में भर देंना चाहिए यह गुणकारी उपाय हैं ।
४ - मेझुकी ( कठभेलुकी या भेलुकी रोग
=================================
कारण व लक्षण :- इस रोग में पशु की जीभ के ऊपर सूजन हो जाती हैं । इस रोग को मेझुकी, कठभेलुकी , भेलुकी , आदि नामों से लोग जानते हैं । इस रोग में पशु चारा न खा पाने के कारण पशु दुर्बल हो जाता हैं । इस रोग से ग्रस्त पशु चारा कम खाता हैं और पानी पीने में भी कम रूची रखता हैं ।
१ - औषधि -पशु की जीभ पर हल्के गरम लोहे से दाग लगाकर ऊपर की जली हुई खाल को खींचकर उतार दें इसके बाद गाय का घी , हल्दीपावडर , देशी सिन्दुर मिलाकर मरहम की तरह बनाकर जीभ पर लगायें इस योग को ठीक होने तक लगाना चाहिए ।
२ - औषधि - एक पक्षी होता है मैली बुगली उसको मारकर, पकाकर शोरबा बनाकर खिलाने से भी लाभ होता हैं । साथ-साथ उसके शरीर से निकली हूई हड्डियों को पीसकर पशु की जीप पर लगायें तो जल्दी आराम आता हैं ।
५ - बहता रोग
=============
कारण व लक्षण :- इस रोग में पशु की जीभ बहुत अधिक फूल जाती हैं , जिसके कारण उसके मुख से हर समय लार टपकती रहती हैं । रोगी पशु के नेत्रों से पानी बहने लगता हैं जिसके कारण रोगी पशु बहुत विकल्प रहता हैं , आँख से हर समय पानी बहता रहता हैं इसिलिए किसान इस रोग को बहता रोग कहते हैं ।
१ - औषधि - पशु की जीभ के नीचे वाले हिस्से के चारों रंगों में चार फस्दया फश्त खोल देना ही इस रोग का मुख्य इलाज हैं । नश्तर के घाव में - हल्दी पावडर , देशी सिन्दुर , गाय का घी मलना लाभकारी रहता है ।
६ - जिह्वा व्रण ( जीभ के घाव )
==========================
कारण व लक्षण - पशु की जीभ पर घाव हो जाते हैं । जिसके कारण पशु ठीक प्रकार से खाना- पीना ठीक से नहीं कर पाता है और वह बहुत परेशान रहता हैं । यह रोग गायों को बहुत अधिक होता हैं ।
१ - औषधि - पशु की जीभ पर घाव होतों - पीपल की छाल जलाकर उसकी महीन राख जीप्रणाम रगड़कर कुछ देर के के लिए रोगी पशु के मुँह को बाँध देना चाहिए । दबाकर न बाँधे इतना बाँधे की पशु जबड़ा न चला पाये लेकिन नाक से साँस बन्द न हो । कभी इतना टाईट बाँध दें कि वह साँस भी न लें सकें ध्यान रहें ।
७ - गरदब्बा
===============
कारण व लक्षण :- इस रोग में जीभ की जड़ में अधिक सूजन आ जाती हैं जिसके कारण रोगी पशु का मुख काफ़ी गरम प्रतित होता हैं । यह भयंकर रोग हैं इसे भी जहरबाद की तरह असाध्य समझा जाता हैं । अत: इस रोग के लक्षण प्रकट होते ही तुरन्त इलाज करना चाहिए । पशु के मुँह में हाथ डालकर देखने पर मुँह अन्दर से काफ़ी ठण्डा रहता हैं ,जबकि गलाघोटू रोग में पशु का मुख अन्दर से काफ़ी गरम रहता हैं ।
१ - औषधि - मेंथी आधा पाँव प्याज़ ३ छटांक , पानी १ किलो में पकाकर पशु को नाल द्वारा पिलाने से लाभ होता हैं ।
२ - औषधि - सरसों का तेल १० ग्राम , अफ़ीम ५ ग्राम , मिलाकर पशु के नाक में डालने से आराम आता हैं ।
३ - औषधि - बंडार, कालीजीरी और मकोय तीनों को थोड़ा पानी डालकर पीस लें फिर गरम करके , महुए पुत्री बनाकर पुन: पतरी को रूई में रखकर हलक के ऊपर बाँधना भी लाभदायक हैं ।
४ - औषधि - धतुरे का पत्ता , मेउड़ का पत्ता , बकायन के पत्ते , आकाश बंवर का पत्ता और अरूस का पत्ता - इन सबको उबालकर सूजन के ऊपर बफारा ( भाँप देना ) देने से लाभ होता हैं ।
