भारत में गौ महिमा की वास्तविकता
गौ के विषय में हमारा सारा वैदिक साहित्य श्रद्घा और सम्मान से भरा पड़ा है। कई बार तो इस सम्मान व श्रद्घा के भाव को देखकर ऐसा लगता है कि जैसे कुछ अति हो गयी है पर एक विवेकशील व्यक्ति को अपनी आंखें और अपना मस्तिष्क खोलकर ही कुछ पढऩा या समझना चाहिए। किसी व्यक्ति, संस्था, प्राणी, वस्तु या स्थान आदि के विषय में लेखक किस भाव से क्या और क्यों लिख रहा है? पाठक को यह भी ध्यान रखना चाहिए। कहने का अभिप्राय है कि हम यंत्रवत या अंधश्रद्घा के वशीभूत होकर न कुछ पढ़ें और न कुछ समझें। यदि इस भाव से हम कुछ पढ़ेंगे या समझेंगे तो गौमाता को सही संदर्भों और सही अर्थों में समझ सकेंगे।
गौमाता को सही संदर्भों और सही अर्थों में समझने के लिए उसके गुणों और उसकी उपयोगिता को सर्वप्रथम समझना अपेक्षित है। जितना ही हम गाय के गुणों और उसकी उपयोगिता को समझते जाएंगे उतना ही हम यह समझते जाएंगे कि आर्य ग्रंथों में गौ की इतनी अधिक महिमा क्यों वर्णित की गयी है? गौ की महिमा को समझकर ही उसे अवध्या कहा गया है। इस आलेख में हम गौ की महिमा को स्थापित किये गये कुछ ऐसे ही विशेषणों पर चर्चा करना चाहेंगे।
अनाद्या अवध्या गौमाता
ऋग्वेद में गाय को ‘मा गामनागामदितिं वधिष्ट’ कहा गया है। इसका अभिप्राय है कि गाय अदिति अर्थात अविनाशी अमृतत्व का अंश है। मनुष्य को स्वस्थ, हृष्ट पुष्ट और नीरोग रखना, ईश्वरीय प्रेरणा का कार्य है। जिसके लिए ईश्वर ने अनेकों वनस्पतियों व औषधियों की रचना की है, परंतु यदि कोई व्यक्ति अज्ञान से, आलस्य या प्रमाद से उन वनस्पतियों को या औषधियों को अपने प्रयोग में ना ला सके, तो वह गौमाता का पालन-पोषण कर उसके पंचगव्य से भी अपना काम चला सकता है। जिससे वह निरोग रहेगा। ईश्वर का यह अमृतमयी स्वरूप या तो वनस्पतियों या औषधियों में समाया है या फिर गाय माता में समाया है। इसलिए वह ईश्वर के अमृतत्व का प्रतीक होने से अवध्या है, अदिति है। अमृतत्व स्वयं अमृत होकर औरों को भी अमृत होने का मार्ग दिखाता है। इसकी रक्षा से मनुष्य ही नही सभी प्राणियों की रक्षा की जानी संभव है। क्योंकि मनुष्य गाय के पंचगव्य के प्रयोग से अहिंसक बनता है और उसका विवेक जागृत होता है। जिससे वह गाय के प्रति ही नही अपितु समस्त प्राणियों के प्रति भी अहिंसा भाव से भरा रहता है। गाय अवध्या है, इसीलिए उसे अनागा कहा गया है। अघ्न्या का भी यही अर्थ है कि गौमाता अवध्या है। अन्यत्र कहा गया है-
यत्वगस्थितम् पापं देहे तिष्ठति मामके।
प्राशनात् पंचगव्यस्य दहत्वग्नि रिवेन्धनम्।।
अर्थात जो मेरे शरीर की हड्डियों में पाप प्रविष्ट हो गया है, वह सब पंचगव्य के पान करने से उसी प्रकार नष्ट हो जाए जैसे अग्नि सूखी लकडिय़ों को जलाकर भस्म कर देती है।
गायों को तृण खिलाने से पुण्य मिलता है
