!! गौ कथा राजा दिलीप की कथा !!
राजा
दिलीप का कोई पुत्र नहीं था इसीलिए वो अपने गुरु वसिष्ठ के पास गये। गुरु ने कहा
की तुमसे एक अपराध हुआ हैं इसीलिए तुम्हे पुत्र नहीं हो पा रहा । तुम्हारा अपराध
हैं की तुम एक बार देवता की युद्ध मैं मदद करके वापस लोट रहे थे, रास्ते में देवताओ को भी भोग और मोक्ष
देने वाली कामधेनु एक विशाल वट वृक्ष के निचे आराम कर रही थी। और अन्य कई गौ
मातायें चारा चर रही थी। बस शिघ्रता वस तुमने अपना विमान रोक कर निचे उतर कर
कामधेनु माता एवं गौमाताओं को प्रणाम नहीं
किया अंजान मार दिया। जबकि रास्ते में कही भी गौवंश दिखे उनको राह देते हुए दायें
होकर प्रणाम करना चाहिए ये बात तुम्हें भी गुरुजनों ने पूर्व में बताई थी। यहाँ गौ
अपराध और गुरु आज्ञा का उलंघन हुआ इसीलिए तुम्हारे यहाँ पुत्र की प्राप्ति नहीं हो
सकती। (जरा सोचो हम तो कभी प्रणाम नहीं करते क्या हमारे पुत्र होंगे ? आजकल पुत्र कहाँ पैदा हो रहे हैं आज तो
लड़के पैदा हो रहे हैं। जो हमेशा माँ बाप से लड़ाई करे वो लड़का। ) महाराजा दिलीप
गुरु जी के पास जाकर रोने लगे गुरूजी कोई तो उपाय होगा। गुरु वसिष्ठ ने कहा जा ये
नंदिनी गौमाता को ले जा और इस नंदनी गौ माता की संतुष्ट होते ही पुत्र रत्न की
प्राप्ति हो सकती है। नंदनी गौ माता ही कामधेनु गाय की पुत्री थी। अब तुम्हे पुत्र
केवल गौमाता दे सकती हैं। राजा दिलीप ने नंदनी गौ माता की बहुत सेवा की। जब गौ
माता चले तो वो भी चलते थे । जब गौ माता खाए तभी वो खाता थे । एक दिन गौ माता ने
दिलीप राजा की परीक्षा करनी चाही। जैसे ही प्रकृति का सौन्दर्य निहारते राजा दिलीप
की दृष्टि फिरि नंदिनी गौ माता गुफा मैं
चली गई।उस गुफा मैं एक शेर था। शेर ने गौ माता को पकड़ लिया। और गौ माता करुण पुकार
कर डकारने लगी और राजा दिलीप से मदद की गुहार लगाने लगी। याद रहे राजा दिलीप गुरु
कृपा से चर - अचर सभी प्राणियों की भाषा समझ लेते थे दिलीप राजा ने शेर के ऊपर
जैसे ही धनुष - बाण संधान किया उनका हाथ जहां का वहा जाम हो गया वे निसक्त से हो
गए क्योकि यह सब खेल नंदनी गाय का था गाय का एक रूप भगवती दुर्गा भी है वही देव -
दानव - यक्ष किन्नर और मानवों को शक्ति प्रदान करती है। यहाँ तक की भगवान शिव की
परा शक्ति भी यह गौमाता ही है। जब हाथ जकड गया राजा दिलीप मुहँ से ही चिल्लये मेरे
गुरु जी की गौमाता को छोड़ दो और बदले में मुझे खा जाओ मुझे कोई दुःख नहीं होगा मगर
हे शिंघ राज आपने इस नंदनी गाय को आघात पहुचाया तो मैं जीतेजी भी मरा ही समझो ।
शेर ने कहाँ की अरे तू तो एक राजा हैं मुझे गाय को खाने दे और वसिष्ठ जी को इस गाय
के बदले दूसरी हजार गाय दे देना क्यों ऐसी बेवकूफी कर रहा हैं। दिलीप ने कहा नहीं
ये गौ माता को छोड़ दे और मुझे खा ले बस मैं और कुछ नहीं जानता। बस गौ माता हमसे
इतना प्यार चाहती हैं और गौ माता ने राजा से कहाँ की बस मैं तुमसे प्रसन्न हूँ , मैं तो तुम्हारी परीक्षा ले रही थी।
