सोमवार, 5 नवंबर 2018

पृथ्वी_को_धारण_करनेवालें_सात_तत्त्व में गौ का स्थान

*#पृथ्वी_को_धारण_करनेवालें_सात_तत्त्व में गौ का स्थान  -*
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*"(गोभिर्विप्रैश्च वेदैश्च सतीभि: सत्यवादिभिः ! अलुब्धैर्दानशीलैश्च सप्तभिर्धायते मही !! स्कन्द पु० काशी खण्ड !!२/९०!!)"*

गौ, ब्राह्मण, वेद, सत्यवादी, निर्लोभी और दानशील --- इन सातने पृथ्वी को धारण कर रखी हैं।
गौ -- गौ का सम्बन्ध गौवंश गाय और बैल,नंदी आदि से हो ही जाता हैं - > गाय का आध्यात्मिक रूप तो पृथ्वी हैं ही, प्रत्यक्ष रूप में भी उसने पृथ्वी को धारण कर रखा हैं। समस्त मानव-जाति को किसी न किसी प्रकार से गौ के द्वारा जीवन तथा पोषण प्राप्त होता हैं ! गाय की दिव्यता से कौन परिचित नहीं ?  दैव-पित्र्य आदि समस्तकार्य गौ के दूध, घृत,दहीं, गोबर, मूत्र आदि से ही सम्पन्न होतें हैं - दुर्भाग्य हैं कि आज कर्मकांडो में गायके यह पदार्थ सुलभ नहीं हो पाने के कारण लोग --  संकरगाये, भैस,बकरी आदि के दूध,घीसीपीटी आदि पदार्थ का उपयोग कर लेतें हैं ! नकली घी भी उपलब्ध हो रहा हैं ! गाय के बछड़े बैल बनकर सब प्रकार के अन्न, कपास, सन, तिलहन आदि उत्पन्न करतें हैं ! दुःख की बात है, कि आज सरकार ने कृषकों को आधुनिक ट्रेक्टकर,मशीन आदि की मान्यता और  सुलभ करवाकर  गौवंश की महत्ता ही घटा दी हैं ! और जब जरुर ही न रही गौवंशों की तो पालक भी हत्या करवाने कत्लखानों में बैच ने लगे ! और गाय के वंश की तस्करी भी होने लगी !

गायें अत्यन्त पवित्र और मंगलकारी हैं ! गायों में सभी लोक प्रतिष्ठित हैं ! गायों से ही देवयज्ञ,पितृश्राद्ध-यज्ञ आदि सम्पन्न होता हैं ! गायें सभी प्रकार के पापों को दूर करनेवाली हैं ! गोमूत्र, गोबर, गोघृत, गोदुग्ध, गोदधि तथा गोरोचना -- ये ६ पदार्थ गोषडङ्ग कहलातें हैं! ये गौ के छह अंग परम कल्याणकारी हैं ! गायों के सींग का जल पुण्यप्रद और सभी प्रकार के पापों को नष्ट करनेवाला हैं ! गायों को खुजलाना सभी प्रकार के दोषों पापों कलंको को मिटा देनेवाला हैं ! गायों को भोजन दैने से स्वर्गलोक में प्रतिष्ठा होती हैं ! गौमूत्र में गङ्गाजी का वास हैं, इसी प्रकार गोधूलि में भी अभ्युदय का निवास हैं ! गोमय(गोबर)में साक्षात् लक्ष्मीजी का वास हैं और उनको प्रणाम करने में सर्वोपरि धर्म का परिपालन हो जाता हैं, अतः इन्हें निरन्तर प्रणाम करतें रहना चाहिये...----> *"( गावः पवित्रं मङ्गल्यं गोषु लोकाः प्रतिष्ठिताः ! गावो वितन्वते यज्ञं गावः सर्वाघसूदनाः!! गोमूत्रं गोमयं सर्पिः क्षीरं दधि च रोचना ! षडङ्गमेतत् परमं मङ्गल्यं सर्वदा गवाम् !! शृङ्गोदकं गवां पुण्यं सर्वाघविनिसूदनम् ! गवां कण्डूयनं चैव सर्वकल्मष नाशनम् !! गवां ग्रास प्रदानेन स्वर्गलोके महीयते ! गवां ही तीर्थे वसतीह गङ्गा - पुष्टिस्तथा का रजसि प्रवृद्धा ! लक्ष्मीः करीषे प्रणतौ च धर्मस्तासां प्रणामं सततं च कुर्यात् !! वैष्णव धर्म अध्याय २३!!)"*
आप विष्णुभगवान् के अतिरिक्त और कहाँ निवास करती हैं *"" पृच्छाम्यहं ते वसतिं विभूत्याः ?""* यह प्रश्न वसुधादेवी के पूछने पर लक्ष्मीजी स्वयं जो स्थान बता रहे रहे हैं उसमें गाय के नवीन  गोबर में *"(सद्यः कृते चाप्यथ गोमये)"* दर्प युक्त युवा वृषभ में *"( वृषे तथा दर्पसमन्विते च)"* गोदूध, गोघृत, गोदधि  *"( क्षीरे तथा सर्पिषि """" तथा दध्नि """)"* में भी लक्ष्मीजी स्वयं निवास करती हैं !