हमारे देश में लोग धार्मिक रहें और किसी भी स्थिति में उनका नैतिक पतन ना होने पाये, इसके लिए मनुष्य के लिए वर्जित कर्मों को करने से उसे पाप का लगना तथा न करने से पुण्य का मिलना होना बताया जाता है। पाप-पुण्य पर विचार करने से मनुष्य अपने कार्यों पर ध्यान देता है और अपनी भूमिका को भी संतुलित बनाये रखता है।
गाय की सेवा करने को भी लोगों ने पुण्य के साथ जोड़ा है। पुराने समय में कई लोग गांवों में जंगल से किसी न किसी वनस्पति के तृण लाकर गाय को खिलाया करते थे, यह परंपरा अब धीरे-धीरे लुप्त होती जा रही है। वास्तव में यह परंपरा बड़ी ही उपयोगी और परहितकारी थी। घर के खूंटे पर बंधी गाय को जंगल से विभिन्न स्थानों की घास लाकर खिलायी जाती थी, वह भी इसी परंपरा के कारण थी कि गाय को तृण लाकर खिलाने चाहिए, उससे पुण्य मिलता है। इस परंपरा से गाय को विभिन्न वनस्पतियां खाने को मिलती थीं जिनका अंश औषधीय तत्वों के साथ गाय के दूध में जाता था। इन औषधीय तत्वों से गाय का दूध अमृत और नीरोगता प्रदान करने वाला बनता था। इसलिए परंपरा थी कि जंगल से जो कोई भी गांव की ओर आए वह गाय के लिए किसी न किसी जंगली वनस्पति के तृण अपने हाथ में लाये और लाकर किसी के भी घर में बंधी गाय को उन्हें खिला दे।
यह परंपरा भारत के गांव देहात में पिछले 30-35 वर्ष से लुप्त सी होने लगी है। इस परंपरा के चलते गाय के लिए महिलाएं जंगल से घास लाती थीं, जिसे एक स्थान से न लेकर झोली बनाकर विभिन्न स्थानों से लिया जाता था। जिससे एक नही, अपितु कई प्रकार की वनस्पतियां घास के साथ आ जाती थीं। जिसे गाय खाती थी तो उसके दूध में उस वनस्पति का औषधीय गुण आ जाता था। जो कि सभी के लिए उपयोगी होता था। उससे न जाने किस व्यक्ति का भला हो जाता था। इस प्रकार गाय की सेवा से मनुष्य की सेवा अपने आप ही हो जाती थी। यही कारण था कि लोग गाय को तृण खिलाना पुण्य मानते थे। देखिए तो सही कि भारत की गाय को तृण खिलाने की यह परंपरा कितनी दिव्य थी कि व्यक्ति के घर में कोई गाय नही है तो वह पड़ोसी की गाय के लिए ही जंगल से तृण ला रहा है, जबकि उसे पता है कि उस गाय का दूध उसे तो पीना नही है, पर उसे यह पता है कि न जाने इस गाय का दूध पीने से किसका भला हो जाएगा? इसी को कहते हैं-‘नेकी कर दरिया में डाल।’ तब हमारा संपूर्ण समाज ही ऐसा था कि वह नेकी कर दरिया डालने में विश्वास करता था। लोकोपकार करने का हमारे पूर्वजों का कितना उत्तम और पवित्र ढंग था यह।
गौग्रास की परंपरा
गौग्रास खिलाने से भी बताया जाता है कि व्यक्ति को पुण्य लाभ मिलता है। महाभारत में आया है कि जो व्यक्ति एक वर्ष तक स्वयं भोजन करने से पूर्व प्रतिदिन दूसरे की गाय को मुट्ठी भर घास (इसी से अंग्रेजी का ग्रास शब्द बन गया है।) ग्रास केवल गाय के लिए ही प्रयोग होता है। यह किसी अन्य पशु के लिए प्रयोग नही किया जाता। कुछ लोग अपने घर से गाय के आटे को गूंथकर ले आते हैं और उसके लड्डू से बनाकर गाय को देते हैं। गौ का यौगिक अर्थ गतिशील है। कहा गया है कि-गच्छति इति गौ-अर्थात जो चलती