महाभारत: अनुशासनपर्व: एकाशीतितमो अध्याय: श्लोक 21-47 का हिन्दी अनुवाद
वहां के जलाशय लाल कमल वनों से तथा प्रातःकालीन सूर्य के समान प्रकाशमान मणिजनित सुवर्णमय सोपानों से सुशोभित होते हैं। वहां की भूमि कितने ही सरावरों से शोभा पाती है। उन सरावरों में नीलोत्पल मिश्रित बहुत से कमल खिले रहते हैं। उन कमलों के दल बहुमूल्य मणि में होते हैं और उनके केसर अपनी सुवर्णमयी प्रभा से प्रकाशित होते हैं। उस लोक में बहुत-सी नदियां हैं, जिनके तटों पर खिले हुए कनेरों के वन तथा विकसित संतानक (कल्पवृक्ष विशेष) के वन एवं अनान्य वृक्ष उनकी शोभा वढाते हैं। वे वृक्ष और वन अपने मूल भाग में सहस्त्रों आवर्तों से घिरे हुए हैं। उन नदियों के तटों पर निर्मल मोती, अत्यन्त प्रकाशमान मणिरत्न तथा सुवर्ण प्रकट होते हैं । कितने ही उत्तम वृक्ष अपने मूलभाग के द्वारा उन नदियों के जल में प्रविष्ट दिखाई देते हैं। वे सर्वरत्नमय विचित्र देखे जाते हैं। कितने ही सुवर्णमय होते हैं और दूसरे बहुत से वृक्ष प्रज्वलित अग्नि के समान प्रकाशित होते हैं। वहां सोने पर्वत तथा मणि और रत्नों के शैल समूह हैं, जो अपने मनोहर, ऊंचे तथा सर्व रत्नमय शिखरों से सुशोभित होते हैं। भरतश्रेष्ठ। वहां के वृक्षों में सदा ही फूल और फल लगे रहते हैं। वे वृक्ष पक्षियों से भरे होते हैं तथा उनके फूलों और फलों में दिव्य सुगंध और दिव्य रस होते हैं। युधिष्ठिर। वहां पुण्यात्मा पुरुष ही सदा निवास करते हैं। गोलोकवासी शोक और क्रोध से रहित, पूर्ण काम एवं सफल मनोरथ होते हैं । भरतनन्दन ! वहां के यशस्वी एवं पुण्यकर्मा मनुष्य विचित्र एवं रमणीय विमानों में बैठकर यथेष्ठ विहार करते हुए आनन्द का अनुभव करते हैं। राजन ! उनके साथ सुन्दर अप्सराऐं क्रीड़ा करती हैं। युधिष्ठिर ! गोदान करके मनुष्य इन्हीं लोकों में जाते हैं। नरेन्द्र! शक्तिशाली सूर्य और वलवान वायु जिन लोकों के अधिपति हैं, एवं राजा वरुण जिन लोकों के एश्वर्य पर प्रतिष्ठित हैं, मनुष्य गोदान करके उन्हीं लोकों में जाता है। गौऐं युगन्धरा एवं स्वरूपा, बहुरूपा, विश्वरूपा तथा सबकी माताऐं हैं। शुकदेव। मनुष्य संयम-नियम के साथ रहकर गौओं के इन प्रजापति कथित नामों का प्रतिदिन जप करे। जो पुरुष गौओं की सेवा और सब प्रकार से उनका अनुगमन करता है, उस पर संतुष्ट होकर गौऐं उसे अत्यन्त दुर्लभ वर प्रदान करती हैं। गौओं के साथ मन से कभी द्रोह न करें, उन्हें सदा सुख पहुंचाऐं उनका यथोचित सत्कार करें और नमस्कार आदि के द्वारा उनका पूजन करते रहें। जो मनुष्य जितेन्द्रिय और प्रसन्नचित्त्त होकर नित्य गौओं की सेवा करता है, वह समृद्वि का भागी होता है। मनुष्य तीन दिनों तक गरम गोमूत्र पीकर रहे, फिर तीन दिनों तक गरम गोदुग्ध पीकर रहे । गरम गोदुग्ध पीने के पश्चात तीन दिनों तक गरम-गरम गोघृत पीयें। तीन दिन तक गरम घी पीकर फिर तीन दिनों तक वह वायु पीकर रहे। देवगण भी जिस पवित्र घृत के प्रभाव से उत्तम-उत्तम लोक का पालन करते हैं तथा जो पवित्र वस्तुओं में सबसे बढ़कर पवित्र है, उससे घृत को शिरोधार्य करें। गाय के घी के द्वारा अग्नि में आहुति दें। घृत की दक्षिणा देकर ब्राह्माणों द्वारा स्वस्तिवाचन करायें। घृत भोजन करें तथा गौघृत का ही दान करें। ऐसा करने से मनुष्य गौओं की समृद्वि एवं अपनी पुष्टि का अनुभव करता है। गौओं के गोबर से निकाले हुए जौ की लप्सी का एक मास तक भक्षण करें। इससे मनुष्य ब्रह्म हत्या जैसे पाप से भी छुटकारा पा जाता है। जब दैत्यों ने देवताओं को पराजित कर दिया, तब देवताओं ने इसी प्रायश्चित का अनुष्ठान किया। इससे उन्हें पुनः (नष्ट हुए) देवत्व की प्राप्ति हुई तथा वे महाबलवान और परम सिद्ध हो गये। गौऐं परम पावन, पवित्र और पुण्य स्वरूपा हैं। वे महान देवता हैं। उन्हें ब्राह्माणों को देकर मनुष्य स्वर्ग का सुख भोगता है। पवित्र जल से आचरण करके पवित्र होकर गौओं के बीच में गोमती मंत्र (गोमां अग्नेविमां अश्वि इत्यादि) का मन-ही-मन जप करें। ऐसा करने से वह अत्यन्त शुद्व एवं निर्मल (पापमुक्त) हो जाता है। विद्या और वेदव्रत में निष्णात पुण्यात्मा ब्राह्माणों को चाहिये के वे अग्नियों और गौओं के बीच में तथा ब्राह्माणों की सभा में शिष्यों को यज्ञ तुल्य गोमती विद्या की शिक्षा दें। जो तीन रात तक उपवास करके गोमती मंत्र का जप करता है, उसे गौओं का वरदान प्राप्त होता है। पुत्र की इच्छा वाला पुत्र और धन चाहने वाला धन पाता है। पति की इच्छा रखने वाली स्त्री को मन के अनुकूल पति मिलता है। सारांश यह है कि गौओं की आराधना करके मनुष्य सम्पूर्ण कामनाओं को प्राप्त कर लेता है। गौऐं मनुष्यों द्वारा सेवित और संतुष्ट होकर उन्हें सबकुछ देती हैं, इसमें संशय नहीं है। इस प्रकार ये महाभाग्यशालिनी गौऐं यज्ञ का प्रधान अंग हैं और सबको सम्पूर्ण कामनाऐं देने वाली हैं। तुम इन्हें रोहिणी समझो। इनसे बढ़कर दूसरा कुछ नहीं है। युधिष्ठिर। अपने महात्मा पिता व्यासजी के ऐसा कहने पर महातेजस्वी शुकदेवजी प्रतिदिन गौ की सेवा-पूजा करने लगे; इसलिये तुम भी गौओं की सेवा-पूजा करो।
इस प्रकार श्रीमहाभारत अनुशासनपर्व के अन्तगर्त दानधर्मपर्वमें गौओं की उत्पत्ति का गोदान विषयक इक्यासीवाँ अध्याय पूरा हुआ।
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