आपस्तंबस्मृति में बताया हैं कि गोहत्या महान् पाप हैं ! महर्षि आपस्तंब जी ने गोचिकित्सा को महान् पुण्य बताते हुए यह स्पष्ट निर्देश दिया हैं कि उपकार की दृष्टि से गो-चिकित्सा करते समय कुछ हानि भी हो जाय तो उसमें चिकित्सा करनेवाला की भली नीयत होने से उसे कोई पाप नहीं लगता ! कुछ लोगों की यह धारणा हैं कि गोमाता के शरीर में अस्त्र का प्रयोग करने सबसे बड़ा पाप हैं और फिर कहीं चिकित्सा करते समय का औषधि देते हुए कहीं दुर्भाग्यवश यथायोग्य ओषधि न दी जा सकें और कुचिकित्सा के कारण गायके प्राण चले जायँ तो चिकित्सक को महान् पाप लगेगा,अतः वे गो-चिकित्सा करने में भय मानतें हैं ! उन्हीं लोगों को सावधान करते हुए महर्षि आपस्तंबजी कह रहे हैं कि -- यत्नपूर्वक गोचिकित्सा करने अथवा गर्भ से मरा हुआ बच्चा निकालने में यदि कोई विपत्ति भी आ जाय तो प्रायश्चित्त करने की आवश्यकता नहीं हैं ! इसी प्रकार प्राणियों के प्राणरक्षा की दृष्टि से उन्हें ओषधि,लवण, तैलादि पदार्थ, पुष्टिकारक अन्न भोजन इत्यादि दिया जाय और उससे उनपर कोई विपत्ति आ जाय तो भी पाप नहीं होता, वरं पुण्य ही होता हैं ---> *"( यन्त्रणे गोचिकित्सार्थे मृतगर्भविमोचने ! यत्ने कृते विपत्तिश्चेत् प्रायश्चित्त न विद्यते !! औषधं लवणं चैव स्नेहं पुष्ट्यर्थभोजनम् ! प्राणिनां प्राणवृत्त्यर्थं प्रायश्चित्तं न विद्यते !!आपस्तंब स्मृ १/३२-११!!)"*

किंतु ये पदार्थ अतिरिक्त मात्रा में नहीं देने चाहिये ! समयपर यथोचित मात्रा में ही विचार कर प्रदान करने चाहिये ! अतिरिक्त दिये जाने पर मृत्यु आदि हो जाय तो उसके लिये कृच्छ्रव्रत का प्रायश्चित्त करने चाहिये --- *"( अतिरिक्ते विपन्नानां कृच्छ्रमेव विधियते !!)"*
सोचिये की जो लोग प्लास्टिक की पन्नी आदि का अज्ञान से रास्ते में फैंकतें हैं उसको खा कर गायों की अज्ञानता में भी समय रहतें हुएँ प्लास्टीक खाने के कारण मृत्यु होती ही हैं ...