है, गतिशील है-वह गौ है। संपूर्ण संसार गति कर रहा है। इसलिए वह गौ रूप है। हमारे विद्वानों की यह निराली प्रवृत्ति रही है कि वह जिस गुण को जिस वस्तु में देखते हैं उस जैसे गुण से विभूषित किसी अन्य वस्तु, व्यक्ति, पदार्थ , प्राणि या विभूति से उसकी तुरंत तुलना कर देते हैं। इससे जहां उनके ज्ञान-गाम्भीर्य का पता चलता है, वहीं ऐसा करने से उनके लेखन में दिव्यता आ जाती है और पाठकों को किसी वस्तु या पदार्थादि का किसी अन्य वस्तु या पदार्थादि से तुलना करने का ढंग आ जाता है।
गाय और संसार की परस्पर तुलना करने से भी ऐसा ही हुआ है। इससे संसार की गतिशीलता को गौ की भांति नमनीय, वंदनीय बनाया गया है। इसका अभिप्राय है कि हम निष्क्रिय ना रहें, जीवन में निरंतर प्रवाहमान और गतिशील रहें। जैसे गाय चौबीस घंटे क्रियाशील रहती है और संसार भी क्षण-क्षण, पल-पल गतिशील है-वैसे ही हम भी गतिशील रहें। इस प्रकार संसार को गौ का प्रतिबिम्ब बताकर विद्वानों ने हमारा ही उपकार किया है। हमसे कहा है कि इस संसार में आकर तुम निष्क्रिय मत हो जाना। ‘चरेवैति-चरेवैति’ इसी से उदभूत होकर हमारा मार्गदर्शन कर रहा है। हमारा आचरण (चरैवेति का ‘चर’ ध्यान देने योग्य है) और चाल चलन, खान-पान (चर=चरना अर्थात भोजन करना) सब ऐसे हों जो हमें ‘चलते रहो-चलते रहो’ का संकेत करते रहें। ऐसा करने से गाय, विश्व और व्यक्ति सभी एक दूसरे के पूरक बनकर उन्नति की ओर बढ़ते चले जाएंगे।
गौ के विषय में हमारा सारा वैदिक साहित्य श्रद्घा और सम्मान से भरा पड़ा है। कई बार तो इस सम्मान व श्रद्घा के भाव को देखकर ऐसा लगता है कि जैसे कुछ अति हो गयी है पर एक विवेकशील व्यक्ति को अपनी आंखें और अपना मस्तिष्क खोलकर ही कुछ पढऩा या समझना चाहिए। किसी व्यक्ति, संस्था, प्राणी, वस्तु या स्थान आदि के विषय में लेखक किस भाव से क्या और क्यों लिख रहा है? पाठक को यह भी ध्यान रखना चाहिए। कहने का अभिप्राय है कि हम यंत्रवत या अंधश्रद्घा के वशीभूत होकर न कुछ पढ़ें और न कुछ समझें। यदि इस भाव से हम कुछ पढ़ेंगे या समझेंगे तो गौमाता को सही संदर्भों और सही अर्थों में समझ सकेंगे।
गौमाता को सही संदर्भों और सही अर्थों में समझने के लिए उसके गुणों और उसकी उपयोगिता को सर्वप्रथम समझना अपेक्षित है। जितना ही हम गाय के गुणों और उसकी उपयोगिता को समझते जाएंगे उतना ही हम यह समझते जाएंगे कि आर्य ग्रंथों में गौ की इतनी अधिक महिमा क्यों वर्णित की गयी है? गौ की महिमा को समझकर ही उसे अवध्या कहा गया है। इस आलेख में हम गौ की महिमा को स्थापित किये गये कुछ ऐसे ही विशेषणों पर चर्चा करना चाहेंगे।
अनाद्या अवध्या गौमाता
