जय गौ माता----------- -- जीवनदान-------- ---(लेखक - वैध पंचानन के० के० श्रीनिवासाचार्य ) -----------
गोसेवा के चमत्कार (सच्ची घटनाएँ
स० १९९१ का आषाढ़ मास था | नोहर (बीकानेर) से लगभग ढेड मील डालूराम महर्षि का जोहंड (तालाब) है | पन्द्रह दिन पहले कुछ वर्षा हुई थी, जिसक कुछ कीचड अवशेष था | एक प्यासी गौ जल की इच्छा से जोहंड में घुसी, परन्तु कीचड़ में घुटनों तक डूब गयी | गौ वृद्धा तो थी ही, निकलने के प्रयास से बेहद थक ही गयी | खड़ा रहना दूभर हो गया | बैठकर कीचड में धसँ गयी |
सूर्य छिप चला था, जलशून्य जलाशय के पास भला कौन आता | कीच में धँसी गौ मृत्युक्षण की प्रतीक्षा में थी | अर्धरात्रि में एक हलकी सी वृष्टि से वह क्षुद्र जलाशय भर गया | गौ की दशा अत्यंत
दयनीय हो चुकी थी | जल के बाहर उसका सीर्फ सींग और ऊध्रवमुख आधे कान दिखायी पड़ते थे | प्रात: रुघा सुनार से खेत से लौटकर यह समाचार डूँगरमल तिवाड़ी से कहा | बस ! कहने भर के देर थी
वह युवक फ़ौरन तैयार हो गया और तुड़ी, रस्सी, बाँस और कुछ आदमी लेकर शीघ्र ही घटनास्थल पर पंहुँचा | नालों के द्वारा अब भी जोहड़ में जल आ रहा था - साथ ही गौ की दशा भी गिर रही थी |
गौ-प्रेमी इसे देख न सका, फ़ौरन ही कपडे उतार अपने साथियों सहित कूद पढ़ा और बात-की-बात में बांसों पर गौ को बहार निकल लाया | गौ खड़ी रहने एवं चलने फिरने में सर्वथा असमर्थ थी |
तुड़ी दी गयी | फिर छकड़े में डाल कर उसे स्थानीय गौशाला में भिजवाया गया | १५ दिन तक बराबर उसकी निगरानी राखी गयी | गौ चंगी हो गयी | पर दो मास बाद वह पशु सम्बन्धी रोग से मर गयी |
इसी वर्ष फा० शु० ९ को डूंगरमल सरदारशहर के पास देवातसर गया और लौटते वक्त अपने मामा हेतराम के पास चुरू उतर गया | १२ को उसे १०५ ज्वर हो गया, साथ में वायु का प्रचण्ड कोप भी था |
उसने अपने मामा से घरवालों को सूचना देने के लिए भी कहा था, पर उन्होंने परवा न की | इधर उनके बड़े भाई के मन में खलबली मची के देवतासर से लौटने का समाचार तो मिल चूका; फिर
क्या कारण की डूँगर अभी तक नहीं पंहुँचा |
हितैषी चित बहुधा अशुभचिन्तक होता है, आखिर भ्रातृ-प्रेम में व्याकुल होकर गाड़ी में चल पड़े | रस्ते में चुरू इसलिए उतर गए की मामा से शायद डूँगर का पता मिल जाय | डूंगर वहाँ रोगशय्या पर मिला | वैध विद्याधर मांडावेवाले को दीखलाया गया, भयंकर सन्निपात और डबल निमोनिया कायम किया | बड़ी तत्परता से चिकत्सा आरम्भ हुई | सेवा-शुश्रुषा में कोर-कसर न थी, परन्तु रोगी की दशा प्रतिपल गिरती जा रही थी | चै० कृ० ६ को वैधजी ने खुले शब्दों में कह दिया - आज की रात खतरनाक है, सचेष्ट रहकर दवा देते रहना |