*वेद, पुराण, तथा स्मृतियों में धर्म के वृषरूप की बात सर्वत्र आयी हैं --->  *"( वृषो ही भगवान् धर्मः!! )"* मनुस्मृति ८/१६, वृद्धगौतम स्मृति २१/१३, भागवत १/१६-१८ आदि 
*"(चत्वारि श्रृङ्गा त्रयो अस्यपादा ००!! ऋग्वेद ४/५८/३----- यजुर्वेद १७/९१)"* आदि में धर्म का वृषरूप सुस्पष्ट हैं, पर इसकी विस्तृत कथा स्कन्दपुराण सेतु-माहात्म्य के धर्मतीर्थ -- धर्मपुष्करिणी-प्राकट्य-कथा वर्णन में आती हैं । तदनुसार दक्षिण समुद्र के तटपर साक्षात् धर्मदेवता ने भगवान् शंकर का जप-ध्यान करते हुए घोर तपस्या की थी । जब भगवान् शंकर ने प्रकट होकर वर माँगने को कहा, तब आपने उनके वाहन बनने में ही अपनी कृतार्थता व्यक्त की --- *"( तवोद्वहनमात्रेण कृतार्थोऽहं भवामि भोः स्कन्द पु० ब्राह्म० सेतु० धर्मपुष्कर ३/६४)"* तब से धर्मदेवता का वृष नन्दीश्वर बैल का स्वरूप हो गया और भगवान् शंकर उनपर आरूढ़ हो गये। तब से उस तीर्थ का नाम धर्मपुष्करिणी पड़ा --- *"( धर्मपुष्करिणीत्येषा लोके ख्याता भविष्यति।।)"* स्मृतियों, भागवत १२/३, पद्मपुराण, सृष्टिखंड आदि में इनके ४ पैर बतलाये गये हैं । उन में कही तो सत्य, यज्ञ, तप, दान है, कहीं सत्य,ज्ञान,यज्ञ,दान हैं, और कहीं सत्य, शौच,तप और दान हैं। गाय के गोबर,मूत्र आदि सेन्द्रिय खातर और इसी धर्ममय बैल और समुमूर्हूत में  पवित्र हल-औजार के द्वारा जब हमारे भारत में खैती होती थी तब उनके पैरों में रहें यह सत्य,यज्ञ,तप,दान,शौच आदि परमगुणों से हमारे खैंतों में वहीं गुणों से ही आप्लावित हो ही जातें थे- भगवती वसुधा(पृथ्वी अपने आपको सौभाग्यशालिनी समजती थी) इस प्रकार बैल द्वारा होने वाली खैती का अन्न खाकर ही हमारा मस्तिष्क और हमारें कार्यों पवित्र और  सुकृत रहतें थे और आज इस जड़ मशीनों से होने वाली खैती के कारण जड़ता व्याप्त हो रही हैं केवल भूदेवी की हिंसा ही हो रही हैं।। बुद्धि में पवित्रता न होने का और सभी मानवों में परस्पर हिंस्यस्वभाव बनना यही कारण हैं-- गाय की समान वृषभ भी पवित्र और पूजनीय हैं *"( वृषो हि भगवान्धर्मश्चतुष्पादः प्रकीर्तितः। नमामि त्वां महाभक्त्या स मां रक्षतु सर्वदा।।)"*