ऋग्वेद में गाय को ‘मा गामनागामदितिं वधिष्ट’ कहा गया है। इसका अभिप्राय है कि गाय अदिति अर्थात अविनाशी अमृतत्व का अंश है। मनुष्य को स्वस्थ, हृष्ट पुष्ट और नीरोग रखना, ईश्वरीय प्रेरणा का कार्य है। जिसके लिए ईश्वर ने अनेकों वनस्पतियों व औषधियों की रचना की है, परंतु यदि कोई व्यक्ति अज्ञान से, आलस्य या प्रमाद से उन वनस्पतियों को या औषधियों को अपने प्रयोग में ना ला सके, तो वह गौमाता का पालन-पोषण कर उसके पंचगव्य से भी अपना काम चला सकता है। जिससे वह निरोग रहेगा। ईश्वर का यह अमृतमयी स्वरूप या तो वनस्पतियों या औषधियों में समाया है या फिर गाय माता में समाया है। इसलिए वह ईश्वर के अमृतत्व का प्रतीक होने से अवध्या है, अदिति है। अमृतत्व स्वयं अमृत होकर औरों को भी अमृत होने का मार्ग दिखाता है। इसकी रक्षा से मनुष्य ही नही सभी प्राणियों की रक्षा की जानी संभव है। क्योंकि मनुष्य गाय के पंचगव्य के प्रयोग से अहिंसक बनता है और उसका विवेक जागृत होता है। जिससे वह गाय के प्रति ही नही अपितु समस्त प्राणियों के प्रति भी अहिंसा भाव से भरा रहता है। गाय अवध्या है, इसीलिए उसे अनागा कहा गया है। अघ्न्या का भी यही अर्थ है कि गौमाता अवध्या है। अन्यत्र कहा गया है-
यत्वगस्थितम् पापं देहे तिष्ठति मामके।
प्राशनात् पंचगव्यस्य दहत्वग्नि रिवेन्धनम्।।
अर्थात जो मेरे शरीर की हड्डियों में पाप प्रविष्ट हो गया है, वह सब पंचगव्य के पान करने से उसी प्रकार नष्ट हो जाए जैसे अग्नि सूखी लकडिय़ों को जलाकर भस्म कर देती है।
गायों को तृण खिलाने से पुण्य मिलता है
हमारे देश में लोग धार्मिक रहें और किसी भी स्थिति में उनका नैतिक पतन ना होने पाये, इसके लिए मनुष्य के लिए वर्जित कर्मों को करने से उसे पाप का लगना तथा न करने से पुण्य का मिलना होना बताया जाता है। पाप-पुण्य पर विचार करने से मनुष्य अपने कार्यों पर ध्यान देता है और अपनी भूमिका को भी संतुलित बनाये रखता है।
गाय की सेवा करने को भी लोगों ने पुण्य के साथ जोड़ा है। पुराने समय में कई लोग गांवों में जंगल से किसी न किसी वनस्पति के तृण लाकर गाय को खिलाया करते थे, यह परंपरा अब धीरे-धीरे लुप्त होती जा रही है। वास्तव में यह परंपरा बड़ी ही उपयोगी और परहितकारी थी। घर के खूंटे पर बंधी गाय को जंगल से विभिन्न स्थानों की घास लाकर खिलायी जाती थी, वह भी इसी परंपरा के कारण थी कि गाय को तृण लाकर खिलाने चाहिए, उससे पुण्य मिलता है। इस परंपरा से गाय को विभिन्न वनस्पतियां खाने को मिलती थीं जिनका अंश औषधीय तत्वों के साथ गाय के दूध में जाता था। इन औषधीय तत्वों से गाय का दूध अमृत और नीरोगता प्रदान करने वाला बनता था। इसलिए परंपरा थी कि जंगल से जो कोई भी गांव की ओर आए वह गाय के लिए किसी न किसी जंगली वनस्पति के तृण अपने हाथ में लाये और लाकर किसी के भी घर में बंधी गाय को उन्हें खिला दे।