रोगी के भाई बद्रीनारायण के धैर्य का पूल टूट चूका था | रोगी की दशा स्पष्ट थी - शरीर बर्फ के समान शीतल था, ह्रदय में थोड़ी धडकन शेष थी, काम ख़तम सा था | बेचारा बद्रीनारायण परिवारशून्य धर्मशाला की कोठरी में म्रियमांण भाई के गले लग-लगकर बेहाल हो रहा था | दो-तीन दिन से कुछ खाया नहीं था | आँखे फूल गयी थी, गला छिल गया था, शरीर टूट रहा था ; कहीं चैन न था | डूंगरमल तो बेचारा अनन्त शयन की तरफ बढ़ रहा था ; उसे क्या पता की उसका भाई बिलख-बिलखकर करुण विलाप कर रहा है |
ब्राह्ममुहूर्त है | स्वप्न नहीं, जंजाल नहीं | डूंगरमॉल को प्रत्यक्ष दिखायी दिया की वही गौ, जिसको नव मास पूर्व उसने जोहड़ के कीच से निकाला था, खड़ी कह रही है - 'डूंगर ! एक दिन तुमने
मुझको उबारा था, आज मैं तुम्हे उबार रही हूँ | अब तुम्हारा रोग समाप्त हो गया है - तुम्हारे शरीर को कोई खतरा नहीं है |' गौ अदृश्य हो गयी | डूंगर को भी ज्ञान-संचार हो गया | मुझे मालूम हुआ
की उसका भाई उसके लिए बेहाल हो रहा है | परन्तु इन्द्रियां जड हो गयी थीं | ज्ञानेन्द्रियों अथवा कर्मेन्द्रियों से किसी भी तरह अपने भाई को सांत्वना देबे में वह असमर्थ था |
कुछ देर बाद उसने आँखे खोली और इशारों से समझना शुरू किया | यथाकिंचित अपना मनोगत भाव कह डाला | प्रात: वैध जी आ गए | अपने रोगी के इस अवस्था में मिलने की उन्हें बिलकुल आशा नहीं थी
| रात्रि का वृतान्त उनसे भी कही ! वे आस्तिक विचार के मनुष्य थे, बात जच गयी | रोगी का रोग तो रात को ही नष्ट हो चूका था, पथ्य-प्रदान में दो-तीन दिन लगे; फिर दोनों नोहर लौट गए |
गोसेवा के चमत्कार (सच्ची घटनाएँ), संपादक - हनुमानप्रसाद पोद्दार, पुस्तक कोड ६५१, गीताप्रेस गोरखपुर
गोसेवा के चमत्कार (सच्ची घटनाएँ
स० १९९१ का आषाढ़ मास था | नोहर (बीकानेर) से लगभग ढेड मील डालूराम महर्षि का जोहंड (तालाब) है | पन्द्रह दिन पहले कुछ वर्षा हुई थी, जिसक कुछ कीचड अवशेष था | एक प्यासी गौ जल की इच्छा से जोहंड में घुसी, परन्तु कीचड़ में घुटनों तक डूब गयी | गौ वृद्धा तो थी ही, निकलने के प्रयास से बेहद थक ही गयी | खड़ा रहना दूभर हो गया | बैठकर कीचड में धसँ गयी |
सूर्य छिप चला था, जलशून्य जलाशय के पास भला कौन आता | कीच में धँसी गौ मृत्युक्षण की प्रतीक्षा में थी | अर्धरात्रि में एक हलकी सी वृष्टि से वह क्षुद्र जलाशय भर गया | गौ की दशा अत्यंत
दयनीय हो चुकी थी | जल के बाहर उसका सीर्फ सींग और ऊध्रवमुख आधे कान दिखायी पड़ते थे | प्रात: रुघा सुनार से खेत से लौटकर यह समाचार डूँगरमल तिवाड़ी से कहा | बस ! कहने भर के देर थी
वह युवक फ़ौरन तैयार हो गया और तुड़ी, रस्सी, बाँस और कुछ आदमी लेकर शीघ्र ही घटनास्थल पर पंहुँचा | नालों के द्वारा अब भी जोहड़ में जल आ रहा था - साथ ही गौ की दशा भी गिर रही थी |
गौ-प्रेमी इसे देख न सका, फ़ौरन ही कपडे उतार अपने साथियों सहित कूद पढ़ा और बात-की-बात में बांसों पर गौ को बहार निकल लाया | गौ खड़ी रहने एवं चलने फिरने में सर्वथा असमर्थ थी |