श्राद्धकृत्यों में वृषोत्सर्ग और नीलोद्वाह का एक महत्व था -- उसके मित्रों में कहा हैं कि हे वृषभदेवता आप भूतसमूदायके समस्त देवताओं, ऋषियों और पितृओं के पोषक हैं --- *"( नमो वृषभदेवेश भूतर्षिपितृपोषकः।।)"* किस तरह से उपर कहा न; कि बैलों द्वारा खैती कैसी धर्ममयी होती हैं उसका अन्न खाने वालों में कैसी बुद्धि रहेगी ?  तो वह अन्न लाकर पहले तो धर्म्यबुद्धि से कुछ अंश ब्राह्मण और गरीबों को  दान में देगा, बाद में कुछ अंश देवता के द्वार, कुछ अंश पंखीओं के चौतरे-चबुतरों में जमा करवाकर , बाकी का अन्न अपने घर में भरेगा, उसी अन्न को अपनी ही पत्नी द्वारा पकवाकर क्या करेगा धर्म्यबुद्धि से ? वैश्वदेवनामक पंचमहायज्ञ(ब्रह्मयज्ञ(ऋषितृप्तिकारक),देवयज्ञ,भूतयज्ञ,पितृयज्ञ और मनुष्ययज्ञ) करेगा, जिससे *"भूतर्षिपितृपोषक"* सिद्ध हो गया । आज लोग नहीं करतें और हिंसात्मक अन्न खाकर केवल पाप ही खा रहे हैं।
गाय को यजुर्वेद में अघ्न्या = अवध्या कहा हैं, और कहा हैं कि किये हुएँ सुकृतों को परलोक में आप कहना -- *"( अग्घ्न्ये नामानि देवेभ्यो मासुकृतम्ब्रूतात्।।)"*
यह वृषोत्सर्ग और नीलोद्वाह नामक विधा के द्वारा वृष और गाय का परस्पर विवाह सम्बन्ध करवाकर उसे बहुत से तृण और जल की प्राप्ति हो उसी प्रदेश में इनके शरीर पर उचित चिन्ह बनाकर समस्त मानवीय बंधनों से मुक्तरूप में छोड़दीया जाते थे और जाते जाते  घोषणा भी कर दिया करतें थे कि इस विधा से मुक्त किये इन बैल और गाय को कोई पुनः बन्धन में न लेवें। इस प्रकार मानवीय बन्धनों से मुक्त होने के कारण ही तो वे पितरों को मोक्ष के कारण बन अक्षय्य लोकों की प्राप्ति हो रही  थी  *"( त्वयि मुक्तेऽक्षया लोका मम सन्तु निरामयाः। ))""*

आगे कहा हैं कि जो आप गौवंश की हिंसा करें उन्हें पापीयों को कभी क्षय न होनें वालें जन्मों तक नरक की यातना प्राप्त कराना और जो आप गौवंश की रक्षा करें धर्मिष्ठों उन्हें सभी पापों से मुक्त कर स्वर्ग में स्थान देना --- "( *#ये_त्वां_हिंसन्ति_पाप्मानो_नरकं_यान्तु_तेऽक्षयम्।*
*#ये_त्वां_रक्षन्ति_धर्मिष्ठाः_स्वर्गे_ते_संवसन्ति_वै।।)"*

महर्षि आपस्तंबजी ने अपनी स्मृतिशास्त्र में -  कृषिकर्म में जुताई करते समय हल में कितने बैंलों को जोतना धर्म हैं और कितने का जोतना अधर्म हैं, इसे बताते हुए कहते हैं कि जिस हल के साथ आठ बैल जुते हो वह श्रेष्ठ धर्महल कहलाता हैं, छः बैलों का हल आजीविका करनेवालों के लिये श्रेष्ठ, चार बैलों का हल निर्दयी का होता हैं और जो केवल दो बैलों से ही जुताई इत्यादि का कठोर कार्य निर्दयता पूर्वक करता-कराता हैं, वह गोहत्यारे के समान हैं --> *"( हलमष्टगवं धर्म्यं षड्गवं जीवितार्थिनाम्। चतुर्गवं नृशंसानां द्विगवं हि जिघांसिनाम्।। आपस्तंब १/२३।।)"*
गायों को बन्धन में नहीं रखना चाहिये । नारियल बाल, मूँज, तथा चमड़े आदि कठोर रस्सियों से तो कभी भी नहीं बाँधना चाहिये। इससे वे पराधीन एवं बन्धनयुक्त होकर कष्ट में रहती हैं। यदि आवश्यकता पड़े तो कुश, काश कार्पास आदि की मुलायम रस्सियों से उन्हें बाँधा जा सकता हैं --- *"( न नारिकेलबालाभ्यां  न मुञ्जेन न चर्मणा। एभिर्गास्तु न बध्नीयाद् बद्ध्वा परवशा भवेत्।। कुशैः काशैश्च बध्नीयाद्।। आपस्तंब १/२५/२६)"*