५ - औषधि - इस रोग में उपयुक्त दवाओं के प्रयोग से लाभ होता हैं । यदि इनके प्रयोग से कोई लाभ न हो तो रोगग्रस्त स्थान को लोहा छड़ को गरम करके दाग लगाना चाहिए ।
८ - दाँत हिलना
================
१ - औषधि - पशुओं के हिलते हुए दाँत की जड़ में पीसी हुई हल्दी रखकर उपर से शुद्ध सरसों का तेल डाल देने से पशु का हिलता हुआ दाँत जम जाता है ।
२ - फिटकरी पावडर में पानी की बूँदें डालकर दाँत की जड़ पर लगाने से दाँत हिलने बन्द हो जाते हैं ।
९ - परिहुल ( मसूड़े फूलना )
=====================
कारण व लक्षण :- इस बिमारी में पशुओं के दाँतों की जड़े ( मसूड़े ) फूलकर मोटे हो जाते हैं । जिसके फलस्वरूप पशु का मुख बड़ा गरम हो जाता हैं । शुरूआत में फूले हुए मसूड़े काफ़ी कठोर रहते हैं किन्तु कुछ दिनों के बाद वे पक जाते हैं और उनसे मवाद निकलने लगता हैं । इस रोग से ग्रस्त पशु न तो चारा ही चर सकता है और न ही दाना खा पाता हैं ।
१ - औषधि - शुरूआत में तो ३-४ बार साँभरनमक तथा हल्दी बारीक पीसकर व कपडछान करके मलते रहना चाहिए । यदि कुछ दिन तक मलने से सूजन नरम पड़ जाये तो नश्तर से चीरा देकर मवाद निकाल देनी चाहिए । उसके बाद पान के पत्ते पर बुरककर कालीमिर्च व सोंठ पावडर सूजन पर लगाना चाहिए ।
२ - औषधि - मेंथी , सांभर नमक और अलसी - प्रत्येक को समान मात्रा में लेकर पुलटीश बनाकर लेंप करना चाहिए यह उपयोगी होता है ।
३ - औषधि - यदि रोग की तीव्रता के कारण पशु को बुखार हो जाये और वह बुखार से परेशान होकर चक्कर काट रहा हो तो - गुड़ और चिरायता ५००-५०० ग्राम , लेकर लगभग १ लीटर पानी में औटायें । जब आधा पानी रह जाये तब छानकर रोगी पशु को गुनगुना ही पिला देना लाभप्रद होता हैं ।
# - मुलायम घास व अलसी या चावल का माण्ड में नमक मिलाकर पशु को पिलाना चाहिए ।
१० - दाँतों मे पायरिया
=================
कारण व लक्षण :- इस रोग को पिंग रोग के नाम से भी जानते हैं । तथा कहीं- कहीं इस रोग को "गहन " रोग से भी पुकारते हैं । यह दाँतों का भयंकर रोग है । इसमें दाँतों की जड़ों का माँस गल- गलकर क्षीण होने लगता हैं । दाँतों की जड़े खोखली हो जाती हैं और वे हिलने लगते हैं । पायरिया रोग में रोगी पशु को चारा दाना खाने का कष्ट रहता हैं ।
१ - औषधि - सरसों के तेल में रूई को भिगोकर दाँत की जड़ में रखे । साधारण गर्म लोहे को रूई के ऊपर रखें , ताकि तेल गर्म होकर दाँतों की जड़ों में चला जायें । इसके बाद बरगद का दूध रूई में भिगोकर दाँतों की जड़ों में रखने से दाँतों की जड़े मज़बूत हो जाती हैं ।
११ - दाँतों का अनियमित बढ़ना
==========================
कारण व लक्षण :- आमतौर पर यह रोग बूढ़े पशुओं को होता हैं । उनके दाँत ऊँचे - नीचें हो जाते हैं । तथा दाढें बढ़ जाती हैं , जिसके कारण उन्हें चारा - दाना खाने में कष्ट होता हैं । इस रोग से ग्रस्त पशु चारे को दाँतों से भलीप्रकार चबा नहीं पाता हैं और उसे चबाने में कष्ट होता हैं ।
१ - औषधि - इस रोग के इलाज हेतु पशु को किसी सुयोग्य डाक्टर के पास जाकर दाँतों को रितवा देना चाहिए अथवा अनियमित रूप से बढ़े दाँतों को निकलवा देना चाहिए ।
१२ - मुँह पका रोग
=================