तुड़ी दी गयी | फिर छकड़े में डाल कर उसे स्थानीय गौशाला में भिजवाया गया | १५ दिन तक बराबर उसकी निगरानी राखी गयी | गौ चंगी हो गयी | पर दो मास बाद वह पशु सम्बन्धी रोग से मर गयी |
इसी वर्ष फा० शु० ९ को डूंगरमल सरदारशहर के पास देवातसर गया और लौटते वक्त अपने मामा हेतराम के पास चुरू उतर गया | १२ को उसे १०५ ज्वर हो गया, साथ में वायु का प्रचण्ड कोप भी था |
उसने अपने मामा से घरवालों को सूचना देने के लिए भी कहा था, पर उन्होंने परवा न की | इधर उनके बड़े भाई के मन में खलबली मची के देवतासर से लौटने का समाचार तो मिल चूका; फिर
क्या कारण की डूँगर अभी तक नहीं पंहुँचा |
हितैषी चित बहुधा अशुभचिन्तक होता है, आखिर भ्रातृ-प्रेम में व्याकुल होकर गाड़ी में चल पड़े | रस्ते में चुरू इसलिए उतर गए की मामा से शायद डूँगर का पता मिल जाय | डूंगर वहाँ रोगशय्या पर मिला | वैध विद्याधर मांडावेवाले को दीखलाया गया, भयंकर सन्निपात और डबल निमोनिया कायम किया | बड़ी तत्परता से चिकत्सा आरम्भ हुई | सेवा-शुश्रुषा में कोर-कसर न थी, परन्तु रोगी की दशा प्रतिपल गिरती जा रही थी | चै० कृ० ६ को वैधजी ने खुले शब्दों में कह दिया - आज की रात खतरनाक है, सचेष्ट रहकर दवा देते रहना |
रोगी के भाई बद्रीनारायण के धैर्य का पूल टूट चूका था | रोगी की दशा स्पष्ट थी - शरीर बर्फ के समान शीतल था, ह्रदय में थोड़ी धडकन शेष थी, काम ख़तम सा था | बेचारा बद्रीनारायण परिवारशून्य धर्मशाला की कोठरी में म्रियमांण भाई के गले लग-लगकर बेहाल हो रहा था | दो-तीन दिन से कुछ खाया नहीं था | आँखे फूल गयी थी, गला छिल गया था, शरीर टूट रहा था ; कहीं चैन न था | डूंगरमल तो बेचारा अनन्त शयन की तरफ बढ़ रहा था ; उसे क्या पता की उसका भाई बिलख-बिलखकर करुण विलाप कर रहा है |
ब्राह्ममुहूर्त है | स्वप्न नहीं, जंजाल नहीं | डूंगरमॉल को प्रत्यक्ष दिखायी दिया की वही गौ, जिसको नव मास पूर्व उसने जोहड़ के कीच से निकाला था, खड़ी कह रही है - 'डूंगर ! एक दिन तुमने
मुझको उबारा था, आज मैं तुम्हे उबार रही हूँ | अब तुम्हारा रोग समाप्त हो गया है - तुम्हारे शरीर को कोई खतरा नहीं है |' गौ अदृश्य हो गयी | डूंगर को भी ज्ञान-संचार हो गया | मुझे मालूम हुआ
की उसका भाई उसके लिए बेहाल हो रहा है | परन्तु इन्द्रियां जड हो गयी थीं | ज्ञानेन्द्रियों
कुछ देर बाद उसने आँखे खोली और इशारों से समझना शुरू किया | यथाकिंचित अपना मनोगत भाव कह डाला | प्रात: वैध जी आ गए | अपने रोगी के इस अवस्था में मिलने की उन्हें बिलकुल आशा नहीं थी
| रात्रि का वृतान्त उनसे भी कही ! वे आस्तिक विचार के मनुष्य थे, बात जच गयी | रोगी का रोग तो रात को ही नष्ट हो चूका था, पथ्य-प्रदान में दो-तीन दिन लगे; फिर दोनों नोहर लौट गए |
गोसेवा के चमत्कार (सच्ची घटनाएँ), संपादक - हनुमानप्रसाद पोद्दार, पुस्तक कोड ६५१, गीताप्रेस गोरखपुर
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