गौओं के दान की प्रथा
गायों के दान की प्रथा वैदिक समय से चली आ रही है। वैदिक काल में गाय का दान करने वाले को सम्मान की दृष्टि से देखा जाता था। दान का अवसर पाकर धनिक लोगों को आनन्द होता था। ‘मैं गाय का दान करूँगा’- इस प्रकार बोलना ही शिष्ट पुरुषों की परिपाटी थी। ‘मैं गाय का दान नहीं करूँगा’- इस प्रकार कोई नहीं बोलता था। गाय का दान करने वाले को रोकना बड़ा भारी पाप समझा जाता था।
राजा तथा देवता गौ का दान करते थे। घर पर आए हुए अतिथि को गौ का दूध पीने के लिए अवश्य दिया जाता था। यज्ञ आदि के अवसरों पर ब्राह्मणों को दक्षिणा के रूप में गौएँ दी जाती थीं। रोगी के उपयोग हेतु, जिससे उसका उपचार हो सके, गाय दान में दी जाती थी, ताकि वह गाय का दूध पीकर रोगमुक्त हो सके।
वैदिक काल में आशीर्वाद के रूप में भी ‘तुझे उत्तम गौ प्राप्त हो’, यह कहने की परम्परा थी। दान में उत्तम, दुधारू व तघ गौ के ही देने की विधान है। दाता को चाहिए कि वह तरूण गाय को बछड़े सहित दान दे। धनवान पुरुष का मापदण्ड उसके पास होने वाली गायों की संख्या थी। गायों की संख्या के अनुसार, गाय-पालकों को उपाधि दी जाती थी। वैदिक काल में गोधन को श्रेष्ठ धन माना गया था।
वैदिक काल में किसी भी प्रकार से गाय को कष्ट पहुँचाना, महापाप समझा जाता था। गायों की रक्षा के अनेक उदाहरण शास्त्रों में हैं। गाय का मान माँ से भी ऊँचा माना जाता था। सभी पुरुष गायों का आशीर्वाद प्राप्त करने की होड़ में लगे रहते थे। वास्तव में, गाय उनके जीवन का अभिन्न अंग होती थी। गाय के बिना जीवन की कल्पना भी नहीं की जाती थी। वैदिक काल में गाय जीवन का आधार थी।
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