सभी गोभग्त गोप्रेमी बन्धुओ से मेरा निवेदन है की कर्प्या इसे ज्यादा से ज्यादा संख्या में शेयर करे और अपने गोव्त्श होने का फर्ज निभाए...
जय गोमाता जय गोपाल...
मेरे मन में गाय के प्रति जो पूर्व स्थापित श्रद्धा थी वह श्रद्धा अब लौहवत अर्थात् लोहे के समान दृढ़ हो गई है।
संस्कार रूप में यह श्रद्धा भारतवासियों को प्राप्त हुई।
इस संस्कार का मूल वाक्य है - ‘गाय हमारी माता है।’
श्रीकृष्ण जी के बाल्यकाल की एक संक्षिप्त घटना है।
एक दिन बालक कृष्ण अपनी माँ से बोले, ‘‘माता मैं गायों का नौकर बनकर सेवा करना चाहता हूँ और मैं गाय चराने के लिए उनके साथ जाऊँगा।’’
माँ ने इसे आपत्तिजनक न समझते हुए स्वीकृति दे दी।
माँ ने कृष्ण को कहा कि वह उसके लिए रेशमी जूते बनवाकर देगी जिससे उसे गाय चराते समय कष्ट न हो।
इस पर बालक कृष्ण बोले, ‘‘माँ तू मेरे लिए जूते बनवा सकती तो मेरी गाय माता के लिए भी बनवा दो।’’
इस पर मइया ने कहा कि तू छोटा सा बालक है और तेरे छोटे- छोटे कोमल पाँव हैं, जबकि गाय तो पशु है, वह जूते कैसे पहन सकती है?
इस पर कृष्ण जी बिगड़ पड़े कि मइया ने मेरी गाय माता को पशु क्यों कह दिया?
अन्ततः माँ ने हार मान ली।
इसी प्रकरण में अब कृष्ण जी यह कहने लगे, ‘‘मैं गाय चराने के लिए डंडा लेकर नहीं जाऊँगा, क्योंकि गाय माता को डंडे से मैं नहीं हाँक सकता।
मैं तो सुरीली बाँसुरी बजाऊँगा और मेरे भाव और बाँसुरी की ध्वनि के पीछे मेरी माता स्वतः आती जायेंगी।’’
इस छोटे से प्रकरण से हम यह आंकलन कर सकते हैं कि यह संस्कारवश जन्म- जन्मान्तरों से चलती आई श्रद्धा ही थी जिसने बालक कृष्ण के मन में बाल्यावस्था मेंही गाय माता के प्रति इतने भाव भर रखे थे।
गाय वास्तव में किसी एक आदमी के लिए नहीं, किसी एक राष्ट्र के लिए नहीं, बल्कि समूचे विश्व के लिए भौतिक कल्याण का विशाल स्रोत है।
गाय माता की रक्षा हमारा कानूनी और संवैधानिक अधिकार है और समाज के किसी भी वर्ग को या किसी भी सरकार को यह अधिकार नहीं है कि हमें इस अधिकार से वंचित किया जाये।
सर्वोच्च न्यायालय ने भी इस बात को खुले रूप से घोषित किया है कि गाय की हत्या करना किसी वर्ग का धार्मिक अधिकार नहीं है।
गायें हमारी हैं और हम गायों के हैं, गाय बचेगी तो राष्ट्र बचेगा, गाय की हत्या का अर्थ है राष्ट्र की हत्या।
गाय माता के बल पर ही समाज का आध्यात्मिक उत्थान भी सम्भव है, अन्यथा नहीं।
गाय माता से भौतिक लाभ लेने के बावजूद भी हमें इस आध्यात्मिक पथ पर भी स्वयं को चलाना पड़ेगा।
मैं किसी भी कीमत पर गाय माता की रक्षा के पथ से विचलित नहीं हो सकती , पथ भ्रष्ट नहीं हो सकती।
गाय माता की रक्षा मेरे लिए कोई सांसारिक व्यापारिक कार्य नहीं है।
मुझे यह विश्वास है कि गाय माता की रक्षा से समाज के समस्त वर्गों का ही नहीं अपितु समस्त जीव-जन्तु और वनस्पति सम्पदा का भी कल्याण ही कल्याण है।
इसलिए गाय माता की रक्षा को हमें सबसे अग्रणी राष्ट्रीय कर्त्तव्य समझना चाहिए।
जय गोमाता जय गोपाल...
मेरे मन में गाय के प्रति जो पूर्व स्थापित श्रद्धा थी वह श्रद्धा अब लौहवत अर्थात् लोहे के समान दृढ़ हो गई है।
संस्कार रूप में यह श्रद्धा भारतवासियों को प्राप्त हुई।
इस संस्कार का मूल वाक्य है - ‘गाय हमारी माता है।’
श्रीकृष्ण जी के बाल्यकाल की एक संक्षिप्त घटना है।
एक दिन बालक कृष्ण अपनी माँ से बोले, ‘‘माता मैं गायों का नौकर बनकर सेवा करना चाहता हूँ और मैं गाय चराने के लिए उनके साथ जाऊँगा।’’
माँ ने इसे आपत्तिजनक न समझते हुए स्वीकृति दे दी।
माँ ने कृष्ण को कहा कि वह उसके लिए रेशमी जूते बनवाकर देगी जिससे उसे गाय चराते समय कष्ट न हो।
इस पर बालक कृष्ण बोले, ‘‘माँ तू मेरे लिए जूते बनवा सकती तो मेरी गाय माता के लिए भी बनवा दो।’’
इस पर मइया ने कहा कि तू छोटा सा बालक है और तेरे छोटे- छोटे कोमल पाँव हैं, जबकि गाय तो पशु है, वह जूते कैसे पहन सकती है?
इस पर कृष्ण जी बिगड़ पड़े कि मइया ने मेरी गाय माता को पशु क्यों कह दिया?
अन्ततः माँ ने हार मान ली।
इसी प्रकरण में अब कृष्ण जी यह कहने लगे, ‘‘मैं गाय चराने के लिए डंडा लेकर नहीं जाऊँगा, क्योंकि गाय माता को डंडे से मैं नहीं हाँक सकता।
मैं तो सुरीली बाँसुरी बजाऊँगा और मेरे भाव और बाँसुरी की ध्वनि के पीछे मेरी माता स्वतः आती जायेंगी।’’
इस छोटे से प्रकरण से हम यह आंकलन कर सकते हैं कि यह संस्कारवश जन्म- जन्मान्तरों से चलती आई श्रद्धा ही थी जिसने बालक कृष्ण के मन में बाल्यावस्था मेंही गाय माता के प्रति इतने भाव भर रखे थे।
गाय वास्तव में किसी एक आदमी के लिए नहीं, किसी एक राष्ट्र के लिए नहीं, बल्कि समूचे विश्व के लिए भौतिक कल्याण का विशाल स्रोत है।
गाय माता की रक्षा हमारा कानूनी और संवैधानिक अधिकार है और समाज के किसी भी वर्ग को या किसी भी सरकार को यह अधिकार नहीं है कि हमें इस अधिकार से वंचित किया जाये।
सर्वोच्च न्यायालय ने भी इस बात को खुले रूप से घोषित किया है कि गाय की हत्या करना किसी वर्ग का धार्मिक अधिकार नहीं है।
गायें हमारी हैं और हम गायों के हैं, गाय बचेगी तो राष्ट्र बचेगा, गाय की हत्या का अर्थ है राष्ट्र की हत्या।
गाय माता के बल पर ही समाज का आध्यात्मिक उत्थान भी सम्भव है, अन्यथा नहीं।
गाय माता से भौतिक लाभ लेने के बावजूद भी हमें इस आध्यात्मिक पथ पर भी स्वयं को चलाना पड़ेगा।
मैं किसी भी कीमत पर गाय माता की रक्षा के पथ से विचलित नहीं हो सकती , पथ भ्रष्ट नहीं हो सकती।
गाय माता की रक्षा मेरे लिए कोई सांसारिक व्यापारिक कार्य नहीं है।
मुझे यह विश्वास है कि गाय माता की रक्षा से समाज के समस्त वर्गों का ही नहीं अपितु समस्त जीव-जन्तु और वनस्पति सम्पदा का भी कल्याण ही कल्याण है।
इसलिए गाय माता की रक्षा को हमें सबसे अग्रणी राष्ट्रीय कर्त्तव्य समझना चाहिए।
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