महाभारत: अनुशासनपर्व: त्र्यशीतितमो अध्याय: श्लोक 1-24 का हिन्दी अनुवाद
ब्रह्माजी का इन्द्र से गोलोक और गौओं का उत्कर्ष बताना और गौओं को वरदान देना
भीष्मजी कहते हैं- युधिष्ठिर ! जो मनुष्य सदा यज्ञशिष्ट अन्न का भोजन और गोदान करते हैं उन्हें प्रतिदिन यज्ञदान और यज्ञ करने का फल मिलता है। दही और गोघृत के बिना यज्ञ नहीं होता। उन्हीं से यज्ञ का यज्ञत्व सफल होता है। अत: गौओं को यज्ञ का मूल कहते हैं। सब प्रकार के दानों में गोदान ही उत्तम माना जाता है; इसलिये गौऐं श्रेष्ठ, पवित्र तथा परम पावन हैं। मनुष्य को अपने शरीर की पुष्टि तथा सब प्रकार के विघ्नों की शांति के लिये भी गौओं का सेवन करना चाहिये। इनके दूध, दही और घी सब पापों से छुड़ाने वाले हैं। भरतश्रेष्ठ ! गौऐं इहलोक और परलोक में भी महान तेजोरूप मानी गयी हैं। गौओं से बढकर पवित्र कोई वस्तु नहीं है। युधिष्ठिर ! इस विषय में विद्वान पुरुष इन्द्र और ब्रह्माजी के इस प्राचीन इतिहास का उदाहरण दिया करते हैं। पूर्वकाल में देवताओं द्वारा दैत्यों के परास्त हो जाने पर जब इन्द्र तीनों लोकों के अधीश्वर हुए तब समस्त प्रजा मिलकर बड़ी प्रसन्नता के साथ सत्य और धर्म में तत्पर रहने लगी। कुन्तीनन्दन ! तदनन्तर एक दिन जब ऋषि, गन्धर्व, किन्नर, नाग, राक्षस, देवता, असुर, गरूड़ और प्रजापति गण ब्रह्माजी की सेवा में उपस्थित थे, नारद, पर्वत, विश्वावसु, हाहा और हूहू नामक गन्धर्व जब दिव्य तान छेड़कर गाते हुए वहां उन भगवान ब्रह्माजी की उपासना करते थे, वायुदेव दिव्य पुष्पों को सुगंध लेकर बह रहे थे, पृथक- पृथक ऋतुऐं भी उत्तम सौरभ से युक्त दिव्य पुष्प भेंट कर रही थीं, देवताओं का समाज जुटा था, समस्त प्राणियों का समागम हो रहा था, दिव्य - वाद्यों की मनोरम ध्वनि गूंज रही थी तथा दिव्यांगनाओं और चारणों से वह समुदाय घिरा हुआ था, उसी समय देवराज इन्द्र ने देवेश्वरब्रह्माजी को प्रणाम करे पूछा-‘भगवन ! पितामह ! गोलोक समस्त देवताओं और लोकपालों के ऊपर क्यों है? मैं इसे जानाना चाहता हूं। प्रभो ! गौओं ने यहां किस तपस्या का अनुष्ठान अथवा ब्रह्मचर्य का पालन किया है, जिससे वे रजोगुण से रहित होकर देवताओं से भी ऊपर स्थान में सुखपूर्वक निवास करती हैं? तब ब्रह्माजी ने बलसूदन इन्द्र से कहा- ‘बलासुर का विनाश करने वले देवेन्द्र ! तुमने सदा गौओं की अवहेलना की है।' प्रभो ! इसलिये तुम इनका माहत्म्य नहीं जानते। सुरश्रेष्ठ ! गौओं का महान प्रभाव और महात्म्य मैं बताता हूं, सुनो। ‘वासव !' गौओं का यज्ञ का अंग और साक्षात यज्ञरूप बतलाया गया है; क्योंकि इनके दूध, दही और घी के बिना यज्ञ किसी तरह सम्पन्न नहीं हो सकता। ‘ये अपने दूध-घी से प्रजा का भी पालन पोषण करती हैं।' इनके पुत्र (बैल) खेती के काम आते तथा नाना प्रकार के धान्य एवं बीज उत्पन्न करते हैं। ‘उन्हीं से यज्ञ सम्पन्न होते और हव्य-कव्य का भी सर्वथा निर्वाह होता है। सुरेश्वर। इन्हीं गौओं से दूध, दही और घी प्राप्त होते हैं। ये गौऐं बड़ी पवित्र होती हैं। बैल भूख-प्यास से पीड़ित होकर भी नाना प्रकार के बोझ ढोते रहते हैं। इस प्रकार गौऐं अपने कर्म से ऋषियों तथ प्रजाओं का पालन करती हैं। वासव ! इनके व्यवहार में माया नहीं होती। ये सदा सत्कर्म में ही लगी रहती हैं । ‘ इसी से ये गौऐं हम सब लोगों के ऊपर स्थान में निवास करती हैं।' शक्र तुम्हारे प्रश्न के अनुसार मैंने यह बात बताई कि गौऐं देवताओं के ऊपर स्थान में क्यों निवास करती हैं। शतक्रतु इन्द्र! इसके सिवा ये गौऐं वरदान भी प्राप्त कर चुकी हैं और प्रसन्न होने पर दूसरों को वर देने की शक्ति रखती हैं।‘ सुरभि गौऐं पुण्य कर्म करने वाली और शुभलक्षिणा होती हैं। सुरश्रेष्ठ ! बलसूदन ! वे जिस उद्वेश्य से पृथ्वी पर गयी हैं, उसको भी मैं पूर्णरूप से बता रहा हूं, सुनो।