१ - मूहँ पकारोग - जूवाॅसा - १५० ग्राम , अजमोदा - १५० ग्राम , चीता ( चित्रक सफ़ेद ) -१०० ग्राम , बड़ी इलायची - ५० ग्राम , इलायची को कूटकर बाक़ी सभी दवाओं को साढ़े तीन किलो पानी में उबालकर ,छानकर पानी की एक-एक नाल सुबह-सायं देने सेल लाभ होता है ।
१३ - जीभ पर छालें पड़ जाना
=======================
कारण व लक्षण - कभी - कभी गरम चीज़ें खा लेने के कारण शरीर का ताप बढ़ जाता है , या बदहजमी के कारण यह रोग हो जाता है , यह रोग फेफड़ों में भी हो सकता है । पशु की जीभ में छालें पड़ जाते है । मुँह से दुर्गन्ध आती है । लार टपकती है ।खाना - पीना तथा जूगाली करना कम हो जाता है । पश सुस्त रहता है और दिनोंदिन कमज़ोर होता जाता है ।
१ - बछाँग की जड़ ( जलजमनी ) ६० ग्राम , गाय का घी २४० ग्राम , जड़ को महीन कूटकर उसे घी में गुनगुना गरम करके , बिना छाने , रोगी पशु को एक समय , चार - पाँच दिन तक , दी जाय । उससे अवश्य आराम होगा ।
२ - औषधि - मुर्ग़ी का अण्डा १ नग , गाय का दूध ९६० ग्राम , अण्डे को फोड़कर और गूद्दे को दूध में मिलाकर ख़ूब फेंट लिया जाय । फिर रोगी पशु को दोनो समय ,तीन दिन तक , पिलाया जाय ।
आलोक -:- रोगी पशु को पहले जूलाब दिया जाय । उसके बाद जलजमनी की पत्तियाँ खिलाने से वह अच्छा हो जाता है । यदि वह न खाये , तो उसे बारीक पीसकर पानी के साथ मिलाकर पिलाये ।
३ -औषधि - फिटकरी ६० ग्राम , पानी २४० ग्राम , फिटकरी को पानी में मिलाकर रोगी पशु का सिर धोना चाहिए तथा उसे पिलाना भी चाहिए ।
४ - औषधि - इलायची १२ ग्राम , शीतल चीनी २४ ग्राम , पानी २४० ग्राम , इलायची और शीतल चीनी को पीसकर , पानी में मिलाकर गुनगुना करके , रोगी पशु को आठ दिन तक , देना चाहिए ।
------------------- @ --------------------
१४ - पान कोशी
=======================
कारण व लक्षण - मुहँपका रोग में या माता की बिमारी में पशु के भूखे रहने से यह बिमारी हो जाती है । इस रोग में पशु अधिक गर्मी नहीं सहन कर सकता । रोगी पशु अधिक हाँफता हैं । उसे दम चलती है । वह हमेशा छाया में या पानी में रहने की कोशिश करता है । उसके रोयें बढ़ जाते है और काले पड़ जाते हैं । अगर रोगी मादा पशु हो तो गाभिन नहीं होता और हुआ भी तो दूध नहीं देता है ,उसका दूध प्रतिदिन सूखता जाता है।
१ - औषधि - बत्तख का अण्डा १ नग ,गाय का दूध ९६० ग्राम , प्रतिदिन अण्डे को फोड़कर और दूध के साथ ख़ूब फेंटकर रोगी पशु को ८ दिन तक पिलाया जाय। अगर इसके बीच रोगी पशु अच्छा हो जाय तो फिर एक समय यह दवा पिलानी चाहिए ।
२ - औषधि - मुर्ग़ी का अण्डा २ नग , गाय का दूध १ लीटर , अण्डों को तोड़कर , दूध में मिलाकर , रोगी पशु को दोनों समय ८ दिन तक देना चाहिए ।
टोटका -:-
३ - औषधि - गाय के दूध की छाछ १४४० ग्राम , कालीमिर्च ३० ग्राम , कालीमिर्च को महीन पीसकर उसे छाछ में मिला लिया जाय । फिर लोहे के टुकड़े को या पत्थर को लाल गरम करके उसे छाछ में एक दम डालकर तुरन्त ढँक दिया जाय । १५ मिनट बाद उस लोहे के टुकड़े को निकालकर , गुनगुनी छाछ रोगी पशु को दोनों समय , एक माह तक ,इसी मात्रा में पिलायी जाय ।
४ - औषधि - नीम की पत्ती १०० ग्राम , २५० ग्राम पानी में पीसकर पिलानी चाहिए । बाद मे २५० ग्राम , गाय का घी भी दोनों समय देना चाहिए ।