धर्मशास्त्र का कहना हैं कि जो व्यक्ति ब्राह्मण या #गौ की रक्षा करता हैं या इनके लिये अपने प्राणों का उत्सर्ग कर देता हैं (प्राणों को छोड़ देता हैं), वह ब्रह्महत्या आदि सभी पापों से छूटकर स्वर्गादि उत्तमलोकों को प्राप्त करता हैं -- > *"(#ब्राह्मणार्थे #गवार्थे वा #यस्तु_प्राणान्_परित्यजेत्। #मुच्यते_ब्रह्महत्याद्यैर्गोप्ता_गोब्राह्मणस्य_च।। पाराशर स्मृ० ८/४२।।)"*

*शंखलिखित स्मृति में* - कहा हैं कि जो राजा गौएँ, भूमि, स्त्री तथा ब्राह्मण के स्वत्व की रक्षा नहीं करता, वह ब्रह्मघाती कहलाता हैं -- *"( गावो भूमिः कलत्रं च ब्रह्मस्वहरणं तथा। यस्तु न त्रायते राजा तमाहुर्ब्रह्मघातकम्।। शंखलि० २४।। )"*

वृषभ को पितृरूप तथा गौ को मातृरूप बताते हुए कहा गया हैं कि इनकी पूजा करने से (शिव-पार्वती जो जगत् के माता पिता हैं "जगतः पितरों वन्दे पार्वती परमेश्वर") (मृत)माता-पिता की भी पूजा हो जाती हैं --> *" (पितरो वृषभा ज्ञेया गावो लोकस्य मातरः। तासां तु पूजयामि राजन् पूजिताः पितृमातरः।। वृद्ध गौतमस्मृति १३/२२।।)"*
गाय को भोजन करवाने का मन्त्र - *"( गावो मे मातरः सर्वाः पितरश्चैव मे वृषाः। ग्रासमुष्टिं मया दत्तां प्रतिगृह्णन्तु मातरः।। वृद्ध गौतम स्मृ० १३/२५।।)"*

जो हल में या बैलगाड़ी में अथवा बैलों द्वारा होनेवालें किसी कार्य - जैसे रहटचालन इत्यादि में दुर्बल, कमजोर या रोगी बैल अथवा निर्दिष्ट संख्या से कम संख्या में बैलों को जोतता हैं, वह पाप का भागी होता हैं और उसे गोहत्या के समान पाप लगता हैं -- *"( हले वा शकटे चैव दुर्बलं यो नियोजयेत्। प्रत्यवाये समुत्पन्ने ततः प्राप्नोति गोवधम्।। दालभ्यस्मृति १०१।।)"*

गाय के ब्याने से दो मासतक चारों थनों का दूध बछड़े को ही पिलाना चाहिये। तदनन्तर जब बछड़ा दो माह का हो जाय तो अगले दो माहतक दो थनों का दूध दुहना चाहिये और दो थन बछड़े के लिये छोड़ना चाहिये। फिर अगले दो माहतक सुबह या शाम एक समय दुहना चाहिये और एक समय का पूरा दूध बछड़े के लिये छोड़ना चाहिये। इसके आगे अर्थात् बछड़ा जब ६माह का हो जाय तो स्वेच्छा से दूध दुहा जा सकता हैं, क्योंकि तबतक बछड़ा कुछ बड़ा होकर पुष्ट हो जाता हैं और वह घास आदि का भी सेवन करने लग जाता हैं -- *"( द्वौ मासौ पालयेद्वत्सं द्वौमासौ द्वौस्तनौ दुहेत्। द्वौमासौ चैकवेलायां शेषं कालं यथेच्छया।। दालभ्यस्मृति १११।।)"* नमश्चंडिकायै !!

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