ऐसा कह कर गौमाता ने अपना समस्त वैभव राजा को दिखा दिया और राजा ने कहा की मुझे
पुत्र चाहिए। और गौमाता की कृपा से दिलीप राजा ने रघु जैसा पुत्र प्राप्त किया
जिनके नाम पर ही आगे रघुवंश चला । इसी रघुवंश में आगे जाकर स्वयं भगवान् राम के
रूप में नारायण प्रगट हुए।
भजन
- भये प्रगट कृपाला दीन दयाला कौसल्या हितकारी
बोलो
गौ माता की जय।
श्रीरामप्रभूच्या रघुवंशाची ही कथा विख्यात आहे. रघुवंशातील तो थोर राजा दिलीप ! चक्रवर्ती सम्राट दिलीप गोव्रत आचरतो. त्याच्या पूजनीय अशा नंदीनी गाईला कोवळे गवत खायला देतो. तिची पाठ व मान खाजवितो. तिच्या अंगावर बसलेले डास उडवून लावतो. कुलगुरु वसिष्ठांच्या न थांबणार्या त्या नंदिनी गायीच्या पाठोपाठ छायेसारखा असतो. गाय बसली की, तो बसतो. गाय चालायला लागली की, तो चालू लागतो. एक दिवस त्या अरण्यात एक महाकाय, महाक्रूर सिंह राजासमोर उभा रहातो. त्या नंदिनी गायीला खायला तो सिद्ध असतो. राजा धनुष्य सज्ज करतो. सिंह म्हणतो, `तुझा देह दिलास, तरच मी गायीला सोडीन! ही एकच शर्थ आहे.’ राजा दिलीप सम्राट आहे तरुण, सुंदर, शक्तीमान व कांतीमान आहे. प्रजेचा पालनकर्ता, रक्षणकर्ता आहे. प्रजेचा आधार आहे. गोरक्षणाकरिता स्वदेह तृणवत् मानून सिंहाला द्यायला तयार होऊन उद्गारतो, `गोरक्षा हेच माझ जीवितकार्य! गाय सोडून का परत जाऊ ? अपकीर्तीने लडबडलेला देह राजधानीला परत नेण्यापेक्षा मृत्यू फार फार चांगला. मी क्षत्रिय आहे. क्षतांचे तारण करणारा तोच क्षत्रिय !’ राजा सिंहाला पुढे सांगतो, `सिंहराज, तुला माझी कणव येते. ‘क्षुद्र गायीच्या मोबदल्यात सम्राटाचा देह ! हा राजा मूर्ख असला पाहिजे’, असे तू म्हणतोस. माझ्या शरीराचा व माझ्या जीवनाचा तुला कळवळा येतो. त्यापेक्षा माझ्या यशरूपी शरीराचे रक्षण का करत नाहीस ? कृपाच करायची, तर माझ्या यशरूपी कायेवर कर. या दृश्य, अन्नमय, जड व क्षुद्र देहाची करुणा करायचे कारण नाही. माझ्या साक्षीने व माझ्या डोळ्यांदेखत नंदिनीची हत्या झाली, तर रघुवंशाची कीर्ती कलंकित होईल. माझ्यावर करुणाच करायची असेल, तर माझा देह भक्षण कर आणि नंदिनीला मुक्त कर. त्यामुळे माझी यशरूपी काया चिरंतन राहील.’’ रघुवंशाचा श्रेष्ठतम सम्राट दिलीप, गायीकरिता तारुण्याने मुसमुसलेल्या स्वशरीराची आहुती द्यायला तत्पर असतो ! सागरापर्यंतच्या सर्व भूमीचा एकमात्र स्वामी, सार्वभौम, हाती घेतलेले कार्य तडीला नेणारा, स्वर्गापर्यंत रथातून यात्रा करणारा, देवराज इंद्राचा सहकारी, क्षत्रियाला योग्य असे विधीनुसार अग्नीहोत्र करणारा, याचकांचे मनोरथ आदरपूर्वक पुरवणारा, अपराध्याला योग्य शासन करणारा, वेळेवर निजणारा, वेळेवर उठणारा, देण्याकरिता-त्यागाकरिताच धन संपादन करणारा, मुखातून असत्य बाहेर पडू नये; म्हणून अत्यंत मोजकेच बोलणारा, विजयेच्छू, ततीकरिताच विवाह करणारा, उत्तरायुष्यात मुनीसारखे वानप्रस्थी जीवन जगणारा आणि अखेरीला योगाभ्यासाने शरीराची खोळ बाजूला सारणारा असा हा भारताचा सार्वभौम सम्राट दिलीप !’ -
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