यह परंपरा भारत के गांव देहात में पिछले 30-35 वर्ष से लुप्त सी होने लगी है। इस परंपरा के चलते गाय के लिए महिलाएं जंगल से घास लाती थीं, जिसे एक स्थान से न लेकर झोली बनाकर विभिन्न स्थानों से लिया जाता था। जिससे एक नही, अपितु कई प्रकार की वनस्पतियां घास के साथ आ जाती थीं। जिसे गाय खाती थी तो उसके दूध में उस वनस्पति का औषधीय गुण आ जाता था। जो कि सभी के लिए उपयोगी होता था। उससे न जाने किस व्यक्ति का भला हो जाता था। इस प्रकार गाय की सेवा से मनुष्य की सेवा अपने आप ही हो जाती थी। यही कारण था कि लोग गाय को तृण खिलाना पुण्य मानते थे। देखिए तो सही कि भारत की गाय को तृण खिलाने की यह परंपरा कितनी दिव्य थी कि व्यक्ति के घर में कोई गाय नही है तो वह पड़ोसी की गाय के लिए ही जंगल से तृण ला रहा है, जबकि उसे पता है कि उस गाय का दूध उसे तो पीना नही है, पर उसे यह पता है कि न जाने इस गाय का दूध पीने से किसका भला हो जाएगा? इसी को कहते हैं-‘नेकी कर दरिया में डाल।’ तब हमारा संपूर्ण समाज ही ऐसा था कि वह नेकी कर दरिया डालने में विश्वास करता था। लोकोपकार करने का हमारे पूर्वजों का कितना उत्तम और पवित्र ढंग था यह।
गौग्रास की परंपरा
गौग्रास खिलाने से भी बताया जाता है कि व्यक्ति को पुण्य लाभ मिलता है। महाभारत में आया है कि जो व्यक्ति एक वर्ष तक स्वयं भोजन करने से पूर्व प्रतिदिन दूसरे की गाय को मुट्ठी भर घास (इसी से अंग्रेजी का ग्रास शब्द बन गया है।) ग्रास केवल गाय के लिए ही प्रयोग होता है। यह किसी अन्य पशु के लिए प्रयोग नही किया जाता। कुछ लोग अपने घर से गाय के आटे को गूंथकर ले आते हैं और उसके लड्डू से बनाकर गाय को देते हैं। गौ का यौगिक अर्थ गतिशील है। कहा गया है कि-गच्छति इति गौ-अर्थात जो चलती है, गतिशील है-वह गौ है। संपूर्ण संसार गति कर रहा है। इसलिए वह गौ रूप है। हमारे विद्वानों की यह निराली प्रवृत्ति रही है कि वह जिस गुण को जिस वस्तु में देखते हैं उस जैसे गुण से विभूषित किसी अन्य वस्तु, व्यक्ति, पदार्थ , प्राणि या विभूति से उसकी तुरंत तुलना कर देते हैं। इससे जहां उनके ज्ञान-गाम्भीर्य का पता चलता है, वहीं ऐसा करने से उनके लेखन में दिव्यता आ जाती है और पाठकों को किसी वस्तु या पदार्थादि का किसी अन्य वस्तु या पदार्थादि से तुलना करने का ढंग आ जाता है।
गाय और संसार की परस्पर तुलना करने से भी ऐसा ही हुआ है। इससे संसार की गतिशीलता को गौ की भांति नमनीय, वंदनीय बनाया गया है। इसका अभिप्राय है कि हम निष्क्रिय ना रहें, जीवन में निरंतर प्रवाहमान और गतिशील रहें। जैसे गाय चौबीस घंटे क्रियाशील रहती है और संसार भी क्षण-क्षण, पल-पल गतिशील है-वैसे ही हम भी गतिशील रहें। इस प्रकार संसार को गौ का प्रतिबिम्ब बताकर विद्वानों ने हमारा ही उपकार किया है। हमसे कहा है कि इस संसार में आकर तुम निष्क्रिय मत हो जाना। ‘चरेवैति-चरेवैति’ इसी से उदभूत होकर हमारा मार्गदर्शन कर रहा है। हमारा आचरण (चरैवेति का ‘चर’ ध्यान देने योग्य है) और चाल चलन, खान-पान (चर=चरना अर्थात भोजन करना) सब ऐसे हों जो हमें ‘चलते रहो-चलते रहो’ का संकेत करते रहें। ऐसा करने से गाय, विश्व और व्यक्ति सभी एक दूसरे के पूरक बनकर उन्नति की ओर बढ़ते चले जाएंगे।
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