---------------------- @ ---------------------
१५ - फाँसी या छड़ रोग, जीभ के नीचे नसों में काला ख़ून इक्कठा होना ।
========================================================
कारण व लक्षण - यह रोग गाय व भैंस और मादा पशुओं की जीभ के नीचे यह प्राय: होता है । यह रोग अन्य पशुओं को नहीं होते देखा गया है । यह रोग गर्मियों में अधिक होता है । पशुओं को सूखी घास खाने तथा ठीक समय पर पानी न मिलने के कारण यह रोग होता है । जीभ के नीचे के भाग की नसों में काला ख़ून भर जाता है । पशु का शरीर अकड़ जाता है। उसकी कमर को ऊपर से दबाने से वह एकदम नीचे झुक जाता है । यह रोग अधिकतर दूधारू भैंसों को होता है । दूधारू पशु दूध देने तथा खाने में कमी करते हैं।
१ - औषधि - पहले रोगी पशु को धीरे से ज़मीन पर लिटा देना चाहिए । फिर उसकी जीभ बाहर निकालकर उसकी बड़ी - बड़ी दो नसों को ( जिनमें काला ख़ून भरा हो ) , जोकि कई छोटी -छोटी नसों को मिलाती है । उसे सुई से तोड़कर काला ख़ून बाहर निकाल देना चाहिए ।और बाद में २४ ग्राम हल्दी, गाय का घी २४ ग्राम , दोनों को मिलाकर जीभ पर नसों के पास लगा दें । इससे ज़ख़्म नर्म और ठीक हो जायगा ।
# - रोगी पशु की पूँछ के नीचे के भाग में थोड़ा - सा चीरा ( नश्तर) लगाकर ख़ून निकाल दिया जाना चाहिए । उसे ऊपर से नीचें की ओर लौटाना चाहिए , जिससे काला रक्त निकल जायेगा । अच्छी तरह दबाकर काला ख़ून निकाल देना चाहिए । काला ख़ून निकल जाने के बाद ज़ख़्म में अफ़ीम चार रत्ती पानी में मिलाकर नरम करकें , भर देनी चाहिए । इससे रोगी को यह रोग दूसरी बार नहीं होगा ।
---------------------- @ -------------------------
१६ - मुँह मे आँवल या मुँह में काँटों का बढ़ना
======================================
कारण व लक्षण - यह रोग गौ वर्ग को होता है कभी - कभी गाय को नमक क्षारयुक्त पदार्थ न मिलने पर भी यह रोग हो जाता है । जिस गाय बैल को सदैव कब्जियत रहती है । उसे यह रोग अधिक होता है । इस रोग में रोगी के मुँह के आँवल बढ़ जाते है । ये आँवल गाय व बैल के जबड़े के अन्दर अग़ल - बग़ल दोनों ओर रहते है । ये काँटे लम्बाई, चौड़ाई और ऊँचाई में बढ़ जाते है । जिससे पशु घास ठीक प्रकार नहीं खा सकता है । वह दिनोंदिन कमज़ोर होने लगता है । दाना भी कम खाता है ।दूधारू गाय दूध देना कम कर देती है ।
१ - औषधि - रोगी पशु को सबसे पहले जूलाब देकर उसका पेट साफ़ कर देना चाहिए ।
२ - औषधि - रोगी पशु को प्रतिदिन २४ ग्राम , पिसानमक उन काँटों पर हाथ से मलना चाहिए ।
३ - औषधि - नारियल के रेशे , कत्थे की रस्सी को या भाभड़ के बाण को इन काँटों पर रगड़ें तथा ख़ूब मलना चाहिए ।
४ - औषधि - रोगी पशु के ज़मीन पर लेटाकर फिर उसके बढ़े हुए काँटे तेज़ कैची द्वारा काट दिये जायँ फिर बाद में हल्दी २४ ग्राम , गाय का घी या मक्खन २४ ग्राम , दोनों को मिलाकर काटो के स्थान पर हाथ से मला जायें । यह क्रिया केवल एक ही दिन करनी होती है । इससे पशु को आराम होगा । तथा ध्यान रहे की रोगी पशु को मुलायम घास , हल्की पतली ,पोषक घास देनी चाहिए । और पशु को हर चौथे नमक देना पड़ता है ।
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें