बुधवार, 23 अक्टूबर 2013

गाय पुराने समाज के लिये पशु नहीं था...

 वह हमारी धरती पर खड़ी जीवित देवशक्ति थी...
बल्कि समस्त देवताओं की आभा लिये उन्हीं अव्यक्त
सत्ताओं की प्रतिनिधि थी। उस गाय को काटने-
मारने के कारण ही यह भारत राष्ट्र इतनी मेधा-
प्रतिभा और संसाधनों, श्री-समृद्धि के स्रोतों के
बावजूद यदि गरिब तो यह उसी गो-माता का शाप
है.हमारा सहस्त्रों वर्षो का चिन्तन, हमारे योगी,
तापस, विद्यायें सब लुप्त हो गये... और जो कबाड़ शेष
बचा है वही समाज के सब मंचों पर खड़ा होकर राश्ट्र
का प्रतिनिधि बन बैठा है। प्रतिभा अपमानित है,
जुगाड़ और जातियों के बैल राष्ट्र को विचार के
सभी स्तरों पर हांक रहे हैं, गाय को काटने वालों ने
भारतीय समाज की आत्मा को ही बीच से काट
डाला है गाय के कटने पर हमारा ‘शीश’ कट कर गिर
पड़ा है. हम जीवित हिन्दू उस गाय के बिना कबन्ध हैं,
इस कबन्ध के लिये ही मारा-मारी में जुटे हैं अपराध,
भ्रष्टाचार और राजनीति का दलिद्दर चेहरा ऐसे
ही कबन्ध रूपी समाज में चल सकता था... वरना आज
यदि उस गो-माता के सींग का भय होता...
तो आपकी गृहलक्ष्मी आपको बताती कि भ्रष्टाचार
और दलिद्दर विचारों के साथ आप आंगन में कैसे प्रवेश
कर सकते हैं ।
जब कोई हमारी माँ को इस बर्बरता से काट से सकते है
तो हम उनका सर क्यो कलम नहीं कर सकते
जो हमारी जनंनी को हमसे छिनने की कोशिश कर
रहा है। आखिर कब तक हम यूँ ही देखते रहेंगे , कब तक ?
कहीं ऐसा ना हो कि बहुत देर हो चुकी हो, अब समय आ
गया है उठ खड़े होने का। और इस लड़ाई में सबसे आगे
हिन्दुओं को होना चाहिए, क्योंकी ये खिलवाड़ हमारे
अस्मत के साथ हो रही है। हमे किसी और का इन्तजार
नहीं करना चाहिए। यूरोप में मांस की अत्यधिक मांग
होने के कारण, अंग्रेज विचारक चील-कौवों की तरह
गाय के चारों ओर मंडराने लगे। गो-धन को समाप्त
करने के लिये उन्होंने अंग्रेजी स्कूलों से शिक्षा प्राप्त
नीति निर्धारकों, इन फाइल-माफियाओं
को फैक्ट्री दर्शन के पाठ पढ़ाये... अनाज
की कमी का भय दिखाकर रासायनिक-खाद
की फैक्ट्रियां लगीं, दूध की कमी का रोना रोकर दूध
के डिब्बे फैक्ट्रियों में तैयार होने लगे, घी, मक्खन
सभी कुछ डिब्बा बन्द... ताकि गो-मांस को निर्बाध
निर्यात किया जा सके शहरों में रहने वाले मध्यमवर्ग
ने इन उत्पादों की चमक के कारण गाय के शरीर से आंखें
फेरलीं । वह गोबर, गोमूत्र को भूलता चला गया और
देश में गाय सहित हजारों पशुओं को काटने वाले
कत्लगाह खुलने पर ऋषियों के पुत्र एक शब्द नहीं बोले.
वे इन दूध के डिब्बों से एक चम्मच पाउडर निकाल कर
चाय की चुस्कियां भर कर अंग्रेजी अखबार पढ़ते रहे ।
यूरोप से आयातित मांसल सभ्यता के अचार पर चटकारें
मारते रहे , और गो-माता हमारे जीवन से अदश्य
हो गयी क्योंकि गोबर की जगह
यूरिया की बोरियों ने ले ली, बैल
की घन्टियों की जगह कृशि जीवन को आक्रान्त करने
वाले ट्रैक्टर आ गये तर्क है कि अनाज
की कमी पूरी हो गयी ।. यदि हम यूरिया के कारण
आत्म निर्भर हैं तो हमारा किसान
आत्महत्या क्यों कर रहा है? गेहूँ आयात
क्यों किया जा रहा है...? आप के बन्दर
मुखी बुद्धिजीवी जब मंहगें होटलों में बैठकर ये
जो ‘जैविक-जैविक’ का जप करते रहे हैं, क्या उनके
गालों पर झापड़ रसीद की जाय...? यूरोप-
अमेरिका कब तक हमें मूर्ख बनायेगा...?
हमारी ही गायों को उबाल कर खाने वाले ये दैत्य, हमें
ही प्रकृति से जुड़ने की शिक्षायें देते हैं, खेती-जंगल-जल
से पवित्र सम्बन्ध रखने वाले भारतीय समाज की ऐसी-
तैसी करके भाई लोग पर्यावरण पर उस समाज
को शिक्षायें देते हैं। जिनके जीवन में ‘गाय’ की पूछ
पकड़े बिना मुक्ति की कामना नहीं, पेड़ जिनके
धार्मिक-चिह्न है, नदियाँ जिनकी मां हैं, जहाँ घाटों,
नदियों, गायों के व्यक्तियों की तरह नाम हैं,
ताकि उनके न रहने पर, समाज में
उनकी स्मृति बनी रहे, उस वृद्ध और घाघ समाज
को सेमिनारों में पाठ पढाये जा रहे हैं... वो भी हमारे
ही खर्चे पर... हद है। गो-माता जब से पशु
बनी तभी से हम भारतीयों का समाज भी कबन्ध
हो गया है गाय, इस भौतिक जगत और अव्यक्त सत्ता के
बीच खड़ा जीवित माध्यम है, उस विराट के समझने
का प्रवेषद्वार है जो लोग, जो सभ्यतायें, जो धर्म,
गाय को मार-काट कर खा-पका रहे हैं, वे प्रभु और
अपने बीच के माध्यम को जड़ बना रहे हैं। वे जीवित
धर्म का ध्वंश कर रहे हैं, अब चाहे वे धर्म के नाम पर
जितनी बड़ी अट्टालिकायें गुंबद बना लें, वे
परमात्मा की कृपा से तब तक वंचित रहेंगें, जब तक वे
गाय को अध्यात्मिक दृश्टि से नहीं देखेगें वैसे
विटामिन, प्रोटीन और पौश्टिकता से भरे तो कई
डिब्बे, और कैप्सूल बाजार में उपलब्ध हैं।
यदि ऋषियों ने भौतिक-रासायनिक गुणों के कारण
गाय को पूजनीय माना होता, तो हिन्दू आज इन दूध के
डिब्बों, कैप्सूलों की भी पूजा कर रहा होता विज्ञान
वही नहीं है जो अमेरिका में है, विज्ञान का नब्बे
प्रतिशत तो अभी अव्यक्त है, अविश्कृत होना है, हमने
अन्तर्यात्रायें कर के उसकी झलक सभ्य संसार
को दिखाई थी, असभ्यों ने वो समस्त पोथी-पुस्तक
ही जला दिये... गाय बची है... उस माता की पूंछ
ही वह आखिरी आशा है जिसे पकड़ कर हम
पुनः महाविराट सत्ता का अनावरण कर सकते हैं


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