ब्रह्माजी का इन्द्र से गोलोक और गौओं का उत्कर्ष बताना और गौओं को वरदान देना
भीष्मजी कहते हैं- युधिष्ठिर ! जो मनुष्य सदा यज्ञशिष्ट अन्न का भोजन और गोदान करते हैं उन्हें प्रतिदिन यज्ञदान और यज्ञ करने का फल मिलता है। दही और गोघृत के बिना यज्ञ नहीं होता। उन्हीं से यज्ञ का यज्ञत्व सफल होता है। अत: गौओं को यज्ञ का मूल कहते हैं। सब प्रकार के दानों में गोदान ही उत्तम माना जाता है; इसलिये गौऐं श्रेष्ठ, पवित्र तथा परम पावन हैं। मनुष्य को अपने शरीर की पुष्टि तथा सब प्रकार के विघ्नों की शांति के लिये भी गौओं का सेवन करना चाहिये। इनके दूध, दही और घी सब पापों से छुड़ाने वाले हैं। भरतश्रेष्ठ ! गौऐं इहलोक और परलोक में भी महान तेजोरूप मानी गयी हैं। गौओं से बढकर पवित्र कोई वस्तु नहीं है। युधिष्ठिर ! इस विषय में विद्वान पुरुष इन्द्र और ब्रह्माजी के इस प्राचीन इतिहास का उदाहरण दिया करते हैं। पूर्वकाल में देवताओं द्वारा दैत्यों के परास्त हो जाने पर जब इन्द्र तीनों लोकों के अधीश्वर हुए तब समस्त प्रजा मिलकर बड़ी प्रसन्नता के साथ सत्य और धर्म में तत्पर रहने लगी। कुन्तीनन्दन ! तदनन्तर एक दिन जब ऋषि, गन्धर्व, किन्नर, नाग, राक्षस, देवता, असुर, गरूड़ और प्रजापति गण ब्रह्माजी की सेवा में उपस्थित थे, नारद, पर्वत, विश्वावसु, हाहा और हूहू नामक गन्धर्व जब दिव्य तान छेड़कर गाते हुए वहां उन भगवान ब्रह्माजी की उपासना करते थे, वायुदेव दिव्य पुष्पों को सुगंध लेकर बह रहे थे, पृथक- पृथक ऋतुऐं भी उत्तम सौरभ से युक्त दिव्य पुष्प भेंट कर रही थीं, देवताओं का समाज जुटा था, समस्त प्राणियों का समागम हो रहा था, दिव्य - वाद्यों की मनोरम ध्वनि गूंज रही थी तथा दिव्यांगनाओं और चारणों से वह समुदाय घिरा हुआ था, उसी समय देवराज इन्द्र ने देवेश्वरब्रह्माजी को प्रणाम करे पूछा-‘भगवन ! पितामह ! गोलोक समस्त देवताओं और लोकपालों के ऊपर क्यों है? मैं इसे जानाना चाहता हूं। प्रभो ! गौओं ने यहां किस तपस्या का अनुष्ठान अथवा ब्रह्मचर्य का पालन किया है, जिससे वे रजोगुण से रहित होकर देवताओं से भी ऊपर स्थान में सुखपूर्वक निवास करती हैं? तब ब्रह्माजी ने बलसूदन इन्द्र से कहा- ‘बलासुर का विनाश करने वले देवेन्द्र ! तुमने सदा गौओं की अवहेलना की है।' प्रभो ! इसलिये तुम इनका माहत्म्य नहीं जानते। सुरश्रेष्ठ ! गौओं का महान प्रभाव और महात्म्य मैं बताता हूं, सुनो। ‘वासव !' गौओं का यज्ञ का अंग और साक्षात यज्ञरूप बतलाया गया है; क्योंकि इनके दूध, दही और घी के बिना यज्ञ किसी तरह सम्पन्न नहीं हो सकता। ‘ये अपने दूध-घी से प्रजा का भी पालन पोषण करती हैं।' इनके पुत्र (बैल) खेती के काम आते तथा नाना प्रकार के धान्य एवं बीज उत्पन्न करते हैं। ‘उन्हीं से यज्ञ सम्पन्न होते और हव्य-कव्य का भी सर्वथा निर्वाह होता है। सुरेश्वर। इन्हीं गौओं से दूध, दही और घी प्राप्त होते हैं। ये गौऐं बड़ी पवित्र होती हैं। बैल भूख-प्यास से पीड़ित होकर भी नाना प्रकार के बोझ ढोते रहते हैं। इस प्रकार गौऐं अपने कर्म से ऋषियों तथ प्रजाओं का पालन करती हैं। वासव ! इनके व्यवहार में माया नहीं होती। ये सदा सत्कर्म में ही लगी रहती हैं । ‘ इसी से ये गौऐं हम सब लोगों के ऊपर स्थान में निवास करती हैं।' शक्र तुम्हारे प्रश्न के अनुसार मैंने यह बात बताई कि गौऐं देवताओं के ऊपर स्थान में क्यों निवास करती हैं। शतक्रतु इन्द्र! इसके सिवा ये गौऐं वरदान भी प्राप्त कर चुकी हैं और प्रसन्न होने पर दूसरों को वर देने की शक्ति रखती हैं।‘ सुरभि गौऐं पुण्य कर्म करने वाली और शुभलक्षिणा होती हैं। सुरश्रेष्ठ ! बलसूदन ! वे जिस उद्वेश्य से पृथ्वी पर गयी हैं, उसको भी मैं पूर्णरूप से बता रहा हूं, सुनो।
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